रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-03


मूल स्लोकः

श्री भगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।।




English translation by Swami Sivananda
3.3 The Blessed Lord said -- In this world there is a twofold path, as I said before, O sinless one; the path of knowledge of the Sankhyas and the path of action of the Yogins.


English commentary by Swami Sivananda
3.3 लोके in world, अस्मिन् in this, द्विविधा twofold, निष्ठा path, पुरा previously, प्रोक्ता said, मया by Me, अनघ O sinless one, ज्ञानयोगेन by the path of knowledge, सांख्यानाम् of the Sankhyas, कर्मयोगेन by the path of action, योगिनाम् of the Yogins.Commentary: The path of knowledge of the Sankhyas (Jnana Yoga) was described by Lord Krishna in chapter II, verses 11 to 38; the path of action (Karma Yoga) from 40 to 53.Pura Prokta may also mean "In the beginning of creation the twofold path was given by Me to this world."Those who are endowed with the four means and who have sharp, subtle intellect and bold understanding are fit for Jnana Yoga. Those who have a tendency or inclination for wok are fit for Karma Yoga. (The four means are discrimination, dispassion, sixfold virutes, and longing for liberation. The sixfold virtues are: control of the mind, control of the senses, fortitude (endurance), turning away from the objects of the world, faith and tranquillity.)It is not possible for a man to practise the two Yogas simultaneously. Karma Yoga is a means to an end. It purifies the heart and prepares the aspirant for the reception of knowledge. The Karma Yogi should take up Jnana Yoga as soon as his heart is purified. Jnana Yoga takes the aspirant directly to the goal without any extraneous help. (Cf.V.5).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
श्रीभगवान् बोले -- हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोकमें दो प्रकारसे होनेवाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है ।।3.3।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने समतावाचक ' बुद्धि ' शब्दका अर्थ ' ज्ञान ' समझ लिया। परन्तु भगवान्ने पहले ' बुद्धि' और ' बुद्धियोग ' शब्दसे समताका वर्णन किया था (2। 39, 49 आदि); अतः यहाँ भी भगवान् ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनोंके द्वारा प्रापणीय समताका वर्णन कर रहे हैं।अनघ -- अर्जुनके द्वारा अपने श्रेय-(कल्याण-) की बात पूछी जानी ही उनकी निष्पापता है; क्योंकि अपने कल्याणकी तीव्र इच्छा होनेपर साधकके पाप नष्ट हो जाते हैं।लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया -- यहाँ ' लोके ' पदका अर्थ मनुष्य-शरीर समझना चाहिये; क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग -- दोनों प्रकारके साधनोंको करनेका अधिकार अथवा साधक बननेका अधिकार मनुष्य-शरीरमें ही है।निष्ठा -- अर्थात् समभावमें स्थिति एक ही है, जिसे दो प्रकारसे प्राप्त किया जा सकता है -- ज्ञानयोगसे और कर्मयोगसे। इन दोनों योगोंका अलग-अलग विभाग करनेके लिये भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें कहा है कि इस समबुद्धिको मैंने सांख्ययोगके विषयमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) कह दिया है, अब इसे कर्मयोगके विषयमें (उन्तालीसवें तिरपनवें श्लोकतक) सुनो -- एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।