रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-17


मूल स्लोकः

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।




English translation by Swami Sivananda
3.17 But for that man who rejoices only in the Self, who is satisfied with the Self and who is content in the Self alone, verily there is nothing to do.


English commentary by Swami Sivananda
3.17 यः who, तु but, आत्मरतिः who rejoices in the Self, एव only, स्यात् may be, आत्मतृप्तः satisfied in the Self, च and, मानवः the man, आत्मनि in the Self, एव only, च and, सन्तुष्टः contented, तस्य his, कार्यम् work to be done, न not, विद्यते is.Commentary: The sage does not depend on external objects for his happiness. He is quite satisfied with the Self. He finds his joy, bliss and contentment within his own Self. For such a sage who has knowledge of the Self, there is nothing to do. He has already done all actions. He has satisfied all his desires. He has complete satisfaction. (Cf.II.55).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।।3.17।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- यस्त्वात्मरतिरेव ... च संतुष्टस्तस्य -- यहाँ तु पद पूर्वश्लोकमें वर्णित अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यसे कर्तव्यकर्मके द्वारा सिद्धिको प्राप्त महापुरुषकी विलक्षणता बतानेके लिये प्रयुक्त हुआ है।जबतक मनुष्य अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है तबतक वह अपनी ' रति' (प्रीति) इन्द्रियोंके भोगोंसे एवं स्त्री, पुत्र, परिवार आदिसे, ' तृप्ति ' भोजन (अन्न-जल) से तथा ' सन्तुष्टि ' धनसे मानता है। परन्तु इसमें उसकी प्रीति, तृप्ति और सन्तुष्टि न तो कभी पूर्ण ही होती है और न निरन्तर ही रहती है। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील, जड और नाशवान् है तथा ' स्वयं' सदा एकरस रहनेवाला, चेतन और अविनाशी है। तात्पर्य है कि ' स्वयं ' का संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। अतः ' स्वयं' की प्रीति, तृप्ति और सन्तुष्टि संसारसे कैसे हो सकती है?किसी भी मनुष्यकी प्रीति संसारमें सदा नहीं रहती -- यह सभीका अनुभव है। विवाहके समय स्त्री और पुरुषमें परस्पर जो प्रीति या आकर्षण प्रतीत होता है, वह एक-दो सन्तान होनेके बाद नहीं रहता। कहीं-कहीं तो स्त्रियाँ अपने वृद्ध पतिके लिये यहाँतक कह देती हैं कि ' बुड्ढा मर जाय तो अच्छा है!' भोजन करनेसे प्राप्त ' तृप्ति ' भी कुछ ही समयके लिये प्रतीत होती है, मनुष्यको धन-प्राप्तिमें जो ' सन्तुष्टि ' प्रतीत होती है, वह भी क्षणिक होती है; क्योंकि धनकी लालसा सदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। इसलिये कमी निरन्तर बनी रहती है। तात्पर्य यही है कि संसारमें प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि कभी स्थायी नहीं रह सकती।मनुष्यको सांसारिक वस्तुओंमें प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिकी केवल प्रतीति होती है, वास्तवमें होती नहीं, अगर होती तो पुनः अरति, अतृप्ति एवं असन्तुष्टि नहीं होती। स्वरूपसे प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि स्वतःसिद्ध है। स्वरूप सत् है। सत्में कभी कोई अभाव नहीं होता -- नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16) और अभावके बिना कोई कामना पैदा नहीं होती। इसलिये स्वरूपमें निष्कामता स्वतःसिद्ध है। परन्तु जब जीव भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिको संसारमें ढूँढ़ने लगता है और इसके लिये सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है। कामना करनेके बाद जब वह वस्तु (धनादि) मिलती है, तब मनमें स्थित कामनाके निकलनेके बाद (दूसरी कामनाके पैदा होनेसे पहले) उसकी अवस्था निष्काम हो जाती है और उसी निष्कामताका उसे सुख होता है; परन्तु उस सुखको मनुष्य भूलसे सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिसे उत्पन्न हुआ मान लेता है तथा उस सुखको ही प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिके नामसे कहता है। अगर वस्तुकी प्राप्तिसे वह सुख होता, तो उसके मिलनेके बाद उस वस्तुके रहते हुए सदा सुख रहता, दुःख कभी न होता और पुनः वस्तुकी कामना उत्पन्न न होती। परन्तु सांसारिक वस्तुओंसे कभी भी पूर्ण (सदाके लिये) प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि प्राप्त न हो सकनेके कारण तथा संसारसे ममताका सम्बन्ध बना रहनेके कारण वह पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है। कामना उत्पन्न होनेपर अपनेमें अभावका तथा काम्य वस्तुके मिलनेपर अपनेमें पराधीनताका अनुभव होता है। अतः कामनावाला मनुष्य सदा दुःखी रहता है।यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि साधक तो उस सुखका मूल कारण निष्कामताको मानते हैं और दुःखोंका कारण कामनाको मानते हैं; परन्तु संसारमें आसक्त मनुष्य वस्तुओंकी प्राप्तिसे सुख मानते हैं और वस्तुओंकी अप्राप्तिसे दुःख मानते हैं। यदि आसक्त मनुष्य भी साधकके समान ही यथार्थ दृष्टिसे देखे तो उसको शीघ्र ही स्वतःसिद्ध निष्कामताका अनुभव हो सकता है।सकाम मनुष्योंको कर्मयोगका अधिकारी कहा गया है -- कर्मयोगस्तु कामिनाम् (श्रीमद्भा0 11। 20। 7)। सकाम मनुष्योंकी प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि संसारमें होती है। अतः कर्मयोगद्वारा सिद्ध निष्काम महापुरुषोंकी स्थितिका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि उनकी प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि सकाम मनुष्योंकी तरह संसारमें न होकर अपने-आप-(स्वरूप-) में ही हो जाती है (गीता 2। 55), जो स्वरूपतः पहलेसे ही है।वास्तवमें प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि -- तीनों अलग-अलग न होते हुए भी संसारके सम्बन्धसे अलग-अलग प्रतीत होती हैं। इसीलिये संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उस महापुरुषकी प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि -- तीनों एक ही तत्त्व-(स्वरूप-) में हो जाती है।भगवान्ने इस श्लोकमें दो बार तथा आगेके (अठारहवें) श्लोकमें एक बार एव और च पदोंका प्रयोग किया है। इससे यह भाव प्रकट होता है कि कर्मयोगीकी प्रीति, तृप्ति और संतुष्टिमें किसी प्रकारकी कमी नहीं रहती एवं तत्त्वके अतिरिक्त अन्यकी आवश्यकता भी नहीं रहती (गीता 6। 22)।तस्य कार्यं न विद्यते -- मनुष्यके लिये जो भी कर्तव्य-कर्मका विधान किया गया है, उसका उद्देश्य परम कल्याणस्वरूप परमात्माको प्राप्ति करना ही है। किसी भी साधन-(कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग-) के द्वारा उद्देश्यकी सिद्धि हो जानेपर मनुष्यके लिये कुछ भी करना, जानना अथवा पाना शेष नहीं रहता, जो मनुष्य-जीवनकी परम सफलता है।मनुष्यके वास्तविक स्वरूपमें किञ्चिन्मात्र अभाव न रहनेपर भी जबतक वह संसारके सम्बन्धके कारण अपनेमें अभाव समझकर और शरीरको ' मैं ' तथा ' मेरा ' मानकर ' अपने लिये ' कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य शेष रहता ही है। परन्तु जब वह ' अपने लिये ' कुछ भी न करके ' दूसरोंके लिये ' अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणोंके लिये; माता, पिता, स्त्री, पुत्र, परिवारके लिये; समाजके लिये; देशके लिये और जगत्के लिये सम्पूर्ण कर्म करता है, तब उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसका अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। कारण कि स्वरूपमें कोई भी क्रिया नहीं होती। जो भी क्रिया होती है, संसारके सम्बन्धसे ही होती है और सांसारिक वस्तुके द्वारा ही होती है। अतः जिनका संसारसे सम्बन्ध है, उन्हींके लिये कर्तव्य है।कर्म तब होता है, जब कुछ-न-कुछ पानेकी कामना होती है, और कामना पैदा होती है -- अभावसे। सिद्ध महापुरुषमें कोई अभाव होता ही नहीं, फिर उनके लिये करना कैसा?