रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-20


मूल स्लोकः

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।।




English translation by Swami Sivananda
3.20 Janaka and others attained perfection verily by action only; even with a view to the protection of the masses thou shouldst perform action.


English commentary by Swami Sivananda
3.20 कर्मणा by action, एव only, हि verily, संसिद्धिम् perfection, आस्थिताः attained, जनकादयः Janaka and others, लोकसंग्रहम् protection of the masses, एवापि only, संपश्यन् having in view, कर्तुम् to perform, अर्हसि thou shouldst.Commentary: Samsiddhi is Moksha (perfection or liberation). Janaka, (Asvapati) and others had perfect knowledge of the Self, and yet they performed actions in order to set an example to the masses. They worked for the guidance of men.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्मके द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू (निष्कामभावसे) कर्म करनेके योग्य है ।।3.20।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः -- ' आदि ' पद ' प्रभृति ' (आरम्भ) तथा ' प्रकार ' दोनोंका वाचक माना जाता है। यदि यहाँ आये ' आदि ' पदको ' प्रभृति ' का वाचक माना जाय तो जनकादयः पदका अर्थ होगा -- जिनके आदि-(आरम्भ-) में राजा जनक हैं अर्थात् राजा जनक तथा उनके बादमें होनेवाले महापुरुष। परन्तु यहाँ ऐसा अर्थ मानना ठीक नहीं प्रतीत होता; क्योंकि राजा जनकसे पहले भी अनेक महापुरुष कर्मोंके द्वारा परमसिद्धिको प्राप्त हो चुके थे; जैसे सूर्य, वैवस्वत, मनु, राजा इक्ष्वाकु आदि (गीता 4। 1-2)। इसलिये यहाँ ' आदि ' पदको ' प्रकार ' का वाचक मानना ही उचित है, जिसके अनुसार ' जनकादयः' पदका अर्थ है -- राजा जनक-जैसे गृहस्थाश्रममें रहकर निष्कामभावसे सब कर्म करते हुए परमसिद्धिको प्राप्त हुए महापुरुष, जो राजा जनकसे पहले तथा बादमें (आजतक) हो चुके हैं।कर्मयोग बहुत पुरातन योग है, जिसके द्वारा राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष परमात्माको प्राप्त हो चुके हैं। अतः वर्तमानमें तथा भविष्यमें भी यदि कोई कर्मयोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिये कि वह मिली हुई प्राकृत वस्तुओं-(शरीरादि-) को कभी अपनी और अपने लिये न माने। कारण कि वास्तवमें वे अपनी और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत संसारकी और संसारके लिये ही हैं। इस वास्तविकताको मानकर संसारसे मिली वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है। इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्तिका सुगम, श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है -- इसमें कोई सन्देह नहीं।यहाँ कर्मणा एव पदोंका सम्बन्ध पूर्वश्लोकके असक्तो ह्याचरन्कर्म पदोंसे अर्थात् आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे है; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त होता है, केवल कर्म करनेसे नहीं। केवल कर्म करनेसे तो प्राणी बँधता है -- कर्मणा बध्यते जन्तुः (महा0 शान्ति0 241। 7)।गीताकी यह शैली है कि भगवान् पीछेके श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको (जो साधकोंके लिये विशेष उपयोगी होती है) संक्षेपसे आगेके श्लोकमें पुनः कह देते हैं, जैसे पीछेके (उन्नीसवें) श्लोकमें आसक्तिरहित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देकर इस बीसवें श्लोकमें उसी बातको संक्षेपसे कर्मणा एव पदोंसे कहते हैं। इसी प्रकार आगे बारहवें अध्यायके छठे श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको सातवें श्लोकमें संक्षेपसे मय्यावेशितचेतसाम् (मुझमें चित्त लगानेवाले भक्त) पदसे पुनः कहेंगे।