रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-12


मूल स्लोकः

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङक्ते स्तेन एव सः।।3.12।।




English translation by Swami Sivananda
3.12 The gods, nourished by the sacrifice, will give you the desired objects. So, he who enjoys the objects given by the gods without offering (in return) to them, is verily a thief.


English commentary by Swami Sivananda
3.12 इष्टान् desired, भोगान् objects, हि so, वः to you, देवाः the gods, दास्यन्ते will give, यज्ञभाविताः nourished by sacrifice, तैः by them, दत्तान् give, अप्रदाय without offering, एभ्यः to them, यः who, भुङ्क्ते enjoys, स्तेनः thief, एव verily, सः he.Commentary: When the gods are pleased with you sacrifices, they will bestow on you all the desired objects such as children, cattle, property, etc. He who enjoys what has been given to him by the gods, i.e., he who gratifies the cravings of his own body and the senses without offering anything to the gods in return is a veritable thief. He is really a dacoit of the property of the gods.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
यज्ञसे भावित (पुष्ट) हुए देवता भी तुमलोगोंको (बिना माँगे ही) कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंसे प्राप्त हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है ।।3.12।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः -- यहाँ भी इष्टभोग शब्दका अर्थ इच्छित पदार्थ नहीं हो सकता। कारण कि पीछेके (ग्यारहवें) श्लोकमें परम कल्याणको प्राप्त होनेकी बात आयी है और उसके हेतुके लिये वह (बारहवाँ) श्लोक है। भोगोंकी इच्छा रहते परम कल्याण कभी हो ही नहीं सकता। अतः यहाँ इष्ट शब्द ' यज् ' धातुसे निष्पन्न होनेसे तथा भोग (टिप्पणी प0 132.1) शब्दका अर्थ आवश्यक सामग्री होनेसे उपर्युक्त पदोंका अर्थ होगा -- वे देवता तुमलोगोंको यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे।यहाँ यज्ञभाविताः देवाः पदोंका तात्पर्य है कि देवता तो अपना अधिकार समझकर मनुष्योंको आवश्यक सामग्री प्रदान करते ही हैं, केवल मनुष्योंको ही अपना कर्तव्य निभाना है।तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते -- ब्रह्माजीने देवताओंके लिये ते देवाः पदोंका प्रयोग किया है; क्योंकि उनके सामने मनुष्य थे, देवता नहीं। परन्तु यहाँ एभ्यःपद (जो इदम् शब्दसे बनता है) का प्रयोग हुआ है, जो समीपताका द्योतक है। भगवान्के लिये सभी समीप ही हैं (गीता 7। 26)। इससे सिद्ध होता है कि अब यहाँसे भगवान्के वचन आरम्भ होते हैं।यहाँ भुङ्क्ते (टिप्पणी प0 132.2) पदका तात्पर्य केवल भोजन करनेसे ही नहीं है, प्रत्युत शरीर-निर्वाहकी समस्त आवश्यक सामग्री (भोजन, वस्त्र, धन, मकान आदि) को अपने सुख के लिये काममें लानेसे है।