कर्मयोगके द्वारा सिद्ध महापुरुषकी रति, तृप्ति और संतुष्टि जब अपने-आपमें ही हो जाती है, तब कृत-कृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जानेसे वह विधि-निषेधसे ऊँचा उठ जाता है। यद्यपि उसपर शास्त्रका शासन नहीं रहता, तथापि उसकी समस्त क्रियाएँ स्वाभाविक ही शास्त्रानुकूल तथा दूसरोंके लिये आदर्श होती हैं।यहाँ तस्य कार्यं न विद्यते पदोंका अभिप्राय यह नहीं है कि उस महापुरुषसे कोई क्रिया होती ही नहीं। कुछ भी करना शेष न रहनेपर भी उस महापुरुषके द्वारा लोकसंग्रहके लिये क्रियाएँ स्वतः होती हैं। जैसे पलकोंका गिरना-उठना, श्वासोंका आना-जाना, भोजनका पचना आदि क्रियाएँ स्वतः (प्रकृतिमें) होती हैं, ऐसे ही उस महापुरुषके द्वारा सभी शास्त्रानुकूल आदर्शरूप क्रियाएँ भी (कर्तृत्वाभिमान न होनेके कारण) स्वतः होती हैं ।।3.17।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- यस्तु सांख्यः आत्मज्ञाननिष्ठः आत्मरतिः आत्मन्येव रतिः न विषयेषु यस्य सः आत्मरतिरेव स्यात् भवेत् आत्मतृप्तश्च आत्मनैव तृप्तः न अन्नरसादिना सः मानवः मनुष्यः संन्यासी आत्मन्येव च संतुष्टः। संतोषो हि बाह्यार्थलाभे सर्वस्य भवति, तमनपेक्ष्य आत्मन्येव च संतुष्टः सर्वतो वीततृष्ण इत्येतत्। यः ईदृशः आत्मवित् तस्य कार्यं करणीयं न विद्यते नास्ति इत्यर्थः।।किञ्च -- ।।3.17।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.17 Tu, but; that manavah, man, the sannyasin, the man of Knowledge, steadfast in the knowledge of the Self; yah, who; atmaratih eva syat, rejoices only in the Self-not in the sense objects; and atma-trptah, who is satisfied only with the Self-not with food and drink; and is santustah, contented; eva, only; atmani, in the Self; tasya, for him; na vidyate, there is no; karyam, duty Duty with a view to securing Liberation. to perform. Rati, trpti and santosa, though synonymous, are used to indicate various types of pleasures. Or, rati means attachment to objects; trpti means happiness arising from contact with some particular object; and santosa means happiness in general, arising from the acquisition of some coveted object only.All people surely feel contened by acquiring an external thing. But this one, without depending on it, remains contented only with the Self; thta is to say, he remains detached from everything. The idea it that, for a man who is such a knower of the Self, there is no duty to undertake.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
अथवा स्वयं ही भगवान् शास्त्रके अर्थको भलीभाँति समझानेके लिये 'यह जो प्रसिद्ध आत्मा है उसको जानकर जिनका मिथ्या ज्ञान निवृत्त हो चुका है, ऐसे जो महात्मा ब्राह्मणगण अज्ञानियोंद्वारा अवश्य की जानेवाली पुत्रादिकी इच्छाओंसे रहित होकर केवल शरीर-निर्वाहके लिये भिक्षाका आचरण करते हैं, उनका आत्मज्ञाननिष्ठासे अतिरिक्त अन्य कुछ भी कर्तव्य नहीं रहता' ऐसा श्रुतिका तात्पर्य जो कि इस गीताशास्त्रमें प्रतिपादन करना उनको इष्ट है, उस ( श्रुति-अर्थ ) को प्रकट करते हुए बोले -- परंतु जो आत्मज्ञाननिष्ठ सांख्ययोगी, केवल आत्मामें ही रतिवाला है अर्थात् जिसका आत्मामें ही प्रेम है, विषयोंमें नहीं और जो मनुष्य अर्थात् संन्यासी आत्मासे ही तृप्त है -- जिसकी तृप्ति अन्नरसादिके अधीन नहीं रह गयी है तथा जो आत्मामें ही संतुष्ट है, बाह्य विषयोंके लाभसे तो सबको सन्तोष होता ही है, पर उनकी अपेक्षा न करके जो आत्मामें ही सन्तुष्ट है अर्थात् सब ओरसे तृष्णारहित है। जो कोई ऐसा आत्मज्ञानी है उसके लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है ।।3.17।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यः तु ज्ञानयोगकर्मयोगसाधननिरपेक्षः स्वत एव आत्मरतिः आत्माभिमुखः आत्मना एव तृप्तः, न अन्नपानादिभिः आत्मव्यतिरिक्तैः, आत्मनि एव च सन्तुष्टः; न उद्यानस्रक्चन्दनगीतवादित्रनृत्यादौ, धारणपोषणभोग्यादिकं सर्वम् आत्मा एव यस्य तस्य आत्मदर्शनाय कर्तव्यं न विद्यते; स्वत एव सर्वदा दृष्टात्मस्वरूपत्वात् ।।