रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-27


मूल स्लोकः

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।




English translation by Swami Sivananda
3.27 All actions are wrought in all cases by the qualities of Nature only. He whose mind is deluded by egoism thinks, "I am the doer."


English commentary by Swami Sivananda
3.27 प्रकृतेः of nature, क्रियमाणानि are performed, गुणैः by the qualities, कर्माणि actions, सर्वशः in all cases, अहङ्कारविमूढात्मा one whose mind is deluded by egosim, कर्ता doer, अहम् I, इति thus, मन्यते thinks.Commentary: Prakriti or Pradhana or Nature is that state in which the three Gunas, viz., Sattva, Rajas and Tamas exist in a state of equilibrium. When this equilibrium is disturbed, creation begins; body, senses, mind, etc., are formed. The man who is deluded by egoism identifies the Self with the body, mind, the life force and the senses and ascribes to the Self all the attributes of the body and the senses. He, therefore, thinks through ignorance, "I am the doer." In reality the Gunas of Nature perform all actions. (Cf.III.29;V.9;IX.9,10;XIII.21,24,30,32;XVIII.13,14).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' -- ऐसा मानता है ।।3.27।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः -- जिस समष्टि शक्तिसे शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, गङ्गा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं, मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होता है, उसी समष्टि शक्तिसे मनुष्यकी देखना, सुनना, खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं। परन्तु मनुष्य अहंकारसे मोहित होकर, अज्ञानवश एक ही समष्टि शक्तिसे होनेवाली क्रियाओंके दो विभाग कर लेता है -- एक तो स्वतः होनेवाली क्रियाएँ; जैसे -- शरीरका बनना, भोजनका पचना इत्यादि; और दूसरी, ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ; जैसे -- देखना, बोलना, भोजन करना इत्यादि। ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाओंको मनुष्य अज्ञानवश अपनेद्वारा की जानेवाली मान लेता है।प्रकृतिसे उत्पन्न गुणों-(सत्त्व, रज और तम-) का कार्य होनेसे बुद्धि, अहंकार, मन, पञ्चमहाभूत, दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय -- ये भी प्रकृतिके गुण कहे जाते हैं। उपर्युक्त पदोंमें भगवान् स्पष्ट करते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ (चाहे समष्टिकी हों या व्यष्टिकी) प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं, स्वरूपके द्वारा नहीं।अहंकारविमूढात्मा -- ' अहंकार ' अन्तःकरणकी एक वृत्ति है। ' स्वयं' (स्वरूप) उस वृत्तिका ज्ञाता है। परन्तु भूलसे ' स्वयं ' को उस वृत्तिसे मिलाने अर्थात् उस वृत्तिको ही अपना स्वरूप मान लेनेसे यह मनुष्य विमूढात्मा कहा जाता है।जैसे शरीर इदम् (यह) है, ऐसे ही अहंकार भी इदम् (यह) है। इदम् (यह) कभी अहम् (मैं) नहीं हो सकता -- यह सिद्धान्त है। जब मनुष्य भूलसे इदम् को अहम् अर्थात् यह को मैं मान लेता है, तब वह अहंकारविमूढात्मा कहलाता है। यह माना हुआ अहंकार उद्योग करनेसे नहीं मिटता; क्योंकि उद्योग करनेमें भी अहंकार रहता है। माना हुआ अहंकार मिटता है -- अस्वीकृतिसे अर्थात् ' न मानने ' से।विशेष बातअहम् दो प्रकारका होता है -- (1) वास्तविक (आधाररूप) अहम् (टिप्पणी प0 161); जैसे -- ' मैं हूँ ' (अपनी सत्तामात्र)।(2) अवास्तविक (माना हुआ) अहम्; जैसे -- ' मैं शरीर हूँ'।' वास्तविक अहम् ' स्वाभाविक एवं नित्य और ' अवास्तविक अहम्' अस्वाभाविक एवं अनित्य होता है। अतः ' वास्तविक अहम्' विस्मृत तो हो सकता है, पर मिट नहीं सकता; और ' अवास्तविक अहम्' प्रतीत तो हो सकता है, पर टिक नहीं सकता। मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह ' वास्तविक अहम्'-(अपने स्वरूप-) को विस्मृत करके ' अवास्तविक अहम्'-(मैं शरीर हूँ-) को ही सत्य मान लेता है।कर्ताहमिति मन्यते -- यद्यपि सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा ही किये जाते हैं, तथापि अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य कुछ कर्मोंका कर्ता अपनेको मान लेता है। कारण कि वह अहंकारको ही अपना स्वरूप मान बैठता है। अहंकारके कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिमें 'मैं'-पन कर लेता है और उन-(शरीरादि) की क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है। यह विपरीत मान्यता मनुष्यने स्वयं की है, इसलिये इसको मिटा भी वही सकता है। इसको मिटानेका उपाय है -- इसे विवेक-विचारपूर्वक न मानना; क्योंकि मान्यतासे ही मान्यता कटती है।