यह शरीर माता-पितासे मिला है और इसका पालन-पोषण भी उन्हींके द्वारा हुआ है। विद्या गुरुजनोंसे मिली है। देवता सबको कर्तव्य-कर्मकी सामग्री देते हैं। ऋषि सबको ज्ञान देते हैं। पितर मनुष्यकी सुख-सुविधाके उपाय बताते हैं। पशु-पक्षी, वृक्ष, लता आदि दूसरोंके सुखमें स्वयंको समर्पित कर देते हैं। (यद्यपि पशु-पक्षी आदिको यह ज्ञान नहीं रहता कि हम परोपकार कर रहे हैं, तथापि उनसे दूसरोंका उपकार स्वतः होता रहता है) इस प्रकार हमारे पास जो कुछ भी सामग्री -- बल, योग्यता, पद, अधिकार, धन, सम्पत्ति आदि है, वह सब-की-सब हमें दूसरोंसे ही मिली है। इसलिये इनको दूसरोंकी ही सेवामें लगाना है।शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी पदार्थ हमें संसारसे मिले हैं। ये कभी अपने नहीं हैं और अपने होंगे भी नहीं। अतः इनको अपना और अपने लिये मानकर इनसे सुख भोगना ही बन्धन है। इस बन्धन से छूटनेका यही सरल उपाय है कि जिनसे ये पदार्थ हमें मिले हैं, इन्हें उन्हींका मानते हुए उन्हींकी सेवामें निष्कामभावपूर्वक लगा दें। यही हमारा परम कर्तव्य है।साधकोंके मनमें प्रायः ऐसी भावना पैदा हो जाती है कि अगर हम संसारकी सेवा करेंगे तो उसमें हमारी आसक्ति हो जायगी और हम संसारमें फँस जायँगे! परन्तु भगवान्के वचनोंसे यह सिद्ध होता है कि फँसनेका कारण सेवा नहीं है, प्रत्युत अपने लिये कुछ भी लेनेका भाव ही है। इसलिये लेनेका भाव छोड़कर देवताओंकी तरह दूसरोंको सुख पहुँचाना ही मनुष्यमात्रका परम कर्तव्य है।कर्मयोगके सिद्धान्तमें प्राप्त सामग्री, सामर्थ्य, समय तथा समझदारीका सदुपयोग करनेका ही विधान है। प्राप्त सामग्री आदिसे अधिककी (नयी-नयी सामग्री आदिकी) कामना करना कर्मयोगके सिद्धान्तके विरुद्ध है। अतः प्राप्त सामग्री आदिको ही दूसरोंके हितमें लगाना है। अधिककी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। युक्तिसंगत बात है कि जिसमें जितनी शक्ति होती है, उससे उतनी ही आशा की जाती है, फिर भगवान् अथवा देवता उससे अधिककी आशा कैसे कर सकते हैं?स्तेन एव सः -- यहाँ सः स्तेनः पदोंमें एकवचन देनेका तात्पर्य यह है कि अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाला मनुष्य सबको प्राप्त होनेवाली सामग्री (अन्न, जल, वस्त्र आदि) का भाग दूसरोंको दिये बिना ही अकेला स्वयं ले लेता है। अतः वह चोर ही है।जो मनुष्य दूसरोंको उनका भाग न देकर स्वयं अकेले ही भोग करता है, वह तो चोर है ही, पर जो मनुष्य किसी भी अंशमें अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है अर्थात् सामग्रीको सेवामें लगाकर बदलेमें मान-बड़ाई आदि चाहता है, वह भी उतने अंशमें चोर ही है। ऐसे मनुष्यका अन्तःकरण कभी शुद्ध और शान्त नहीं रह सकता।यह व्यष्टि शरीर किसी भी प्रकारसे समष्टि संसारसे अलग नहीं है और अलग हो सकता भी नहीं; क्योंकि समष्टिका अंश ही व्यष्टि कहलाता है। इसलिये व्यष्टि-(शरीर-) को अपना मानना और समष्टि-(संसार-) को अपना न मानना ही राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंका कारण है एवं यही अहंकार, व्यक्तित्व अथवा विषमता है (टिप्पणी प0 133)। कर्मयोगके अनुष्ठानसे ये सब (राग-द्वेष आदि) सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। कारण कि कर्मयोगीका यह भाव रहता है कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह सब अपने लिये नहीं, प्रत्युत संसारमात्रके लिये कर रहा हूँ। इसमें भी एक बड़ी मार्मिक बात यह है कि कर्मयोगी अपने कल्याणके लिये भी कोई कर्म न करके संसारमात्रके कल्याणके उद्देश्यसे ही सब कर्म करता है। कारण कि सबके कल्याणसे अपना कल्याण अलग मानना