रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-51


मूल स्लोकः

कर्मजं बुध्दियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।




English translation by Swami Sivananda
2.51 The wise, possessed of knowledge, having abandoned the fruits of their actions, and being freed from the fetters of birth, go to the place which is beyond all evil.


English commentary by Swami Sivananda
2.51 कर्मजम् action-born, बुद्धियुक्ताः possessed of knowledsge, हि indeed, फलम् the fruit, त्यक्त्वा having abandoned, मनीषिणः the wise, जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः freed from the fetters of birth, पदम् the abode, गच्छन्ति go, अनामयम् beyond evil.Commentary: Clinging to the fruits of actions is the cause of rebirth. Man takes a body to enjoy them. If anyone performs actions for the sake of God in fulfilment of His purpose without desire for the fruits, he is released from the bonds of birth and attains to the blissful state or the immortal abode.Sages who possess evenness of mind abandon the fruits of their actions and thus escape from good and bad actions.Buddhi referred to in the three verses 49, 50 and 51 may be the wisdom of the Sankhyas, i.e., the knowledge of the Self or Atma-Jnana which dawns when the mind is purified by Karma Yoga.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं ।।2.51।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः -- जो समतासे युक्त हैं, वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं। अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें राग नहीं करता, वह मेधावी (बुद्धिमान्) है।कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है। उसके फलका त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे, कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये, तो क्य खेतीमें अनाज नहीं होगा? बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ है -- कर्मजन्य फलकी इच्छा, कामना, ममता वासनाका त्याग करना। इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ हैं।जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः -- समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समतामें स्थित हो जानेसे उनमें राग-द्वेष, कामना, वासना, ममता आदि दोष किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहते; अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता। वे जन्म-मरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं।पदं गच्छन्त्यनामयम् -- ' आमय ' नाम रोगका है। रोग एक विकार है। जिसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारका विकार न हो, उसको ' अनामय ' अर्थात् निर्विकार कहते हैं। समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें ' अव्यय पद ' और अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें ' शाश्वत अव्यय पद ' नामसे कहा गया है।यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है (14। 6), पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है; क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है, जिसको प्राप्त होकर फिर किसीको भी जन्म-मरणके चक्करमें नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें हेतु होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी अनामय कह दिया है।अनामय पदको प्राप्त होना क्या है? प्रकृति विकारशील है, तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है। परन्तु जब यह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है, तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्त होना कहा गया है।इस श्लोकमें बुद्धियुक्ताः और मनीषिणः पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो जाते हैं, वे सब-के-सब अनामय पदको प्राप्त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पदकी प्राप्तिका अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वतः सिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है। इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता, वह तो स्वतः स्वाभाविक ही है।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें बताये अनामय पदकी प्राप्तिका क्रम क्या है -- इसे आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं ।।2.51।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- कर्मजं फलं त्यक्त्वा इति व्यवहितेन संबन्धः। इष्टानिष्टदेहप्राप्तिः कर्मजं फलं कर्मभ्यो जातं बुद्धियुक्ताः समत्वबुद्धियुक्ताः सन्तः हि यस्मात् फलं त्यक्त्वा परित्यज्य मनीषिणः ज्ञानिनो भूत्वा, जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः जन्मैव बन्धः जन्मबन्धः तेन विनिर्मुक्ताः जीवन्त एव जन्मबन्धात् विनिर्मुक्ताः सन्तः, पदं परमं विष्णोः मोक्षाख्यं गच्छन्ति अनामयं सर्वोपद्रवरहितमित्यर्थः। अथवा 'बुद्धियोगाद्धनञ्जय' इत्यारभ्य परमार्थदर्शनलक्षणैव सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीया कर्मयोगजसत्त्वशुद्धिजनिता बुद्धिर्दर्शिता, साक्षात्सुकृतदुष्कृतप्रहाणादिहेतुत्वश्रवणात्।।योगानुष्ठानजनितसत्त्वशुद्धजा बुद्धिः कदा प्राप्स्यते इत्युच्यते -- ।।2.51।