रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-50


मूल स्लोकः

बुध्दियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।




English translation by Swami Sivananda
2.50 Endowed with wisdom (evenness of mind), one casts off in this life both good and evil deeds; therefore, devote thyself to Yoga; Yoga is skill in action.


English commentary by Swami Sivananda
2.50 बुद्धियुक्तः endowed with wisdom, जहाति casts off, इह in this life, उभे both, सुकृतदुष्कृते good and evil deeds, तस्मात् therefore, योगाय to Yoga, युज्यस्व devote thyself, योगः Yoga, कर्मसु in actions, कौशलम् skill.Commentary: Work performed with motive towards fruits only can bind a man. It will bring the fruits and the performer of the action will have to take birth again in this mortal world to enjoy them. If work is performed with evennes of mind (the Yoga of wisdom, i.e., united to pure Buddhi, intelligence or reason) with the mind resting in the Lord, it will not bind him; it will not bring any fruit; it is no work at all. Actions which are of a binding nature lose that nature when performed with equanimity of mind, or poised reason. The Yogi of poised reason attributes all actions to the Divine Actor within (Isvara or God).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है ।।2.50।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते -- समतायुक्त मनुष्य जीवित अवस्थामें ही पुण्य-पापका त्याग कर देता है अर्थात् उसको पुण्य-पाप नहीं लगते, वह उनसे रहित हो जाता है। जैसे संसारमें पुण्य-पाप होते ही रहते हैं, पर सर्वव्यापी परमात्माको वे पुण्य-पाप नहीं लगते, ऐसे ही जो समतामें निरन्तर स्थित रहता है, उसको पुण्य-पाप नहीं लगते (गीता 2। 38)।समता एक ऐसी विद्या है, जिससे मनुष्य संसारमें रहता हुआ ही संसारसे सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है। जैसे कमलका पत्ता जलसे ही उत्पन्न होता है और जलमें ही रहता है, पर वह जलसे लिप्त नहीं होता, ऐसे ही समतायुक्त पुरुष संसारमें रहते हुए भी संसारसे निर्लिप्त रहता है। पुण्य-पाप उसका स्पर्श नहीं करते अर्थात् वह पुण्य-पापसे असङ्ग हो जाता है।वास्तवमें यह स्वयं (चेतन-स्वरूप) पुण्य-पापसे रहित ही। केवल असत् पदार्थों -- शरीरादिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही पुण्य-पाप लगते हैं। अगर यह असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध न जोड़े, तो यह आकाशकी तरह निर्लिप्त रहेगा, इसको पुण्य-पाप-नहीं लगेंगे।तस्माद्योगाय युज्यस्व -- इसलिये तुम योगमें लग जाओ अर्थात् निरन्तर समतामें स्थित रहो। वास्तवमें समता तुम्हारा स्वरूप है। अतः तुम नित्य-निरन्तर समतामें ही स्थित रहते हो। केवल राग-द्वेषके कारण तुम्हारेको उस समताका अनुभव नहीं हो रहा है। अगर तुम हरदम समतामें स्थित न रहते, तो सुख और दुःखका ज्ञान तुम्हें कैसे होता, क्योंकि ये दोनों ही अलग-अलग हैं। जब इन दोनोंका तुम्हें ज्ञान होता है तो तुम इनके आने-जानेमें सदा समरूपसे रहते हो। इसी समताका तुम अनुभव करो।योगः कर्मसु कौशलम् -- कर्मोंमें योग ही कुशलता है अर्थात् कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें और उन कर्मोंके फलके प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहना ही कर्मोंमें कुशलता है। उत्पत्ति -- विनाशशील कर्मोंमें योगके सिवाय दूसरी कोई महत्त्वकी चीज नहीं है।