शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-22


मूल स्लोकः

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृहणाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।




English translation by Swami Sivananda
2.22 Just as a man casts off worn-out clothes and puts on new ones, so also the embodied Self casts off worn-out bodies and enters others which are new.


English commentary by Swami Sivananda
2.22 वासांसि clothes, जीर्णानि worn out, यथा as, विहाय having cast away, नवानि new, गृह्णाति takes, नरः man, अपराणि others, तथा so, शरीराणि bodies, विहाय having cast away, जीर्णानि worn-out, अन्यानि others, संयाति enters, नवानि new, देही the embodied (one).No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है ।।2.22।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- वासांसि जीर्णानि ... संयाति नवानि देही' -- इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें सूत्ररूपसे कहा गया था कि देहान्तरकी प्राप्तिके विषयमें धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बातको उदाहरण देकर स्पष्टरूपसे कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ोंके परिवर्तनपर मनुष्यको शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरोंके परिवर्तनपर भी शोक नहीं होना चाहिये।कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं, अतः यहाँ कपड़े बदलनेके उदाहरणमें नरः पद दिया है। यह नरः पद मनुष्ययोनिका वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ जवान-बूढ़े आदि सभी आ जाते हैं।जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़ोंको धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंको धारण करता है। पुराना शरीर छोड़नेको ' मरना ' कह देते हैं, और नया शरीर धारण करनेको ' जन्मना ' कह देते हैं। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर कर्मोंके अनुसार या अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार नये-नये शरीरोंको प्राप्त होता रहता है।यहाँ शरीराणि पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जबतक शरीरीको अपने वास्तविक स्वरूपका यथार्थ बोध नहीं होता, तबतक यह शरीरी अनन्तकालतक शरीर धारण करता ही रहता है। आजतक इसने कितने शरीर धारण किये हैं, इसकी गिनती भी सम्भव नहीं है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर शरीराणि पदमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है तथा सम्पूर्ण जीवोंका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ देही पद आया है।यहाँ श्लोकके पूर्वार्धमें तो जीर्ण कपड़ोंकी बात कही है और उत्तरार्धमें जीर्ण शरीरोंकी। जीर्ण कपड़ोंका दृष्टान्त शरीरोंमें कैसे लागू होगा? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानोंके भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ोंके जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होनेपर ही मरता है और आयु समाप्त होना ही शरीरका जीर्ण होना है (टिप्पणी प0 62)। शरीर चाहे बच्चोंका हो, चाहे जवानोंका हो, चाहे वृद्धोंका हो, आयु समाप्त होनेपर वे सभी जीर्ण ही कहलायेंगे।इस श्लोकमें भगवान्ने यथा और तथा पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएँ अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तरकी प्राप्ति अपने-आप होती है (2। 13) -- यहाँ तो यथा (जैसे) और तथा (वैसे) घट जाते हैं। परन्तु (इस श्लोकमें) पुराने कपड़ोंको छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो मनुष्यकी स्वतन्त्रता है, पर पुराने शरीरोंको छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें देहीकी स्वतन्त्रता नहीं है। इसलिये यहाँ यथा और तथा कैसे घटेंगे? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान्का तात्पर्य स्वतन्त्रता -- परतन्त्रताकी बात कहनेमें नहीं हैं, प्रत्युत शरीरके वियोगसे होनेवाले शोकको मिटानेमें है। जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपडे धारण करनेपर भी धारण करनेवाला (मनुष्य) वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चले जानेपर भी देही ज्यों-का-त्यों निर्लिप्तरूपसे रहता है; अतः शोक करनेकी कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टिसे यह दृष्टान्त ठीक ही है।दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो सुख होता, है पर पुराने शरीर छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें दुःख होता है। अतः यहाँ यथा और तथा कैसे घटेंगे? इसका समाधान .