रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-15


मूल स्लोकः

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।3.15।।




English translation by Swami Sivananda
3.15 Know thou that action comes from Brahma and Brahma comes from the Imperishable. Therefore, the all-pervading (Brahma) ever rests in sacrifice.


English commentary by Swami Sivananda
3.15 कर्म action, ब्रह्मोद्भवम् arisen from Brahma, विद्धि know, ब्रह्म Brahma, अक्षरसमुद्भवम् arisen from the Imperishable, तस्मात् therefore, सर्वगतम् all-pervading, ब्रह्म Brahma, नित्यम् ever, यज्ञे in sacrifice, प्रतिष्ठितम् (is) established.Commentary: Brahma may mean "Veda." Just as the breath comes out of a man, so also the Veda is the breath of the Imperishable or the Omniscient. The Veda ever rests in the sacrifice, i.e., it deals chiefly with sacrifices and the ways of their performance. (Cf.IV.24 to 32).Karma: Action, Brahmodbhavam: arisen from the injunctions of the Vedas.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षासे होता है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे निष्पन्न होता है। कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षरब्रह्मसे प्रकट हुआ जान। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है ।।3.14 -- 3.15।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अन्नाद्भवन्ति भूतानि -- प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया जाता है, वह ' अन्न ' (टिप्पणी प0 136.2) कहलाता है। जिस प्राणीका जो खाद्य है, जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति, भरण और पुष्टि होती है, उसे ही यहाँ ' अन्न ' नामसे कहा गया है; जैसे -- मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है।जरायुज (मनुष्य, पशु, आदि), उद्भिज्ज (वृक्षादि), अण्डज (पक्षी, सर्प, चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि) -- ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं (टिप्पणी प0 137.1)।पर्जन्यादन्नसम्भवः -- समस्त खाद्य पदार्थोंकी उत्पत्ति जलसे होती है। घास-फूस, अनाज आदि तो जलसे होते ही हैं, मिट्टीके उत्पन्न होनेमें भी जल ही कारण है। अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदि शरीर-निर्वाहकी सभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्मरूपसे जलसे सम्बन्ध रखती है और जलका आधार वर्षा है।यज्ञाद्भवति पर्जन्यः -- ' यज्ञ ' शब्द मुख्यरूपसे आहुति देनेकी क्रियाका वाचक है। परन्तु गीताके सिद्धान्त और कर्मयोगके प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार यहाँ ' यज्ञ ' शब्द सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंका उपलक्षक है। यज्ञमें त्यागकी ही मुख्यता होती है। आहुति देनेमें अन्न, घी आदि चीजोंका त्याग है, दान करनेमें वस्तुका त्याग है, तप करनेमें अपने सुख-भोगका त्याग है, कर्तव्य-कर्म करनेमें अपने स्वार्थ, आराम आदिका त्याग है। अतः ' यज्ञ ' शब्द यज्ञ (हवन), दान, तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओंका उपलक्षक है।बृहदारण्यक-उपनिषद्में एक कथा आती है। प्रजापति ब्रह्माजीने देवता, मनुष्य और असुर -- इन तीनोंको रचकर उन्हें ' द ' इस अक्षरका उपदेश दिया। देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी अधिकता होनेके कारण उन्होंने ' द ' का अर्थ ' दमन करो ' समझा। मनुष्योंमें संग्रहकी प्रवृत्ति अधिक होनेके कारण उन्होंने ' द ' का अर्थ ' दान करो ' समझा। असुरोंमें हिंसा-(दूसरोंको कष्ट देने-) का भाव अधिक होनेके कारण उन्होंने ' द ' का अर्थ ' दया करो ' समझा। इस प्रकार देवता, मनुष्य और असुर -- तीनोंको दिये गये उपदेशका तात्पर्य दूसरोंका हित करनेमें ही है। वर्षाके समय मेघ जो'द द द -- -- ' की गर्जना करता है, वह आज भी ब्रह्माजीके उपदेश (दमन करो, दान करो, दया करो) के रूपसे कर्तव्य-कर्मोंकी याद दिलाता है (बृहदारण्यक0 5। 