एक ' करना ' होता है, और एक ' न करना'। जैसे ' करना ' क्रिया है, ऐसे ही ' न करना' भी क्रिया है। सोना, जागना, बैठना, चलना, समाधिस्थ होना आदि सब क्रियाएँ हैं। क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है। ' स्वयं'-(चेतन स्वरूप-) में करना और न करना -- दोनों ही नहीं हैं; क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है। वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है। यदि ' स्वयं ' में भी क्रिया होती, तो वह क्रिया (शरीरादिमें परिवर्तनरूप क्रियाओं) का ज्ञाता कैसे होता? करना और न करना वहाँ होता है, जहाँ ' अहम् ' (मैं) रहता है। ' अहम् ' न रहनेपर क्रियाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। करना और न करना -- दोनों जिससे प्रकाशित होते हैं, उस अक्रिय तत्त्व (अपने स्वरूप) में मनुष्यमात्रकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु ' अहम्' के कारण मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्रकृति-(जड-) से माना हुआ सम्बन्ध ही ' अहम्' कहलाता है।विशेष बातजिस प्रकार समुद्रका ही अंश होनेके कारण लहर और समुद्रमें जातीय एकता है अर्थात् जिस जातिकी लहर है, उसी जातिका समुद्र है, उसी प्रकार संसारका ही अंश होनेके कारण शरीरकी संसारसे जातीय एकता है। मनुष्य संसारको तो ' मैं' नहीं मानता, पर भूलसे शरीरको ' मैं ' मान लेता है।जिस प्रकार समुद्रके बिना लहरका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार संसारके बिना शरीरका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला मनुष्य जब शरीरको ' मैं ' (अपना स्वरूप) मान लेता है, तब उसमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं; जैसे -- मुझे स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थ मिल जायँ, लोग मुझे अच्छा समझें, मेरा आदर-सम्मान करें, मेरे अनुकूल चलें इत्यादि। उसका इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि शरीरको अपना स्वरूप मानकर मैं पहलेसे ही बँधा बैठा हूँ, अब कामनाएँ करके और बन्धन बढ़ा रहा हूँ -- अपनेको और विपत्तिमें डाल रहा हूँ।साधनकालमें ' मैं (स्वयं) प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा अतीत हूँ ' -- ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक ऐसा मान लेता है, तब उसे वैसा ही अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जैसे वह गलत मान्यता करके बँधा था, ऐसे ही सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है; क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है -- यह सिद्धान्त है। इसी बातको भगवान्ने पाँचवें अध्यायके आठवें श्लोकमें -- नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् पदोंमें मन्येत पदसे प्रकट किया है कि ' मैं कर्ता हूँ ' -- इस अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये ' मैं कुछ भी नहीं करता ' -- ऐसी वास्तविक मान्यता करना होगी।' मैं शरीर हूँ; मैं कर्ता हूँ ' आदि असत्य मान्यताएँ भी इतनी दृढ़ हो जाती हैं कि उन्हें छोड़ना कठिन मालूम देता है; फिर ' मैं शरीर नहीं हूँ; मैं अकर्ता हूँ' आदि सत्य मान्यताएँ दृढ़ कैसे नहीं होंगी? और एक बार दृढ़ हो जानेपर फिर कैसे छूटेंगी? ।।3.27।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- प्रकृतेः प्रकृतिः प्रधानं सत्त्वरजस्तमसां गुणानां साम्यावस्था तस्याः प्रकृतेः गुणैः विकारैः कार्यकरणरूपैः क्रियमाणानि कर्माणि लौकिकानि शास्त्रीयाणि च सर्वशः सर्वप्रकारैः अहंकारविमूढात्मा कार्यकरणसंघातात्मप्रत्ययः अहंकारः तेन विविधं नानाविधं मूढः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयं कार्यकरणधर्मा कार्यकरणाभिमानी अविद्यया कर्माणि आत्मनि मन्यमानः तत्तत्कर्मणाम् अहं कर्ता इति मन्यते।।यः पुनर्विद्वान् -- ।।3.27।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.27 Karmani kriyamanani, while actions, secular and scriptural, are being done; sarvasah, in ever way; gunaih, by the gunas, (i.e.) by the modifications in the form of body and organs; (born) prakrteh, of Nature-Nature, (otherwise known as) Pradhana Pradhana, Maya, the Power of God., being the state of equilibrium of the three qualities of sattva, rajas and tamas; ahankara-vimudha-atma, one who is deluded by egoism; manyate, thinks; iti, thus; 'Aham karta, I am the doer.'Ahankara is self-identification with the aggregate of body and organs. He whose atma, mind, is vimudham, diluded in diverse ways, by that (ahankara) is ahankara-vimudha-atma. He who imagines the characteristics of the body and organs to be his own, who has self-identification with the body and the organs, and who, through ignorance, believes the activities to be his own-, he thinks, 'I am the doer of those diverse activities.'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
