रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-14


मूल स्लोकः

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।3.14।।




English translation by Swami Sivananda
3.14 From food come forth beings; from rain food is produced; from sacrifice arises rain and sacrifice is born of action.


English commentary by Swami Sivananda
3.14 अन्नात् from food, भवन्ति come forth, भूतानि beings, पर्जन्यात् from rain, अन्नसम्भवः production of food, यज्ञात् from sacrifice, भवति arises, पर्जन्यः rain, यज्ञः sacrifice, कर्मसमुद्भवः born of action.Commentary: Here Yajna means "Apurva" or the subtle principle or the unseen form which a sacrifice assumes between the time of its performance and the time when its fruits manifest themselves.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षासे होता है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे निष्पन्न होता है। कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षरब्रह्मसे प्रकट हुआ जान। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है ।।3.14 -- 3.15।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अन्नाद्भवन्ति भूतानि -- प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया जाता है, वह ' अन्न ' (टिप्पणी प0 136.2) कहलाता है। जिस प्राणीका जो खाद्य है, जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति, भरण और पुष्टि होती है, उसे ही यहाँ ' अन्न ' नामसे कहा गया है; जैसे -- मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है।जरायुज (मनुष्य, पशु, आदि), उद्भिज्ज (वृक्षादि), अण्डज (पक्षी, सर्प, चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि) -- ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं (टिप्पणी प0 137.1)।पर्जन्यादन्नसम्भवः -- समस्त खाद्य पदार्थोंकी उत्पत्ति जलसे होती है। घास-फूस, अनाज आदि तो जलसे होते ही हैं, मिट्टीके उत्पन्न होनेमें भी जल ही कारण है। अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदि शरीर-निर्वाहकी सभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्मरूपसे जलसे सम्बन्ध रखती है और जलका आधार वर्षा है।यज्ञाद्भवति पर्जन्यः -- ' यज्ञ ' शब्द मुख्यरूपसे आहुति देनेकी क्रियाका वाचक है। परन्तु गीताके सिद्धान्त और कर्मयोगके प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार यहाँ ' यज्ञ ' शब्द सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंका उपलक्षक है। यज्ञमें त्यागकी ही मुख्यता होती है। आहुति देनेमें अन्न, घी आदि चीजोंका त्याग है, दान करनेमें वस्तुका त्याग है, तप करनेमें अपने सुख-भोगका त्याग है, कर्तव्य-कर्म करनेमें अपने स्वार्थ, आराम आदिका त्याग है। अतः ' यज्ञ ' शब्द यज्ञ (हवन), दान, तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओंका उपलक्षक है।बृहदारण्यक-उपनिषद्में एक कथा आती है। प्रजापति ब्रह्माजीने देवता, मनुष्य और असुर -- इन तीनोंको रचकर उन्हें ' द ' इस अक्षरका उपदेश दिया। देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी अधिकता होनेके कारण उन्होंने ' द ' का अर्थ ' दमन करो ' समझा। मनुष्योंमें संग्रहकी प्रवृत्ति अधिक होनेके कारण उन्होंने ' द ' का अर्थ ' दान करो ' समझा। असुरोंमें हिंसा-(दूसरोंको कष्ट देने-) का भाव अधिक होनेके कारण उन्होंने ' द ' का अर्थ ' दया करो ' समझा। इस प्रकार देवता, मनुष्य और असुर -- तीनोंको दिये गये उपदेशका तात्पर्य दूसरोंका हित करनेमें ही है। वर्षाके समय मेघ जो'द द द -- -- ' की गर्जना करता है, वह आज भी ब्रह्माजीके उपदेश (दमन करो, दान करो, दया करो) के रूपसे कर्तव्य-कर्मोंकी याद दिलाता है (बृहदारण्यक0 5। 2। 1-3)।अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करनेसे वर्षा कैसे होगी? वचनकी अपेक्षा अपने आचरणका असर दूसरोंपर स्वाभाविक अधिक पड़ता है -- यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः (गीता 3। 21)। मनुष्य अपने-अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करेंगे तो उसका असर देवताओंपर भी पड़ेगा, जिससे वे भी अपने कर्तव्यका पलन करेंगे, वर्षा करेंगे। (गीता 3। 11)। इस विषयमें एक कहानी है। चार किसान-बालक थे। आषाढ़का महीना आनेपर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलानेका समय आ गया है; वर्षा नहीं हुई तो न सही, हम तो समयपर अपने कर्तव्यका पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेतमें जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरोंने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या है? वर्षा तो अभी हुई नहीं, फिर ये हल क्यों चला रहे हैं? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्यका पालन करनेमें पीछे क्यों रहें? ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये। मोरोंकी आवाज सुनकर मेघोंने विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं? सारी बात पता लगनेपर उन्होंने सोचा कि हम अपने कर्तव्यसे क्यों हटें? और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। मेघोंकी गर्जना सुनकर इन्द्रने सोचा कि बात क्या है? जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें मैं पीछे क्यों रहूँ? ऐसा सोचकर इन्द्रने भी मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी। यज्ञः कर्मसमुद्भवः -- निष्कामभावपूर्वक किये जानेवाले लौकिक और शास्त्रीय सभी विहित कर्मोंका नाम ' यज्ञ ' है। ब्रह्मचारीके लिये अग्निहोत्र करना ' यज्ञ' है। ऐसे ही स्त्रियोंके लिये रसोई बनाना ' यज्ञ' है (टिप्पणी प0 137.2)। आयुर्वेदका ज्ञाता केवल लोगोंके हितके लिये वैद्यक-कर्म करे तो उसके लिये वही ' यज्ञ' है। इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययनको और व्यापारी अपने व्यापारको (यदि वह केवल दूसरोंके हितके लिये निष्कामभावसे किया जाय) ' यज्ञ ' मान सकते हैं। इस प्रकार वर्ण, आश्रम, देश, कालकी मर्यादा रखकर निष्कामभावसे किये गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म ' यज्ञ ' -रूप होते हैं। यज्ञ किसी भी प्रकारका हो, क्रियाजन्य ही होता है।संखिया, भिलावा आदि विषोंको भी वैद्यलोग जब शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं, तब वे विष भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं। इसी प्रकार कामना, ममता, आसक्ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि -- ये सब कर्मोंमें विषके समान हैं। कर्मोंके इस विषैले भागको निकाल देनेपर वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही ' यज्ञ ' कहलाते हैं।कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि -- वेद कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं (गीता 4। 32)। मनुष्यको कर्तव्य-कर्म करनेकी विधिका ज्ञान वेदसे होनेके कारण ही कर्मोंको वेदसे उत्पन्न कहा गया है।' वेद' शब्दके अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदके साथ-साथ स्मृति, पुराण, इतिहास (रामायण, महाभारत) एवं भिन्न-भिन्न सम्प्रदायके आचार्योंके अनुभव-वचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्-शास्त्रोंको ग्रहण कर लेना चाहिये।ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् -- यहाँ ' ब्रह्म' पद वेदका वाचक है। वेद सच्चिदानन्दघन परमात्मासे ही प्रकट हुए हैं (गीता 17।23)। इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए।परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्य-पालनकी विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्यका विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है और यज्ञसे वर्षा होती है। वर्षासे अन्न होता है, अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं (टिप्पणी प0 138)। इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् -- यहाँ ' ब्रह्म' पद अक्षर-(सगुण-निराकार परमात्मा-) का वाचक है। अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं, वेद नहीं।सर्वव्यापी होनेपर भी परमात्मा विशेषरूपसे ' यज्ञ' (कर्तव्य-कर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्मका पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं -- स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता 18। 46)।शङ्का -- परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं, तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं?समाधान -- परमात्मा तो सभी जगह समानरूपसे नित्य विद्यमान हैं। वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं। इसीलिये उन्हें यहाँ ' सर्वगत ' कहा गया है। यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धि-स्थान है। जमीनमें सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही उपलब्ध होता है, सब जगहसे नहीं। पाइपमें सर्वत्र जल रहनेपर भी जल वहींसे प्राप्त होता है, जहाँ टोंटी या छिद्र होता है। ऐसे ही सर्वगत होनेपर भी परमात्मा यज्ञसे ही प्राप्त होते हैं।अपने लिये कर्म करनेसे तथा जडता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये अपने कर्तव्यका पालन करनेसे यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्माका स्वतः अनुभव हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् अर्जुनको, जो कि अपने कर्तव्यसे हटना चाहते थे, अनेक युक्तियोंसे कर्तव्यका पालन करनेपर विशेष जोर दे रहे हैं।सम्बन्ध -- सृष्टिचक्रके अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसकी ताड़ना भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं ।।3.14।