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.51 The words 'phalam tyaktva, by giving up the fruits' are connected with the remote word 'karmajam, produced by actions'.Hi, because; Because, when actions are performed with an attitude of equanimity, it leads to becoming freed from sin etc. Therefore, by stages, it becomes the cause of Liberation as well. buddhi-yuktah, those who are devoted to wisdom, who are imbued with the wisdom of equanimity; (they) becoming manisinah, men of Enlightenment; tyaktva, by giving up; phalam, the fruit, the acquisition of desirable and undesriable bodies; Desirable: the bodies of gods and others; undesirable: the bodies of animals etc. karmajam, produced by actions; gacchanti, reach; padam, the state, the supreme state of Visnu, called Liberation; anamayam, beyond evils, i.e. beyond all evils; by having become janma-bandha-vinirmuktah, freed from the bondage of birth -- birth (janma) itself is a bondage (bandha); becoming freed from that --, even while living.Or: -- Since it (buddhi) has been mentioned as the direct cause of the elimination of righteousness and unrighteousness, and so on, therefore what has been presented (in the three verses) beginning with, 'O Dhananjaya,...to the yoga of wisdom' (49), is enlightenment itself, which consists in the realization of the supreme Goal, which is comparable to a flood all around, and which arises from the purification of the mind as a result of Karma-yoga. In the first portion of the Commentary buddhi has been taken to mean samattva buddhi (wisdom of equanimity); the alternative meaning of buddhi has been taken as 'enlightenment'. So, action is to be performed by taking the help of the 'wisdom about the supreme Reality' which has been chosen as one's Goal.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
क्योंकि -- 'कर्मजम्' इस पदका 'फलं त्यक्त्वा' इस अगले पदसे सम्बन्ध है। कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली जो इष्टानिष्टदेहप्राप्ति है वही कर्मज फल कहलाता है, समत्वबुद्धियुक्त पुरुष, उस कर्म-फलको छोड़कर मनीषी अर्थात् ज्ञानी होकर जीवित अवस्थामें ही जन्म-बन्धनसे निर्मुक्त होकर अर्थात् जन्म नामके बन्धनसे छूटकर विष्णुके मोक्ष नामक अनामय -- सर्वोपद्रवरहित परमपदको पा लेते हैं। अथवा ( यों समझो कि ) 'बुद्धियोगाद्धनंजय' इस श्लोकसे लेकर ( यहाँतक बुद्धि शब्दसे ) कर्मयोगजनित सत्त्व-शुद्धिसे उत्पन्न हुई जो सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीय परमार्थ-ज्ञानरूपा बुद्धि है वही दिखलायी गयी है; क्योंकि ( यहाँ ) यह बुद्धि पुण्यपापके नाशमें साक्षात् हेतुरूपसे वर्णित है ।।2.51।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
बुद्धियोगयुक्ताः कर्मजं फलं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्तः, तस्माद् जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः अनामयं पदं गच्छन्ति। हि प्रसिद्धम् एतत् सर्वासु उपनिषत्सु इत्यर्थः ।।2.51।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.51 Those who possess this evenness of mind while performing actions and relinquish their fruits, are freed from the bondage of rebirth, and go to the region beyond all ills. 'Hi' means that this dictum or teaching is well known in all the Upanisads.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एवं योगेन व्यवसायिनां सिद्धिप्रकारं सदाचारेण दर्शयति -- कर्मजमिति। फलं त्यक्त्वा जन्मैव बन्धरूपं तेन विनिर्मुक्ता अनामयं पदं धाम अक्षराख्यं स्वरूपं गच्छन्ति ।।2.51।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु दुष्कृतहानमपेक्षितं नतु सुकृतहानं पुरुषार्थभ्रंशापत्तेरित्याशङ्क्य तुच्छफलत्यागेन परमपुरुषार्थप्राप्तिं फलमाह -- समत्वबुद्धियुक्ता हि यस्मात्कर्मजं फलं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थं कर्माणि कुर्वाणाः सत्त्वशुद्धिद्वारेण मनीषिणस्तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्यात्ममनीषावन्तो भवन्ति, तादृशाश्च सन्तो जन्मात्मकेन बन्धेन विनिर्मुक्ताः विशेषेणात्यन्तिकत्वलक्षणेन निरवशेषं मुक्ताः पदं पदनीयमात्मतत्त्वमानन्दरूपं ब्रह्म, अनामयमविद्यातत्कार्यात्मकरोगरहितमभयं मोक्षाख्यं पुरुषार्थं गच्छन्ति। अभेदेन प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। यस्मादेवं फलकामनां त्यक्त्वा समत्वबुद्ध्या कर्माण्यनुतिष्ठन्तस्तैः कृतान्तःकरणशुद्धयस्तत्त्वमस्यादिप्रमाणोत्पन्नात्मतत्त्वज्ञानविनष्टाज्ञानतत्कार्याः सन्तः सकलानर्थनिवृत्तिपरमानन्दप्राप्तिरूपं मोक्षाख्यं विष्णोः परमं पदं गच्छन्ति तस्मात्त्वमपि'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' इत्युक्तेः श्रेयोजिज्ञासुरेवंविधं कर्मयोगमनुतिष्ठेति भगवतोऽभिप्रायः ।।2.51।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तदुपायमाह -- 'कर्मजमिति'। कर्मजं फलं त्यक्त्वाऽकामनयेश्वराय समर्प्य बुद्धियुक्ताः। सम्यग्ज्ञानिनो भूत्वा पदं गच्छन्ति। स योगः कर्म ज्ञानसाधनम्। तन्मोक्षसाधनमिति भावः ।।2.51।।

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