मूर्ख अज्ञानी मनुष्य कर्मोंमें किस प्रकार आसक्त होता है? सो कहते हैं -- सत्त्व, रजस् और तमस् -- इन तीनों गुणोंकी जो साम्यावस्था है, उसका नाम प्रधान या प्रकृति है, उस प्रकृतिके गुणोंसे अर्थात् कार्य और करणरूप समस्त विकारोंसे लौकिक और शास्त्रीय सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे किये जाते हैं। परंतु अहंकारविमूढात्मा -- कार्य और करणके संघातरूप शरीरमें आत्मभावकी प्रतीतिका नाम अहंकार है, उस अहंकारसे जिसका अन्तःकरण अनेक प्रकारसे मोहित हो चुका है ऐसा -- देहेन्द्रियके धर्मको अपना धर्म माननेवाला, देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृतिके कर्मोंको अपनेमें मानता हुआ उन-उन कर्मोंका 'मैं कर्ता हूँ ' ऐसा मान बैठता है ।।3.27।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
प्रकृतेः गुणैः सत्त्वादिभिः स्वानुरूपं क्रियमाणानि कर्माणि प्रति अहंकारविमूढात्मा अहं कर्ता इति मन्यते। अहंकारेण विमूढ आत्मा यस्य असौ अहंकारविमूढात्मा; अहंकारो नाम अनहमर्थे प्रकृतौ अहम् इति अभिमानः, तेन अज्ञातात्मस्वरूपो गुणकर्मसु अहं कर्ता इति मन्यते इत्यर्थः ।।3.27।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.27 It is the Gunas of Prakrti like Sattva, Rajas etc., that perform all the activities appropriate to them. But the man, whose nature is deluded by his Ahankara, thinks, 'I am the doer of all these actions.' Ahankara is the mistaken conception of 'I' applied to the workings of Prakrti which is not the 'I'. The meaning is that it is because of this (Ahankara), that one who is ignorant of the real nature of the self, thinks, 'I am the doer' with regard to the activities that are really being done by the Gunas of Prakrti.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
कर्म कुर्वतोर्विद्वदविदुषोर्विशेषं स्पष्टं सन्दर्शयति -- प्रकृतेरिति द्वाभ्याम्। प्रकृते योगे साङ्खयरीत्या विशेषदर्शनमिति नाप्रकृतप्रसङ्गः। तथाहि ब्रह्मवादिसाङ्ख्ये जगतः कर्त्ता भोक्ता सर्वधर्माश्रयः पुरुषोत्तम एवांशतोऽक्षरः कालः प्रकृतिः पुरुष आत्मा भवति "स (इममेव) आत्मानं द्वेधापातयत् (ततः) पतिश्च पत्नी चाभवत्" बृ.उ.1।4।3 इति श्रुतेः। तत्र कर्त्री प्रकृतिस्तत्संसृष्टतया पुरुषश्च भोक्ता। वस्तुतः पुष्करपलाशवत्प्राकृतधर्मैरवशस्तथापि तद्गुणैः परिणतगुणैरिन्द्रियैरिन्द्रियनिष्ठैर्वा गुणैः क्रियमाणानि कर्मामि कर्त्ताऽहं पुरुष इति मन्यते विपरीतमतिः। गुणेः कर्माणि क्रियन्ते, न केवलेनात्मनेति। विभागतत्त्ववित्तु न सज्जते। इन्द्रियनिष्ठा गुणा विषयगुणेषु वर्तन्ते इति मननात्साङ्ख्ययोगयोरेक एवार्थः ।।3.27 -- 3.28।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
विद्वदविदुषोः कर्मानुष्ठानसाम्येऽपि कर्तृत्वाभिमानतदभावाभ्यां विशेषं दर्शयन्सक्ताः कर्मणीति (25) श्लोकार्थं विवृणोति द्वाभ्याम् -- प्रकृतिर्माया सत्त्वरजस्तमोगुणमयी मिथ्याज्ञानात्मिका पारमेश्वरी शक्तिः।'मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्' इति श्रुतेः। तस्याः प्रकृतेर्गुणैर्विकारैः कार्यकारणरूपैः क्रियमाणानि लौकिकानि वैदिकानि च कर्माणि सर्वशः सर्वप्रकारैरहंकारेण कार्यकारणसंघातात्मप्रत्ययेन विमूढः स्वरूपविवेकासमर्थ आत्मान्तःकरणं यस्य सोऽहंकारविमूढात्माऽनात्मन्यात्माभिमानी, तानि कर्माणि कर्ताहमिति करोम्यहमिति मन्यते कर्त्रध्यासेन। कर्ताहमिति तृन्प्रत्ययः। तेन'न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्' इति षष्ठीप्रतिषेधः ।।3.27।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
विद्वदविदुषोः कर्मभेदमाह -- 'प्रकृतेरिति'। प्रकृतेर्गुणैरिन्द्रियादिभिः। प्रकृतिमपेक्ष्य गुणभूतानि हि तानि तत्सम्बन्धीनि च। न हि प्रतिबिम्बस्य क्रिया ।।3.27।।

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