शनिवार, 30 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-49


मूल स्लोकः

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।




English translation by Swami Sivananda
2.49 Far lower than the Yoga of wisdon is action, O Arjuna. Seek thou refuge in wisdom; wretched are they whose motive is the fruit.


English commentary by Swami Sivananda
2.49 दूरेण by far, हि indeed, अवरम् inferior, कर्म action or work, बुद्धियोगात् than the Yoga of wisdom, धनञ्जय O Dhananjaya, बुद्धौ in wisdom, शरणम् refuge, अन्विच्छ seek, कृपणाः wretched, फलहेतवः seekers after fruits.Commentary: Action done with evenness of mind is Yoga of wisdom. The yogi who is established in the Yoga of widdom is not affected by success or failure. He does not seek fruits of his actions. He has poised reason. His reason is rooted in the Self. Action performed by one who expects fruits for his actions, is far inferior to the Yoga of wisdom wherein the seeker does not seek fruits; because the former leads to bondage and is the cause of birth and death. (Cf.VIII.18).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
बुद्धियोग-(समता) की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट है। अतः हे धनञ्जय! तू बुद्धि (समता) का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं ।।2.49।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात् -- बुद्धियोग अर्थात् समताकी अपेक्षा सकामभावसे कर्म करना अत्यन्त ही निकृष्ट है। कारण कि कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा उन कर्मोंके फलका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु योग (समता) नित्य है; उसका कभी वियोग नहीं होता। उसमें कोई विकृति नहीं होती। अतः समताकी अपेक्षा सकामकर्म अत्यन्त ही निकृष्ट हैं।सम्पूर्ण कर्मोंमें समता ही श्रेष्ठ है। समताके बिना तो मात्र जीव कर्म करते ही रहते हैं तथा उन कर्मोंके परिणाममें जन्मते-मरते और दुःख भोगते रहते हैं। कारण कि समताके बिना कर्मोंमें उद्धार करनेकी ताकत नहीं है। कर्मोंमें समता ही कुशलता है। अगर कर्मोंमें समता नहीं होगी तो शरीरमें अहंता-ममता हो जायगी, और शरीरमें अहंता-ममता होना ही पशुबुद्धि है। भागवतमें शुकदेवजीने राजा परीक्षित्से कहा है -- त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि। (12। 5। 2) अर्थात् हे राजन्! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा। दूरेण कहनेका तात्पर्य है कि जैसे प्रकाश और अन्धकार कभी समकक्ष नहीं हो सकते, ऐसे ही बुद्धियोग और सकामकर्म भी कभी समकक्ष नहीं हो सकते। इन दोनोंमें दिन-रातकी तरह महान् अन्तर है। कारण कि बुद्धियोग तो परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है और सकामकर्म जन्म-मरण देनेवाला है।बुद्धौ शरणमन्विच्छ -- तू बुद्धि (समता) की शरण ले। समतामें निरन्तर स्थित रहना ही उसकी शरण लेना है। समतामें स्थित रहनेसे ही तुझे स्वरूपमें अपनी स्थितिका अनुभव होगा।कृपणाः फलहेतवः -- कर्मोंके फलका हेतु बनना अत्यन्त निकृष्ट है। कर्म, कर्मफल, कर्मसामग्री और शरीरादि करणोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना ही कर्मफलका हेतु बनना है। अतः भगवान्ने सैंतालीसवें श्लोकमें मा कर्मफलहेतुर्भूः कहकर कर्मोंके फलका हेतु बननेमें निषेध किया है।