पुरा पदका अर्थ ' अनादिकाल ' भी होता है और ' अभीसे कुछ पहले' भी होता है। यहाँ इस पदका अर्थ है -- अभीसे कुछ पहले अर्थात् पिछला अध्याय, जिसपर अर्जुनकी शंका है। यद्यपि दोनों निष्ठाएँ पिछले अध्यायमें अलग-अलग कही जा चुकी हैं, तथापि किसी भी निष्ठामें कर्मत्यागकी बात नहीं कही गयी है।मार्मिक बातयहाँ भगवान्ने दो निष्ठाएँ बतायी हैं -- सांख्यनिष्ठा (ज्ञानयोग) और योगनिष्ठा (कर्मयोग)। जैसे लोकमें दो तरहकी निष्ठाएँ हैं -- लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा, ऐसे ही लोकमें दो तरहके पुरुष हैं द्वाविमौ पुरुषौ लोके (गीता 15। 16) वे हैं -- क्षर (नाशवान् संसार) और अक्षर (अविनाशी स्वरूप)। क्षरकी सिद्धि-असिद्धि, प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहना ' कर्मयोग ' है और क्षरसे विमुख होकर अक्षरमें स्थित होना ' ज्ञानयोग ' है। परन्तु क्षर अक्षर -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नामसे कहा जाता है -- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः (15। 17)। वह परमात्मा क्षरसे तो अतीत है और अक्षरसे उत्तम है; अतः शास्त्र और वेदमें वह ' पुरुषोत्तम ' नामसे प्रसिद्धि है (15। 18)। ऐसे परमात्माके सर्वथा सर्वभावसे शरण हो जाना ' भगवन्निष्ठा ' (भक्तियोग) है। इसलिये क्षरकी प्रधानतासे कर्मयोग, अक्षरकी प्रधानतासे ज्ञानयोग और परमात्माकी प्रधानतासे भक्तियोग चलता है (टिप्पणी प0 116)।सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा -- ये दोनों साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं; परन्तु भगवन्निष्ठा साधकोंकी अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें साधकको ' मैं हूँ' और ' संसार है ' -- इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसारकी वस्तु-(शरीरादि-) को संसारकी ही सेवामें लगाकर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करता है। परन्तु भगवन्निष्ठामें साधकको पहले ' भगवान् ' हैं -- इसका अनुभव नहीं होता; पर उसका विश्वास होता है कि स्वरूप और संसार -- इन दोनोंसे भी विलक्षण कोई तत्त्व (भगवान्) है। अतः वह श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्को मानकर अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर देता है। इसलिये सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें तो ' जानना ' (विवेक) मुख्य है और भगवन्निष्ठामें ' मानना ' (श्रद्धा-विश्वास) मुख्य है।जानना और मानना -- दोनोंमें कोई फरक नहीं है। जैसे ' जानना' सन्देहरहित (दृढ़) होता है, ऐसे ही ' मानना ' भी सन्देहरहित होता है। मानी हुई बातमें विचारकी सम्भावना नहीं रहती। जैसे, ' अमुक मेरी माँ है ' -- यह केवल माना हुआ है, पर इस माने हुएमें कभी सन्देह नहीं होता, कभी जिज्ञासा नहीं होती, कभी विचार नहीं करना पड़ता। इसलिये गीतामें भक्तियोगके प्रकरणमें जहाँ जाननेकी बात आयी है, उसको माननेके अर्थमें ही लेना चाहिये। इसी तरह ज्ञानयोग और कर्मयोगके प्रकरणमें जहाँ माननेकी बात आयी है, उसको जाननेके अर्थमें ही लेना चाहिये।सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा तो साधन-साध्य हैं और साधकपर निर्भर हैं, पर भगवन्निष्ठा साधन-साध्य नहीं है। भगवन्निष्ठामें साधक भगवान् और उनकी कृपापर निर्भर रहता है।