इन पदोंमें भगवान्ने योगकी परिभाषा नहीं बतायी है, प्रत्युत योगकी महिमा बतायी है। अगर इन पदोंका अर्थ ' कर्मोंमें कुशलता ही योग' है -- ऐसा किया जाय तो क्या आपत्ति है? अगर ऐसा अर्थ किया जायगा तो जो बड़ी कुशलतासे, सावधानीपूर्वक चोरी करता है, उसका वह चोरीरूप कर्म भी योग हो जायगा। अतः ऐसा अर्थ करना अनुचित है। कोई कह सकता है कि हम तो विहित कर्मोंको ही कुशलतापूर्वक करनेका नाम योग मानते हैं। परन्तु ऐसा माननेसे मनुष्य कुशलतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग किये गये कर्मोंके फलमें बँध जायगा, जिससे उसकी स्थिति समतामें नहीं रहेगी। अतः यहाँ ' कर्मोंमें योग ही कुशलता है ' -- ऐसा अर्थ लेना ही उचित है। कारण कि कर्मोंको करते हुए भी जिसके अन्तःकरणमें समता रहती है, वह कर्म और उनके फलमें बँधेगा नहीं। इसलिये उत्पत्ति-विनाशशील कर्मोंको करते हुए सम रहना ही कुशलता है, बुद्धिमानी है। दूसरी बात, पीछेके दो श्लोकोंमें तथा इस श्लोकके पूर्वार्धमें भी योग (समता) का ही प्रसङ्ग है, कुशलताका प्रसङ्ग ही नहीं है। इसलिये भी ' कर्मोंमें योग ही कुशलता है ' -- यह अर्थ लेना प्रसङ्गके अनुसार युक्तियुक्त है।सम्बन्ध -- अब पीछेके श्लोकको पुष्ट करनेके लिये भगवान् आगेके श्लोकमें उदाहरण देते हैं ।।2.50।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- बुद्धियुक्तः कर्मसमत्वविषयया बुद्ध्या युक्तः बुद्धियुक्तः सः जहाति परित्यजति इह अस्मिन् लोके उभे सुकृतदुष्कृते पुण्यपापे सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण यतः, तस्मात् समत्वबुद्धियोगाय युज्यस्व घटस्व। योगो हि कर्मसु कौशलम् स्वधर्माख्येषु कर्मसु वर्तमानस्य या सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वबुद्धिः ईश्वरार्पितचेतस्तया तत् कौशलं कुशलभावः। तद्धि कौशलं यत् बन्धनस्वभावान्यपि कर्माणि समत्वबुद्ध्या स्वभावात् निवर्तन्ते। तस्मात्समत्वबुद्धियुक्तो भव त्वम्।।यस्मात् -- ।।2.50।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.50 Listen to the result that one possessed of the wisdom of equanimity attains by performing one's own duties: Buddhi-yuktah, possessed of wisdom, possessed of the wisdom of equanimity; since one jahati, rejects; iha, here, in this world; ubhe, both; sukrta-duskrte, virtue and vice (righteousness and unrighteousness), through the purification of the mind and acquisition of Knowledge; tasmat, therefore; yujyasva, devote yourself; yogaya, to (Karma-) yoga, the wisdom of equanimity. For Yoga is kausalam, skilfulness; karmasu, in action. Skilfulness means the attitude of the skilful, the wisdom of equanimity with regard to one's success and failure while engaged in actions (karma) -- called one's own duties (sva-dharma) -- with the mind dedicated to God.That indeed is skilfulness which, through equanimity, makes actions that by their very nature bind give up their nature! Therefore, be you devoted to the wisdom of equanimity.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
समत्व-बुद्धिसे युक्त होकर स्वधर्माचरण करनेवाला पुरुष, जिस फलको पाता है वह सुन -- समत्वयोगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ पुरुष, अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा सुकृत-दुष्कृतको -- पुण्य-पाप दोनोंको यहीं त्याग देता है, इसी लोकमें कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। इसलिये तू समत्वबुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके लिये यत्न कर -- चेष्टा कर। क्योंकि योग ही तो कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् स्वधर्मरूप कर्ममें लगे हुए पुरुषका जो ईश्वरसमर्पित बुद्धिसे उत्पन्न हुआ, सिद्धि-असिद्धिविषयक समत्वभाव है, वही कुशलता है। यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे ही बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व बुद्धिके प्रभावसे अपने स्वभावको छोड़ देते हैं, अतः तू समत्वबुद्धिसे युक्त हो ।।2.50।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