कर्म ओर कर्मफलका विभाग अलग है तथा इन दोनोंसे रहित जो नित्य तत्त्व है, उसका विभाग अलग है। वह नित्य तत्त्व अनित्य कर्मफलके आश्रित हो जाय -- इसके समान निकृष्टता और क्या होगी?सम्बन्ध -- पूर्व श्लोकमें जिस बुद्धिके आश्रयकी बात बतायी, अब आगेके श्लोकमें उसी बुद्धिके आश्रयका फल बताते हैं ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- दूरेण अतिविप्रकर्षेण अत्यन्तमेव हि अवरम् अधमं निकृष्टं कर्म फलार्थिना क्रियमाणं बुद्धियोगात् समत्वबुद्धियुक्तात् कर्मणः, जन्ममरणादिहेतुत्वात्। हे धनञ्जय, यत एवं ततः योगविषयायां बुद्धौ तत्परिपाकजायां वा सांख्यबुद्धौ शरणम् आश्रयमभयप्राप्तिकारणम् अन्विच्छ प्रार्थयस्व, परमार्थज्ञानशरणो भवेत्यर्थः। यतः अवरं कर्म कुर्वाणाः कृपणाः दीनाः फलहेतवः फलतृष्णाप्रयुक्ताः सन्तः, 'यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः' इति श्रुतेः।।समत्वबुद्धियुक्तः सन् स्वधर्ममनुतिष्ठन् यत्फलं प्राप्नोति तच्छृणु -- ।।2.49।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.49 Then again, O Dhananjaya, as against action performed with equanimity of mind for adoring God, karma, action undertaken by one longing for the results; is, hi, indeed; durena, quite, by far; avaram, inferior, very remote; buddhi-yogat, from the yoga of wisdom, from actions undertaken with equanimity of mind, because it (the former) is the cause of birth, death, etc. Since this is so, therefore, saranam anviccha, take resort to, seek shelter; buddhau, under wisdom, which relates to Yoga, or to the Conviction about Reality that arises from its (the former's) maturity and which is the cause of (achieving) fearlessness. The meaning is that you should resort to the knowledge of the supreme Goal, because those who under take inferior actions, phala-hetavah, who thirst for rewards, who are impelled by results; are krpanah, pitiable, according to the Sruti, 'He, O Gargi, who departs from this world without knowing this Immutable, is pitiable' (Br. 3.8.10). See note under 2.7.-Tr.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो समत्व-बुद्धिसे ईश्वराराधनार्थ किये जानेवाले कर्म हैं उनकी अपेक्षा ( सकाम कर्म निकृष्ट हैं, यह दिखलाते हैं ) -- हे धनंजय ! बुद्धियोगकी अपेक्षा, अर्थात् समत्वबुद्धिसे युक्त होकर किये जानेवाले कर्मोंकी अपेक्षा, कर्मफल चाहनेवाले सकामी मनुष्योंद्वारा किये हुए कर्म, जन्म-मरण आदिके हेतु होनेके कारण अत्यन्त ही निकृष्ट हैं। इसलिये तू योगविषयक बुद्धिमें, या उसके परिपाकसे उत्पन्न होनेवाली सांख्यबुद्धिमें, शरण -- आश्रय अर्थात् अभय-प्राप्तिके हेतुको पानेकी इच्छा कर। अभिप्राय यह कि परमार्थज्ञानकी शरणमें जा। क्योंकि फल-तृष्णासे प्रेरित होकर सकाम कर्म करनेवाले कृपण हैं दीन हैं। श्रुतिमें भी कहा है -- 'हे गार्गी ! जो इस अक्षर ब्रह्मको न जानकर इस लोकसे जाता है वह कृपण है' ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यः अयं प्रधानफलत्यागविषयः अवान्तरफलसिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वविषयश्च बुद्धियोगः तद्युक्तात् कर्मणः इतरत् कर्मदूरेण अवरम्। महद् एतद् द्वयोः उत्कर्षापकर्षरूपं वैरूप्यम् -- उक्तबुद्धियोगयुक्तं कर्म निखिलं सांसारिकं दुःखं विनिवर्त्य परमपुरुषार्थलक्षणं च मोक्षं प्रापयति; इतरद् अपरिमितदुःखरूपं संसारम् इति अतः कर्मणि क्रियमाणे उक्तायां बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ। शरणं वासस्थानम्; तस्याम् एव बुद्धौ वर्तस्व इत्यर्थः। कृपणाः फलहेतवः फलसङ्गादिना कर्म कुर्वाणाः कृपणाः संसारिणो भवेयुः ।।