भगवन्निष्ठाका वर्णन गीतामें जगह-जगह आया है; जैसे -- इसी अध्यायमें पहले दो निष्ठाओंका वर्णन करके फिर तीसवें श्लोकमें मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य पदोंसे भक्तिका वर्णन किया गया है; पाँचवें अध्यायमें भी दो निष्ठाओंका वर्णन करके दसवें श्लोकमें ब्रह्मण्याधाय कर्माणि और अन्तमें भोक्तारं यज्ञतपसाम् ... आदि पदोंसे भक्तिका वर्णन किया गया है, इत्यादि।ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् -- प्रकृतिसे उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें, इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं (गीता 3। 28) और मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है -- ऐसा समझकर समस्त क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानका सर्वथा त्याग कर देना ' ज्ञानयोग ' है। गीतोपदेशके आरम्भमें ही भगवान्ने सांख्ययोग-(ज्ञानयोग-) का वर्णन करते हुए नाशवान् शरीर और अविनाशी शरीरीका विवेचन किया है, जिसे (गीता 2। 16 में) असत् और सत्के नामसे भी कहा गया है।कर्मयोगेन योगिनाम् -- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसको (उस कर्म तथा उसके फलमें) कामना, ममता और आसक्तिका सर्वथा त्याग करके करना तथा कर्मकी सिद्धि और असिद्धिमें सम रहना'कर्मयोग' है।भगवान्ने कर्मयोगका वर्णन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकमें मुख्यरूपसे किया है। इनमें भी सैंतालीसवें श्लोकमें कर्मयोगका सिद्धान्त कहा गया है और अड़तालीसवें श्लोकमें कर्मयोगको अनुष्ठानमें लानेकी विधि कही गयी है ।।3.3।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- लोके अस्मिन् शास्त्रार्थानुष्ठानाधिकृतानां त्रैवर्णिकानां द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिः अनुष्ठेयतात्पर्यं पुरा पूर्वं सर्गादौ प्रजाः सृष्ट्वा तासाम् अभ्युदयनिःश्रेयसप्राप्तिसाधनं वेदार्थसंप्रदायमाविष्कुर्वता प्रोक्ता मया सर्वज्ञेन ईश्वरेण हे अनघ अपाप। तत्र का सा द्विविधा निष्ठा इत्याह -- तत्र ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव योगः तेन सांख्यानाम् अत्मानात्मविषयविवेकविज्ञानवतां ब्रह्मचर्याश्रमादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां परमहंसपरिव्राजकानां ब्रह्मण्येव अवस्थितानां निष्ठा प्रोक्ता। कर्मयोगेन कर्मैव योगः कर्मयोगः तेन कर्मयोगेन योगिनां कर्मिणां निष्ठा प्रोक्ता इत्यर्थः। यदि च एकेन पुरुषेण एकस्मै पुरुषार्थाय ज्ञानं कर्म च समुच्चित्य अनुष्ठेयं भगवता इष्टम् उक्तं वक्ष्यमाणं वा गीतासु वेदेषु चोक्तम् , कथमिह अर्जुनाय उपसन्नाय प्रियाय विशिष्टभिन्नपुरुषकर्तृके एव ज्ञानकर्मनिष्ठे ब्रूयात्? यदि पुनः 'अर्जुनः ज्ञानं कर्म च द्वयं श्रुत्वा स्वयमेवानुष्ठास्यति अन्येषां तु भिन्नपुरुषानुष्ठेयतां वक्ष्यामि इति' मतं भगवतः कल्प्येत, तदा रागद्वेषवान् अप्रमाणभूतो भगवान् कल्पितः स्यात्। तच्चायुक्तम्। तस्मात् कयापि युक्त्या न समुच्चयो ज्ञानकर्मणोः।।यत् अर्जुनेन उक्तं कर्मणो ज्यायस्त्वं बुद्धेः तच्च स्थितम्, अनिराकरणात्। तस्याश्च ज्ञाननिष्ठायाः संन्यासिनामेवानुष्ठेयत्वम् , भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्ववचनात्। भगवतः एवमेव अनुमतमिति गम्यते।।'