रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-56


मूल स्लोकः

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।




English translation by Swami Sivananda
2.56 He whose mind is not shaken by adversity, who does not hanker after pleasures, and is free from attachment, fear and anger, is called a sage of steady wisdom.


English commentary by Swami Sivananda
2.56 दुःखेषु in adversity, अनुद्विग्नमनाः of unshaken mind, सुखेषु in pleasure, विगतस्पृहः withut hankering, वीतरागभयक्रोधः free from attachment, fear and anger, स्थितधीः of steady wisdom, मुनिः sage, उच्यते (he) is called.Commentary: Lord Krishna gives His answer to the second part of Arjuna's question as to the conduct of a sage of steady wisdom in the 56th, 57th and 58th verses.The mind of a sage of steady wisdom is not distressed in calamities. He is not affected by the three afflictions (Taapas) -- Adhyatmika (arising from diseases or disorders in one's own body), Adhidaivika (arising from thunder, lightning, storm, flood, etc.), and Adhibhautika (arising from scorpions, cobras, tigers, etc.). When he is placed in an affluent condition he does not long for sensual pleasures. (Cf.IV.10).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।।2.56।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अर्जुनने तो ' स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है? ' ऐसा क्रियाकी प्रधानताको लेकर प्रश्न किया था, पर भगवान् भावकी प्रधानताको लेकर उत्तर देते हैं; क्योंकि क्रियाओंमें भाव ही मुख्य है। क्रियामात्र भावपूर्वक ही होती है। भाव बदलनेसे क्रिया बदल जाती है अर्थात् बाहरसे क्रिया वैसी ही दीखनेपर भी वास्तवमें क्रिया वैसी नहीं रहती। उसी भावकी बात भगवान् यहाँ कह रहे हैं (टिप्पणी प0 94)। दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः -- दुखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्ति होनेपर भी जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता अर्थात् कर्तव्य-कर्म करते समय कर्म करनेमें बाधा लग जाना, निन्दा-अपमान होना, कर्मका फल प्रतिकूल होना आदि-आदि प्रतिकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता।कर्मयोगीके मनमें उद्वेग, हलचल न होनेका कारण यह है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता है -- दूसरोंके हितके लिये कर्म करना, कर्मोंको साङ्गोपाङ्ग करना, कर्मोंके फलमें कहीं आसक्ति, ममता, कामना न हो जाय -- इस विषयमें सावधान रहना। ऐसा करनेसे उसके मनमें एक प्रसन्नता रहती है। उस प्रसन्नताके कारण कितनी ही प्रतिकूलता आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता।सुखेषु विगतस्पृहः -- सुखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्ति होनेपर भी जिसके भीतर स्पृहा नहीं होती अर्थात् वर्तमानमें कर्मोंका साङ्गोपाङ्ग हो जाना, तात्कालिक आदर और प्रशंसा होना, अनुकूल फल मिल जाना आदि-आदि अनुकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें ' यह परिस्थिति ऐसी ही बनी रहे; यह परिस्थिति सदा मिलती रहे -- ऐसी स्पृहा नहीं होती। उसके अन्तःकरणमें अनुकूलताका कुछ भी असर नहीं होता।