बुद्धियोगयुक्तः तु कर्म कुर्वाण उभे सुकृतदुष्कृते अनादिकालसञ्चिते अनन्ते बन्धेहेतुभूते जहाति। तस्माद् उक्ताय बुद्धियोगाय युज्यस्व। योगः कर्मसु कौशलं कर्मसु क्रियमाणेषु अयं बुद्धियोगः कौशलम्, अतिसामर्थ्यम्; अतिसामर्थ्यसाध्यः इत्यर्थः ।।2.50।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.50 He, who is established in evenness of mind in the performance of actions, relinquishes good and evil Karmas which have accumulated from time immemorial causing bondage endlessly. Therefore acquire this aforesaid evenness of mind (Buddhi Yoga). Yoga is skill in action. That is, this evenness of mind when one is engaged in action, is possible through great skill, i.e., ability.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एतद्बुद्धियोगयुक्त एव निर्द्वन्द्वो भवतीत्याह -- बुद्धियुक्त इति। उभे पुण्यपापे स्वर्णलोहबन्धनतुल्ये इहैव जहाति। तस्माद्योगायोक्तस्वरूपाय युक्तो भव। योगो हि कर्मसु कौशलं निर्बन्धनतावृत्तिसाधनमिति। गुणाविष्करणम् ।।2.50।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवं बुद्धियोगाभावे दोषमुक्त्वा तद्भावे गुणमाह -- इह कर्मसु बुद्धियुक्तः समत्वबुद्ध्या युक्तो जहाति परित्यजति उभे सुकृतदुष्कृते पुण्यपापे सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण। यस्मादेवं तस्मात्समत्वबुद्धियोगाय त्वं युज्यस्व घटस्य उद्युक्तो भव। यस्मादीदृशः समत्वबुद्धियोग ईश्वरार्पितचेतसः कर्मसु प्रवर्तमानस्य कौशलं कुशलभावः यद्बन्धहेतूनामपि कर्मणां तदभावो मोक्षपर्यवसायित्वं च तन्महत्कौशलम्। समत्वबुद्धियुक्तः कर्मयोगः कर्मात्मापि सन् दुष्कर्मक्षयं करोतीति महाकुशलः, त्वं तु न कुशलो यतश्चेतनोऽपि सन्सजातीयदुष्टक्षयं न करोषीति व्यतिरेकोऽत्र ध्वनितः। अथवा इह समत्वबुद्धियुक्ते कर्मणि कृते सति सत्त्वशुद्धिद्वारेण बुद्धियुक्तः परमात्मसाक्षात्कारवान्सन् जहात्युभे सुकृतदुष्कृते, तस्मात्समत्वबुद्धियुक्ताय कर्मयोगाय युज्यस्व। यस्मात्कर्मसु मध्ये समत्वबुद्धियुक्तः कर्मयोगः कौशलं कुशलः। दुष्टकर्मनिवारणचतुर इत्यर्थः ।।2.50।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
ज्ञानफलमाह -- 'बुद्धियुक्त इति'। सुकृतमप्यप्रियं मानुष्यादिफलं जहाति; न बृहत्फलमुपासनादिनिमित्तम्। "न हास्य कर्म क्षीयते" बृ.उ.1।4।15 "अविदित्वाऽस्िमँल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति" बृ.उ.3।8।10 इत्यादिश्रुतिभ्यः। अतः कर्मक्षयश्रुतिरज्ञानिविषया सर्वत्र। उभयक्षयश्रुतिरप्यनिष्टविषया। नहीष्टपुण्यक्षये किञ्चित्प्रयोजनम्। न चेष्टनाशो ज्ञानिनो युक्तः।इष्टाश्च केचिद्विषयाः "स यदि पितृलोककामो भवति सङ्कल्पादेवास्य पितरः समुत्तिष्ठन्ति" छां.उ.8।2।1'प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये' "यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानां" छां.उ.8।14।1 "स्त्रीभिर्वा यानैर्वा" छां.उ.8।12।3 "अस्माद्ध्येवात्मनो यद्यत्कामयते तत्तत्सृजते' बृ.उ.1।4।15 "कामान्नी कामरूप्यनुसञ्चरन्" तै.उ.3।10।5 "स एकधा भवति" छां.उ.7।26।2 इत्यादिश्रुतिभ्यः। बहुत्वेऽप्यात्मसुखस्य पुनरिष्टत्वात्कर्मसुखेन विरोधः, अनुभवशक्तिश्चेश्वरप्रसादात् श्रुतेश्च।न च शरीरपातात् पूर्वमेव। "स तत्र पर्येति" छां.उ.8।12।3 "एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य" तै.उ.3।10।5 इत्याद्युत्तरत्र श्रवणात्। न चैकीभूत एव ब्रह्मणा सः।'