2.49।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.49 All other kinds of action are far inferior to those done with evenness of mind, which consists in the renunciation of the main result and with equanimity towards success or failure in respect of the secondary results. Between the two kinds of actions, the one with equanimity and the other with attachment, the former associated with equanimity removes all the sufferings of Samsara and leads to release which is the highest object of human existence. The latter type of actions, which is pursued with an eye on results, leads one to Samsara whose character is endless suffering. Thus when an act is being done, take refuge in Buddhi (evenness of mind). Refuge means abode. Live in that Buddhi, is the meaning. 'Miserable are they who act with a motive for results': it means, 'Those who act with attachment to the results, etc., are miserable, as they will continue in Samsara.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अयुक्तं कर्म व्यवसायबुद्धियोगादवरमपकृष्टं, हि यतः, अतो बुद्धौ बुद्धिनिमित्तं बुद्धिविषये वा शरणं कञ्चिदन्वेषय बुद्धावाश्रयं वाऽन्विच्छ; गृहाणेत्यर्थः। कर्मणोऽवरत्वं दर्शयति -- तत्र फलहेतवः कृपणा इति फलमेव हेतुः प्रकृतिकारण येषां ते जनाः कृपणाः, प्राप्तेऽपि फले पुनः सतृष्णाः ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु किं कर्मानुष्ठानमेव पुरुषार्थो येन निष्फलमेव सदा कर्तव्यमित्युच्यते'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते' इति न्यायात्, तद्वरं फलकामनयैव कर्मानुष्ठानमिति चेन्नेत्याह -- बुद्धियोगात् आत्मबुद्धिसाधनभूतान्निष्कामकर्मयोगात् दूरेणातिविप्रकर्षेणावरमधमं कर्म फलाभिसंधिना क्रियमाणं जन्ममरणहेतुभूतं, अथवा परमात्मबुद्धियोगाद्दूरेणावरं सर्वमपि कर्म। हि यस्मात् हे धनंजय, तस्मात् बुद्धौ परमात्मबुद्धौ सर्वानर्थनिवर्तकायां शरणं प्रतिबन्धकपापक्षयेण रक्षकं निष्कामकर्मयोगम्। अन्विच्छ कर्तुमिच्छ। ये तु फलहेतवः फलकामा अवरं कर्म कुर्वन्ति ते कृपणाः सर्वदा जन्ममरणादिघटीयन्त्रभ्रमणेन परवशाः। अत्यन्तदीना इत्यर्थः।'यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः' इति श्रुतेः। तथाच त्वमपि कृपणो माभूः, किंतु सर्वानर्थनिवर्तकात्मज्ञानोत्पादकं निष्कामकर्मयोगमेवानुतिष्ठेत्यभिप्रायः। यथाहि कृपणा जना अतिदुःखेन धनमर्जयन्तो यत्किंचिद्दृष्टसुखमात्रलोभेन दानादिजनितं महत्सुखमनुभवितुं न शक्नुवन्तीत्यात्मानमेव वञ्चयन्ति, तथा महता दुःखेन कर्माणि कुर्वाणाः क्षुद्रफलमात्रलोभेन परमानन्दानुभवेन वञ्चिता इत्यहो दौर्भाग्यं मौढ्यं च तेषामिति कृपणपदेन ध्वनितम् ।।2.49।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
इतश्च योगाय युज्यस्वेत्यत आह -- 'दूरेणेति'। बुद्धियोगाज्ज्ञानलक्षणादुपायात्। दूरेणातीव। अतो बुद्धौ शरणं ज्ञाने स्थितिम्। फलं कर्म, कृतौ हेतुर्येषां ते फलहेतवः ।।2.49।।

BhagvatGita-02-48


मूल स्लोकः

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।




English translation by Swami Sivananda
2.48 Perform action, O Arjuna, being steadfast in Yoga, abandoning attachment and balanced in success and failure. Evenness of mind is called Yoga.


