रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-22


मूल स्लोकः

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।3.22।।




English translation by Swami Sivananda
3.22 There is nothing in the three worlds, O Arjuna, that should be done by Me, nor is there anything unattained that should be attained; yet I engage Myself in action.


English commentary by Swami Sivananda
3.22 न not, मे my, पार्थ O Partha, अस्ति is, कर्तव्यम् to be done (duty), त्रिषु in the three, लोकेषु worlds, किञ्चन anything, न not, अनवाप्तम् unattained, अवाप्तव्यम् to be attained, वर्ते am, एव also, च and, कर्मणि in action.Commentary: I am the Lord of the universe and therefore I have no personal grounds to engage. Myself in action. I have nothing to achieve as I have all divine wealth, as the wealth of the universe is Mine, and yet I engage Myself in action.Why do you not follow My example? Why do you not endeavour to prevent the masses from following the wrong path by setting an example yourself? If you set an example, people will follow you as you are a leader with noble qualities.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे पार्थ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्य-कर्ममें ही लगा रहता हूँ ।।3.22।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- न मे पार्थास्ति ... नानवाप्तमवाप्तव्यम् -- भगवान् किसी एक लोकमें सीमित नहीं है। इसलिये वे तीनों लोकोंमें अपना कोई कर्तव्य न होनेकी बात कह रहे हैं।भगवान्के लिये त्रिलोकीमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है; क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं है। कुछ-न-कुछ पानेके लिये ही सब (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) कर्म करते हैं। भगवान् उपर्युक्त पदोंमें बहुत विलक्षण बात कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँ!अपने लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी भगवान् केवल दूसरोंके हितके लिये अवतार लेते हैं और साधु पुरुषोंका उद्धार, पापी पुरुषोंका विनाश तथा धर्मकी संस्थापना करनेके लिये कर्म करते हैं (गीता 4। 8)। अवतारके सिवाय भगवान्की सृष्टि-रचना भी जीवमात्रके उद्धारके लिये ही होती है। स्वर्गलोक पुण्यकर्मोंका फल भुगतानेके लिये है और चौरासी लाख योनियाँ एवं नरक पाप-कर्मोंका फल भुगतानेके लिये हैं। मनुष्य-योनि पुण्य और पाप -- दोनोंसे ऊँचे उठकर अपना कल्याण करनेके लिये है। ऐसा तभी सम्भव है, जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे। वह सम्पूर्ण कर्म -- स्थूल शरीरसे होनेवाली ' क्रिया ', सूक्ष्म शरीरसे होनेवाला ' चिन्तन ' और कारण शरीरसे होनेवाली ' स्थिरता ' केवल दूसरोंके हितके लिये ही करे, अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं, वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण -- तीनों ही शरीर संसारके हैं, अपने नहीं। इसलिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्रीको (जो वास्तवमें संसारकी ही है) संसारकी ही मानता है और उसे संसारकी सेवामें लगाता है। अगर मनुष्य संसारकी वस्तुको संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुख-भोगमें लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है। संसारकी वस्तुको अपनी मान लेनेसे ही फलकी इच्छा होती है और फलप्राप्तिके लिये कर्म होता है। इस तरह जबतक मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् ' करना ' शेष रहता है।गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम होता है कि मनुष्यमात्रका अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं। कारण कि प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है, जबकि कर्म और कर्म-फल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला है। अनित्य-(कर्म और फल-) का सम्बन्ध नित्य-(स्वयं-) के साथ हो ही कैसे सकता है! कर्मका सम्बन्ध ' पर ' -- (शरीर और संसार-) से है ' स्व ' से नहीं। कर्म सदैव ' पर ' के द्वारा और ' पर ' के लिये ही होता है। इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। जब मनुष्यमात्रके लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तब भगवान्के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता है!कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लिये भगवान्ने इसी अध्यायके सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें कहा है कि उस महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य नहीं है; क्योंकि उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही होती है। इसलिये उसे संसारमें करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणीसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसा होनेपर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है। इसी प्रकार यहाँ भगवान् अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने तथा कुछ भी पाना बाकी न होनेपर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्के साथ एकता होती है -- मम साधर्म्यमागताः (गीता 14। 2)। जैसे भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं (गीता 3। 23; 4। 11), ऐसे ही संसारमें तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं (गीता 3। 25)।वर्त एव च कर्मणि -- यहाँ एव पदसे भगवान्का तात्पर्य है कि मैं उत्साह एवं तत्परतासे, आलस्य-रहित होकर, सावधानीपूर्वक, साङ्गोपाङ्ग कर्तव्य-कर्मोंको करता हूँ। कर्मोंका न त्याग करता हूँ, न उपेक्षा।जैसे इंजनके पहियोंके चलनेसे इंजनसे जुड़े हुए डिब्बे भी चलते रहते हैं, ऐसे ही भगवान् और सन्त-महापुरुष (जिनमें करने और पानेकी इच्छा नहीं है) इंजनके समान कर्तव्य-कर्म करते हैं, जिससे अन्य मनुष्य भी उन्हींका अनुसरण करते हैं। अन्य मनुष्योंमें करने और पानेकी इच्छा रहती है। ये इच्छाएँ निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे ही दूर होती हैं। यदि भगवान् और सन्त-महापुरुष कर्तव्य-कर्म न करें तो दूसरे मनुष्य भी कर्तव्य-कर्म नहीं करेंगे, जिससे उनमें प्रमाद-आलस्य आ जायगा और वे अकर्तव्य करने लग जायँगे! फिर उन मनुष्योंकी इच्छाएँ कैसे मिटेंगी! इसलिये सम्पूर्ण मनुष्योंके हितके लिये भगवान् और सन्त-महापुरुषोंके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्य-कर्म होते हैं।भगवान् सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं, कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते। अतः भगवत्परायण साधकको भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहिये। कर्तव्यच्युत होनेसे ही वह भगवत्तत्त्वके अनुभवसे वञ्चित रहता है। नित्य कर्तव्य-परायण रहनेसे साधकको भगवत्तत्त्वका अनुभव सुगमता-पूर्वक हो सकता है ।।3.22।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- न मे मम पार्थ न अस्ति न विद्यते कर्तव्यं त्रिषु अपि लोकेषु किञ्चन किञ्चिदपि। कस्मात्? न अनवाप्तम् अप्राप्तम् अवाप्तव्यं प्रापणीयम्, तथापि वर्ते एव च कर्मणि अहम्। ।।3.22।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.22 O Partha, na asti, there is no; kartavyam, duty; kincana, whatsoever; me, for Me (to fulfill); even trisu lokesu, in all the three worlds. Why? There is na anavaptam, nothing (that remains) unachieved; or avaptavyam, to be achieved. Still varte eva, do I continue; karmani, in action.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
यदि इस लोकसंग्रहकी कर्तव्यतामें तुझे कुछ शंका हो तो तू मुझे क्यों नहीं देखता -- हे पार्थ ! तीनों लोकोंमें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है; क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मोंमें बर्तता ही हूँ ।।3.22।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
न मे सर्वेश्वरस्य अवाप्तसमस्तकामस्य सर्वज्ञस्य सत्यसंकल्पस्य त्रिषु लोकेषु देवमनुष्यादिरूपेण स्वच्छन्दतो वर्तमानस्य किञ्चिद् अपि कर्तव्यम् अस्ति, यतः अनवाप्तं कर्मणा अवाप्तव्यं न किञ्चिद् अपि अस्ति, अथापि लोकरक्षायै कर्मणि एव वर्ते ।।3.22।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.22 For Me, who is the Lord of all, who has all desires fulfilled, who is omniscient, whose will is always true, and who, at My own will, remains in the three worlds in the forms of gods, men and such other beings, there is nothing whatever to achieve. Therefore though there is for Me nothing 'unacquired', i.e., nothing yet to be acquired by work, I go on working for the protection of the world.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अत्र चाहमेव निदर्शनमित्याह -- न म इति त्रिभिः ।।3.22।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अत्र चाहमेव दृष्टान्त इत्याह त्रिमिः -- हे पार्थ, मे मम त्रिष्वपि लोकेषु किमपि कर्तव्यं नास्ति। यतोऽनवाप्तं फलं किंचिन्ममावाप्तव्यं नास्ति। तथापि वर्तएव कर्मण्यहम्। कर्म करोम्येवेत्यर्थः। पार्थेति संबोधयन् विशुद्धक्षत्रियवंशोद्भवस्त्वं शूरापत्यापत्यत्वेन चात्यन्तं मत्समोऽहमिव वर्तितुमर्हसीति दर्शयति ।।3.22।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।3.22।।

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