मग्नस्य हि परेऽज्ञाने किं दुःखतरं भवेत्' इत्यादिनिन्दनान्मोक्षधर्मे। परिहारे पृथग्भोगाभिधानाच्च; शुकादीनां पृथग्दृष्टेश्च;'जगद्व्यापारवर्जं' ब्र.सू.4।4।17 इत्यैश्वर्यमर्यादोक्तेश्च'इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः' 14।3 इति च। उपाधिनाशे नाशाच्च प्रतिबिम्बस्य।न चैकीभूतस्य पृथग्ज्ञाने मानं पश्यामः। आसं दुःखी नासमिति ज्ञानविरोधाच्चेश्वरस्य। अनेन रूपेणेति च; भेदाभावात्। न च प्रतिबिम्बस्य बिम्बैक्यं लोके पश्यामः। उपाधिनाशे मानं वा।'मग्नस्य हि परेऽज्ञाने' इति दुःखात्मकत्वोक्तेश्च।'यावदात्मभावित्वात्...' ब्र.सू.2।3।30 इत्युपाधिनित्यताभिधानाच्च। अतोऽनन्यवचनं प्रतीयमानमप्यौपचारिकम्।दृष्टाश्च ते भगवतो भिन्ना नारदेन। प्रतिशाखं च "स एकधा" छां.उ.7।26।2 इत्यादिषु भेदेन प्रतीयन्ते। विरोधे तु युक्तिमतामेव बलंवत्त्वम्। युक्तयश्चात्रोक्ताः'मग्नस्य हि' इत्यादयः। अतो जले जलैकीभाववदेकीभावः। उक्तं च -- "यथोदकं शुद्धे शुद्धं" कठो.4।15 "यथा नद्यः" मुं.उ.3।2।8 इत्यादौ। तत्राप्यन्योन्यात्मत्वे वृद्ध्यसम्भवः। अस्ति चेषत्समुद्रेऽपि द्वारि। महत्त्वादन्यत्रादृष्टिः।'ता एवापो ददौ तस्य च ऋषिः शंसितव्रतः' इति महाकौर्मे। समर्थानां भेदज्ञानाच्च।'नैव तत्प्राप्नुवन्त्येते ब्रह्मेशानादयः सुराः। यत्ते पदं ते कैवल्यम्' इति निषेधाच्च नारदीये। सविचारश्च निर्णयः कृतो मोक्षवर्मेषु। बलवांश्च सविचारो निर्णयो वाक्यमात्रात्।अतो यत्र "नान्यत्पश्यति" छां.7।24।1 इत्याद्यपि तदधीनसत्तादिवाचि। अन्यथा कथमैश्वर्यादि स्यात्?। न च तन्मायामयमित्युक्तम्। अन्यथा कथं तत्रैव "स एकधा" इत्यादि ब्रूयात्?। न च'न ह वै सशरीरस्य' छां.उ.8।12।1 इत्यादिविरोधः। वैलक्षण्यात्तच्छरीराणाम्। अभौतिकानि हि तानि नित्योपाधिविनिर्मितानि ईश्वरशक्त्या। तथा चोक्तम्'शरीरं जायते तेषां षोडश्या कलयैव हि' इति नारायणरामकल्पे। वदन्ति च लौकिकाद्वैलक्षण्येऽभावशब्दं'अप्रहर्षमनानन्दं''सुखदुःखबाह्यः' इत्यादिषु। निरुक्त्यभावाच्च न तानि शरीराणि। तथा हि श्रुतिः "अशारीति्ँहितच्छरीरमभवत्।" नहि तानि शीर्णानि भवन्ति'सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथयन्ति च' 14।2 इति वचनात्। साम्यात्प्रयोगः। प्रयोगाच्च'अनिन्द्रिया अनाहारा अनिष्पन्दाः सुगन्धिनः।'म.भा.12।337।29'देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम्' भाग.7।1।34 इत्यादिदृष्टदेहेष्वेव। न चैषाऽन्या गौणी मुक्तिः'बहुनाऽत्र किमुक्तेन यावच्छ्वेतं न गच्छति। योगी तावन्न मुक्तः स्यादेष शास्त्रस्य निर्णयः' इत्यादित्यपुराणे तदन्यमुक्तिनिषेधात्। ये त्वत्रैव भगवन्तं विशन्ति तेऽपि पश्चात्तत्रैव यान्ति। योग्यत्वं चात्र विवक्षितम्। युधिष्ठिरप्रश्ने इतरनिन्दनाच्च। सायुज्यं य ग्रहवत्। तदुक्तेश्च'भुञ्जते पुरुषं प्राप्य यथा देवग्रहादयः। तथा मुक्तावुत्तमायां बाह्यान्भोगांस्तु भुञ्जते' इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अतोऽनिष्टस्यैव वियोगः सोऽस्त्येव सर्वात्मना।'अदुःखम्''सर्वदुःखविवर्जिताः' "अशोकमहिम्"। बृ.उ.5।10'यत्र गत्वा न शोचन्ति' इत्यादिभ्यः, विशेषवचनाभावाच्च।येषां त्वीषद्दृश्यते न सायुज्यं प्राप्ताः। सामीप्याद्येव तेषाम्। अतः प्रारब्धकर्मशेषभावात्। तद्भुक्त्वा सायुज्यं गच्छन्ति। तच्चोक्तम्'सङ्कर्षणादयः सर्वे स्वाधिकारादनन्तरम्। प्रविशन्ति परं देवं विष्णुं नास्त्यत्र संशयः' इति व्यासयोगे। अतोऽनिष्टस्य सर्वात्मना वियोगः।'परब्रह्मत्वमिच्छामि परब्रह्मञ्जनार्दन' इत्यादिना ब्रह्मादिभिरपि प्रार्थितत्वात्।'न मोक्षसदृशं किञ्चिदधिकं वा सुखं क्वचित्। ऋते वैष्णवमानन्दं वाङ्मनोगोचरं महत्' इत्यादेश्च। ब्रह्मादिपदादप्यधिकतमं सुखं मोक्षं इति सिद्धम्। अतो योगाय युज्यस्व। ज्ञानोपायाय। तद्धि कर्मकौशलम् ।।2.50।।

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