शनिवार, 30 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-49


मूल स्लोकः

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।




English translation by Swami Sivananda
2.49 Far lower than the Yoga of wisdon is action, O Arjuna. Seek thou refuge in wisdom; wretched are they whose motive is the fruit.


English commentary by Swami Sivananda
2.49 दूरेण by far, हि indeed, अवरम् inferior, कर्म action or work, बुद्धियोगात् than the Yoga of wisdom, धनञ्जय O Dhananjaya, बुद्धौ in wisdom, शरणम् refuge, अन्विच्छ seek, कृपणाः wretched, फलहेतवः seekers after fruits.Commentary: Action done with evenness of mind is Yoga of wisdom. The yogi who is established in the Yoga of widdom is not affected by success or failure. He does not seek fruits of his actions. He has poised reason. His reason is rooted in the Self. Action performed by one who expects fruits for his actions, is far inferior to the Yoga of wisdom wherein the seeker does not seek fruits; because the former leads to bondage and is the cause of birth and death. (Cf.VIII.18).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
बुद्धियोग-(समता) की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट है। अतः हे धनञ्जय! तू बुद्धि (समता) का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।।2.49।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात् -- बुद्धियोग अर्थात् समताकी अपेक्षा सकामभावसे कर्म करना अत्यन्त ही निकृष्ट है। कारण कि कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा उन कर्मोंके फलका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु योग (समता) नित्य है; उसका कभी वियोग नहीं होता। उसमें कोई विकृति नहीं होती। अतः समताकी अपेक्षा सकामकर्म अत्यन्त ही निकृष्ट हैं।सम्पूर्ण कर्मोंमें समता ही श्रेष्ठ है। समताके बिना तो मात्र जीव कर्म करते ही रहते हैं तथा उन कर्मोंके परिणाममें जन्मते-मरते और दुःख भोगते रहते हैं। कारण कि समताके बिना कर्मोंमें उद्धार करनेकी ताकत नहीं है। कर्मोंमें समता ही कुशलता है। अगर कर्मोंमें समता नहीं होगी तो शरीरमें अहंता-ममता हो जायगी, और शरीरमें अहंता-ममता होना ही पशुबुद्धि है। भागवतमें शुकदेवजीने राजा परीक्षित्से कहा है -- त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि। (12। 5। 2) अर्थात् हे राजन्! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा। दूरेण कहनेका तात्पर्य है कि जैसे प्रकाश और अन्धकार कभी समकक्ष नहीं हो सकते, ऐसे ही बुद्धियोग और सकामकर्म भी कभी समकक्ष नहीं हो सकते। इन दोनोंमें दिन-रातकी तरह महान् अन्तर है। कारण कि बुद्धियोग तो परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है और सकामकर्म जन्म-मरण देनेवाला है।बुद्धौ शरणमन्विच्छ -- तू बुद्धि (समता) की शरण ले। समतामें निरन्तर स्थित रहना ही उसकी शरण लेना है। समतामें स्थित रहनेसे ही तुझे स्वरूपमें अपनी स्थितिका अनुभव होगा।कृपणाः फलहेतवः -- कर्मोंके फलका हेतु बनना अत्यन्त निकृष्ट है। कर्म, कर्मफल, कर्मसामग्री और शरीरादि करणोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना ही कर्मफलका हेतु बनना है। अतः भगवान्ने सैंतालीसवें श्लोकमें मा कर्मफलहेतुर्भूः कहकर कर्मोंके फलका हेतु बननेमें निषेध किया है।