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- अन्नात् भुक्तात् लोहितरेतःपरिणतात् प्रत्यक्षं भवन्ति जायन्ते भूतानि। पर्जन्यात् वृष्टेः अन्नस्य संभवः अन्नसंभवः। यज्ञात् भवति पर्जन्यः, 'अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः (मनु0 3.76)' इति स्मृतेः। यज्ञः अपूर्वम्। स च यज्ञः कर्मसमुद्भवः ऋत्विग्यजमानयोश्च व्यापारः कर्म, तत् समुद्भवः यस्य यज्ञस्य अपूर्वस्य स यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।तञ्चैवंविधं कर्म कुतो जातमित्याह -- ।।3.14।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.14 It is a matter of direct perception that annat, from food, which is eaten and is transformed into blood and semen; bhavanti, are born; bhutani, the creatures. Anna-sambhavah, the origin of food; is parjanyat, from rainfall. Parjanyah, rainfall; bhavati, originates; from yajnat, from sacrifice. This accords with the Smrti, 'The oblations properly poured into fire reaches the sun. From the sun comes rain, from rain comes food, and from the sun comes rain, from rain comes food, and from that the creatures' (Ma.Sm.3.76). (Here) sacrifice means its unique Also termed as the unseen result (adrsta).-Tr. result. And that sacrifice, i.e. the unique result, which arises (samudbhavah) from action (karma) undertaken by the priest and the sacrificer, is karma-samudbhavah; it has action for its origin.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
इसलिये भी अधिकारीको कर्म करना चाहिये, क्योंकि कर्म जगत्-चक्रकी प्रवृत्तिका कारण है। कैसे? सो कहते हैं -- भक्षण किया हुआ अन्न रक्त और वीर्यके रूपमें परिणत होनेपर उससे प्रत्यक्षही प्राणी उत्पन्न होते है। पर्जन्यसे अर्थात् वृष्टिसे अन्नकी उत्पत्ति होती है और यज्ञसे वृष्टि होती है। 'अग्निमें विधिपूर्वक दी हुई आहुति सूर्यमें स्थित होती है, सूर्यसे वृष्टि होती है, वृष्टिसे अन्न होता है और अन्नसे प्रजा उत्पन्न होती है' इस स्मृतिवाक्यसे भी यही बात पायी जाती है। ऋत्विक् और यजमानके व्यापारका नाम कर्म है और उस कर्मसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसमुद्भव है अर्थात् वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसे उत्पन्न होता है ।।3.14।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अन्नात् सर्वाणि भूतानि भवन्ति पर्जन्याद् अन्नसंभवः इति सर्वलोकसाक्षिकम्। यज्ञात् पर्जन्यो भवति इति च शास्त्रेण अवगम्यते -- 'अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।।' (मनु0 3।76) इत्यादिना। यज्ञः च द्रव्यार्जनादिकर्तृपुरुषव्यापाररूपकर्मसमुद्भवः ।।3.14।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.14 From food arise all beings; from rain food is produced. These two facts are matters of common experience. 'From sacrifice comes rain' this is known from the scriptures such as, 'The oblations offered in fire reach the sun, and from the sun comes rain' (Manu, 6.76), and sacrifice is born out of activities in the form of collecting materials, etc., by the agent. And activity arises from 'Brahman', the body born of Prakrti.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
उत्पत्तिशिष्टत्वेन तत्रापि तदावश्यकतां दर्शयति द्वाभ्यां -- अन्नादिति ।।3.14।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
न केवलं प्रजापतिवचनादेव कर्म कर्तव्यमपि तु जगच्चक्रप्रवृत्तिहेतुत्वादपीत्याह -- 'अन्नादित्यादित्रिभिः'। अन्नाद्भुक्ताद्रेतोलोहितरूपेण परिणताद्भूतानि प्राणिशरीराणि भवन्ति जायन्ते। अन्नस्य संभवो जन्म। अन्नमंभवः पर्जन्याद्वृष्टेः। प्रत्यक्षसिद्धमेवैतत्। अत्र कर्मोपयोगमाह -- यज्ञात्कारीर्यादेरग्निहोत्रादेश्चापूर्वाख्यात् धर्माद्भवति पर्जन्यः। यथा चाग्निहोत्राहुतेर्वृष्टिजनकत्वं तथा व्याख्यातमष्टाध्यायीकाण्डे जनकयाज्ञवल्क्यसंवादरूपायां षट्प्रश्नयाम्। मनुना चोक्तम्'अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।।' इति। सच यज्ञो धर्माख्यः सूक्ष्मः कर्मसमुद्भवः ऋत्विग्यजमानव्यापारसाध्यः। यज्ञस्य हि अपूर्वस्य विहितं कर्म कारणम् ।।3.14।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
हेत्वन्तरमाह -- 'अन्नादिति'। यज्ञः पर्जन्यत्वात्तत्कारणमुच्यते। पूर्वयज्ञविवक्षायां तस्य चक्रप्रवेशो न भवति; तद्व्यापाद्यं कर्मविधये। न तु साम्यमात्रेणेदानीं कार्यम्। मेघचक्राभिमानी पर्जन्यः। तच्च यज्ञाद्भवति।'अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठति। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः' 3।76 इति (मनु-) स्मृतेश्च। उभयवचनाच्चादित्यात्समुद्राच्चाविरोधः। अतश्च यज्ञात्पर्जन्योद्भवः सम्भवति। यज्ञो देवतामुद्दिश्य द्रव्यपरित्यागः। कर्म इतरक्रिया ।।3.14।।

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