3.17।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.17 But for him, who is not in need of the means of Jnana Yoga and Karma Yoga, who finds delight in the self on his own, i.e., who is established in the self, who is satisfied by the self alone and not by food, drink and other things which are other than the self, who rejoices in the self alone and not in pleasure gardens, garlands, sandalpaste, vocal and instrumental music etc., and for whom everything, his subsistence, nourishment and enjoyment, is the self alone --- for him nothing remains to be performed for the vision of the self, because the essential nature of the self is perpetually in his unaided vision.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
तदेवं'न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते' 3।4 इति योगमार्गीयपुरुषार्थसिद्ध्यर्थं कर्म विहितं विधेयमित्युक्तम्; साङ्क्यमार्गीयस्य तु ज्ञानमेव नानात्मभूतं कर्मोपयुक्तमित्याह द्वाभ्याम् -- यस्त्विति। तुः पूर्वं प्रकृतेभेदार्थकः। आत्मन्येवेति। तृप्तिर्तुष्टिर्यस्य नानात्मनि इत्यात्मैवकारलिङ्गेन साङ्ख्यमार्गीयो मुनिरुक्तः। तत्र हेतुमाह ।।3.17।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
यस्त्विन्द्रियारामो न भवति परमार्थदर्शी स एवं जगच्चक्रप्रवृत्तिहेतुभूतं कर्माननुतिष्ठन्नपि न प्रत्यवैति कृतकृत्यत्वादित्याह द्वाभ्याम् -- इन्द्रियारामो हि स्रक्चन्दनवनितादिषु रतिमनुभवति, मनोज्ञान्नपानादिषु तृप्तिम्, पशुपुत्रहिरण्यादिलाभेन रोगाद्यभावेन च तुष्टिं, उक्तविषयाभावे रागिणामरत्यतृप्त्यतुष्टिदर्शनात्। रतितृप्तितुष्टयो मनोवृत्तिविशेषाः साक्षिसिद्धाः। लब्धपरमात्मानन्दस्तु द्वैतदर्शनाभावादतिफल्गुत्वाच्च विषयसुखं न कामयत इत्युक्तं'यावानर्थ उदपाने' इत्यत्र। अतो नात्मविषयकरतितृप्तितुष्ट्यभावादात्मानं परमानन्दमद्वयं साक्षात्कुर्वन्नुपचारादेवमुच्यते आत्मरतिरात्मतृप्त आत्मसंतुष्ट इति। तथाच श्रुतिः'आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः' इति। आत्मतृप्तश्चेति चकार एवकारानुकर्षणार्थः। मानव इति यः कश्चिदपि मनुष्य एवंभूतः स एव कृतकृत्यो नतु ब्राह्मणत्वादिप्रकर्षेणेति कथयितुम्। आत्मन्येव च संतुष्ट इत्यत्र चकारः समुच्चयार्थः। य एवंभूतस्तस्याधिकारहेत्वभावात्किमपि कार्यं वैदिकं लौकिकं वा न विद्यते ।।3.17।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तर्ह्यतीव मनस्समाधानमपि न कार्यमित्यत आह -- 'यस्त्विति'। रमणं परदर्शनादिनिमित्तं सुखम्। तृप्तिरन्यत्रालम्बुद्धिः। सन्तोषस्तज्जनकं सुखम्।'सन्तोषस्तृप्तिकारणम्' इत्यभिधानात्। परमात्मदर्शनादिनिमित्तं सुखं प्राप्तः। अन्यत्र सर्वात्मनाऽलम्बुद्धिः। महच्च तत्सुखं च तेनैवान्यत्रालम्बुद्धिरिति दर्शयति -- 'आत्मन्येव च सन्तुष्ट इति'। तत्स्थ एव सन्सन्तुष्ट इत्यर्थः। नान्यत्किमपि सन्तोषकारणमित्यवधारणम्। आत्मना तृप्तः। न ह्यात्मन्यलम्बुद्धिर्युक्ता। तद्वाचित्वं च'वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमैः' भाग.1।1।19 इति प्रयोगात्सिद्धम्। अध्याहारस्त्वगतिका गतिः।'आत्मरतिरैव' इत्यवधारणादसम्प्रज्ञातसमाधिस्थस्यैव कार्यं न विद्यते।स्थितप्रज्ञस्यापि कार्यो देहादिर्दृश्यते। यद्वा'स्वधर्मो मम तुष्ट्यर्थः सा हि सर्वैरपेक्षिता' इति वचनाच्च पञ्चरात्रे। अन्यदाऽन्यरतिरपीषत्सर्वस्य भवति। न च तत्रालम्बुद्धिमात्रमुक्तम्; आत्मतृप्त इति पृथगभिधानात्। कर्तृशब्दः कालावच्छेदेऽपि चायं प्रसिद्धः'यो भुङ्क्ते स तु न ब्रूयात्' इत्यादौ; अतोऽसम्प्रज्ञातसमाधावेवैतत्।मानव इति ज्ञानिन एवासम्प्रज्ञातसमाधिर्भवतीति दर्शयति; मनु अवबोधन इति धातोः। परमात्मरतिश्चात्र विवक्षिता।'विष्णावेव रतिर्यस्य क्रिया तस्यैव नास्ति हि' इति वचनात् ।।3.17।।

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