रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-68


मूल स्लोकः

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.68।।




English translation by Swami Sivananda
2.68 Therefore, O mighty-armed Arjuna, his knowledge is steady whose senses are completely restrained from sense-objects.


English commentary by Swami Sivananda
2.68 तस्मात् therefore, यस्य whose, महाबाहो O mighty-armed, निगृहीतानि restrained, सर्वशः completely, इन्द्रियाणि the senses, इन्द्रियार्थेभ्यः from the sense-objects, तस्य his, प्रज्ञा knowledge, प्रतिष्ठिता is steady.Commentary: When the senses are completely controlled, the mind cannot wander wildly in the sensual grooves. It becomes steady like the lamp in a windless place. The Yogi is now established in the Self and his knowledge is steady. (Cf.III.7).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
इसलिये हे महाबाहो! जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा निगृहीत (वशमें की हुई) हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है ।।2.68।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तस्माद्यस्य ... प्रज्ञा प्रतिष्ठिता -- साठवें श्लोकसे मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका जो विषय चला आ रहा है, उसका उपसंहार करते हुए तस्मात् पदसे कहते हैं कि जिसके मन और इन्द्रियोंमें संसारका आकर्षण नहीं रहा है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है। यहाँ सर्वशः पद देनेका तात्पर्य है कि संसारके साथ व्यवहार करते हुए अथवा एकान्तमें चिन्तन करते हुए -- किसी भी अवस्थामें उसकी इन्द्रियाँ भोगोंमें, विषयोंमें प्रवृत्त नहीं होतीं। व्यवहारकालमें कितने ही विषय उसके सम्पर्कमें क्यों न आ जायँ, पर वे विषय उसको विचलित नहीं कर सकते। उसका मन भी इन्द्रियके साथ मिलकर उसकी बुद्धिको विचलित नहीं कर सकता। जैसे पहाड़को कोई डिगा नहीं सकता, ऐसे ही उसकी बुद्धिमें इतनी दृढ़ता आ जाती है कि उसको मन किसी भी अवस्थामें डिगा नहीं सकता। कारण कि उसके मनमें विषयोंका महत्व नहीं रहा।निगृहीतानि का तात्पर्य है कि इन्द्रियाँ विषयोंसे पूरी तरहसे वशमें की हुई है अर्थात् विषयोंमें उनका लेशमात्र भी राग, आसक्ति, खिंचाव नहीं रहा है। जैसे साँपके दाँत निकाल दिये जायँ, तो फिर उसमें जहर नहीं रहता। वह किसीको काट भी लेता है तो उसका कोई असर नहीं होता। ऐसे ही इन्द्रियोंको राग-द्वेषसे रहित कर देना ही मानो उनके जहरीले दाँत निकाल देना है। फिर उन इन्द्रियोंमें यह ताकत नहीं रहती कि वे साधकको पतनके मार्गमें ले जायँ।इस श्लोकका तात्पर्य यह है कि साधकको दृढ़तासे यह निश्चय कर लेना चाहिये कि मेरा लक्ष्य परमात्माकी प्राप्ति करना है, भोग भोगना और संग्रह करना मेरा लक्ष्य नहीं है। अगर ऐसी सावधानी साधकमें निरन्तर बनी रहे तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जायगी।सम्बन्ध -- जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें हैं, उसमें और साधारण मनुष्योंमें क्या अन्तर है -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।2.68।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ दोष उपपादितो यस्मात्, तस्मात् यस्य यतेः हे महाबाहो, निगृहीतानि सर्वशः सर्वप्रकारैः मानसादिभेदैः इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः शब्दादिभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।योऽयं लौकिको वैदिकश्च व्यवहारः स उत्पन्नविवेकज्ञानस्य स्थितप्रज्ञस्य अविद्याकार्यत्वात् अविद्यानिवृत्तौ निवर्तते, अविद्यायाश्च विद्याविरोधात् निवृत्तिः, इत्येतमर्थं स्फुटीकुर्वन् आह -- ।।2.68।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.68 Since the evils arising from the activities of the organs have been described, tasmat, therefore; mahabaho, O mighty-armed one; tasya, his, the sannyasin's; prajna, wisdom; pratisthita, becomes established; yasya, whose; indriyani, organs; sarvasah, in all their varieties, differentiated as mind etc.; nigrhitani, are withdrawn; indriya-arthebhyah, from their objects such as sound etc.In the case of a man of steady wisdom in whom has arisen discriminating knowledge, those which are these ordinary and Vedic dealings cease on the eradication of ignorance, they being effects of ignorance. And ignorance ceases because it is opposed to Knowledge. For clarifying this idea, the Lord says:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
'यततो ह्यपि' इस श्लोकसे प्रतिपादित अर्थकी अनेक प्रकारसे उपपत्ति बतलाकर उस अभिप्रायको सिद्ध करके अब उसका उपसंहार करते हैं -- क्योंकि इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिमें दोष सिद्ध किया जा चुका है, इसलिये हे महाबाहो ! जिस साधककी इन्द्रियाँ अपने-अपने शब्दादि विषयोंसे सब प्रकारसे अर्थात् मानसिक आदि भेदोंसे निगृहीत की जा चुकी हैं ( वशमें की हुई हैं ) उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है ।।2.68।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
तस्माद् उक्तेन प्रकारेण शुभाश्रये मयि निविष्टमनसो यस्य इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः सर्वशो निगृहीतानि तस्य एव आत्मनि प्रज्ञा प्रतिष्ठिता भवति।एवं नियतेन्द्रियस्य प्रसन्नमनसः सिद्धिम् आह -- ।।2.68।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.68 Therefore, in the way described above, he whose mind is focussed on Me the auspicious object for meditation, and whose senses are thereby restrained from sense-objects in everyway, in his mind alone wisdom is firmly set.Sri Krsna now speaks of the state of attainment by one whose senses are subdued and whose mind is serene.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
उक्तमुपसंहरति -- तस्मादिति। हे क्रियाशक्तियुक्त! यस्येन्द्रियाणि सर्वशः इन्द्रियार्थेभ्यो विषयेभ्यो निगृहीतानि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिताऽवसेया। स तादृशो लक्ष्यत इत्यर्थः। सम्बोधनेन त्वमपि महाबाहुभ्यां इममिन्द्रियनिग्रहणं कुरुष्वेति सूचितम् ।।2.68।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
हि यस्मादेवं -- सर्वशः सर्वाणि समनस्कानि। हे महाबाहो इति संबोधयन् सर्वशत्रुनिवारणक्षमत्वादिन्द्रियशत्रुनिवारणेऽपि त्वं क्षमोऽसीति सूचयति। स्पष्टमन्यत्। तस्येति सिद्धस्य साधकस्य च परामर्शः। इन्द्रियसंयमयस्य स्थितप्रज्ञंप्रति लक्षणत्वस्य, मुमुक्षुंप्रति प्रज्ञासाधनत्वस्य चोपसंहरणीयत्वात् ।।2.68।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तस्मात्सर्वात्मना निगृहीतेन्द्रिय एव ज्ञानीति निगमयति। तस्मादिति ।।2.68।।

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