English commentary by Swami Sivananda
2.48 योगस्थः steadfast in Yoga, कुरु perform, कर्माणि actions, सङ्गम् attachment, त्यक्त्वा having abandoned, धनञ्जय O Dhananjaya, सिद्ध्यसिद्ध्योः in success and failure, समः the smae, भूत्वा having become, समत्वम् evenness of mind, योगः Yoga, उच्यते is called.Commentary: Dwelling in union with the Divine perform actions merely for God's sake with a balanced mind in success and failure. Equilibrium is Yoga. The attainment of the knowledge of the Self through purity of heart obtained by doing actions without expectation of fruits is success (Siddhi). Failure is the non-attainment of knowledge by doing actions with expectation of fruit. (Cf.III.9;IV.14;IV.20).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे धनञ्जय! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है ।।2.48।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- सङ्गं त्यक्त्वा -- किसी भी कर्ममें, किसी भी कर्मके फलमें, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तुमें तेरी आसक्ति न हो, तभी तू निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकता है। अगर तू कर्म, फल आदि किसीमें भी चिपक जायेगा, तो निर्लिप्तता कैसे रहेगी? और निर्लिप्तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा?सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा -- आसक्तिके त्यागका परिणाम क्या होगा? सिद्धि और असिद्धिमें समता हो जायगा।कर्मका पूरा होना अथवा न होना, सांसारिक दृष्टिसे उसका फल अनुकूल होना अथवा प्रतिकूल होना, उस कर्मको करनेसे आदर-निरादर, प्रशंसा-निन्दा होना, अन्तःकरणकी शुद्धि होना अथवा न होना आदि-आदि जो सिद्धि और असिद्धि है, उसमें सम रहना चाहिये (टिप्पणी प0 86)।कर्मयोगीकी इतनी समता अर्थात् निष्कामभाव होना चाहिये कि कर्मोंकी पूर्ति हो चाहे न हो, फलकी प्राप्ति हो चाहे न हो, अपनी मुक्ति हो चाहे न हो मुझे तो केवल कर्तव्य-कर्म करना है। साधकको असङ्गताका अनुभव न हुआ हो, उसमें समता न आयी हो, तो भी उसका उद्देश्य असङ्ग होनेका, सम होनेका ही हो। जो बात उद्देश्यमें आ जाती है, वही अन्तमें सिद्ध हो जाती है। अतः साधनरूप समतासे अर्थात् अन्तःकरणकी समतासे साध्यरूप समता स्वतः आ जाती है -- तदा योगमवाप्स्यसि (2। 53)।योगस्थः कुरु कर्माणि -- सिद्धि-असिद्धिमें सम होनेके बाद उस समतामें निरन्तर अटल स्थित रहना ही ' योगस्थ ' होना है। जैसे किसी कार्यके आरम्भमें गणेशजीका पूजन करते हैं, तो उस पूजनको कार्य करते समय हरदम साथमें नहीं रखते, ऐसे ही कोई यह न समझ ले कि आरम्भमें एक बार सिद्धि-असिद्धिमें सम हो गये तो अब उस समताको हरदम साथमें नहीं रखना है, राग-द्वेष करते रहना है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि समतामें हरदम स्थित रहते हुए ही कर्तव्य-कर्मको करना चाहिये।समत्वं योग उच्यते -- समता ही योग है अर्थात् समता परमात्माका स्वरूप है। वह समता अन्तःकरणमें निरन्तर बनी रहनी चाहिये। आगे पाँचवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान् कहेंगे कि ' जिनका मन समतामें स्थित हो गया है, उन लोगोंने जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है; अतः उनकी स्थिति ब्रह्ममें ही है।' समताका नाम योग है ' -- यह योगकी परिभाषा है। इसीको आगे छठे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें कहेंगे कि ' दुःखोंके संयोगका जिसमें वियोग है, उसका नाम योग है।' ये दोनों परिमाषाएँ वास्तवमें एक ही हैं। जैसे दादकी बीमारीमें खुजलीका सुख होता है और जलनका दुःख होता है, पर ये दोनोंही बीमारी होनेसे दुःखरूप है, ऐसे ही संसारके सम्बन्धसे होनेवाला सुख और दुःख -- दोनों ही वास्तवमें दुःखरूप हैं। ऐसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदका नाम ही' दुःख-संयोग-वियोग' है। अतः चाहे दुःखोंके संयोगका वियोग अर्थात सुख-दुःखसे रहित होना कहें; चाहे सिद्धि-असिद्धिमें अर्थात् सुख-दुःखमें सम होना कहें; एक ही बात है।