2। 1-3)।अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करनेसे वर्षा कैसे होगी? वचनकी अपेक्षा अपने आचरणका असर दूसरोंपर स्वाभाविक अधिक पड़ता है -- यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः (गीता 3। 21)। मनुष्य अपने-अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करेंगे तो उसका असर देवताओंपर भी पड़ेगा, जिससे वे भी अपने कर्तव्यका पलन करेंगे, वर्षा करेंगे। (गीता 3। 11)। इस विषयमें एक कहानी है। चार किसान-बालक थे। आषाढ़का महीना आनेपर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलानेका समय आ गया है; वर्षा नहीं हुई तो न सही, हम तो समयपर अपने कर्तव्यका पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेतमें जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरोंने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या है? वर्षा तो अभी हुई नहीं, फिर ये हल क्यों चला रहे हैं? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्यका पालन करनेमें पीछे क्यों रहें? ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये। मोरोंकी आवाज सुनकर मेघोंने विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं? सारी बात पता लगनेपर उन्होंने सोचा कि हम अपने कर्तव्यसे क्यों हटें? और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। मेघोंकी गर्जना सुनकर इन्द्रने सोचा कि बात क्या है? जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें मैं पीछे क्यों रहूँ? ऐसा सोचकर इन्द्रने भी मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी। यज्ञः कर्मसमुद्भवः -- निष्कामभावपूर्वक किये जानेवाले लौकिक और शास्त्रीय सभी विहित कर्मोंका नाम ' यज्ञ ' है। ब्रह्मचारीके लिये अग्निहोत्र करना ' यज्ञ' है। ऐसे ही स्त्रियोंके लिये रसोई बनाना ' यज्ञ' है (टिप्पणी प0 137.2)। आयुर्वेदका ज्ञाता केवल लोगोंके हितके लिये वैद्यक-कर्म करे तो उसके लिये वही ' यज्ञ' है। इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययनको और व्यापारी अपने व्यापारको (यदि वह केवल दूसरोंके हितके लिये निष्कामभावसे किया जाय) ' यज्ञ ' मान सकते हैं। इस प्रकार वर्ण, आश्रम, देश, कालकी मर्यादा रखकर निष्कामभावसे किये गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म ' यज्ञ ' -रूप होते हैं। यज्ञ किसी भी प्रकारका हो, क्रियाजन्य ही होता है।संखिया, भिलावा आदि विषोंको भी वैद्यलोग जब शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं, तब वे विष भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं। इसी प्रकार कामना, ममता, आसक्ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि -- ये सब कर्मोंमें विषके समान हैं। कर्मोंके इस विषैले भागको निकाल देनेपर वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही ' यज्ञ ' कहलाते हैं।कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि -- वेद कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं (गीता 4। 32)। मनुष्यको कर्तव्य-कर्म करनेकी विधिका ज्ञान वेदसे होनेके कारण ही कर्मोंको वेदसे उत्पन्न कहा गया है।' वेद' शब्दके अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदके साथ-साथ स्मृति, पुराण, इतिहास (रामायण, महाभारत) एवं भिन्न-भिन्न सम्प्रदायके आचार्योंके अनुभव-वचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्-शास्त्रोंको ग्रहण कर लेना चाहिये।ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् -- यहाँ ' ब्रह्म' पद वेदका वाचक है। वेद सच्चिदानन्दघन परमात्मासे ही प्रकट हुए हैं (गीता 17।23)। इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए।परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्य-पालनकी विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्यका विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है और यज्ञसे वर्षा होती है। वर्षासे अन्न होता है, अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं (टिप्पणी प0 138)। इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् -- यहाँ ' ब्रह्म' पद अक्षर-(सगुण-निराकार परमात्मा-) का वाचक है। अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं, वेद नहीं।सर्वव्यापी होनेपर भी परमात्मा विशेषरूपसे ' यज्ञ' (कर्तव्य-कर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्मका पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं -- स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता 18। 46)।शङ्का -- परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं, तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं?समाधान -- परमात्मा तो सभी जगह समानरूपसे नित्य विद्यमान हैं। वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं। इसीलिये उन्हें यहाँ ' सर्वगत ' कहा गया है। यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धि-स्थान है। जमीनमें सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही उपलब्ध होता है, सब जगहसे नहीं। पाइपमें सर्वत्र जल रहनेपर भी जल वहींसे प्राप्त होता है, जहाँ टोंटी या छिद्र होता है। ऐसे ही सर्वगत होनेपर भी परमात्मा यज्ञसे ही प्राप्त होते हैं।अपने लिये कर्म करनेसे तथा जडता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये अपने कर्तव्यका पालन करनेसे यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्माका स्वतः अनुभव हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् अर्जुनको, जो कि अपने कर्तव्यसे हटना चाहते थे, अनेक युक्तियोंसे कर्तव्यका पालन करनेपर विशेष जोर दे रहे हैं।सम्बन्ध -- सृष्टिचक्रके अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसकी ताड़ना भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं ।।3.15।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- कर्म ब्रह्मोद्भवं ब्रह्म वेदः सः उद्भवः कारणं प्रकाशको यस्य तत् कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि विजानीहि। ब्रह्म पुनः वेदाख्यम् अक्षरसमुद्भवम् अक्षरं ब्रह्म परमात्मा समुद्भवो यस्य तत् अक्षरसमुद्भवम्। ब्रह्म वेद इत्यर्थः। यस्मात् साक्षात् परमात्माख्यात् अक्षरात् पुरुषनिःश्वासवत् समुद्भूतं ब्रह्म तस्मात् सर्वार्थप्रकाशकत्वात् सर्वगतम्; सर्वगतमपि सत् नित्यं सदा यज्ञविधिप्रधानत्वात् यज्ञे प्रतिष्ठितम्। ।।3.15।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.15 Again, a different reading in place of this is: 'Tat ca vividham karma kuto jatamityaha, From where did those various kinds of action originate? In reply the Lord says...' Still another reading is: 'Tat ca karma brahmodbhavam iti aha, And the Lord says: That action has the Vedas as its origin.'-vide A.A., 1936, p. 116).Astekar's reading is: Tat ca evam vidham karma kuto jatamityaha, And from where has this kind of aciton originated? The answers this.'