मां च बन्धकारणे कर्मण्येव नियोजयसि' इति विषण्णमनसमर्जुनम् 'कर्म नारभे' इत्येवं मन्वानमालक्ष्य आह भगवान् -- न कर्मणामनारम्भात् इति। अथवा -- ज्ञानकर्मनिष्ठयोः परस्परविरोधात् एकेन पुरुषेण युगपत् अनुष्ठातुमशक्यत्वे सति इतरेतरानपेक्षयोरेव पुरुषार्थहेतुत्वे प्राप्ते कर्मनिष्ठाया ज्ञाननिष्ठाप्राप्तिहेतुत्वेन पुरुषार्थहेतुत्वम्, न स्वातन्त्र्येण; ज्ञाननिष्ठा तु कर्मनिष्ठोपायलब्धात्मिका सती स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुः अन्यानपेक्षा, इत्येतमर्थं प्रदर्शयिष्यन् आह भगवान् -- ।।3.3।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.3 Anagha, O unblemished one, O sinless one; This word of address suggests that Arjuna is qualified to receive the Lord's instruction. dvividha, two kinds of ; nistha, steadfastness, persistence in what is undertaken; asmin loke, in this world, for the people of the three castes who are qualified for following the scriptures; prokta, were spoken of; maya, by Me, the omniscient God, who had revealed for them the traditional teachings of the Vedas, which are the means of securing prosperity and the highest Goal; pura, in the days of yore, in the beginning the creation, after having brought into being the creatures.Now then, which is that steadfastness of two kinds? In answer the Lord says: The steadfastness jnanayogena, through the Yoga of Knowledge-Knowledge itself being the Yoga Here jnana, Knowledge, refers to the knowledge of the supreme Reality, and Yoga is used in the derivative sense of 'that (Knowledge) through which one gets united with Brahman'.-; had been stated sankhyanam, for the men of realization-those possessed of the Knowledge arising from the discrimination with regard to the Self and the not-Self, those who have espoused monasticism from the stage of Celibacy; itself, those to whom the entity presented by the Vedantic knowledge has become fully ascertained (see Mu. 3.2.6)-,the monks who are known as the parama-hamsas, those who are established in Brahman alone. And the steadfastness karma-yogena, through the Yoga of Action-action itself being the Yoga Yoga here means 'that through which one gets united with, comes to have, prosperity', i.e. such actions as go by the name of righteousness and are prescribed by the scriptures. had been stated yoginam, for the yogis, the men of action (rites and duties). This is the idea.Again, had it been intended or stated or if it will be stated in the Gita by the Lord-and if it has also been so stated in the Vedas-that Knowledge and action are to be practised in combination by one and the same person for attaining the same human Goal, why then should He here tell His dear supplicant Arjuna, that steadfastness in either Knowledge or action is to be practised only by different persons who are respectively qualified? If, on the other hand, it be supposed that the Lord's idea is, 'After hearing about both Knowledge and action, Arjuna will himself practise them (in combination); but, to others, I shall speak of them as being meant to be pursued by different persons', then the Lord would be imagined to be unreliable, being possessed of likes and dislikes! And that is untenable.So, from no point of view whatsoever