वीतरागभयक्रोधः -- संसारके पदार्थोंका मनपर जो रंग चढ़ जाता है उसको राग कहते हैं। पदार्थोंमें राग होनेपर अगर कोई सबल व्यक्ति उन पदार्थोंका नाश करता है, उनसे सम्बन्ध-विच्छेद कराता है, उनकी प्राप्तिमें विघ्न डालता है, तो मनमें भय होता है। अगर वह व्यक्ति निर्बल होता है, तो मनमें क्रोध होता है। परन्तु जिसके भीतर दूसरोंको सुख पहुँचानेका, उनका हित करनेका, उनकी सेवी करनेका भाव जाग्रत् हो जाता है, उसका राग स्वाभाविक ही मिट जाता है। रागके मि़टनेसे भय और क्रोध भी नहीं रहते। अतः वह राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो जाता है।जबतक आंशिकरूपसे उद्वेग, स्पृहा, राग, भय और क्रोध रहते हैं, तबतक वह साधक होता है। इनसे सर्वथा रहित होनेपर वह सिद्ध हो जाता है।वासना, कामना आदि सभी एक रागके ही स्वरूप हैं। केवल वासनाका तारतम्य होनेसे उसके अलग-अलग नाम होते हैं; जैसे अन्तःकरणमें जो छिपा हुआ राग रहता है, उसका नाम वासना है। उस वासनाका ही दूसरा नाम आसक्ति और प्रियता है। मेरेको वस्तु मिल जाय -- ऐसी जो इच्छा होती है, उसका नाम कामना है। कामना पूरी होनेकी जो सम्भावना है, उसका नाम आशा है। कामना पूरी होनेपर भी पदार्थोंके बढ़नेकी तथा पदार्थोंके और मिलनेकी जो इच्छा होती है, उसका नाम लोभ है। लोभकी मात्रा अधिक बढ़ जानेका नाम तृष्णा है। तात्पर्य है कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंमें जो खिंचाव है, श्रेष्ठ और महत्त्व-बुद्धि है, उसीको वासना, कामना आदि नामोंसे कहते हैं।स्थितधीर्मुनिरुच्यते -- ऐसे मननशील कर्मयोगीकी बुद्धि स्थिर, अटल हो जाती है। मुनि शब्द वाणीपर लागू होता है, इसलिये भगवान्ने किं प्रभाषेत के उत्तरमें मुनि शब्द कह दिया है। परन्तु वास्तवमें मुनि शब्द केवल वाणीपर ही अवलम्बित नहीं है। इसीलिये भगवान्ने सत्रहवें अध्यायमें मौन शब्दका प्रयोग मानसिक तपमें किया है, वाणीके तपमें नहीं (17। 16)।कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ मननशील कर्मयोगीको मुनि कहा गया है। मननशीलताका तात्पर्य है -- सावधानीका मनन, जिससे कि मनमें कोई कामना -- आसक्ति न आ जाय। निरन्तर अनासक्त रहना ही सिद्ध कर्मयोगीकी सावधानी है; क्योंकि पहले साधक-अवस्थामें उसकी ऐसी सावधानी रही है (गीता 3। 19) और इसीसे वह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हुआ है ।।2.56।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- दुःखेषु आध्यात्मिकादिषु प्राप्तेषु न उद्विग्नं न प्रक्षुभितं दुःखप्राप्तौ मनो यस्य सोऽयम् अनुद्विग्नमनाः। तथा सुखेषु प्राप्तेषु विगता स्पृहा तृष्णा यस्य, न अग्निरिव इन्धनाद्याधाने सुखान्यनु विवर्धते स विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः रागश्च भयं च क्रोधश्च वीता विगता यस्मात् स वीतरागभयक्रोधः। स्थितधीः स्थितप्रज्ञो मुनिः संन्यासी तदा उच्यते।।किञ्च -- ।।2.56।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.56 Moreover, that munih, monk Sankaracarya identifies the monk with the man of realization. ucyate, is then called; sthita-dhih, a man of steady wisdom; when anudvignamanah, his mind is unperturbed; duhkhesu, in sorrow -- when his mind remains unperturbed by the sorrows that may come on the physical or other planes Fever, headache, etc. are physical (adhyatmika) sorrows; sorrows caused by tigers, snakes, etc. are environmental (adhibhautika) sorrows; those caused by cyclones, floods, etc. are super-natural (adhidaivika). Similarly, delights also may be experienced on the three planes. --; so also, when he is vigata-sprhah, free from longing; sukhesu, for delights -- when he, unlike fire which flares up when fed with fuel etc., has no longing for delights when they come to him --; and vita-raga-bhaya-krodhah, has gone beyond attachment, fear and anger.