भी व्यक्तित्व और विषमताको जन्म देना है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब-का-सब हमें संसारसे मिला है। संसारसे मिली वस्तुको केवल अपनी स्वार्थसिद्धिमें लगाना ईमानदारी नहीं है। कर्तव्य-सम्बन्धी विशेष बातहिन्दू-संस्कृतिका एकमात्र उद्देश्य मनुष्यका कल्याण करना है। इसी उद्देश्यसे ब्रह्माजी (सृष्टिके आदिमें) मनुष्यको निःस्वार्थभावसे अपने-अपने कर्तव्यके द्वारा एक-दूसरेको सुख पहुँचानेकी आज्ञा देते हैं (गीता 3। 10)।परिवारमें भाई, बहनें, माताएँ आदि सब-के-सब कर्म करते ही हैं; परन्तु उनसे बड़ी भारी भूल यह होती है कि वे कामना, ममता, आसक्ति, स्वार्थ आदिके वशीभूत होकर कर्म करते हैं। अतः लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही लाभ उन्हें नहीं होते, प्रत्युत हानि ही होती है। स्वार्थके वशीभूत होकर अपने लिये कर्म करनेसे ही लोकमें लड़ाई, खटपट, ईर्ष्या आदि होते हैं और परलोकमें दुर्गति होती है। दूसरोंकी सेवा करके बदलेमें कुछ भी चाहनेसे वस्तुओं और व्यक्तियोंके साथ मनुष्यका सम्बन्ध जुड़ जाता है। किसी भी कर्मके साथ स्वार्थका सम्बन्ध जोड़ लेनेसे वह कर्म तुच्छ और बन्धनकारक हो जाता है। स्वार्थी मनुष्यको संसारमें कोई अच्छा नहीं कहता। चाहनेवालेको कोई अधिक देना नहीं चाहता। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि घरमें भी रागी तथा भोगी व्यक्तिसे वस्तुएँ छिपायी जाती हैं। इसके विपरीत हमारे पास जितनी समझ, समय, सामर्थ्य और सामग्री है, उतनेसे ही हम दूसरोंकी सेवा करें तो उससे कल्याण तो होता ही है, इसके सिवाय वस्तु, आराम, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि न चाहनेपर भी प्राप्त होने लगते हैं। परन्तु कर्मयोगीमें मान-बड़ाई आदिकी इच्छा नहीं होती; क्योंकि इनकी इच्छा और सुखभोग ही बन्धनकारक होता है।' मुझे सुख कैसे मिले? ' -- केवल इसी चाहनाके कारण मनुष्य कर्तव्यच्युत और पतित हो जाता है। अतः ' दूसरोंको सुख कैसे मिले? ' -- ऐसा भाव कर्मयोगीको सदा ही रखना चाहिये। घरमें माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र आदि जितने व्यक्ति हैं, उन सभीको एक-दूसरेके हितकी बात सोचनी चाहिये। प्रायः सेवा करनेवालेसे एक भूल हो जाती है कि वह ' मैं सेवा करता हूँ ', ' मैं वस्तुएँ देता हूँ ' -- ऐसा मानकर झूठा अभिमान कर बैठता है। वस्तुतः सेवा करनेवाला व्यक्ति सेव्यकी वस्तु ही सेव्यको देता है। जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जितनी भी सामग्री है वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है। अतः मनुष्यको प्राप्त सामग्रीमें ममता करने अर्थात् उसे अपनी और अपने लिये माननेका अधिकार नहीं है। ममता करनेपर भी प्राप्त सामग्री तो सदा रहेगी नहीं, केवल ममतारूप बन्धन रह जायगा। इसी कारण भगवान् कहते हैं कि वस्तुओंको अपनी मानकर स्वयं उसका भोग करनेवाला मनुष्य चोर ही है।देवता, ऋषि, पितर, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि सभीका स्वभाव ही परोपकार करनेका है। मनुष्य सदा इनसे सहयोग पानेके कारण इनका ऋणी है। इस ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही पञ्चमहायज्ञ-(ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ-) का विधान है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो बुद्धिपूर्वक सभीको अपने कर्तव्य-कर्मोंसे तृप्त कर सकता है। अतः सबसे ज्यादा जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। इसीको ऐसी स्वतन्त्रता मिली है, जिसका सदुपयोग करके यह परम श्रेयकी प्राप्ति कर सकता है।