शनिवार, 30 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-47


मूल स्लोकः

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।




English translation by Swami Sivananda
2.47 Thy right is to work only, but never with its fruits; let not the fruits of action be thy motive, nor let thy attachment be to inaction.


English commentary by Swami Sivananda
2.47 कर्मणि in work, एव only, अधिकारः right, ते thy, मा not, फलेषु in the fruits, कदाचन at any time, मा not, कर्मफलहेतुः भूः let not the fruits of action be thy motive, मा not, ते thy, सङ्गः attachment, अस्तु let (there) be, अकर्मणि in inaction.Commentary: When you perform actions have no desire for the fruits thereof under any circumstances. If you thirst for the fruits of your actions, you will have to take birth again and again to enjoy them. Action done with expectation of fruits (rewards) brings bondage. If you do not thirst for them, you get purification of heart and you will get knowledge of the Self through purity of heart and through the knowledge of the Self you will be freed from the round of births and deaths.Neither let thy attachment be towards inaction thinking "what is the use of doing actions when I cannot get any reward for them?"In a broad sense Karma means action. It also means duty which one has to perform according to his caste or station of life. According to the followers of the Karma Kanda of the Vedas (the Mimamsakas) Karma means the rituals and sacrifices prescribed in the Vedas. It has a deep meaning also. It signifies the destiny or the storehouse of tendencies of a man which give rise to his future birth.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो ।।2.47।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कर्मण्येवाधिकारस्ते -- प्राप्त कर्तव्य कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है। मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करनेके लिये नहीं है। पशु-पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदिमें नया कर्म करनेकी सामर्थ्य तो है, पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये ही हैं। वे भगवान्के विधानके अनुसार मनुष्योंके लिये कर्म करनेकी सामग्री दे सकते हैं, पर केवल सुखभोगमें ही लिप्त रहनेके कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय जीव भी भोगयोनि होनेके कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करनेमें तो केवल-मनुष्यका ही अधिकार है। भगवान्ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करनेके लिये यह अन्तिम मनुष्यजन्म दिया है। अगर यह कर्मोंको अपने लिये करेगा तो बन्धनमें पड़ जायगा और अगर कर्मोंको न करके आलस्य-प्रमादमें पड़ा रहेगा तो बार-बार जन्मता-मरता रहेगा। अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है।कर्मणि पदमें एकवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्यके सामने देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलग-अलग होंगे, पर एक समयमें एक मनुष्य किसी एक कर्मको ही तत्परतापूर्वक कर सकता है। जैसे, क्षत्रिय होनेके कारण अर्जुनके लिये युद्ध करना, दान देना आदि कर्तव्यकर्मोंका विधान है, पर वर्तमानमें युद्धके समय वह एक युद्धरूप कर्तव्य-कर्म ही कर सकता है, दान आदि कर्तव्य-कर्म नहीं कर सकता।