यह है कि शरीरोंके मरनेका जो दुःख होता है, वह मरनेसे नहीं होता, प्रत्युत जीनेकी इच्छासे होता है। ' मैं जीता रहूँ ' -- ऐसी जीनेकी इच्छा भीतरमें रहती है और मरना पड़ता है, तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीरके साथ एकात्मता कर लेता है, तब वह शरीरके मरनेसे अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परन्तु जो शरीरके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, उसको मरनेमें दुःख नहीं होता, प्रत्युत आनन्द होता है! जैसे, मनुष्य कपड़ोंके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, तो कपड़ोंको बदलनेमें उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है कि कपड़े अलग है और मैं अलग हूँ। परन्तु वही कपड़ोंका बदलना अगर छोटे बच्चेका किया जाय, तो वह पुराने कपड़े उतारनेमें और नये कपड़े धारण करनेमें भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खतासे, नासमझीसे होता है। इस मूर्खताको मिटानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ यथा और तथा पद देकर कपड़ोंका दृष्टान्त दिया है।यहाँ भगवान्ने कपड़ोंके धारण करनेमें तो गृह्णाति (धारण करता है) क्रिया दी, पर शरीरोंके धारण करनेमें 'संयाति ' (जाता है) क्रिया दी, ऐसा क्रियाभेद भगवान्ने क्यों किया? लौकिक दृष्टिसे बेसमझीके कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ोंको धारण करता है और देहान्तरकी प्राप्तिमें देहीको उन-उन देहोंमें जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टिको लेकर ही भगवान्ने क्रियाभेद किया है।विशेष बातगीतामें येन सर्वमिदं ततम् (2। 17), नित्यः सर्वगतः स्थाणुः (2। 24) आदि पदोंसे देहीको सर्वत्र व्याप्त, नित्य, सर्वगत और स्थिर स्वभाववाला बताया तथा संयाति नवानि देही (2। 22), शरीरं यदवाप्नोति (15। 8) आदि पदोंसे देहीको दूसरे शरीरोंमें जानेकी बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है, सर्वत्र व्याप्त है, उसका जाना-आना कैसे? क्योंकि जो जिस देशमें न हो, उस देशमें चला जाय, तो इसको ' जाना ' कहते हैं; और जो दूसरे देशमें है, वह इस देशमें आ जाय, तो इसको ' आना ' कहते हैं। परन्तु देहीके विषयमें तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं! इसका समाधान यह है कि जैसे किसीकी बाल्यावस्थासे युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि ' मैं जवान हो गया हूँ'। परन्तु वास्तवमें वह स्वयं जवान नहीं हुआ है, प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिये बाल्यावस्थामें जो वह था, युवावस्थामें भी वह था, युवावस्थामें भी वह वही है। परन्तु शरीरसे तादात्म्य माननेके कारण वह शरीरके परिवर्तनको अपनेमें आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तवमें शरीरका धर्म है, पर शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे वह अपनेमें आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तवमें देहीका कहीं भी आना-जाना नहीं होता, केवल शरीरोंके तादात्म्यके कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है।अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकालसे जो जन्म-मरण चला आ रहा है, उसमें कारण क्या है? कर्मोंकी दृष्टिसे तो शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये जन्म-मरण होता है, ज्ञानकी दृष्टिसे अज्ञानके कारण जन्म-मरण होता है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान्की विमुखताके कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनोंमें भी मुख्य कारण है कि भगवान्ने जीवको जो स्वतन्त्रता दी है, उसका दुरुपयोग करनेसे ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे? मिली हुई स्वतन्त्रताका सदुपयोग करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। अपनी जानकारीका अनादर करनेसे (टिप्पणी प0 63) जन्म-मरण हुआ है; अतः अपनी जानकारीका आदर करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। भगवान्से विमुख होनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः भगवान्के सम्मुख होनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। सम्बन्ध -- पहले दृष्टान्तरूपसे शरीरीकी निर्विकारताका वर्णन करके अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसीका प्रकारान्तरसे वर्णन करते हैं ।।2.22।