रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-71


मूल स्लोकः

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।

निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।




English translation by Swami Sivananda
2.71 That man attains peace who, abandoning all desires, moves about without longing, without the sense of mine and without egoism.


English commentary by Swami Sivananda
2.71 विहाय abandoning, कामान् desires, यः that, सर्वान् all, पुमान् man, चरति moves about, निःस्पृहः free from longing, निर्ममः devoid of 'mine-ness', निरहंकारः without egoism, सः he, शान्तिम् to peace, अधिगच्छति attains.Commentary: That man who lives destitute of longing, abandoning all desires, without the senses of 'I' and 'mine', who is satisfied with the bare necessities of life, who does not care even for those bare necessities of life, who has no attachment even for the bare necessities of life, attains Moksha or eternal peace. (Cf.II.55).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके निर्मम, निरहंकार और निःस्पृह होकर विचरता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है ।।2.71।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः -- अप्राप्त वस्तुकी इच्छाका नाम ' कामना ' है। स्थितप्रज्ञ महापुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है। कामनाओंका त्याग कर देने पर भी शरीरके निर्वाहमात्रके लिये देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिकी जो आवश्यकता दीखती है अर्थात् जीवन-निर्वाहके लिये प्राप्त और अप्राप्त वस्तु आदिकी जो जरूरत दीखती है, उसका नाम ' स्पृहा ' है। स्थितप्रज्ञ पुरुष इस स्पृहाका भी त्याग कर देता है। कारण कि जिसके लिये शरीर मिला था और जिसकी आवश्यकता थी, उस तत्त्वकी प्राप्ति हो गयी, वह आवश्यकता पूरी हो गयी। अब शरीर रहे चाहे न रहे, शरीर-निर्वाह हो चाहे न हो -- इस तरफ वह बेपरवाह रहता है। यही उसका निःस्पृह होना है।निःस्पृह होनेका अर्थ यह नहीं है कि वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन करता ही नहीं। वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन भी करता है, पथ्य-कुपथ्यका भी ध्यान रखता है अर्थात् पहले साधनावस्थामें शरीर आदिके साथ जैसा व्यवहार करता था, वैसा ही व्यवहार अब भी करता है; परन्तु शरीर बना रहे तो अच्छा है, जीवन-निर्वाहकी वस्तुएँ मिलती रहें तो अच्छा है -- ऐसी उसके भीतर कोई परवाह नहीं होती।इसी अध्यायके पचपनवें श्लोकमें प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पदोंसे कामना-त्यागकी जो बात कही थी, वही बात यहाँ विहाय कामान्यः सर्वान् पदोंसे कही है। इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग किये बिना कोई स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि कामनाओंके कारण ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। कामनाओंका सर्वथा त्याग करनेपर संसारके साथ सम्बन्ध रह ही नहीं सकता।निर्ममः -- स्थितप्रज्ञ महापुरुष ममताका सर्वथा त्याग कर देता है। मनुष्य जिन वस्तुओंको अपनी मानता है, वे वास्तवमें अपनी नहीं हैं, प्रत्युत संसारसे मिली हुई हैं। मिली हुई वस्तुको अपनी मानना भूल है। यह भूल मिट जानेपर स्थितप्रज्ञ, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ आदिमें ममतारहित हो जाता है।निरहङ्कारः -- यह शरीर मैं ही हूँ -- इस तरह शरीरसे तादात्म्य मानना अहंकार है। स्थितप्रज्ञमें यह अहंकार नहीं रहता। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, आदि सभी किसी प्रकाशमें दीखते हैं और जो ' मैं'-पन है, उसका भी किसी प्रकाशमें भान होता है। अतः प्रकाशकी दृष्टिसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंता (' मैं'-पन) -- ये सभी दृश्य हैं। द्रष्टा दृश्यसे अलग होता है -- यह नियम है। ऐसा अनुभव हो जानेसे स्थितप्रज्ञ निरहंकार हो जाता है।स शान्तिमधिगच्छति -- स्थितप्रज्ञ शान्तिको प्राप्त होता है। कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित होनेपर शान्ति आकर प्राप्त होती है -- ऐसी बात नही है, प्रत्युत शान्ति तो मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है। केवल उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे सुख भोगनेकी कामना करनेसे, उनसे ममताका सम्बन्ध रखनेसे ही अशान्ति होती है। जब संसारकी कामना, स्पृहा, ममता और अहंता सर्वथा छूट जाती है, तब स्वतःसिद्ध शान्तिका अनुभव हो जाता है।