यहाँ भगवान् कर्मणा एव के स्थानपर योगेन एव भी कह सकते थे। परन्तु अर्जुनका आग्रह कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेका होने तथा (आसक्तिरहित होकर किये जानेवाले) कर्मका ही प्रसङ्ग चलनेके कारण कर्मणा एव पदोंका प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ इन पदोंका अभिप्राय (पूर्वश्लोकके अनुसार) आसक्तिरहित होकर किये गये कर्मयोगसे ही है।वास्तवमें चिन्मय परमात्माकी प्राप्ति जड कर्मोंसे नहीं होती। नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव होनेमें जो बाधाएँ हैं, वे आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे दूर हो जाती हैं। फिर सर्वत्र परिपूर्ण स्वतःसिद्ध परमात्माका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार परमात्मतत्त्वके अनुभवमें आनेवाली बाधाओंको दूर करनेके कारण यहाँ कर्मके द्वारा परमसिद्धि-(परमात्मतत्त्व-) की प्राप्तिकी बात कही गयी है।परमात्मप्राप्ति-सम्बन्धी मार्मिक बातमनुष्य सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिकी तरह परमात्माकी प्राप्तिको भी कर्मजन्य मान लेते हैं। वे ऐसा विचार करते हैं कि जब किसी बड़े (उच्चपदाधिकारी) मनुष्यसे मिलनेमें भी इतना परिश्रम करना पड़ता है, तब अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-नायक परमात्मासे मिलनेमें तो बहुत ही परिश्रम (तप, व्रत आदि) करना पड़ेगा। वस्तुतः यही साधककी सबसे बड़ी भूल है।मनुष्ययोनिका कर्मोंका घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिये मनुष्ययोनिको ' कर्मसङ्गी ' अर्थात् ' कर्मोंमें आसक्तिवाली ' कहा गया है -- रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते (गीता 14। 15)। यही कारण है कि कर्मोंमें मनुष्यकी विशेष प्रवृत्ति रहती है और वह कर्मोंके द्वारा ही अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त करना चाहता है। प्रारब्धका साथ रहनेपर वह कर्मोंके द्वारा ही अभीष्ट सांसारिक वस्तुओंको प्राप्त भी कर लेता है, जिससे उसकी यह धारणा पुष्ट हो जाती है कि प्रत्येक वस्तु कर्म करनेसे ही मिलती है और मिल सकती है। परमात्माके विषयमें भी उसका यही भाव रहता है और वह चेतन परमात्माको भी जड कर्मोंके ही द्वारा प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है। परन्तु वास्तविकता यही है कि परमात्माकी प्राप्ति कर्मोंके द्वारा नहीं होती। इस विषयको बहुत गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिये।कर्मोंसे नाशवान् वस्तु-(संसार-) की प्राप्ति होती है अविनाशी वस्तु-(परमात्मा-) की नहीं, क्योंकि सम्पूर्ण कर्म नाशवान् (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि) के सम्बन्धसे ही होते हैं, जबकि परमात्माकी प्राप्ति नाशवान्से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है।प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है, इसलिये कर्मके फलरूप प्राप्ति होनेवाली वस्तु भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होती है। कर्मोंके द्वारा उसी वस्तुकी प्राप्ति होती है, जो देश-काल आदिकी दृष्टिसे दूर (अप्राप्य) हो। सांसारिक वस्तु एक देश, काल आदिमें रहनेवाली, उत्पन्न और नष्ट होनेवाली एवं प्रतिक्षण बदलनेवाली है। अतः उसकी प्राप्ति कर्म-साध्य है। परन्तु परमात्मा सब देश काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण (नित्यप्राप्त) (टिप्पणी प0 150) एवं उत्पत्ति-विनाश और परिवर्तनसे सर्वथा रहित हैं। अतः उनकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है, कर्म-साध्य नहीं। यही कारण है कि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति चिन्तनसे नहीं होती, जबकि परमात्माकी प्राप्तिमें चिन्तन मुख्य है। चिन्तनसे वही वस्तु प्राप्त हो सकती है, जो समीप-से-समीप हो। वास्तवमें देखा जाय तो परमात्माकी प्राप्ति चिन्तनरूप क्रियासे भी नहीं होती। परमात्माका चिन्तन करनेकी सार्थकता दूसरे (संसारके) चिन्तनका त्याग करानेमें ही है। संसारका चिन्तन सर्वथा छूटते ही नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है।