इस श्लोकका तात्पर्य यह हुआ कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे होनेवाली मात्र क्रियाओंको केवल संसारकी सेवारूपसे करना है, अपने लिये नहीं। ऐसा करनेसे ही समता आयेगी।बुद्धि और समता-सम्बन्धी विशेष बातबुद्धि दो तरहकी होती है -- अव्यवसायात्मिका और व्यवसायात्मिका। जिसमें सांसारिक सुख, भोग, आराम, मान-बड़ाई आदि प्राप्त करनेका ध्येय होता है, वह बुद्धि ' अव्यवसायात्मिका ' होती है (गीता 2। 44)। जिसमें समताकी प्राप्ति करनेका, अपना कल्याण करनेका ही उद्देश्य रहता है, वह बुद्धि ' व्यवसायात्मिका ' होती है (गीता 2। 41)। अव्यसायात्मिका बुद्धि अनन्त होती है और व्यवसायात्मिका बुद्धि एक होती है। जिसकी बुद्धि अव्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं अव्यवसायी (अव्यवसित) होता है -- बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् (2। 41) तथा वह संसारी होता है। जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं व्यवसायी (व्यवसित) होता है -- व्यवसितो हि सः (9। 30) तथा वह साधक होता है।समता भी दो तरहकी होती है -- साधनरूप समता और साध्यरूप समता। साधनरूप समता अन्तःकरणकी होती है और साध्यरूप समता परमात्मस्वरूपकी होती है। सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें राग-द्वेषका न होना साधनरूप समता है, जिसका वर्णन गीतामें अधिक हुआ है। इस साधनरूप समतासे जिस स्वतःसिद्ध समताकी प्राप्ति होती है, वह साध्यरूप समता है, जिसका वर्णन इसी अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें तदा योगमवाप्स्यसि पदोंसे हुआ है।अब इन चारों भेदोंको यों समझें कि एक संसारी होता है और एक साधक होता है, एक साधन होता है और एक साध्य होता है। भोग भोगना और संग्रह करना -- यही जिसका उद्देश्य होता है, वह संसारी होता है। उसकी एक व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत कामनारूपी शाखाओंवाली अनन्त बुद्धियाँ होती हैं।मेरेको तो समताकी प्राप्ति ही करनी है, चाहे जो हो जाय -- ऐसा निश्चय करनेवालेकी व्यवसायात्मिका बुद्धि होती है। ऐसा साधक जब व्यवहारक्षेत्रमें आता है, तब उसके सामने सिद्धि-असिद्धि, लाभ-हानि, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आदि आनेपर वह उनमें सम रहता है, राग-द्वेष नहीं करता। इस साधनरूप समतासे वह संसारसे ऊँचा उठ जाता है -- इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः (गीता 5। 19 का पूर्वार्ध)। साधनरूप समतासे स्वतःसिद्ध समरूप परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है -- निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः (गीता 5। 19 का उत्तरार्ध)।सम्बन्ध -- उन्तालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक जिस समबुद्धि वर्णन हुआ है, सकामकर्मकी अपेक्षा उस समबुद्धिकी श्रेष्ठता आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- योगस्थः सन् कुरु कर्माणि केवलमीश्वरार्थम्; तत्रापि 'ईश्वरो मे तुष्यतु' इति सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्मणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिः, तद्विपर्ययजा असिद्धिः, तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योः अपि समः तुल्यः भूत्वा कुरु कर्माणि। कोऽसौ योगः यत्रस्थः कुरु इति उक्तम्? इदमेव तत् -- सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं योगः उच्यते।।यत्पुनः समत्वबुद्धियुक्तमीश्वराराधनार्थं कर्मोक्तम्, एतस्मात्कर्मणः -- ।।2.48।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.48 If action is not to be undertaken by one who is under the impulsion of the fruits of action, how then are they to be undertaken? This is being stated: Yogasthah, by becoming established in Yoga; O Dhanajaya, kuru, undertake; karmani, actions, for the sake of God alone; even there, tyaktva, casting off; sangam, attachment, in the form, 'God will be pleased with me.' 