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- वासांसि वस्त्राणि जीर्णानि दुर्बलतां गतानि यथा लोके विहाय परित्यज्य नवानि अभिनवानि गृह्णाति उपादत्ते नरः पुरुषः अपराणि अन्यानि, तथा तद्वदेव शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति संगच्छति नवानि देही आत्मा पुरुषवत् अविक्रिय एवेत्यर्थः।।कस्मात् अविक्रिय एवेति, आह -- ।।2.22।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.22 Yatha, as in the world; vihaya, after rejecting jirnani, wornout; vasamsi, clothes; narah, a man grhnati, takes up; aparani, other; navani, new ones; tatha, likewise, in that very manner; vihaya, after rejecting; jirnani, wornout; sarirani, bodies; dehi, the embodied one, the Self which is surely unchanging like the man (in the example); samyati, unites with; anyani, other; navani, new ones. This is meaning.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
अब हम प्रकृत विषय वर्णन करेंगे। यहाँ ( प्रकरणमें ) आत्माके अविनाशित्वकी प्रतिज्ञा की गयी है वह किसके सदृश है? सो कहा जाता है -- जैसे जगत्में मनुष्य पुराने-जीर्ण वस्त्रोंको त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरको छोड़कर अन्यान्य नवीन शरीरोंको प्राप्त करता है। अभिप्राय यह कि ( पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये धारण करनेवाले ) पुरुषकी भाँति जीवात्मा सदा निर्विकार ही रहता है ।।2.22।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
धर्मयुद्धे शरीरं त्यजतां त्यक्तशरीराद् अधिकतरकल्याणशरीरग्रहणं शास्त्राद् अवगम्यते इति। जीर्णानि वासांसि विहाय नवानि कल्याणानि वासांसि गृह्णताम् इव हर्षनिमित्तिम् एव अत्र उपलभ्यते।पुनरपि'अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।' (गीता 2।17) इति पूर्वोक्तम् अविनाशित्वं सुखग्रहणाय व्यञ्जयन् द्रढयति -- ।।2.22।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.22 That those who give up their bodies in a righteous war get more beauteous bodies than before, is known through the scriptures. Casting off worn-out garments and taking new and beautiful ones, can be only a cause of joy, as seen here in the world in the case of new garments.Once again Sri Krsna emphasises for easy understanding the indestructibility of the self, taught before: 'Know that to be indestructible by which all this is pervaded' (II.17) and confirms it thus:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
नन्वात्मनोऽविनाशेऽपि तदीयभोगसाधनदेहानां विनाशं पर्यालोच्य शोचामीति चेत्तत्राह -- वासांसीति। यथेति दृष्टान्तः। नरो जीर्णानि वासांसि विहायापराणि नवानि गृह्णाति, तथा देही जीव आत्मा जीर्णानि शरीराणि त्यक्त्वाऽन्यानि नवानि प्राप्नोति। कर्मनिबन्धनानां नूतनानां देहानामवश्यम्भावात् न जीर्णदेहनाशे शोकावकाश इति भावः ।।2.22।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नन्वेवमात्मनो विनाशित्वाभावेऽपि देहानां विनाशित्वाद्युद्धस्य च तन्नाशकत्वात्कथं भीष्मादिदेहानामनेकसुकृतसाधनानां मया युद्धेन विनाशः कार्य इत्याशङ्काया उत्तरं जीर्णानि विहाय वस्त्राणि नवानि गृह्णाति विक्रियाशून्य एव नरो यथेत्येतावतैव निर्वाहे अपराणीति विशेषणमुत्कर्षातिशयख्यापनार्थम्। तेन तथा निकृष्टानि वस्त्राणि विहायोत्कृष्टानि जनो गृह्णातीत्यौचित्यायातम्। तथा जीर्णानि वयसा तपसा च कृशानि भीष्मादिशरीराणि विहाय अन्यानि देवादिशरीराणि सर्वोत्कृष्टानि चिरोपार्जितधर्मफलभोगाय संयाति सम्यक् गर्भवासादिक्लेशव्यतिरेकेण प्राप्नोति। देही प्रकृष्टधर्मानुष्ठातृदेहवान्भीष्मादिरित्यर्थः।'अन्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा गान्धर्वं वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मं वा' इत्यादिश्रुतेः। एतदुक्तं भवति -- भीष्मादयो हि यावज्जीवं धर्मानुष्ठानक्लेशेनैव जर्जरशरीरा वर्तमानशरीरपातमन्तरेण तत्फलभोगायासमर्था यदि धर्मयुद्धेन स्वर्गप्रतिबन्धकानि जर्जरशरीराणि पातयित्वा दिव्यदेहसंपादनेन स्वर्गभोगयोग्याः क्रियन्ते त्वया तदात्यन्तमुपकृता एव ते। दुर्योधनादीनामपि स्वर्गभोगयोग्यदेहसंपादनान्महानुपकार एव। तथाचात्यन्तमुपकारके युद्धेऽपकारकत्वभ्रमं मा कार्षीरिति'अपराणि अन्यानि संयाति इति पदत्रयवशाद्भगवदभिप्राय एवमभ्यूहितः। अनेन दृष्टान्तेनाविकृतत्वप्रतिपादनमात्मनः क्रियत इति तु प्राचां व्याख्यानमतिस्पष्टम् ।।2.22।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
देहात्मविवेकानुभवार्थं दृष्टान्तमाह -- 'वासांसीति' ।।2.22।।

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