-Tr. viddhi, know; that karma, action; is brahmodbhavam, it has Brahma, the Veda, as its udbhavam, origin. Here Ast. adds 'revealer'-Tr. Further, Brahma, called the Veda, is aksara-samudbhavam, it has aksara, the Immutable, Brahman, the supreme Self, as its source. This is the meaning. Since the Veda came out, like the breath of a man, from the supreme Self Itself, called the Immutable, therefore the Veda, being the revealer of everything, is sarva-gatam, all pervading. Even though all-pervading, the Veda is nityam, for ever; pratisthitam, based; yajne, on sacrifice, because the injunctions about sacrifices predominate in it.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
और उस -- क्रियारूप कर्मको तू वेदरूप ब्रह्मसे उत्पन्न हुआ जान, अर्थात् कर्मकी उत्पत्तिका कारण वेद है, ऐसे जान और वेदरूप ब्रह्म अक्षरसे उत्पन्न हुआ है अर्थात् अविनाशी परब्रह्म परमात्मा वेदकी उत्पत्तिका कारण है। वेदरूप ब्रह्म साक्षात् परमात्मा नामक अक्षरसे पुरुषके निःश्वासकी भाँति उत्पन्न हुआ है, इसलिये वह सब अर्थोंको प्रकाशित करनेवाला होनेके कारण सर्वगत है। तथा यज्ञ-विधिमें वेदकी प्रधानता होनेके कारण वह सर्वगत होता हुआ ही सदा यज्ञमें प्रतिष्ठित है ।।3.15।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
कर्म ब्रह्मोद्भवम्। अत्र च ब्रह्मशब्दनिर्दिष्टं प्रकृतिपरिणामरूपशरीरम्'तस्मादेतद् ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायते' (मु0 1।1।9) इति ब्रह्मशब्देन प्रकृतिः निर्दिष्टा। इहापि'मम योनिर्महद्ब्रह्म' (गीता 14।3) इति वक्ष्यते। अतः कर्म ब्रह्मोद्भवम् इति प्रकृतिपरिणामरूपशरीरोद्भवं कर्म इत्युक्तं भवति। ब्रह्म अक्षरसमुद्भवम्, इत्यत्र अक्षरशब्दनिर्दिष्टो जीवात्मा, अन्नपानादिना तृप्ताक्षराधिष्ठितं शरीरं कर्मणे प्रभवति, इति कर्मसाधनभूतं शरीरम् अक्षरसमुद्भवम्। तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म सर्वाधिकारिगतं शरीरं नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् यज्ञमूलम् इत्यर्थः ।।3.15।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.15 Here ther term, 'Brahman' connotes the physical body consisting of modifications of the Prakrti; for the Prakrti is denoted here by the term 'Brahman', as in the scriptural text: 'From Him arises, this Brahman and this 'Brahman' becomes name, form and food' (Mun. U., 1.1.9). Here also it will be said by Sri Krsna: 'This great 'Brahman' is my womb' (14.3). Therefore, the words that 'Activity springs from 'Brahman' teaches that activity is produced by the physical body which is of the nature of the modification of Prakrti. The 'Brahman' arises from the imperishable self. Here the term, 'imperishable', indicates the individual self. The physical body, which is inhabited by the self who is satisfied by food and drink, is fit for action; hence the physical body which constitutes the instrument of activity is said to be from the imperishable. Therefore the 'all-pervading Brahman' means here the bodies of all persons of diverse kinds which are the products of Prakrti which comprises all material entities, and is hence all-pervading. They, the bodies, are established in sacrifice. The meanig is that the bodies have roots in sacrifice.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