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तथा -- आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकारके दुःखोंके प्राप्त होनेमें जिसका मन उद्विग्न नहीं होता अर्थात् क्षुभित नहीं होता उसे 'अनुद्विग्नमना' कहते हैं। तथा सुखोंकी प्राप्तिमें, जिसकी स्पृहा-तृष्णा नष्ट हो गयी है अर्थात् ईंधन डालनेसे जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुखके साथ-साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती वह 'विगतस्पृह ' कहलाता है। एवं आसक्ति, भय और क्रोध जिसके नष्ट हो गये हैं, वह 'वीतरागभयक्रोध' कहलाता है, ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह स्थितधी यानी स्थितप्रज्ञ और मुनि यानी संन्यासी कहलाता है ।।2.56।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
प्रियविश्लेषादि दुःखनिमित्तेषु उपस्थितेषु अनुद्विग्नमनाः न दुःखी भवति, सुखेषु विगतस्पृहः प्रियेषु सन्निहितेषु अपि निःस्पृहः वीतरागभयक्रोधः अनागतेषु स्पृहा रागस्तद्रवितः; प्रियविश्लेषाप्रियागमनहेतुदर्शननिमित्तिं दुःखं भयम्, तद्रहितः; प्रियविश्लेषाप्रियागमनहेतुभूतचेतनान्तरगतो दुःखहेतुः स्वमनोविकारः क्रोधः, तद्रहितः; एवंभूतो मुनिः आत्ममननशीलः स्थितधीः इति उच्यते।ततः अर्वाचीनदशा प्रोच्यते -- ।।2.56।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.56 Even when there are reasons for grief like separation from beloved ones, his mind is not perturbed, i.e., he is not aggrieved. He has no longing to enjoy pleasures, i.e., even though the things which he likes are near him, he has no longing for them. He is free from desire and anger; desire is longing for objects not yet obtained; he is free from this. Fear is affliction produced from the knowledge of the factors which cause separation from the beloved or from meeting with that which is not desirable; he is free from this. Anger is a disturbed state of one's own mind which produces affliction and which is aimed at another sentient being who is the cause of separation from the beloved or of confrontation with what is not desirable. He is free from this.A sage of this sort, who constantly meditates on the self, is said to be of firm wisdom.Then, the next state below this is described:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यानि साधकस्य ज्ञानसाधनानि तानि तस्य स्वाभाविकान्यन्तरङ्गाणि चेत्याह -- दुःखेष्विति ।।2.56।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