देवता आदि तो अपने कर्तव्यका पालन करते ही हैं। यदि मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नही करता तो देवताओंमें ही नहीं प्रत्युत त्रिलोकीभरमें हलचल उत्पन्न हो जाती है और परिणामस्वरूप अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, दुर्भिक्ष आदि प्राकृतिक प्रकोप होने लगते हैं। भगवान् भी (गीता 3। 23-24 में) कहते हैं कि ' यदि मैं सावधानी-पूर्वक कर्तव्यका पालन न करूँ तो समस्त लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ। ' जिस तरह गतिशील बैलगाड़ीका कोई एक पहिया भी खण्डित हो जाय तो उससे पूरी बैलगाड़ीको झटका लगता है, इसी तरह गतिशील सृष्टि-चक्रमें यदि एक व्यक्ति भी कर्तव्यच्युत होता है तो उसका विपरीत प्रभाव सम्पूर्ण सृष्टिपर पड़ता है। इसके विपरीत जैसे शरीरका एक भी पीड़ित (रोगी) अङ्ग ठीक होनेपर सम्पूर्ण शरीरका स्वतः हित होता है, ऐसे ही अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेवाले मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण सृष्टिका स्वतः हित होता है।प्रजापति ब्रह्माजीने देवता और मनुष्य -- दोनोंको अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेकी आज्ञा दी है। देवता आदि सब मर्यादासे चलते हैं। केवल मनुष्य ही अपनी बेसमझीसे मर्यादाको भंग करता है। कारण कि उसे दूसरोंकी सेवा करनेके लिये जो सामग्री मिली है, उसपर वह अपना अधिकार समझ बैठता है। अनन्त जन्मोंके कर्मबन्धनसे छुटकारा पानेके लिये मनुष्यको स्वतन्त्रता मिली है; किन्तु वह उसका सदुपयोग करके कर्म और कर्मफलमें ममता-आसक्ति कर बैठता है। फलस्वरूप नया बन्धन उत्पन्न करके वह स्वयं फँस जाता है और आगे अनेक जन्मोंतक दुःख पानेकी तैयारी कर लेता है। अतः मनुष्यको चाहिये कि उसे जो कुछ सामग्री मिली है, उससे वह त्रिलोकीकी सेवा करे अर्थात् उस सामग्रीको वह भगवान्, देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य आदि समस्त प्राणियोंकी सेवामें लगा दे।शङ्का -- जो कुछ सामग्री प्राप्त हुई है, वह सब-की-सब दूसरोंकी सेवामें लगा देनेपर कर्मयोगीकी जीवन-निर्वाह कैसे हो सकेगा?समाधान -- वास्तवमें यह शंका शरीरके साथ अपनी एकता माननेसे अर्थात शरीरको ही अपना स्वरूप माननेसे पैदा होती है; परन्तु कर्मयोगी शरीरसे अपना कोई सम्बन्ध मानता ही नहीं, प्रत्युत उसे संसारका और संसारके लिये ही मानकर उसीकी सेवामें लगा देता है। उसकी दृष्टि अविनाशी स्वरूपपर रहती है, नाशवान् शरीरपर नहीं। जिसकी दृष्टि शरीरपर रहती है, वही ऐसी शंका कर सकता है कि कर्मयोगीका जीवन-निर्वाह कैसे होगा?जबतक भोगेच्छा रहती है, तभीतक जीनेकी इच्छा तथा मरनेका भय रहता है। भोगेच्छा कर्मयोगीमें रहती ही नहीं; क्योंकि उसके सम्पूर्ण कर्म अपने लिये न होकर दूसरोंकी सेवाके लिये ही होते हैं। अतः कर्मयोगी अपने जीनेकी परवाह नहीं करता। उसके मनमें यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मेरा जीवन-निर्वाह कैसे होगा? वास्तवमें जिसके हृदयमें जगत्की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी आवश्यकता जगत्को रहती है। इसलिये जगत् उसके निर्वाहका स्वतः प्रबन्ध करता है।