मार्मिक बात मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं -- पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियोंमें केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्म-लोकतककी योनियाँ भोग-योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ' ऐसा करो और ऐसा मत करो ' -- यह विधान नहीं है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग, आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं, उनका वह कर्म भी फलभोगमें है। कारण कि उनके द्वारा किया जानेवाला कर्म उनके प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही रचा हुआ है। उनके जीवनमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका जो कुछ भोग होता है, वह भोग भी फलभोगमें ही है। परन्तु मनुष्यशरीर तो केवल नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है, जिससे यह अपना उद्धार कर ले।इस मनुष्यशरीरमें दो विभाग हैं -- एक तो इसके सामने पुराने कर्मोंके फलरूपमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है; और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मोंके अनुसार ही इसके भविष्यका निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त-महापुरुषोंका विधि-निषेध, राज्य आदिका शासन केवल मनुष्योंके लिये ही होता है, क्योंकि मनुष्यमें पुरुषार्थकी प्रघानता है, नये कर्मोंको करनेकी स्वतन्त्रता है। परन्तु पिछले कर्मोंके फलस्वरूप मिलनेवाली अनुकूल-प्रतिकूलरूप परिस्थितिको बदलनेमें यह परतन्त्र है। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल-प्राप्तिमें परतन्त्र है। परन्तु अनुकूल-प्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन सामग्री बना सकता है; क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है। इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धारके लिये है और पुराने कर्मोंके फल फलरूपसे प्राप्त परिस्थिति भी उद्धारके लिये ही है।इसमें एक विशेष समझनेकी बात है कि इस मनुष्य-जीवनमें प्रारब्धके अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति आती है, उस परिस्थितिको मनुष्य सुखदायी या दुःखदायी तो मान सकता है, पर वास्तवमें देखा जाय तो उस परिस्थितिसे सुखी या दुःखी होना कर्मोंका फल नहीं हैं, प्रत्युत मूर्खताका फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहरसे बनती हैऔर सुखी-दुःखी होता है यह स्वयं। उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःखका भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे, तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करनेके लिये साधन-सामग्री बन जायगी। सुखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है -- दूसरोंकी सेवा करना और दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है -- सुखभोगकी इच्छाका त्याग करना।दुःखदायी परिस्थिति आनेपर मनुष्यको कभी भी घबराना नहीं चाहिये, प्रत्युत यह विचार करना चाहिये कि हमने पहले सुख-भोगकी इच्छासे ही पाप किये थे और वे ही पाप दुःखदायी परिस्थितिके रूपमें आकर नष्ट हो रहे हैं। इसमें एक लाभ यह है कि उन पापोंका प्रायश्चित्त हो रहा है। और हम शुद्ध हो रहे हैं। दूसरा लाभ यह है कि हमें इस बातकी चेतावनी मिलती है कि अब हम सुखभोगके लिये पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार दुःखदायी परिस्थिति आयेगी। इसलिये सुखभोगकी इच्छासे अब कोई काम करना ही नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्रके हितके लिये ही काम करना है।तात्पर्य यह हुआ है पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियोंके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म -- ये दोनों ही भोगरूपमें हैं, और मनुष्यके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म (पुरुषार्थ) -- ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं।मा फलेषु कदाचन -- फलमें तेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्तिमें तेरी स्वतन्त्रता नहीं है; क्योंकि फलका विधान तो मेरे अधीन है। अतः फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्य-कर्म कर। अगर तू फलकी इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जायेगा -- फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)। कारण कि फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वपर ही कर्तव्य टिका हुआ है अर्थात् भोक्तृत्वसे ही कर्त्तृत्व आता है। फलेच्छा सर्वथा मिटनेसे कर्तृत्व मिट जाता है, और कर्तृत्व मिटनेसे मनुष्य कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता। भाव यह हुआ कि वास्तवमें मनुष्य कर्तृत्वमें उतना फँसा हुआ नहीं है, जितना फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वमें फँसा हुआ है (टिप्पणी प0 84)। दूसरी बात, जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनसे ही होते हैं। पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनके बिना स्वयं कर्म कर ही नहीं सकता; अतः इनके संगठनके द्वारा किये हुए कर्मका फल अपने लिये चाहना ईमानदारी नहीं है। अतः कर्मका फल चाहना मनुष्यके लिये हितकारक नहीं है।फलमें तेरा अधिकार नहीं है -- इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि फलके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें अथवा न जोड़नेमें मात्र मनुष्य स्वतन्त्र हैं, सबल हैं। इसमें वे पराधीन और निर्बल नहीं है।फलेषु पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म तो एक करता है, पर उस कर्मके फल अनेक चाहता है। जैसे, मैं अमुक कर्म कर रहा हूँ तो इससे मेरेको पुण्य हो जाय, संसारमें मेरी कीर्ति हो जाय, लोग मेरेको अच्छा समझें, मेरा आदर-सत्कार करें, मेरेको इतना धन प्राप्त हो जाय आदि-आदि।निष्काम होनेके उपाय -- (1) कामना पैदा होनेसे अभाव होता है, कामनाकी पूर्ति होनेसे परतन्त्रता और पूर्ति न होनेसे दुःख होता है, तथा कामना-पूर्तिका सुख लेनेसे नयी कामनाकी उत्पत्ति होती है और सकामभावपूर्वक नये-नये कर्म करनेकी रुचि बढ़ती चली जाती है -- ऐसा ठीक-ठीक समझ लेनेसे निष्कामता स्वतः आ जाती है।(2) कर्म नित्य नहीं है; क्योंकि उनका आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मोंका फल भी नित्य नहीं है; क्योंकि उनका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु स्वयं नित्य है। अनित्य कर्म और कर्मफलसे नित्य स्वरूपको कोई लाभ नहीं होता। ऐसा ठीक समझ लेनेसे निष्कामता आ जाती है। निष्काम होनेसे संसारका सम्बन्ध छूट जाता है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।कर्मोंमें निष्काम होनेके लिये साधकमें तेजीका विवेक भी होना चाहिये और सेवाभाव भी होना चाहिये; क्योंकि इन दोनोंके होनेसे ही कर्मयोग ठीक तरहसे आचरणमें आयेगा, नहीं तो ' कर्म ' हो जायँगे , पर ' योग ' नहीं होगा। तात्पर्य है कि अपने सुख-आरामका त्याग करनेमें तो ' विवेक' की प्रधानता होना चाहिये और दूसरोंको सुख-आराम पहुँचानेमें ' सेवाभाव ' की प्रधानता होना चाहिये।मा कर्मफलहेतुर्भूः -- तू कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्रीके साथ अपनी किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि इनमें ममता होनेसे मनुष्यकर्म-फलका हेतु बन जाता है। आगे पाँचवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी भगवान्ने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके साथ केवलैः पद देकर बताया है कि शरीर आदिके साथ किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होनी चाहिये।शुभ क्रियाओंमें फलकी इच्छा न होनेपर भी ' मेरे द्वारा किसीका उपकार हो गया, किसीका हित हो गया, किसीको सुख पहुँचा ' -- ऐसा भाव हो जाता है तो यह कर्मफलका हेतु बनना है। कारण कि ऐसा भाव होनेसे शुभ कर्मके साथ और मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिके साथ सम्बन्ध हो जाता है, जोकि असत्का सङ्ग है। वास्तवमें अन्तःकरण, बहिःकरण और क्रियाओंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है। जैसे दूसरे किसी व्यक्तिके द्वारा दूसरे किसीका हित होता है, तो उसमें हम अपना सम्बन्ध नहीं मानते, उसमें अपनेको निमित्त नहीं मानतो। ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे किसीका हित हो जाय, तो उसमें अपनेको निमित्त न माने। जब अपनेको किसी भी क्रियामें निमित्त, हेतु नहीं मानेंगे, तो कर्म-फलका हेतु भी नहीं बनेंगे।मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि -- कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म न करनेमें आसक्ति होनेसे आलस्य, प्रमाद आदि होंगे। कर्मफलमें आसक्ति रहनेसे जैसा बन्धन होता है, वैसा ही बन्धन कर्म न करनेमें आलस्य, प्रमाद आदि होनेसे होता है; क्योंकि आलस्य-प्रमादका भी एक भोग होता है अर्थात् उनका भी एक सुख होता है, जो तमोगुण है -- निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् (गीता 18। 39) और जिसका फल अधोगति होता है -- अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)। तात्पर्य यह हुआ है कि राग, आसक्ति कहीं भी होगी तो वह बाँधनेवाली हो ही जायगी -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)।कर्मरहित होनेसे हमें लौकिक लाभ होगा, संसारमें हमारी प्रसिद्धि होगी आदि कोई सासारिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये; और समाधि लग जानेसे आध्यात्मिक तत्त्वमें हमारी स्थिति होगी आदि कोई पारमार्थिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये। तात्पर्य है कि ' कर्म न करनेसे सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति होगी ' -- यह भी कर्म न करनेमें आसक्ति है; क्योंकि वास्तविक तत्त्व कर्म करने और न करनेसे अतीत है।इस श्लोकमें भगवान्का यह तात्पर्य मालूम देता है कि परिवर्तनशील वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, क्रिया, घटना, परिस्थिति, अवस्था, स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर आदिके साथ साधककी सर्वथा निर्लिप्तता होनी चाहिये। इनकेसाथ किञ्चिन्मात्र भी किसी तरहका सम्बन्ध नहीं होना चाहिये।इस श्लोकके चार चरणोंमें चार बातें आयी हैं -- (1) कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, (2) फलमें कभी तेरा अधिकार नहीं है, (3) तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और (4) कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इनमेंसे पहले और चौथे चरणकी बात एक है, तथा दूसरे और तीसरे चरणकी बात एक है। पहले चरणमें कर्म करनेमें अधिकार बताया है और चौथे चरणमें कर्म न करनेमें आसक्ति होनेका निषेध किया है। दूसरे चरणमें फलकी इच्छाका निषेध किया है और तीसरे चरणमें फलका हेतु बननेका निषेध किया है।तात्पर्य यह हुआ कि अकर्मण्यतामें रुचि होनेसे प्रमाद, आलस्य आदि ' तामसी वृत्ति ' के साथ तेरा सम्बन्ध हो जायगा। कर्म एवं कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे तेरा ' राजसी ' वृत्ति के साथ सम्बन्ध हो जायगा। प्रमाद, आलस्य, कर्म, कर्मफल, आदिका सम्बन्ध न रहनेपर जो विवेकजन्य सुख होता है, प्रकाश मिलता है, ज्ञान मिलता है, उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ' सात्त्विकी वृत्ति ' के साथ सम्बन्ध हो जायगा। इनके साथ सम्बन्ध होना ही जन्म-मरणका कारण है। अतः साधक कर्म, कर्मफल और इनके त्यागका सुख -- इनमेंसे किसीके भी साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, इनमें राग या आसक्ति न करे। कर्म करते हुए इनके साथ सम्बन्ध न रखना ही कर्मयोग है।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें कर्म करनेकी आज्ञा देनेके बाद अब भगवान् कर्म करते हुए सम रहनेका प्रकार बताते हैं ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- कर्मण्येव अधिकारः न ज्ञाननिष्ठायां ते तव। तत्र च कर्म कुर्वतः मा फलेषु अधिकारः अस्तु, कर्मफलतृष्णा मा भूत् कदाचन कस्याञ्चिदप्यवस्थायामित्यर्थः। यदा कर्मफले तृष्णा ते स्यात् तदा कर्मफलप्राप्तेः हेतुः स्याः, एवं मा कर्मफलहेतुः भूः। यदा हि कर्मफलतृष्णाप्रयुक्तः कर्मणि प्रवर्तते तदा कर्मफलस्यैव जन्मनो हेतुर्भवेत्। यदि कर्मफलं नेष्यते, किं कर्मणा दुःखरूपेण? इति मा ते तव सङ्गः अस्तु अकर्मणि अकरणे प्रीतिर्मा भूत्।।यदि कर्मफलप्रयुक्तेन न कर्तव्यं कर्म, कथं तर्हि कर्तव्यमिति; उच्यते -- ।।2.47।