इदानीं व्युत्थितस्य स्थितप्रज्ञस्य भाषणोपवेशनगमनानि मूढजनविलक्षणानि व्याख्येयानि। तत्र किं प्रभाषेतेत्यस्योत्तरमाह द्वाभ्याम् -- 'दुःखेष्विति'। दुःखानि त्रिविधानि शोकमोहज्वरशिरोरोगादिनिमित्तान्याध्यात्मिकानि, व्याघ्रसर्पादिप्रयुक्तान्याधिभौतिकानि, अतिवातातिवृष्ट्यादिहेतुकान्याधिदैविकानि, तेषु दुःखेषु रजःपरिणामसंतापात्मकचित्तवृत्तिविशेषेषु प्रारब्धपापकर्मप्रापितेषु नोद्विग्नं दुःखपरिहाराक्षमतया व्याकुलं न भवति मनो यस्य सोऽनुद्विग्नमनाः। अविवेकिनो हि दुःखप्राप्तौ सत्यामहो पापोऽहं धिङ्मां दुरात्मानमेतादृशदुःखभागिनं को मे दुःखमीदृशं निराकुर्यादित्यनुतापात्मको भ्रान्तिरूपस्तामसचित्तवृत्तिविशेष उद्वेगाख्यो जायते। यद्येवं पापानुष्ठानसमये स्यात्तदा तत्प्रवृत्तिप्रतिबन्धकत्वेन सफलः स्यात्। भोगकालेऽनुभवकारणे सति कार्यस्योच्छेत्तुमशक्यत्वान्निष्प्रयोजने दुःखकारणे सत्यपि किमति मम दुःखं जायत इत्यविवेकजभ्रमरूपत्वान्न विवेकिनः स्थितप्रज्ञस्य संभवति। दुःखमात्रं हि प्रारब्धकर्मणा प्राप्यते नतु तदुत्तरकालीनो भ्रमोऽपि। ननु दुःखान्तरकारणत्वात्सोऽपि प्रारब्धकर्मान्तरेण प्राप्यतामिति चेत्। न। स्थितप्रज्ञस्य भ्रमोपादानाज्ञाननाशेन भ्रमासंभवात्तज्जन्यदुःखप्रापकप्रारब्धाभावात् यथाकथंचिद्देहयात्रामात्रनिर्वाहकप्रारब्धकर्मफलस्य भ्रमाभावेऽपि बाधितानुवृत्त्योपपत्तेरिति विस्तरेणाग्रे वक्ष्यते। तथा सुखेषु सत्त्वपरिणामरूपप्रीत्यात्मकचित्तवृत्तिविशेषेषु त्रिविधेषु प्रारब्धपुण्यकर्मप्रापितेषु विगतस्पृहः आगामितज्जातीयसुखस्पृहारहितः। स्पृहाहि नाम सुखानुभववृत्तिकाले तज्जातीयसुखस्य कारणं धर्ममननुष्ठाय वृथैव तदाकाङ्क्षारूपा तामसी चित्तवृत्तिर्भ्रान्तिरेव सात्राविवेकिन एव जायते। नहि कारणाभावे कार्यं भवितुमर्हति। अतो यथाऽसतिकारणे कार्यं माभूदिति वृथाकाङ्क्षा उद्वेगो विवेकिनो न संभवति। तथैवासति कारणे कार्यं भूयादिति वृथाकाङ्क्षारूपा तृष्णात्मिका स्पृहापि नोपपद्यते। प्रारब्धकर्मणः, सुखमात्रप्रापकत्वात्। हर्षात्मिका वा चित्तवृत्तिः स्पृहाशब्देनोक्ता सापि भ्रान्तिरेव। अहो धन्योऽहं यस्य ममेदृशं सुखमुपस्थितं, को वा मया तुल्योऽस्ति भुवने, केन वोपायेन ममेदृशं सुखं न विच्छिद्येतेत्येवमात्मिकोत्फुल्लतारूपा तामसी चित्तवृत्तिः। अतएवोक्तं भाष्ये'नाग्निरिवेन्धनाद्याधाने यः सुखान्यनुविवर्धते स विगतस्पृहः' इति। वक्ष्यति च'न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्' इति। सापि न विवेकिनः संभवति भ्रान्तित्वात्। तथा वीतरागभयक्रोधः। रागः शोभनाध्यासनिबन्धनो विषयेषु रञ्जनात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषोऽत्यन्ताभिनिवेशरूपः। रागविषयस्य नाशके समुपस्थिते तन्निवारणासामर्थ्यमात्मनो मन्यमानस्य दैन्यात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषो भयम्। एवं रागविषयविनाशके समुपस्थिते तन्निवारणसामर्थ्यमात्मनो मन्यमानस्याभिज्वलनात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषः क्रोधः। ते सर्वे विपर्ययरूपत्वाद्विगता यस्मात्स तथा एतादृशो मुनिर्मननशीलः संन्यासी स्थितप्रज्ञ उच्यते। एवंलक्षणः स्थितधीः स्वानुभवप्रकटनेन शिष्यशिक्षार्थमनुद्वेगनिस्पृहत्वादिवाचः प्रभाषत इत्यन्वय उक्तः। एवंचान्योऽपि मुमुक्षुर्दुःखे नोद्विजेत् सुखे न प्रहृष्येत् रागभयक्रोधरहितश्च भवेदित्यभिप्रायः ।।2.56।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तदेव स्पष्टयत्युत्तरैस्त्रिभिः श्लोकैः। एतान्येव ज्ञानोपायानि; तच्चोक्तम् -- 'तद्वै जिज्ञासुभिः साध्यं ज्ञानिनां यत्तु लक्षणम्' इति। शोभनाध्यासो रागः।'रसो रागस्तथा रक्तिः शोभनाध्यास इष्यते' इत्यभिधानम् ।।2.56।।

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