शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-27


मूल स्लोकः

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।




English translation by Swami Sivananda
2.27 For certain is death for the born, and certain is birth for the dead; therefore, over the inevitable thou shouldst not grieve.


English commentary by Swami Sivananda
2.27 जातस्य of the born, हि for, ध्रुवः certain, मृत्युः death, ध्रुवम् certain, जन्म birth, मृतस्य of the dead, च and, तस्मात् therefore, अपरिहार्ये inevritable, अर्थे in matter, न not, त्वम् thou, शोचितुम् to grieve, अर्हसि (thou) oughtest.Commentary: Birth is sure to happen to that which is dead; death is sure to happen to what which is born. Birth and death are certainly unavoidable. Therefore, you should not grieve over an inevitable matter.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
क्योंकि पैदा हुएकी जरूर मृत्यु होगी और मरे हुएका जरूर जन्म होगा - इस-(जन्म-मरणके प्रवाह-) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ।।2.27।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च -- पूर्वश्लोकके अनुसार अगर शरीरीको नित्य जन्मने और मरनेवाला भी मान लिया जाय, तो भी वह शोकका विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा।तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि -- इसलिये कोई भी इस जन्म-मृत्युरूप प्रवाहका परिहार (निवारण) नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसीका किञ्चिन्मात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म-मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकालतक चलता रहेगा। इस दृष्टिसे तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है।ये धृतराष्ट्रके पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जायेंगे, वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बातका? शोक उसीका कीजिये, जो अनहोनी होय।अनहोनी होती नहीं, होनी है सो होय।।जैसे, इस बातको सब जानते हैं कि सूर्यका उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिये मनुष्य सूर्यका अस्त होनेपर शोक-चिन्ता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीरके साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जायँगे, तो फिर शरीरके साथ जन्म भी जायँगे। अतः इस दृष्टिसे भी शोक नहीं हो सकता।भगवान्ने इन दो (छब्बीसवें-सत्ताईसवें) श्लोकोंमें जो बात कही है, वह भगवान्का कोई वास्तविक सिद्धान्त नहीं है। अतः अथ च पद देकर भगवान्ने दूसरे (शरीर-शरीरीको एक माननेवाले) पक्षकी बात कही है कि ऐसा सिद्धान्त तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले तो भी शोक करना उचित नहीं है।इन दो श्लोकोंका तात्पर्य यह हुआ कि संसारकी मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होनेसे पहले रूपको छोड़कर दूसरे रूपको धारण करती रहती हैं। इसमें पहले रूपको छोड़ना -- यह मरना हो गया और दूसरे रूपको धारण करना -- यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है -- यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टिसे भी क्या शोक करें?सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें पक्षान्तरकी बात कहकर अब भगवान् आगेके श्लोकमें बिलकुल साधारण दृष्टिकी बात कहते हैं ।।2.27।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- जातस्य हि लब्धजन्मनः ध्रुवः अव्यभिचारी मृत्युः मरणं ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्योऽयं जन्ममरणलक्षणोऽर्थः। तस्मिन्नपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।