कर्म ब्रह्मोद्भवमिति। ब्रह्म वेदः प्रजापतिर्वा; तस्यापि ब्रह्मतया निरूपणं ब्रह्मवादानुरोधात्। तदक्षरसमुद्भवं कूटस्थं प्रणवसम्भूतम्। यद्वा पुरुषोद्भूतम्; ब्रह्मणः सर्वगतत्वात् "सर्वं ब्रह्म" इति वेदे निरूपणात्। ब्रह्मवाद एवाभिमत इत्याह। ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितमिति। "पुरुष एवेदं सर्वं" ऋक्सं.6।4।17।2य.सं.31।2 "यज्ञो वै विष्णुः" तै.सं.1।7।4 इति पुरुषावयवेषु यज्ञसम्भारकल्पनात्। ब्रह्मणोऽभिन्नो यज्ञः पूर्वं प्रजापतिना कृत्वोपदिष्ट इति यज्ञे ब्रह्म प्रतिष्ठितम्। एतच्च निबन्धे सुबोधिन्यां च विस्तृतम् ।।3.15।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तच्चापूर्वोत्पादकम्, ब्रह्मोद्भवं ब्रह्म वेदः स एवोद्भवः प्रमाणं यस्य तत्तथा। वेदविहितमेव कर्माऽपूर्वसाधनं जानीहि नत्वन्यत्पाखण्डप्रतिपादितमित्यर्थः। ननु पाखण्डशास्त्रापेक्षया वेदस्य किं वैलक्षण्यं, यतो वेदप्रतिपादित एव धर्मो नान्य इत्यत आह -- ब्रह्म वेदाख्यमक्षरसमुद्भवं अक्षरात्परमात्मनो निर्दोषात्पुरुषनिःश्वासन्यायेनाबुद्धिपूर्वं समुद्भव आविर्भावो यस्य तदक्षरसमुद्भवम्। तथाचापौरुषेयत्वेन निरस्तसमस्तदोषाशङ्कं वेदवाक्यं प्रमितिजनकतया प्रमाणमतीन्द्रियेऽर्थे नतु भ्रमप्रमादकरणापाटवविप्रलिप्सादिदोषवत्प्रणीतं पाखण्डवाक्यं प्रमितिजनकमिति भावः। तथाच श्रुतिः'अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि निःश्वसितानि' इति। तस्मात्साक्षात्परमात्मसमुद्भवतया सर्वगतं सर्वप्रकाशकं नित्यमविनाशि च ब्रह्म वेदाख्यं यज्ञे धर्माख्येऽतीन्द्रिये प्रतिष्ठितं तात्पर्येण। अतः पाखण्डप्रतिपादितोपधर्मपरित्यागेन वेदबोधित एव धर्मोऽनुष्ठेय इत्यर्थः ।।3.15।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
कर्म ब्रह्मणो जायते "एष ह्येव (एनं) साधु कर्म कारयति' कौ.उ.3।9'बुद्धिर्ज्ञानम्' 10।4 इत्यादिभ्यः। न च मुख्ये सम्भाव्यमाने पारम्पर्येणौपचारिकं कल्प्यम्। न च जडानां स्वतः प्रवृत्तिः सम्भवति, "एतस्य वा अक्षरस्य" बृ.उ.3।8।9 इति सर्वनियमनश्रुतेश्च,'द्रव्यं कर्म च कालश्च' इत्यादेश्च। अचिन्त्यशक्तिश्चोक्ता। जीवस्य च प्रतिबिम्बस्य बिम्बपूर्वैव चेष्टा,'न कर्तृत्वम्' 5।14 इत्यादिनिषेधाच्च। अक्षराणि प्रसिद्धानि, तेभ्यो ह्यभिव्यज्यते परं ब्रह्म। अन्यथाऽनादिनिधनमचिन्त्यं परिपूर्णमपि ब्रह्म को जानाति?। न च रूढिं विना योगाङ्गीकारो युक्तः, परामर्शाच्च; तस्मात्सर्वगतं ब्रह्मेति।न ह्येकशब्देन द्विरुक्तेन भेदश्रुतिं विना वस्तुद्वयं कुत्रचिदुच्यते। तानि चाक्षराणि नित्यानि "वाचा विरूपनित्यया। वृष्णे चोदस्व सुष्टुतिम्" ऋक्सं.6।5।25+तै.सं.5।6।11'अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा' म.भा.12।232।24'अत एव च नित्यत्वम्' ब्र.सू.1।3।29 इत्यादिश्रुतिस्मृतिभगवद्वचनेभ्यः। दोषश्चोक्तः सकंर्तृत्वे। मा.भा.2।13 न चाबुद्धिपूर्वमुत्पन्नानि; तत्प्रमाणाभावात्। निश्श्वसितशब्दस्त्वक्लेशाभिप्रायः, नाबुद्धिपूर्वाभिप्रायः। "सोऽकामयत" बृ.उ.1।2।4,5 इत्यादेश्च,'इष्टं हुतं' इत्यादिरूपप्रपञ्चेन सहाभिधानाच्च, महातात्पर्यविरोधाच्च; तच्चोक्तं पुरस्तात्।न ह्यस्वातन्त्र्येण चोत्पत्तिकर्तुः प्राधान्यम्। अस्वातन्त्र्यं च तदमतिपूर्वकत्वेन भवति, यथा रोगादीनां पुरुषस्य तज्जत्वेऽपि। उत्पत्तिवचनान्यभिव्यक्त्यर्थानि, अभिमानिदेवताविषयाणि च,'नित्या उत्सृष्टा' इति वचनात्। अभिव्यञ्जके कर्तृवचनं चास्ति'कृत्स्नं शतपथं चक्रे' इति। कथमादित्यस्था वेदास्तेनैव क्रियन्ते? वचनमात्राच्च निर्णयात्मकशारीरकोक्तं बलवत् शास्त्रं योनिर्यस्य तत् शास्त्रयोनित्वम्।'जन्माद्यस्य' ब्रू.सू.1।1।2 इत्युक्ते प्रमाणं हि तत्रापेक्षितम्, न तु तस्य जातत्वं वेदकारणत्वं वा; न हि वेदकारणत्वं जगत्कारणत्व हेतुः। न हि विचित्रजगत्सृष्टेर्वेदसृष्टिरशक्या सृज्यत्वे। न च सर्वज्ञत्वे। यदि वेदस्रष्टा सर्वज्ञः किमिति न जगत्स्रष्टा सर्वज्ञः? तस्माद्वेदप्रमामकत्वमेवात्र विवक्षितम्; अतो नित्यान्यक्षराणि। यत एवं परम्परया यज्ञाभिव्यङ्ग्यं ब्रह्म तस्मात्तन्नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।3.15।।

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