इस श्लोकमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंता -- इन चारोंमें अहंता ही मुख्य है। कारण कि एक अहंताके निषेधसे सबका निषेध हो जाता है अर्थात् यदि ' मैं'-पन ही नहीं रहेगा, तो फिर ' मेरा'-पन कैसे रहेगा और कामना भी कौन करेगा और किसलिये करेगा? जब निरहङ्कारः कहनेमात्रसे कामना आदिका त्याग उसके अन्तर्गत आ जाता था, तो फिर कामना आदिके त्यागका वर्णन क्यों किया? इसका उत्तर यह है कि कामना, स्पृहा, ममता और अहंता -- इन चारोंमें कामना स्थूल है। कामनासे सूक्ष्म स्पृहा, स्पृहासे सूक्ष्म ममता और ममतासे सूक्ष्म अहंता है। इसलिये संसारसे सम्बन्ध छोड़नेमें सबसे पहले कामनाका त्याग कर दिया जाय, तो अन्य तीनका त्याग करना सुगम हो जाता है।कामना करनेसे कोई वस्तु नहीं मिलती। वस्तु तो जो मिलनेवाली है, वही मिलेगी। अतः कामनाका त्याग कर देना चाहिये। कामनाका त्याग करनेके बाद भी स्पृहा रहती है। स्पृहा (शरीर-निर्वाहकी आवश्यकता) पूरी हो जाय यह भी हमारे हाथकी बात नहीं है अर्थात् स्पृहाकी पूर्तिमें भी हम स्वतन्त्र नहीं है। जो होना है वह तो होगा ही, फिर स्पृहा रखनेसे क्या लाभ? अतः शरीरके लिये अन्न, जल, वस्त्र आदिकी आशा छोड़नेसे स्पृहा छूट जाती है।अहंता-ममतासे रहित होनेका उपाय कर्मयोगकी दृष्टिसे -- 'मेरा कुछ नहीं है'; क्योंकि मेरा किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, अवस्था आदिपर स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं है तो ' मेरेको कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि अगर शरीर मेरा है तो मेरेको अन्न, जल, वस्त्र आदिकी आवश्यकता है, पर जब शरीर मेरा है ही नहीं, तो मेरेको किसीकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। जब मेरा कुछ नहीं और मेरेको कुछ नहीं चाहिये; तो फिर ' मैं ' क्या रहा? क्योंकि ' मैं ' तो किसी वस्तु, शरीर, स्थिति आदिको पकड़नेसे ही होता है।मेरे कहलानेवाले शरीर आदिका मात्र संसारके साथ सर्वथा अभिन्न सम्बन्ध है। इसलिये अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे जो कुछ करना है, वह सब केवल संसारके हितके लिये ही करना है; क्योंकि मेरेको कुछ चाहिये ही नहीं। ऐसा भाव होनेपर ' मैं'-का एकदेशीयपना आप-से-आप मिट जाता है और कर्मयोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है।सांख्ययोगकी दृष्टिसे -- प्राणिमात्रको ' मैं हूँ ' इस प्रकार अपने स्वरूपकी स्वतःसिद्ध सत्ता-(होनापन-) का ज्ञान रहता है। इसमें ' मैं' तो प्रकृतिका अंश है और हूँ सत्ता है। यह ' हूँ ' वास्तवमें ' मैं' को लेकर है। अगर ' मैं ' न रहे, तो ' हूँ ' नहीं रहेगा, प्रत्युत ' है' रहेगा।' मैं हूँ, ' ' तू है ', ' यह है' और ' वह है ' -- ये चारों व्यक्ति और देश-कालको लेकर हैं। अगर इन चारोंको अर्थात् व्यक्ति और देश-कालको न पकड़ें तो केवल ' है ' ही रहेगा -- ' है ' में ही स्थिति रहेगी। ' है ' में स्थिति होनेसे सांख्ययोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है।भक्तियोगकी दृष्टिसे -- जिसको ' मैं ' और ' मेरा' कहते हैं, वह सब प्रभुका ही है। कारण कि मेरी कहलानेवाली वस्तुपर मेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है; परन्तु प्रभुका उसपर पूरा अधिकार है। वे जिस तरह वस्तुको रखते हैं; जैसा रखना चाहते हैं वैसा ही होता है। अतः यह सब कुछ प्रभुका ही है। इसको प्रभुकी ही सेवामें लगाना है। मेरे पास जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि है, यह भी उन्हींकी है और मैं भी उन्हींका हूँ। ऐसा भाव होनेपर भक्तियोगी अहंता-ममतासे रहित हो जाता है।सम्बन्ध -- कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित होनेपर उसकी क्या स्थिति होती है -- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हुए इस विषयका उपसंहार करते हैं ।।2.71।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- विहाय परित्यज्य कामान् यः संन्यासी पुमान् सर्वान् अशेषतः कात्स्न्र्येन चरति, जीवनमात्रचेष्टाशेषः पर्यटतीत्यर्थः। निःस्पृहः शरीरजीवनमात्रेऽपि निर्गता स्पृहा यस्य सः निःस्पृहः सन्, निर्ममः शरीरजीवनमात्राक्षिप्तपरिग्रहेऽपि ममेदम् इत्यभिनिवेशवर्जितः, निरहंकारः विद्यावत्त्वादिनिमित्तात्मसंभावनारहितः इत्येतत्। सः एवंभूतः स्थितप्रज्ञः ब्रह्मवित् शान्तिं सर्वसंसारदुःखोपरमलक्षणां निर्वाणाख्याम् अधिगच्छति प्राप्नोति ब्रह्मभूतो भवति इत्यर्थः।।