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.47 Te, your; adhikarah, right; is karmani eva, for action alone, not for steadfastness in Knowledge. Even there, when you are engaged in action, you have ma kadacana, never, i.e. under no condition whatever; a right phalesu, for the results of action -- may you not have a hankering for the results of action. Whenever you have a hankering for the fruits of action, you will become the agent of acquiring the results of action. Ma, do not; thus bhuh, become; karma-phalahetuh, the agent of acquiring the results of action. For when one engages in action by being impelled by thirst for the results of action, then he does become the cause for the production of the results of action. Ma, may you not; astu, have; sangah, an inclination; akarmani, for inaction, thinking, 'If the results of work be not desired, what is the need of work which involves pain?'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तेरा कर्ममें ही अधिकार है, ज्ञाननिष्ठामें नहीं। वहाँ ( कर्ममार्गमें ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कभी अधिकार न हो, अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये। यदि कर्मफलमें तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफल-प्राप्तिका कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल-प्राप्तिका कारण तू मत बन। क्योंकि जब मनुष्य कर्म-फलकी कामनासे प्रेरित होकर कर्ममें प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्मका हेतु बन ही जाता है। 'यदि कर्मफलकी इच्छा न करें तो दुःखरूप कर्म करनेकी क्या आवश्यकता है?' इस प्रकार कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति-प्रीति नहीं होनी चाहिये ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
नित्ये नैमित्तिके काम्ये च केनचित् फलविशेषेण संबन्धितया श्रूयमाणे कर्मणि नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः ते कर्ममात्रे अधिकारः। तत्संबन्धितया अवगतेषु फलेषु न कदाचिद् अपि अधिकारः। सफलस्य बन्धरूपत्वात् फलरहितस्य केवलस्य मदाराधनरूपस्य मोक्षहेतुत्वाच्च।मा च कर्मफलयोः हेतुः भूः। त्वया अनुष्ठीयमाने अपि कर्मणि नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः तवाकर्तृत्वम् अपि अनुसन्धेयम्। फलस्य अपि क्षुन्निवृत्त्यादेः न त्वं हेतुः इति अनुसन्धेयम्। तद् उभयं गुणेषु वा सर्वेश्वरे मयि वा अनुसन्धेयम् इति उत्तरत्र वक्ष्यते। एवम् अनुसन्धाय कर्म कुरु। अकर्मणि अननुष्ठाने न योत्स्यामि इति यत् त्वया अभिहितं न तत्र ते सङ्गः अस्तु। उक्तेन प्रकारेण युद्धादिकर्मणि एव सङ्गः अस्तु इत्यर्थः।एतद् एव स्पष्टीकरोति -- ।।2.47।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.47 As for obligatory, occasional and desiderative acts taught in the Vedas and associated with some result or other, you, an aspirant established in Sattva, have the right only to perform them: You have no right to the fruits known to be derived from such acts. Acts done with a desire for fruit bring about bondage. But acts done without an eye on fruits form My worship and become a means for release. Do not become an agent of acts with the idea of being the reaper of their fruits. Even when you, who are established in pure Sattva and are desrious of release, perform acts, you should not look upon yourself as the agent. Likewise, it is necessary to contemplate yourself as not being the cause of even appeasing hunger and such other bodily necessities. Later on it will be said that both of these, agency of action and desire for fruits, should be considered as belonging to Gunas, or in the alternative