can there be a combination of Knowledge and action. And what has been said by Arjuna regarding superiority of Wisdom over action, that stands confirmed for not having been refuted; and (it also stands confirmed) that steadfastness in Knowledge is suitable for being practised by monks alone. And from the statement that they (Knowledge and action) are to be followed by different persons, it is understood that this has the Lord's approval.Noticing that Arjuna had become dejected under the impression, 'You are urging me to that very action which is a source of bondage', and was thinking thus, 'I shall not undertake action', the Lord said, 'Na karmanam anarambhat, not by abstaining from action,' etc.Or:-When steadfastness in Knowledge and steadfastness in action become incapable of being pursued simultaneously by one and the same person owing to mutual contradiction, then, since it may be concluded that they become the cause of attaining the human Goal independently of each other, therefore, in order to show-that the steadfastness in action is a means to the human Goal, not independently, but by virtue of being instrumental in securing steadfastness in Knowledge; and that, on the other hand, steadfastness in Knowledge, having come into being through the means of steadfastness in action, leads to the human Goal independently without anticipating anything else-,the Lord said:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
प्रश्नके अनुसार ही उत्तर देते हुए -- श्रीभगवान् बोले -- हे निष्पाप अर्जुन ! इस मनुष्यलोकमें शास्त्रोक्त कर्म और ज्ञानके जो अधिकारी हैं, ऐसे तीनों वर्णवालोंके लिये ( अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके लिये ) दो प्रकारकी निष्ठा-स्थिति अर्थात् कर्तव्य तत्परता, पहले-सृष्टिके आदिकालमें प्रजाको रचकर उनकी लौकिक उन्नति और मोक्षकी प्राप्तिके साधनरूप वैदिक सम्प्रदायको आविष्कार करनेवाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा कही गयी हैं। वह दो प्रकारकी निष्ठा कौन-सी हैं? सो कहते हैं -- जो आत्म-अनात्मके विषयमें विवेकजन्य ज्ञानसे सम्पन्न हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य-आश्रमसे ही संन्यास ग्रहण कर लिया है, जिन्होंने वेदान्तके विज्ञानद्वारा आत्मतत्त्वका भलीभाँति निश्चय कर लिया है, जो परमहंस संन्यासी हैं, जो निरन्तर ब्रह्ममें स्थित हैं ऐसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा ज्ञानरूप योगसे कही है। तथा कर्मयोगसे कर्मयोगियोंकी अर्थात् कर्म करनेवालोंकी निष्ठा कही है। यदि एक पुरुषद्वारा एक ही प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ज्ञान और कर्म दोनों एक साथ अनुष्ठान करने योग्य हैं, ऐसा अपना अभिप्राय भगवान्द्वारा गीतामें पहले कहीं कहा गया होता, या आगे कहा जानेवाला होता, अथवा वेदमें कहा गया होता तो शरणमें आये हुए प्रिय अर्जुनको यहाँ भगवान् यह कैसे कहते कि ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा अलग-अलग भिन्न-भिन्न अधिकारियोंद्वारा ही अनुष्ठान की जानेयोग्य हैं। यदि भगावन्का यह अभिप्राय मान लिया जाय कि ज्ञान और कर्म दोनोंको सुनकर अर्जुन स्वयं ही दोनोंका अनुष्ठान कर लेगा, दोनोंको भिन्न भिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य तो दूसरोंके लिये कहूँगा। तब तो भगवान्को रागद्वेषयुक्त और अप्रामाणिक मानना हुआ। ऐसा मानना सर्वथा अनुचित है। इसलिये किसी भी युक्तिसे ज्ञान और कर्मका समुच्चय नहीं माना जा सकता। कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानकी श्रेष्ठता जो अर्जुनने कही थी वह तो सिद्ध है ही, क्योंकि भगवान्ने उसका निराकरण नहीं किया। उस ज्ञाननिष्ठाके अनुष्ठानका अधिकार संन्यासियोंका ही है; क्योंकि दोनों निष्ठा भिन्न-भिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य बतलायी गयी हैं। इस कारण भगवान्की यही सम्मति है। यह प्रतीत होता है। बन्धनके हेतुरूप कर्मोंमें ही भगवान् मुझे लगाते हैं -- ऐसा समझकर व्यथित-चित्त हुए और मैं कर्म नहीं करूँगा, ऐसा माननेवाले अर्जुनको देखकर भगवान् बोले -- 'न कर्मणामनारम्भात्' इति। अथवा ज्ञाननिष्ठाका और कर्मनिष्ठाका परस्पर विरोध होनेके कारण एक पुरुषद्वारा एक कालमें दोनोंका अनुष्ठान नहीं किया जा सकता। इससे एक दूसरेकी अपेक्षा न रखकर दोनों अलग-अलग मोक्षमें हेतु हैं, ऐसा शंका होनेपर -- ।।3.3।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
श्रीभगवानुवाच -- पुरा उक्तं च सम्यग् अवधृतं त्वया; पुरा अपि अस्मिन् लोके विचित्राधिकारिसंपूर्णे द्विविधा निष्ठा ज्ञानकर्मविषया यथाधिकारम् असंकीर्णा एव मया उक्ता। न हि सर्वो लौकिकः पुरुषः संजातमोक्षाभिलाषः तदानीम् एव ज्ञानयोगाधिकारे प्रभवति, अपि तु अनभिसंहितफलेन केवलपरमपुरुषाराधनरूपेण अनुष्ठितेन कर्मणा विध्वस्तमनोमलः अव्याकुलेन्द्रियो ज्ञाननिष्ठायाम् अधिकरोति -- 'यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।(गीता 18।46)इति परमपुरुषाराधनैकवेषता कर्मणां वक्ष्यते।इहापि'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (गीता 2।47) इत्यादिना अनभिसंहितफलं कर्म अनुष्ठेयं विधाय तेन विषयव्याकुलतारूपमोहाद् उत्तीर्णबुद्धेः'प्रजहाति यदा कामान्' (गीता 2।55) इत्यादिना ज्ञानयोग उदितः। अतः सांख्यानाम् एव ज्ञानयोगेन स्थितिः उक्ता, योगिनां तु कर्मयोगेन।संख्या बुद्धिः, तद्युक्ताः सांख्याः- आत्मैकविषयया बुद्ध्या युक्ताः सांख्याः; अतदर्हाः कर्मयोगाधिकारिणो योगिनः। विषयव्याकुलबुद्धियुक्तानां कर्मयोगे अधिकारः, अव्याकुलबुद्धीनां तु ज्ञानयोगे अधिकार उक्तः, सति न किञ्चिद् इह विरुद्धम्, न अपि व्यामिश्रम् अभिहितम्।सर्वस्य लौकिकस्य पुरुषस्य मोक्षेच्छायां संजातायां सहसा एव ज्ञानयोगो दुष्कर इत्याह -- ।।3.3।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.3 The Lord said -- You have not properly understood what I taught you before. In this world, full of people with varying degrees of qualifications, I have taught in the days of yore two ways, that of knowledge (Jnana Yoga) and that of works, according to the qualifications of aspirants. There is no contradiction in this. It is not possible for all people of the world in whom the desire for release has arisen, to become capable immediately for the practice of Jnana Yoga. But he who performs the worship of the Supreme Person without desire for fruits and thereby gets completely rid of inner impurities and keeps his senses unagitated --- he becomes competent for the path of knowledge.That all activities are for performing the worship of the Supreme Person will be taught in the Gita verse, 'He from whom the activities of all beings arise and by whom all this is pervaded --- by worshipping Him with his duty man reaches perfection' (18.46). Earlier also performance of activities without any attachment to the fruits is enjoined by the verse beginning with. 