कार्यकरणसंघातात्मकान्यपि भूतान्युद्दिश्य शोको न युक्तः कर्तुम्, यतः -- ।।2.27।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.27 This being so, 'death of anyone born', etc. Hi, for; mrtyuh, death; jatasya, of anyone born; dhruvah, is certain; is without exception; ca, and mrtasya, of the dead; janmah, (re-) birth; is dhruvam, a certainly. Tasmat, therefore, this fact, viz birth and death, is inevitable. With regard to that (fact), apariharye, over an enevitable; arthe, fact; tvam, you; na arhasi, ought not; socitum, to grieve.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
ऐसा होनेसे -- जिसने जन्म लिया है उसका मरण ध्रुव -- -निश्चित है और जो मर गया है उसका जन्म ध्रुव -- -निश्चित है, इसलिये यह जन्म-मरणरूप भाव अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, इस अपरिहार्य विषयके निमित्त तुझे शोक करना उचित नहीं ।।2.27।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
उत्पन्नस्य विनाशो ध्रुवः अवर्जनीय उपलभ्यते। तथा विनष्टस्य अपि जन्म अवर्जनीयम्।कथम् इदम् उपलभ्यते विनष्टस्य उत्पत्तिः इति।सत एव उत्पत्त्युपलब्धेः, असतः च अनुपलब्धेः। उत्पत्तिविनाशादयः सतो द्रव्यस्य अवस्थाविशेषाः। तन्तुप्रभृतीनि द्रव्याणि सन्ति एव रचनाविशेषयुक्तानि पटादीनि उच्यन्ते।असत्कार्यवादिना अपि एतावद् एव उपलभ्यते। न हि तत्र तन्तुसंस्थानविशेषातिरेकेण द्रव्यान्तरं प्रतीयते।कारकव्यापारनामान्तरभजनव्यवहारविशेषाणाम् एतावता एव उपपत्तेः, न च द्रव्यान्तरकल्पना युक्ता। अत उत्पत्तिविनाशादयः सतो द्रव्यस्य अवस्थाविशेषाः।उत्पत्त्याख्याम् अवस्थाम् उपयातस्य द्रव्यस्य तद्विरोध्यवस्थान्तरप्राप्तिः विनाश इति उच्यते।मृद्द्रव्यस्य पिण्डत्वघटत्वकपालत्वचूर्णत्वादिवत् परिणामिद्रव्यस्य परिणामपरम्परा अवर्जनीया। तत्र पूर्वावस्थस्य द्रव्यस्य उत्तरावस्थाप्राप्तिः विनाशः; सा एव तदवस्थस्य उत्पत्तिः। एवम् उत्पत्तिविनाशाख्यपरिणामपरम्परा परिणामिनो द्रव्यस्य अपरिहार्या इति न तत्र शोचितुम् अर्हसि।सतो द्रव्यस्य पूर्वावस्थाविरोध्यवस्थान्तरप्राप्तिदर्शनेन यः अल्पीयान् शोकः सोऽपि मनुष्यादिभूतेषु न संभवति इत्याह ।।2.27।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.27 For what has originated, destruction is certain --- it is seen to be inevitable. Similarly what has perished will inevitably originate. How should this be understood --- that there is origination for that (entity)which has perished? It is seen that an existing entity only can originate and not a non-existent one. Origination, annihilation etc., are merely particular states of an existent entity.Now thread etc., do really exist. When arranged in a particular way, they are called clothes etc. It is seen that even those who uphold the doctrine that the effect is a new entity (Asatkarya-vadins) will admit this much that no new entity over and above the particular arrangement of threads is seen. It is not tenable to hold that this is the coming into being of a new entity, since, by the process of manufacture there is only attainment of a new name and special functions. No new entity emerges.Origination, annihilation etc., are thus particular stages of an existent entity. With regard to an entity which has entered into a stage known as origination, its entry into the opposite condition is called annihilation. Of an evolving entity, a seqence of evolutionary stages is