to Me who am the Lord of all. Thinking thus, do work. With regard to inaction, i.e., abstaining from performance of duties, as when you said, 'I will not fight,' let there be no attachment to such inaction in you. The meaning is let your interest be only in the discharge of such obligatory duties like this war in the manner described above.Sri Krsna makes this clear in the following verse:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एवं सति मम वेदोदन्वति किमुपादेयमित्याकाङ्क्षायामाह -- कर्मण्येवाधिकारस्ते इति। कर्मैवोपादेयं तत्रैव तत्राधिकार इति। परन्तु तत्फलेषु मा कदाचनाधिकारोऽस्तु। उपदेशमुद्रामाह -- मा कर्मफलहेतुर्भूरिति। अकर्मणि च निषिद्धे परधर्मे सङ्गो मा तेऽस्तु ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु निष्कामकर्मभिरात्मज्ञानं संपाद्य परमानन्दप्राप्तिः क्रियते चेदात्मज्ञानमेव तर्हि संपाद्यं किं बह्वायासैः कर्मभिर्बहिरङ्गसाधनभूतैरित्याशङ्क्याह -- ते तवाशुद्धान्तःकरणस्य तात्त्विकज्ञानोत्पत्त्ययोग्यस्य कर्मण्येवान्तःकरणशोधकेऽधिकारो मयेदं कर्तव्यमिति बोधोऽस्तु न ज्ञाननिष्ठारुपे वेदान्तवाक्यविचारादौ। कर्म च कुर्वतस्तव तत्फलेषु स्वर्गादिषु कदाचन कस्यांचिदप्यवस्थायां कर्मानुष्ठानात्प्रागूर्ध्वं तत्काले वाधिकारो मयेदं भोक्तव्यमिति बोधो मास्तु। ननु मयेदं भोक्तव्यमिति बुद्ध्यभावेऽपि कर्म स्वसामर्थ्यादेव फलं जनयिष्यतीति चेन्नेत्याह -- मा कर्मफलहेतुर्भूः, फलकामनया हि कर्म कुर्वन्फलस्य हेतुरुत्पादको भवति। त्वं तु निष्कामः सन्कर्मफलहेतुर्माभूः। नहि निष्कामेन भगवदर्पणबुद्ध्या कृतं कर्म फलाय कल्पत इत्युक्तम्। फलाभावे किं कर्मणेत्यत आह -- मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि। यदि फलं नेष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेणेत्यकरणे तव प्रीतिर्माभूत् ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
कामात्मनां निन्दा कृता। कथं? एषां "स्वर्गकामो यजेत" आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ कामस्यापि विहितत्वात्, इत्यत आह -- 'कर्मण्येवेति'। त इत्युपलक्षणार्थम्। तव ज्ञानिनोऽपि न फलकामकर्तव्यता, किम्वन्येषाम्?। नत्वस्ति केषाञ्चिन्न तेऽस्तीति। स हि ज्ञानी नरांश इन्द्रश्च, मोहादिस्त्वभिभवादेः। यदि तेषां शुद्धसत्त्वानां न स्याज्ज्ञानं, कान्येषाम्?। उपदेशादेश्च सिद्धं ज्ञानं तेषाम्।पार्थार्ष्टिषेणेत्यादिज्ञानिगणनाच्च कामनिषेध एवात्र। फलानि ह्यस्वातन्त्र्येण भवन्ति। नहि कर्मफलानि कर्माभावे यत्नतो भवन्ति। भवन्ति च काम्यकर्मिणो विपर्ययप्रयत्नेऽप्यविरोधे। अतः कर्माकरण एव प्रत्यवायः, न तु ज्ञानादिना वाऽकामनया फलाप्राप्तौ, अतः कर्मण्येवाधिकारः। अतस्तदेव कार्यम्। न तु कामेन ज्ञानादिनिषेधेन वा फलप्राप्तिः।कामवचनानां तु तात्पर्यं भगवतैवोक्तम् -- 'रोचनार्थं फलश्रुतिः'।'यथा भैषज्यरोचनम्' इति भागवते। 11।21।23 अत एव कामी यजेतेत्यर्थः। न तु कामी भूत्वेत्यर्थः।'निष्कामं ज्ञानपूर्वं च' इति वचनात् वक्ष्यमाणेभ्यश्च। "वसन्ते वसन्ते ज्योतिषा यजेत" इत्यादिभ्यश्च। अतो मा कर्मफलहेतुर्भूः। कर्मफलं तत्कृतौ हेतुर्यस्य स कर्मफलहेतुः स मा भूः।तर्हि न करोमीत्यत आह -- 'मा त' इति। कर्माकरणे स्नेहो मास्त्वित्यर्थः। अन्यथा फलाभावेऽपि मत्प्रसादाख्यफलभावात्। इच्छा च तस्य युक्ता,'वृणीमहे ते परितोषणाय' इति महदाचारात्। अनिन्दनाद्विशेषत इतरनिन्दनाच्च। सामान्यं विशेषो बाधत इति च प्रसिद्धम्'सर्घानानय नैकं मैत्रम्' इत्यादौ। अतो'नैकात्मतां मे स्पृद्दयन्ति केचित्' भाग.3।25।34 भक्तिमन्विच्छन्तः।'ब्रह्मजिज्ञासा' ब्र.सू.1।1।1 "विज्ञाय प्रज्ञां" "द्रष्टव्यः" बृ.उ.2।4।5+।5।6 इत्यादिववनेभ्यः। स्वार्थसेवकं प्रति न तथा स्नेहः। किं ददामीत्युक्ते सेवादि याचकंप्रति बहुतरस्नेह इति लोकप्रसिद्धन्यायाच्च भक्तिज्ञानादिकामना कार्येति सिद्धम् ।।2.47।।

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