जिनका जीवन परोपकारके लिये ही समर्पित है, ऐसे पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-लता आदि सभी साधारण प्राणियोंके भी जीवन-निर्वाहका जब प्रबन्ध है, तब शरीरसहित मिली हुई सब सामग्रीको प्राणियोंके हितमें व्यय करनेवाले मनुष्यके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध न हो, यह कैसे सम्भव है?सबका पालन करनेवाले भगवान्की असीम कृपासे जीवन-निर्वाहकी सामग्री समस्त प्राणियोंको समानरूपसे मिली हुई है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सबके सामने है। माताके शरीरमें जहाँ रक्त-ही-रक्त रहता है, वहाँ भी बच्चेके जीवन-निर्वाहके लिये मीठा और पुष्टिकर दूध स्वतः पैदा हो जाता है। अतः चाहे प्रारब्धसे मानो, चाहे भगवत्कृपासे, मनुष्यके जीवन-निर्वाहकी सामग्री उसको मिलती ही है। इसमें संदेह, चिन्ता, शोक एवं विचार होना ही नहीं चाहिये। भगवान्के राज्यमें जब पापी-से-पापी एवं नास्तिक-से-नास्तिक पुरुषका भी जीवन-निर्वाह होता है, तब कर्मयोगीके जीवन-निर्वाहमें क्या बाधा आ सकती है? अतः यह प्रश्न उठाना ही भूल है।सम्बन्ध -- नवें श्लोकमें भगवान्ने'यज्ञके लिये किये जानेवाले कर्म बाँधनेवाले नहीं होते' -- ऐसा बताकर यज्ञके लिये कर्म करनेकी आज्ञा दी। उस आज्ञाको ब्रह्माजीके वचनोंद्वारा पुष्ट करके नवें श्लोकमें कहे हुए अपने वचनोंसे एकवाक्यता करते हुए आगेके श्लोकमें यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करने और न करनेके फलका स्पष्ट विवेचन करते हैं ।।3.12।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- इष्टान् अभिप्रेतान् भोगान् हि वः युष्मभ्यं देवाः दास्यन्ते वितरिष्यन्ति स्त्रीपशुपुत्रादीन् यज्ञभाविताः यज्ञैः वर्धिताः तोषिताः इत्यर्थः। तैः देवैः दत्तान् भोगान् अप्रदाय अदत्त्वा, आनृण्यमकृत्वा इत्यर्थः, एभ्यः देवेभ्यः, यः भुङ्क्ते स्वदेहेन्द्रियाण्येव तर्पयति स्तेन एव तस्कर एव सः देवादिस्वापहारी।।ये पुनः -- ।।3.12।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.12 'Yajna-bhavitah, being nourished, i.e. being satisfied, by sacrifices; devah, the gods; dasyante hi, will indeed give, will distribute; among vah, you; the istan, coveted; bhogan, enjoyments, such as wife, childeren and cattle. Sah, he; is eva, certainly; a stenah, thief, a stealer of the wealth of gods and others; yah, who; bhunkte, enjoys, gratifies only his own body and organs; with dattan, what enjoyable things have been given; taih, by them, by the gods; apradaya, without offering (these); ebhyah, to them, i.e. without repaying the debt The three kinds of debt-to the gods, to the rsis (sage), and to the manes-are repaid by satisfying them through sacrifices, celibacy (including study of the Vedas, etc.), and procreation, respectively. Unless one repays these debts, he incurs sin. to them.'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