सैषा ज्ञाननिष्ठा स्तूयते। ।।2.71।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.71 Sah puman, that man who has become thus, the sannyasin, the man of steady wisdom, the knower of Brahman; adhi-gacchati, attains; santim, peace, called Nirvana, consisting in the cessation of all the sorrows of mundane existence, i.e. he becomes one with Brahman; yah, who; vihaya, after rejecting; sarvan, all; kaman, desires, without a trace, fully; carati, moves about, i.e. wanders about, making efforts only for maintaining the body; nihsprhah, free from hankering, becoming free from any longing even for the maintenance of the body; nirmamah, without the idea of ('me' and) 'mine', without the deeprooted idea of 'mine' even when accepting something needed merely for the upkeep of the body; and nir-ahankarah, devoid of pride, i.e. free from self esteem owing to learning etc.This steadfastness in Knowledge, which is such, is being praised:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
क्योंकि ऐसा है इसलिये -- जो संन्यासी पुरुष, सम्पूर्ण कामनाओंको और भोगोंको अशेषतः त्यागकर अर्थात् केवल जीवनमात्रके निमित्त ही चेष्टा करनेवाला होकर विचरता है। तथा जो स्पृहासे रहित हुआ है, अर्थात् शरीर-जीवनमात्रमें भी जिसकी लालसा नहीं है। ममतासे रहित है अर्थात् शरीर-जीवनमात्रके लिये आवश्यक पदार्थोंके संग्रहमें भी 'यह मेरा है' ऐसे भावसे रहित है। तथा अहंकारसे रहित है अर्थात् विद्वत्ता आदिके सम्बन्धसे होनेवाले आत्माभिमानसे भी रहित है। वह ऐसा स्थितप्रज्ञ, ब्रह्मवेत्ता -- ज्ञानी संसारके सर्वदुःखोंकी निवृत्तिरूप मोक्ष नामक परम शान्तिको पाता है अर्थात् ब्रह्मरूप हो जाता है ।।2.71।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
काम्यन्ते इति कामाः शब्दादयो विषयाः। यः पुमान् शब्दादीन् सर्वान् विषयान् विहाय तत्र निःस्पृहः ममतारहितश्च अनात्मनि देहे आत्माभिमानरहितः चरति स आत्मानं दृष्ट्वा शान्तिम् अधिगच्छति ।।2.71।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.71 What are desired, they are called the objects of desire. These are sound and other sense-objects. The person, who wants peace must abandon all sense-objects such as sound, touch etc. He should have no longing for them. He should be without the sense of 'mineness' regarding them, as that sense arises from the misconception that the body, which is really non-self, is the self. He who lives in this way attains to peace after seeing the self.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यस्मादेवं तस्मात् विहाय कामान्प्राकृतान् त्यक्त्वा स्वात्मारामत्वात्; अन्यत्र निस्स्पृहः'अहन्ताममतानाशे सर्वथा निरंहकृतौ। स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थः स निगद्यते' इति। स शान्तिमधिगच्छतीत्यवसेयम् ।।2.71।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
यस्मादेवं तस्मात्प्राप्तानपि सर्वान्बाह्यन्गृहक्षेत्रादीन् आन्तरान्मनोराज्यरूपान्वासनामात्ररूपांश्च पथि गच्छतस्तृणस्पर्शरूपान्कामांस्त्रिविधान्विहायोपेक्ष्य शरीरजीवनमात्रेऽपि निःस्पृहः सन्। यतो निरहंकारः शरीरेन्द्रियादावयमहमित्यभिमानशून्यः, विद्यावत्त्वादिनिमित्तात्मसंभावनारहित इति वा। अतो निर्ममः शरीरयात्रामात्रार्थेऽपि प्रारब्धकर्माक्षिप्ते कौपीनाच्छादनादौ ममेदमित्यभिमानवर्जितः सन् यः पुमांश्चरति प्रारब्धकर्मवशेन भोगान्भुङ्क्ते, यादृच्छिकतया यत्र क्वापि गच्छतीति वा। स एवंभूतः स्थितप्रज्ञः शान्तिं सर्वसंसारदुःखोपरमलक्षणामविद्यातत्कार्यनिवृत्तिमधिगच्छति ज्ञानबलेन प्राप्नोति, तदेतदीदृशं व्रजनं स्थितप्रज्ञस्येति चतुर्थप्रश्नस्योत्तरं परिसमाप्तम् ।।2.71।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
एतदेव प्रपञ्चयति -- 'विहायेति'। कामान् विषयान् निस्स्पृहतया विहाय यश्चरेति भक्षयति; भक्षयामीत्यहङ्कारममकारवर्जितश्च स हि पुमान्। स एव च मुक्तिमधिगच्छतीत्यर्थः ।।2.71।।

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