कर्म ओर कर्मफलका विभाग अलग है तथा इन दोनोंसे रहित जो नित्य तत्त्व है, उसका विभाग अलग है। वह नित्य तत्त्व अनित्य कर्मफलके आश्रित हो जाय -- इसके समान निकृष्टता और क्या होगी?सम्बन्ध -- पूर्व श्लोकमें जिस बुद्धिके आश्रयकी बात बतायी, अब आगेके श्लोकमें उसी बुद्धिके आश्रयका फल बताते हैं ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- दूरेण अतिविप्रकर्षेण अत्यन्तमेव हि अवरम् अधमं निकृष्टं कर्म फलार्थिना क्रियमाणं बुद्धियोगात् समत्वबुद्धियुक्तात् कर्मणः, जन्ममरणादिहेतुत्वात्। हे धनञ्जय, यत एवं ततः योगविषयायां बुद्धौ तत्परिपाकजायां वा सांख्यबुद्धौ शरणम् आश्रयमभयप्राप्तिकारणम् अन्विच्छ प्रार्थयस्व, परमार्थज्ञानशरणो भवेत्यर्थः। यतः अवरं कर्म कुर्वाणाः कृपणाः दीनाः फलहेतवः फलतृष्णाप्रयुक्ताः सन्तः, 'यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः' इति श्रुतेः।।समत्वबुद्धियुक्तः सन् स्वधर्ममनुतिष्ठन् यत्फलं प्राप्नोति तच्छृणु -- ।।2.49।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.49 Then again, O Dhananjaya, as against action performed with equanimity of mind for adoring God, karma, action undertaken by one longing for the results; is, hi, indeed; durena, quite, by far; avaram, inferior, very remote; buddhi-yogat, from the yoga of wisdom, from actions undertaken with equanimity of mind, because it (the former) is the cause of birth, death, etc. Since this is so, therefore, saranam anviccha, take resort to, seek shelter; buddhau, under wisdom, which relates to Yoga, or to the Conviction about Reality that arises from its (the former's) maturity and which is the cause of (achieving) fearlessness. The meaning is that you should resort to the knowledge of the supreme Goal, because those who under take inferior actions, phala-hetavah, who thirst for rewards, who are impelled by results; are krpanah, pitiable, according to the Sruti, 'He, O Gargi, who departs from this world without knowing this Immutable, is pitiable' (Br. 3.8.10). See note under 2.7.-Tr.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो समत्व-बुद्धिसे ईश्वराराधनार्थ किये जानेवाले कर्म हैं उनकी अपेक्षा ( सकाम कर्म निकृष्ट हैं, यह दिखलाते हैं ) -- हे धनंजय ! बुद्धियोगकी अपेक्षा, अर्थात् समत्वबुद्धिसे युक्त होकर किये जानेवाले कर्मोंकी अपेक्षा, कर्मफल चाहनेवाले सकामी मनुष्योंद्वारा किये हुए कर्म, जन्म-मरण आदिके हेतु होनेके कारण अत्यन्त ही निकृष्ट हैं। इसलिये तू योगविषयक बुद्धिमें, या उसके परिपाकसे उत्पन्न होनेवाली सांख्यबुद्धिमें, शरण -- आश्रय अर्थात् अभय-प्राप्तिके हेतुको पानेकी इच्छा कर। अभिप्राय यह कि परमार्थज्ञानकी शरणमें जा। क्योंकि फल-तृष्णासे प्रेरित होकर सकाम कर्म करनेवाले कृपण हैं दीन हैं। श्रुतिमें भी कहा है -- 'हे गार्गी ! जो इस अक्षर ब्रह्मको न जानकर इस लोकसे जाता है वह कृपण है' ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यः अयं प्रधानफलत्यागविषयः अवान्तरफलसिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वविषयश्च बुद्धियोगः तद्युक्तात् कर्मणः इतरत् कर्मदूरेण अवरम्। महद् एतद् द्वयोः उत्कर्षापकर्षरूपं वैरूप्यम् -- उक्तबुद्धियोगयुक्तं कर्म निखिलं सांसारिकं दुःखं विनिवर्त्य परमपुरुषार्थलक्षणं च मोक्षं प्रापयति; इतरद् अपरिमितदुःखरूपं संसारम् इति अतः कर्मणि क्रियमाणे उक्तायां बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ। शरणं वासस्थानम्; तस्याम् एव बुद्धौ वर्तस्व इत्यर्थः। कृपणाः फलहेतवः फलसङ्गादिना कर्म कुर्वाणाः कृपणाः संसारिणो भवेयुः ।।