सर्वव्यापी परमात्माकी हमसे दूरी है ही नहीं और हो सकती भी नहीं। जिससे हम अपनी दूरी नहीं मानते, उस ' मैं'-पनसे भी परमात्मा अत्यन्त समीप हैं। ' मैं'-पन तो परिच्छिन्न (एकदेशीय) है, पर परमात्मा परिछिन्न नहीं हैं। ऐसे अत्यन्त समीपस्थ, नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव करनेके लिये सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिके समान तर्क तथा युक्तियाँ लगाना अपने-आपको धोखा देना ही है।सांसारिक वस्तुकी प्राप्ति इच्छामात्रसे नहीं होती; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति उत्कट अभिलाषामात्रसे हो जाती है। इस उत्कट अभिलाषाके जाग्रत् होनेमें सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा ही बाधक है, दूसरा कोई बाधक है ही नहीं। यदि परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत् हो जाय, तो अभी ही परमात्माका अनुभव हो जाय।मनुष्यजीवनका उद्देश्य कर्म करना और उसका फल भोगना नहीं है। सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छाके त्यागपूर्वक परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा तभी जाग्रत् हो सकती है, जब साधकके जीवनभरका एक ही उद्देश्य -- परमात्मप्राप्ति करना हो जाय। परमात्माको प्राप्त करनेके अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्यका कोई महत्त्व न रहे। वास्तवमें परमात्मप्राप्तिके अतिरिक्त मनुष्यजीवनका अन्य कोई प्रयोजन है ही नहीं। जरूरत केवल इस प्रयोजन या उद्देश्यको पहचान कर इसे पूरा करनेकी ही है।यहाँ उद्देश्य और फलेच्छा -- दोनोंमें भेद समझ लेना आवश्यक है। नित्य परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका ' उद्देश्य' होता है, और अनित्य (उत्पत्ति-विनाशशील) पदार्थोंको प्राप्त करनेकी ' फलेच्छा ' होती है। उद्देश्य तो पूरा होता है, पर फलेच्छा मिटनेवाली होती है। स्वरूपबोध और भगवत्प्राप्ति -- ये दोनों उद्देश्य हैं, फल नहीं। उद्देश्यकी प्राप्तिके लिये किया गया कर्म सकाम नहीं कहलाता। इसलिये निष्काम पुरुष-(कर्मयोगी-) के सभी कर्म उद्देश्यको लेकर होते हैं, फलेच्छाको लेकर नहीं।कर्मयोगमें कर्मों-(जडता-) से सम्बन्ध-विच्छेदका उद्देश्य रखकर शास्त्रविहित शुभ-कर्म किये जाते हैं। सकाम पुरुष फलकी इच्छा रखकर अपने लिये कर्म करता है और कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके दूसरोंके लिये कर्म (सेवा) करता है। कर्म ही फलरूपसे परिणत होता है। अतः फलका सम्बन्ध कर्मसे होता है। उद्देश्यका सम्बन्ध कर्मसे नहीं होता। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे ' परमात्मा दूर है ' यह धारणा दूर हो जाती है।लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि -- ' लोक ' शब्दके तीन अर्थ होते हैं -- (1) मनुष्यलोक आदि लोक, (2) उन लोकोंमें रहनेवाले प्राणी और (3) शास्त्र (वेदोंके अतिरिक्त सब शास्त्र)। मनुष्यलोककी, उसमें रहनेवाले प्राणियोंकी और शास्त्रोंकी मर्यादाके अनुसार समस्त आचरणों (जीवनचर्यामात्र) का होना लोकसंग्रह है।लोकसंग्रहका तात्पर्य है -- लोकमर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको असत्से विमुख करके सत्के सम्मुख करनेके लिये निःस्वार्थभावपूर्वक कर्म करना। इसको गीतामें ' यज्ञार्थ कर्म ' के नामसे भी कहा गया है। अपने आचरणों एवं वचनोंसे लोगोंको असत्से विमुख करके सत्के सम्मुख कर देना बहुत बड़ी सेवा है; क्योंकि सत्के सम्मुख होनेसे लोगोंका सुधार एवं उद्धार हो जाता है।