'You have the right to work alone ...' (2.47). Next for those whose intellect has been redeemed by this kind of discipline, is enjoined Jnana Yoga by the words, 'When a man renounces all the desires ...' (2.55).Consequently, firm devotion to Jnana Yoga is taught only to the Sankhyas, i.e., those persons who are competent to follow the discipline of the knowledge of the self, and Karma Yoga to Yogins, i.e., to those competent for the path of work. Sankhya means Buddhi and those who are endowed with the Buddhi (intellectual or mental disposition) having only the self for its object, are Sankhyans. Therefore those who are not fit for this are qualified for Karma Yoga. Those who are possessed of Buddhi which is agitated by objects of the senses, are the persons qualified for Karma Yoga, whereas those whose Buddhi is not thus agitated, are qualified for Jnana Yoga. Therefore nothing contradictory and confusing is taught.It is said in the next stanza that Jnana Yoga is difficult to practise all at once, even when the desire for release arises in any worldy person:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- लोकेऽस्मिन्निति। पूर्वोक्तं त्वया सम्यक् नावधृतं, यतः अस्मिन् लोके द्विविधा निष्ठा मया पुरा प्रोक्ता; ये तु साङ्ख्यास्तेषां ज्ञानयोगेन सर्वत्यागरूपा स्थितिरुक्ता, ये चोक्तयोगाधिकारिणस्तेषामुक्तविधकर्मयोगेनेति। स्वस्वाधिकारानुसारेणैव सर्वं योग्यमिति न बुद्धिव्यामोहः कार्यः। अधिकारभेदस्तु सर्वाभिमतोऽत एव क्वचिज्ज्ञानं क्वचिद्भक्तिरिति स्वतः पुरुषार्थहेतवः। एवं मोक्षोपायाः'योगो ज्ञानं च भक्तिश्च' इत्युक्ताः ।।3.3।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु नाहं कंचिदपि प्रतारयामि कि पुनस्त्वामतिप्रियम्। त्वं तु किं मे प्रतारणाचिन्हं पश्यसीति चेत्तत्राह -- तव वचनं व्यामिश्रं न भवत्येव ममत्वेकाधिकारिकत्वभिन्नाधिकारिकत्वसंदेहाद्व्यामिश्रं संकीर्णार्थमिव ते यद्वाक्यं मांप्रति ज्ञानकर्मनिष्ठाद्वयप्रतिपादकं तेन वाक्येन त्वं मे मम मन्दबुद्धेर्वाक्यतात्पर्यापरिज्ञानाद्बुद्धिमन्तःकरणं मोहयसीव भ्रान्त्या योजयसीव। परमकारुणिकत्वात्त्वं न मोहयस्येव। मम तु स्वाशयदोषान्मोहो भवतीतीवशब्दार्थः। एकाधिकारित्वे विरुद्धयोः समुच्चयानुपपत्तेरेकार्थत्वाभावेन च विकल्पानुपपत्तेः प्रागुक्तेर्यद्यधिकारिभेदं मन्यसे तदैकं मांप्रति विरुद्धयोर्निष्ठयोरुपदेशायोगात्तज्ज्ञानं वा कर्म वैकमेवाधिकारं मे निश्चित्य वद। येनाधिकारनिश्चयपुरःसरमुक्तेन त्वया मया चानुष्ठितेन ज्ञानेन कर्मणा वैकेन श्रेयो मोक्षमहमाप्नुयां प्राप्तुं योग्यः स्याम्। एवं ज्ञानकर्मनिष्ठयोरेकाधिकारित्वे विकल्पसमुच्चययोरसंभवादधिकारिभेदज्ञानायार्जुनस्य प्रश्न इति स्थितम्।'इहेतरेषां कुमतं समस्तं श्रुतिस्मृतिन्यायबलान्निरस्तम्। पुनः पुनर्भाष्यकृतातियत्नादतो न तत्कर्तुमहं प्रवृत्तः।।