दूसरी बात यह भी है कि -- यज्ञद्वारा बढ़ाये हुए -- संतुष्ट किये हुए देवता लोग तुमलोगोंको स्त्री, पशु, पुत्र आदि इच्छित भोग देंगे। उन देवोंद्वारा दिये हुए भोगोंको उन्हें न देकर अर्थात् उनका ऋण न चुकाकर, जो खाता है -- केवल अपने शरीर और इन्द्रियोंको ही तृप्त करता है, वह देवताओंके स्वत्वको हरण करनेवाला चोर ही है ।।3.12।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यज्ञभाविताः यज्ञेन आराधिताः मदात्मका देवा इष्टान् भोगान् वो दास्यन्ते परमपुरुषार्थलक्षणं मोक्षं साधयतां ये इष्टा भोगाः तान् पूर्वपूर्वयज्ञभाविता देवा दास्यन्ते। उत्तरोत्तराराधनापेक्षितान् सर्वान् भोगान् वो दास्यन्ति इत्यर्थः।स्वाराधनार्थता तैः दत्तान् भोगान् तेभ्यः अप्रदाय यो भुङ्क्ते चोर एव सः। चौर्यं हि नाम अन्यदीये तत्प्रयोजनाय एव परिक्लृप्ते वस्तुनि स्वकीयताबुद्धिं कृत्वा तेन स्वात्मपोषणम्। अतः अस्य न परमपुरुषार्थानर्हतामात्रम्, अपि तु निरयगामित्वं च भविष्यति, इत्यभिप्रायः।तद् एव विवृणोति -- ।।3.12।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.12 'Pleased by the sacrifice,' i.e., propitiated by the sacrifice, the gods, who have Me as their Self, will bestow on you the enjoyments you desire. Whatever objects are desired by persons keen on attaining release, the supreme end of human endeavour, all those will be granted by gods previously worshipped through many sacrifices. That is, whatever is solicited with more and more propitiation, all those enjoyments they will bestow on you. Whoever enjoys the objects of enjoyment granted by them for the purpose of worshipping them, without giving them their due share in return --- he is verily a thief. What is called 'theft' is indeed taking what belongs to another as one's own and using it for oneself, when it is really designed for the purpose of another. The purport is that such a person becomes unfit not only for the supreme end of human endeavour, but also will go down towards purgatory (Naraka).Sri Krsna expands the same:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
इष्टानिति। तैर्वृष्ट्यादिना दत्तानन्नादीन् अप्रदाय एभ्यो यो भुङ्क्ते स स्तेन एवेति "जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिः ऋणवाञ्जायतेः (?) ब्रह्मचर्येणर्षिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजाभिः पितृभ्य एष वानृणः" इति श्रुतेस्त्रयाणामृणी चायमित्यतस्तैः पूर्वमृणं प्रदत्तवांस्तेभ्यः पुनर्न प्रत्ययेच्चोर एवेति तदनिवेदने दोष उक्तः ।।3.12।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
न केवलं पारत्रिकमेव फलं यज्ञात् किंत्वेहिकमपीत्याह -- इष्टानभिलषितान्भोगान्पश्वन्नहिरण्यादीन् वो युष्मभयं देवा दास्यन्ते वितरिष्यन्ति। हि यस्मात् यज्ञैर्भावितास्तोषितास्ते। यस्मात्तेः ऋणवद्भवद्भ्योः दत्ता भोगास्तस्मात्तैर्देवैर्दत्तान्भोगानेभ्यो देवेभ्योऽप्रदाय यज्ञेषु देवोद्देशेनाहुतीरसंपाद्य यो भुङ्क्ते देहेन्द्रियाण्येव तर्पयति स्तेन एव तस्कर एव स देवस्वापहारी देवर्णानपाकरणात् ।।3.12।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।3.12।।

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