लोगोंको दिखानेके लिये अपने कर्तव्यका पालन करना लोग-संग्रह नहीं है। कोई देखे या न देखे, लोक-मर्यादाके अनुसार अपने-अपने (वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार) कर्तव्यका पालन करनेसे लोकसंग्रह स्वतः होता है।कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। छोटा-से-छोटा और बड़ा-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है। देश, काल, परिस्थिति, अवसर, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार जो कर्तव्यकर्म सामने आ जाय, वही कर्म बड़ा होता है। कर्मके स्वरूप और फलकी दृष्टिसे ही कर्म छोटा या बड़ा, घोर या सौम्य प्रतीत होता है। (टिप्पणी प0 151) फलेच्छाका त्याग करनेपर सभी कर्म उद्देश्यकी सिद्धि करनेवाले हो जाते हैं। अतः जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेमें छोटे-बड़े सभी कर्म समान हैं।किसी भी मनुष्यका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना नहीं चल सकता। शरीर माता-पितासे मिलता है और विद्या, योग्यता, शिक्षा आदि गुरुजनोंसे मिलती है। जो अन्न ग्रहण करते हैं, वह दूसरोंके द्वारा उत्पन्न किया गया होता है; जो वस्त्र पहनते हैं, वे दूसरोंके द्वारा बनाये गये होते हैं; जिस मकानमें रहते हैं, उसका निर्माण दूसरोंके द्वारा किया गया होता है; जिस सड़कपर चलते हैं, वह दूसरोंके द्वारा बनायी गयी होती है, आदि-आदि। इस प्रकार प्रत्येक मनष्यका जीवन-निर्वाह दूसरोंके आश्रित है। अतः हरेक मनुष्यपर दूसरोंका ऋण है, जिसे उतारनेके लिये यथाशक्ति दूसरोंकी निःस्वार्थभावसे सेवा (हित) करना आवश्यक है। अपने कहलानेवाले शरीरादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थोंको किञ्चिन्मात्र भी अपना और अपने लिये न माननेसे मनुष्य ऋणसे मुक्त हो जाता है।सम्बन्ध - कर्म करनेसे लोकसंग्रह कैसे होता है -- इसका विवेचन भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं ।।3.20।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- कर्मणैव हि यस्मात् पूर्वे क्षत्रियाः विद्वांसः संसिद्धिं मोक्षं गन्तुम् आस्थिताः प्रवृत्ताः। के? जनकादयः जनकाश्वपतिप्रभृतयः। यदि ते प्राप्तसम्यग्दर्शनाः, ततः लोकसंग्रहार्थं प्रारब्धकर्मत्वात् कर्मणा सहैव असंन्यस्यैव कर्म संसिद्धिमास्थिता इत्यर्थः। अथ अप्राप्तसम्यग्दर्शनाः जनकादयः, तदा कर्मणा सत्त्वशुद्धिसाधनभूतेन क्रमेण संसिद्धिमास्थिता इति व्याख्येयः श्लोकः। अथ मन्यसे पूर्वैरपि जनकादिभिः अजानद्भिरेव कर्तव्यं कर्म कृतम्; तावता नावश्यमन्येन कर्तव्यं सम्यग्दर्शनवता कृतार्थेनेति; तथापि प्रारब्धकर्मायत्तः त्वं लोकसंग्रहम् एव अपि लोकस्य उन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणं लोकसंग्रहः, तमेवापि प्रयोजनं संपश्यन् कर्तुम् अर्हसि।।लोकसंग्रहः किमर्थं कर्तव्य इत्युच्यते -- ।।3.20।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.20 Hi, for; in the olden days, the leaned Ksatriyas, janakadayah, Janaka and others such as Asvapati; asthitah, strove to attain; samsiddim, Liberation; karmana eva, through action itself.If it be that they were possessed of the fullest realization, then the meaning is that they remained established in Liberation whlile continuing, because of past momentum, to be associated with action itself-without renouncing it-with a veiw to preventing mankind from going astray. Again, if (it be that) Janaka and others had not attained fullest realization, then, they gradually became established in Liberation through action which is a means for the purification of the mind. The verse is to be explained thus.On the other hand, if you think, 'Obligatory duty was performed even by Janaka and others of olden days who were surely unenlightened. Ajanadbhih: This is also translated as, 'surely because they were unenlightened'.