inevitable. For instance, clay becomes a lump, jug, a potsherd, and (finally) powder. Here, what is called annihilation is the attainment of a succeeding stage by an entity which existed previously in a preceding stage. And this annihilation itself is called birth in that stage. Thus, the sequence called birth and annihilation being inevitable for an evolving entity, it is not worthy of you to grieve.Now Sri Krsna says that not even the slightest grief arising from seeing an entity passing from a previous existing stage to an opposite stage, is justifiable in regard to human beings etc.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
कुत इत्यत आह। हि यतः। जातस्येति। मृत्युर्ध्रुवो मृतस्य च ध्रुवमवर्जनीयं जन्म। एवमवर्जनीयेऽर्थे न शोचितुमर्हसि ।।2.27।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
युद्ध्यस्य नन्वात्मन आभूतसंप्लवस्थायित्वपक्षे नित्यत्वपक्षे दृष्टादृष्टदुःखसंभवात्तद्भयेन शोचामीत्यत आह द्वितीयश्लोकेन -- हि यस्मात् जातस्य स्वकृतधर्माधर्मादिवशाल्लब्धशरीरेन्द्रियसंबन्धनस्य स्थिरस्यात्मनो ध्रुव आवश्यको मृत्युस्तच्छरीरादिविच्छेदस्तदारम्भककर्मक्षयनिमित्तः। संयोगस्य वियोगावसानत्वात्। तथा ध्रुवं जन्म मृतस्य च प्राग्देहकृतकर्मफलोपभोगार्थं सानुशयस्यैव प्रस्तुतत्वान्न जीवन्मुक्तेर्व्यभिचारः। तस्मादेवमपरिहार्ये परिहर्तुमशक्येऽस्मिञ्जन्ममरणलक्षणेऽर्थे विषये त्वमेवं विद्वान्न शोचितुमर्हसि। तथाच वक्ष्यति'ऋतेऽपि त्वां नभविष्यन्ति सर्वे' इति। यदि हि त्वया युद्धेनाहन्यमाना एते जीवेयुरेव तदा युद्धाय शोकस्तवोचितः स्यात्, एते तु कर्मक्षयात्स्वयमेव म्रियन्त इति तत्परिहारासमर्थस्य तव दृष्टदुःखनिमित्तः शोको नोचित इति भावः। एवमदृष्टदुःखनिमित्तेपि शोके'तस्मादपरिहार्येऽर्थे' इत्येवोत्तरम्। युद्धाख्यं हि कर्म क्षत्रियस्य नियतमग्निहोत्रादिवत्। तच्च'युध संप्रहारे' इत्यस्माद्धातोर्निष्पन्नं शत्रुप्राणवियोगानुकूलशस्त्रप्रहाररूपं विहितत्वादग्नीषोमीयादिहिंसावन्न प्रत्यवायजनकम्। तथाच गौतमः स्मरति'न दोषो हिंसायामाहवेऽन्यत्र व्यश्वासारथ्यनायुधकृताञ्जलिप्रकीर्णकेशपराङ्भुखोपविष्टस्थलवृक्षारूढदूतगोब्राह्मणवादिभ्यः' इति। ब्राह्मणग्रहणं चात्रायोद्धृब्राह्मणविषयम्। गवादिप्रायपाठादिति स्थितम्। एतच्च सर्वं'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य' इत्यत्र स्पष्टीकरिष्यते। तथाच युद्धलक्षणेऽर्थेऽग्निहोत्रादिवद्विहितत्वादपरिहार्ये परिहर्तुमशक्ये तदकरणे प्रत्यवायप्रसङ्गात् त्वमदृष्टदुःखभयेन शोचितुं नार्हसीति पूर्ववत्। यदि तु युद्धाख्यं कर्म काम्यमेव'य आहवेषु युध्यन्ते भूम्यर्थमपराङ्मुखाः। अकूटैरायुधैर्यान्ति ते स्वर्गं योगिनो यथा।।' इति याज्ञवल्क्यवचनात्,'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्' इति भगवद्वचनाच्च, तदापि प्रारब्धस्य काम्यस्याप्यवश्यपरिसमापनीयत्यवे नित्यतुल्यत्वात्, त्वयाच युद्धस्य प्रारब्धत्वादपरिहार्यत्वं तुल्यमेव। अथवा आत्मनित्यत्वपक्ष एव श्लोकद्वयं अर्जुनस्य परमास्तिकस्य वेदबाह्यमताभ्युपगमासंभवात्। अक्षरयोजना तु नित्यश्चासौ देहेन्द्रियादिसंबन्धवशाज्जातश्चेति। नित्यजातस्तमेनमात्मानं नित्यमपि सन्तं जातं चेन्मन्यसे तथा नित्यमपि सन्तं मृतं चेन्मन्यसे तथापि त्वं नानुशोचितुमर्हसीति प्रतिज्ञाय हेतुमाह -- 'जातस्य हीत्यादिना'। नित्यस्य जातत्वं मृतत्वं च प्राग्व्याख्यातम्। स्पष्टमन्यम्। भाष्यमप्यस्मिन्पक्षे योजनीयम् ।।2.27।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
कुतोऽशोकः? नियतत्वदित्याह -- 'जातस्येति' ।।2.27।।

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