2.49।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.49 All other kinds of action are far inferior to those done with evenness of mind, which consists in the renunciation of the main result and with equanimity towards success or failure in respect of the secondary results. Between the two kinds of actions, the one with equanimity and the other with attachment, the former associated with equanimity removes all the sufferings of Samsara and leads to release which is the highest object of human existence. The latter type of actions, which is pursued with an eye on results, leads one to Samsara whose character is endless suffering. Thus when an act is being done, take refuge in Buddhi (evenness of mind). Refuge means abode. Live in that Buddhi, is the meaning. 'Miserable are they who act with a motive for results': it means, 'Those who act with attachment to the results, etc., are miserable, as they will continue in Samsara.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अयुक्तं कर्म व्यवसायबुद्धियोगादवरमपकृष्टं, हि यतः, अतो बुद्धौ बुद्धिनिमित्तं बुद्धिविषये वा शरणं कञ्चिदन्वेषय बुद्धावाश्रयं वाऽन्विच्छ; गृहाणेत्यर्थः। कर्मणोऽवरत्वं दर्शयति -- तत्र फलहेतवः कृपणा इति फलमेव हेतुः प्रकृतिकारण येषां ते जनाः कृपणाः, प्राप्तेऽपि फले पुनः सतृष्णाः ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु किं कर्मानुष्ठानमेव पुरुषार्थो येन निष्फलमेव सदा कर्तव्यमित्युच्यते'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते' इति न्यायात्, तद्वरं फलकामनयैव कर्मानुष्ठानमिति चेन्नेत्याह -- बुद्धियोगात् आत्मबुद्धिसाधनभूतान्निष्कामकर्मयोगात् दूरेणातिविप्रकर्षेणावरमधमं कर्म फलाभिसंधिना क्रियमाणं जन्ममरणहेतुभूतं, अथवा परमात्मबुद्धियोगाद्दूरेणावरं सर्वमपि कर्म। हि यस्मात् हे धनंजय, तस्मात् बुद्धौ परमात्मबुद्धौ सर्वानर्थनिवर्तकायां शरणं प्रतिबन्धकपापक्षयेण रक्षकं निष्कामकर्मयोगम्। अन्विच्छ कर्तुमिच्छ। ये तु फलहेतवः फलकामा अवरं कर्म कुर्वन्ति ते कृपणाः सर्वदा जन्ममरणादिघटीयन्त्रभ्रमणेन परवशाः। अत्यन्तदीना इत्यर्थः।'यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः' इति श्रुतेः। तथाच त्वमपि कृपणो माभूः, किंतु सर्वानर्थनिवर्तकात्मज्ञानोत्पादकं निष्कामकर्मयोगमेवानुतिष्ठेत्यभिप्रायः। यथाहि कृपणा जना अतिदुःखेन धनमर्जयन्तो यत्किंचिद्दृष्टसुखमात्रलोभेन दानादिजनितं महत्सुखमनुभवितुं न शक्नुवन्तीत्यात्मानमेव वञ्चयन्ति, तथा महता दुःखेन कर्माणि कुर्वाणाः क्षुद्रफलमात्रलोभेन परमानन्दानुभवेन वञ्चिता इत्यहो दौर्भाग्यं मौढ्यं च तेषामिति कृपणपदेन ध्वनितम् ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
इतश्च योगाय युज्यस्वेत्यत आह -- 'दूरेणेति'। बुद्धियोगाज्ज्ञानलक्षणादुपायात्। दूरेणातीव। अतो बुद्धौ शरणं ज्ञाने स्थितिम्। फलं कर्म, कृतौ हेतुर्येषां ते फलहेतवः ।।2.49।।

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