-Tr. There by it does not follow that action has to be undertaken by somebody else who has the fullest enlightenment and has reached his Goal', nevertheless, tvam, you, who are under the influence of past actions; arhasi, ought; kartum, to perform (your duties); sampasyan api, keeping also in view; loka-sangraham, V.S.A gives the meanings of the phrase as 'the welfare of the world', and 'propitiation of mankind'.-Tr. the prevention of mankind from going astray; even that purpose.By whom, and how, is mankind to be prevented from going astray? That is being stated: In Ast. this introductory sentence is as follows:loka-samgrahah kimartham kartavyam iti ucyate.-Tr.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
एक और भी कारण है -- क्योंकि -- पहले जनक-अश्वपति प्रभृति विद्वान् क्षत्रिय लोग कर्मोंद्वारा ही मोक्ष-प्राप्तिके लिये प्रवृत्त हुए थे। यहाँ इस श्लोककी व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिये कि यदि वे जनकादि, यथार्थ ज्ञानको प्राप्त हो चुके थे तब तो वे प्रारब्धकर्मा होनेके कारण लोकसंग्रहके लिये कर्म करते हुए ही अर्थात् संन्यास ग्रहण किये बिना ही परम सिद्धिको प्राप्त हुए, और यदि वे जनकादि यथार्थ ज्ञानको प्राप्त नहीं थे, तो वे अन्तःकरणकी शुद्धिके साधनरूप कर्मोंसे क्रमशः परम सिद्धिको प्राप्त हुए। यदि तू यह मानता हो कि आत्मतत्त्वको न जाननेवाले जनकादि पूर्वजोंद्वारा कर्तव्य-कर्म किये गये हैं, इससे यह नहीं हो सकता कि दूसरे आत्मज्ञानी कृतार्थ पुरुषोंको भी कर्म अवश्य करने चाहिये। तो भी तू प्रारब्ध-कर्मके अधीन है, इसलिये तुझे लोकसंग्रहकी तरफ देखकर भी अर्थात् लोगोंकी उलटे मार्गमें जानेवाली प्रवृत्तिको निवारण करनारूप जो लोकसंग्रह है, उस लोकसंग्रहरूप प्रयोजनको देखते हुए भी, कर्म करना चाहिये ।।3.20।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यतो ज्ञानयोगाधिकारिणः अपि कर्मयोग एव आत्मदर्शने श्रेयान्, अत एव हि जनकादयो राजर्षयो ज्ञानिनाम् अग्रेसराः कर्मयोगेन एव संसिद्धिम् आस्थिताः, आत्मानं प्राप्तवन्तः।एवं प्रथमं मुमुक्षोः ज्ञानयोगानर्हतया कर्मयोगाधिकारिणः कर्मयोग एव कार्यः, इत्युक्त्वा ज्ञानयोगाधिकारिणः अपि ज्ञानयोगात् कर्मयोग एव श्रेयान् इति सहेतुकम् उक्तम्। इदानीं शिष्टतया व्यपदेश्यस्य सर्वथा कर्मयोग एव कार्य इति उच्यते -- लोकसंग्रहं पश्यन् अपि कर्म एव कर्तुम् अर्हसि ।।3.20।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.20 It is also declared that Karma Yoga alone Janaka and others reached perfection.Because, Karma Yoga is the best means for securing the vision of the self even for a person who is qualified for Jnana Yoga, royal sages like Janaka and others, who are foremost among the Jnanins, preferred Karma Yoga as the means for attaining perfection.Thus, having first declared previously that Karma Yoga must be practised by an aspirant for release who is qualified for Karma Yoga alone, as he is unfit for Jnana Yoga, it was next stated with reasons that, even for one who is qualified for Jnana Yoga, Karma Yoga is better than Jnana Yoga Now it is going to be declared (in verses 20-26) that Karma Yoga must be performed in every way by one who is virtuous.At least for the guidance of the world, you should do work even if there is no need of it for yourself.