भाष्यकारमतसारदर्शिना ग्रन्थमात्रमिह योज्यते मया। आशयो भगवतः प्रकाश्यते केवलं स्ववचसो विशुद्धये।।' एवमधिकारिभेदेऽर्जुनेन पृष्टे तदनुरुपं प्रतिवचनं श्रीभगवानुवाच -- अस्मिन्नधिकारित्वाभिमते लोके शुद्धाशुद्धान्तःकरणभेदेन द्विविधे जने द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिर्ज्ञानपरता कर्मपरता च पुरा पूर्वाध्याये मया तवात्यन्तहितकारिणा प्रोक्ता प्रकर्षेण स्पष्टत्वलक्षणेनोक्ता। तथा चाधिकार्यैक्यशङ्कया माग्लासीरिति भावः। हे अनघ अपापेति संबोधयन्नुपदेशयोग्यतामर्जुनस्य सूचयति। एकैव निष्ठा साध्यसाधनावस्थाभेदेन द्विप्रकारा नतु द्वे एव स्वतन्त्रे निष्ठे इति कथयितुं निष्ठेत्येकवचनम्। तथाच वक्ष्यति'एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति' इति। तामेव निष्ठां द्वैविध्येन दर्शयति -- सांख्येति। संख्या सम्यगात्मबुद्धिस्तां प्राप्तवतां ब्रह्मचर्यादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां ज्ञानभूमिमारूढानां शुद्धान्तःकरणानां सांख्यानां ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव युज्यते ब्रह्मणानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्ता'तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः' इत्यादिना। अशुद्धान्तःकरणानां तु ज्ञानभूमिमनारूढानां योगिनां कर्माधिकारयोगिनां कर्मयोगेन कर्मैव युज्यतेऽन्तःकरणशुद्ध्यानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्तान्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानभूमिकारोहणार्थं'धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते' इत्यादिना। अतएव न ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो विकल्पो वा किंतु निष्कामकर्मणा शुद्धान्तःकरणानां सर्वकर्मसंन्यासेनैव ज्ञानमिति चित्तशुद्ध्यशुद्धिरूपावस्थाभेदेनैकमेव त्वांप्रति द्विविधा निष्ठोक्ता'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु' इति। अतो भूमिकाभेदेनैकमेव प्रत्युभयोपयोगान्नाधिकारभेदेऽप्युपदेशवैयर्थ्यमित्यभिप्रायः। एतदेव दर्शयितुमशुद्धचित्तस्य चित्तशुद्धिपर्यन्तं कर्मानुष्ठानं'न कर्मणामनारम्भात्' इत्यादिभिः'मोघं पार्थ स जीवति' इत्यन्तैस्त्रयोदशभिर्दर्शयति। शुद्धचित्तस्य तु ज्ञानिनो न किंचिदपि कर्मापेक्षितमिति दर्शयति'यस्त्वात्मरतिरेव' इति द्वाभ्याम्।'तस्मादसक्तः' इत्यारभ्य तु बन्धहेतोरपि कर्मणो मोक्षहेतुत्वं सत्त्वशुद्धिज्ञानोत्पत्तिद्वारेण संभवति फलाभिसंधिराहित्यरूपकौशलेनेति दर्शयिष्यति। ततः परंतु 'अथ केन' इति प्रश्नमुत्थाप्य कामदोषेणैव काम्यकर्मणः शुद्धिहेतुत्वं नास्ति। अतः कामराहित्येनैव कर्माणि कुर्वन्नन्तःकरणशुद्ध्य ज्ञानाधिकारी भविष्यसीति यावदध्यायसमाप्ति वदिष्यति भगवान् ।।3.2 -- 3.3।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
ज्यायस्त्वेऽपि बुद्धेराधिकारिकत्वात् त्वं कर्मण्यधिकृत इति तत्र नियोक्ष्यामीत्याशयवान्भगवानाह -- 'लोक इति'। द्विविधा अपि जनाः सन्ति, गृहस्थादिकर्मत्यागेन ज्ञाननिष्ठाः सनकादिवत्; तत्स्था एव ज्ञाननिष्ठाश्च जनकादिवत्; मद्धर्मस्था एवेत्यर्थः। साङ्ख्यानां ज्ञानिनां सनकादीनाम्। योगिनामुपायिनां जनकादीनाम्। ज्ञाननिष्ठा अप्याधिकारिकत्वादीश्वरेच्छया लोकसङ्ग्रहार्थत्वाच्च ये कर्मयोग्या भवन्ति तेऽपि योगिनः। निष्ठा स्थितिः। त्वं तु जनकादिवत् सकर्मैव ज्ञानयोग्यः; न तु सनकादिवत्तत्त्यागेनेत्यर्थः। सन्ति हीश्वरेच्छयैव कर्मकृतः प्रियव्रतादयोऽपि ज्ञानिन एव। तथा ह्युक्तम् -- 'ईश्वरेच्छया विनिवेशितकर्माधिकारः' भाग.5।1।23 इति ।।3.3।।

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