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अत्र सदाचारं प्रमाणयति -- कर्मणैवेति। जनकादयः कर्मणैव जीवन्मुक्तदशामास्थिताः। संयोगपृथक्त्वन्यायेनोभयसाधकेन कर्मणा ज्ञानसंसिद्धिं वाऽऽस्थिता इति। तद्वत् सिद्धत्वाभिमानेऽपि तव कर्म कर्त्तंव्यमेवायाति। लोकसङ्ग्रहार्थमपि तं पश्यन् कर्त्तुंमर्हसि ।।3.20।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु विविदिषोरपि ज्ञाननिष्ठाप्राप्त्यर्थं श्रवणमनननिदिध्यासनानुष्ठानाय सर्वकर्मत्यागलक्षणः संन्यासो विहितः। तथाच न केवलं ज्ञानिन एव कर्मानधिकारः किंतु ज्ञानार्थिनोऽपि विरक्तस्य। तथाच मयापि विरक्तेन ज्ञानार्थिना कर्माणि हेयान्येवेत्यर्जुनाशङ्कां क्षत्रियस्य संन्यासानधिकारप्रतिपादनेनापनुदति भगवान्। जनकादयो जनकाजातशत्रुप्रभृतयः श्रुतिस्मृतिपुराणप्रसिद्धाः क्षत्रिया विद्वांसोऽपि कर्मणैव सह नतु कर्मत्यागेन सह संसिद्धिं श्रवणादिसाध्यां ज्ञाननिष्ठामास्थिताः प्राप्ताः। हि यस्मादेवं तस्मात्त्वमपि क्षत्रियो विविदिषुर्विद्वान्वा कर्म कर्तुमर्हसीत्यनुषङ्गः।'ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति' इति संन्यासविधायके वाक्ये ब्राह्मणत्वस्य विवक्षितत्वात्'स्वाराज्यकामो राजा राजसूयेन यजेत' इत्यत्र क्षत्रियत्ववत्'चत्वार आश्रमा ब्राह्मणस्य त्रयो राजन्यस्य द्वौ वैश्यस्य' इति च स्मृतेः। पुराणेऽपि'मुखजानामयं धर्मो यद्विष्णोर्लिङगधारणम्। बाहुजातोरुजातानां नायं धर्मः प्रशस्यते।।' इति क्षत्रियवैश्ययोः संन्यासाभाव उक्तः। तस्माद्युक्तमेवोक्तं भगवता'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय' इति।'सर्वे राजाश्रिता धर्मा राजा धर्मस्य धारकः' इत्यादिस्मृतेर्वर्णाश्रमधर्मप्रवर्तकत्वेनापि क्षत्रियोऽवश्यं कर्म कुर्यादित्याह -- 'लोकेति'। लोकानां स्वे स्वे धर्मे प्रवर्तनमुन्मार्गान्निवर्तनं च लोकसंग्रहस्तं पश्यन्नपिशब्दाज्जनकादिशिष्टाचारमपि पश्यन्कर्म कर्तुमर्हस्येवेत्यन्वयः। क्षत्रियजन्मप्रापकेण कर्मणारब्धशरीरस्त्वं विद्वानपि जनकादिवत्प्रारब्धकर्मबलेन लोकसंग्रहार्थं कर्म कर्तुं योग्यो भवसि नतु त्युक्तं ब्राह्मणजन्मालाभादित्यभिप्रायः। एतादृशभगवदभिप्रायविदा भगवता भाष्यकृता ब्राह्मणस्यैव संन्यासो नान्यस्येति निर्णीतम्। वार्तिककृता तु प्रौढिवादमात्रेण क्षत्रियवैश्ययोरपि संन्यासोऽस्तीत्युक्तमिति द्रष्टव्यम् ।।3.20।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
आचारोऽप्यस्तीत्याह -- 'कर्मणैवेति'। कर्मणा सह कर्म कुर्वन्त एवेत्यर्थः। कर्म कृत्वैव ततो ज्ञानं प्राप्य वा, न तु ज्ञानं विना; प्रसिद्धं हि तेषां ज्ञानित्वं भारतादिषु। "तमेवं विद्वानमृत इह भवति" नृ.पू.उ.1।6 इत्यादिश्रुतिभ्यश्च। अत्रापि कर्मणां ज्ञानसाधनत्वोक्तेश्च बुद्धियुक्ता इति। गत्यन्तरं च "नान्यः पन्थाः" श्वे.उ.3।8 इत्यस्त नास्ति इतरेषां ज्ञानद्वाराऽप्यविरोधः। यत्र च तीर्थाद्येव मुक्तिसाधनमुच्यते'ब्रह्मज्ञानेन वा मुक्तिः प्रयागमरणेन वा। अथवा स्नानमात्रेण गोमत्यां कृष्णसन्निधौ' इत्यादौ तत्र पापादिमुक्तिः स्तुतिपरता च। तत्रापि हि कुत्रचिद्ब्रह्मज्ञानसाधनत्वमेवोच्यते। अन्यथा मुक्तिं निषिध्य'ब्रह्मज्ञानं विना मुक्तिर्न कथञ्चिदपीष्यते। प्रयागादेस्तु या मुक्तिर्ज्ञानोपायत्वमेव हि' इत्यादौ। न च तीर्थस्तुतिवाक्यानि तत्प्रस्तावेऽप्युक्तं ज्ञाननियमं घ्नन्ति। यथा कञ्चिद्दक्षं भृत्यं प्रत्युक्तानि'अयमेव हि राजा, किं राज्ञा?' इत्यादीनि। यथाऽऽह भगवान् -- 'यानि तीर्थादिवाक्यानि कर्मादिविषयाणि च। स्तावकान्येव तानि स्युरज्ञानां मोहकानि वा। भवेन्मोक्षस्तु मद्दृष्टेर्नान्यथा तु कथञ्चन' इति नारदीये। अतोऽपरोक्षज्ञानादेव मोक्षः। कर्म तु तत्साधनमेव ।।3.20।।

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