'Undertake work for pleasing God, but not for propitiating Him to become favourable towards yourself.'Undertake actions bhutva, remaining; samah, equipoised; siddhi-asidhyoh, in success and failure -- even in the success characterized by the attainment of Knowledge that arises from the purification of the mind when one performs actions without hankering for the results, and in the failure that arises from its opposite. Ignorance, arising from the impurity of the mind. What is that Yoga with regard to being established in which it is said, 'undertake'? This indeed is that: the samatvam, equanimity in success and failure; ucyate, is called; yogah, Yoga.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
यदि कर्मफलसे प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहिये तो फिर किस प्रकार करने चाहिये? इसपर कहते हैं -- हे धनंजय ! योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर। उनमें भी 'ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों।' इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर। फलतृष्णारहित पुरुषद्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञान-प्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत ( ज्ञान-प्राप्तिका न होना ) असिद्धि है, ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर। वह कौन-सा योग है, जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है? यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है, इसीको योग कहते हैं ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
राज्यबन्धुप्रभृतिषु सङ्गं त्यक्त्वा युद्धादीनि कर्माणि योगस्थः कुरु। तदन्तर्भूतविजयादिसिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा कुरु। तद् इदं सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वम्, योगस्थ इत्यत्र योगशब्देन उच्यते। योगः सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वरूपं चित्तसमाधानम्।किमर्थम् इदम् असकृद् उच्यते? इत्यत आह -- ।।2.48।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.48 Abandoning the attachment to kingdom, relatives etc., and established in Yoga, engage in war and such other activities. Perform these with equanimity as regards success and failure resulting from victory etc., which are inherent in them. This equanimity with regard to success and failure is called here by the term Yoga, in the expression 'established in Yoga.' Yoga is equanimity of mind which takes the form of evenness in success and failure.Sri Krsna explains why this is repeatedly said:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
तर्हि कथं स्वकर्म करोमि? इति चेत्तत्राह -- योगस्थ इति। फलस्वरूपो योगो मद्योगस्थ इत्यर्थः। फलेषु सङ्गं त्यक्त्वा। योगं व्याचष्टे -- समत्वं योग इति। तच्च मनोनिरोधे सम्भवति तथैव कुर्विति पूर्वोक्तं समर्थितम् ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
पूर्वोक्तमेव विवृणोति -- हे धनंजय, त्वं योगस्थः सन् सङ्गं फलाभिलाषं कर्तृत्वाभिनिवेशं च त्यक्त्वा कर्माणि कुरु। अत्र बहुवचनात्कर्मण्येवाधिकारस्ते इत्यत्र जातावेकवचनम्। सङ्गत्यागोपायमाह -- सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा फलसिद्धौ हर्षं फलासिद्धौ च विषादं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनबुद्ध्या कर्माणि कुर्वित्यर्थः। ननु योगशब्देन प्राक्कर्मोक्तम्। अत्र तु योगस्थः कर्माणि कुर्वित्युच्यते, अतः कथमेतबोद्वुं शक्यमित्यत आह -- समत्वं योग उच्यते। यदेतत्सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं इदमेव योगस्थ इत्यत्र योगशब्देनोच्यते नतु कर्मेति न कोऽपि विरोध इत्यर्थः। अत्र पूर्वार्धस्योत्तरार्धेन व्याख्यानं क्रियत इत्यपौनरुक्त्यमिति भाष्यकारीयः पन्थाः। सुखदुःखे समे कृत्वेत्यत्र जयाजयसाम्येन युद्धमात्रकर्तव्यता प्रकृतत्वादुक्ता। इह तु दृष्टादृष्टसर्वफलपरित्यागेन सर्वकर्मकर्तव्यतेति विशेषः ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
पूर्वश्लोकं स्पष्टयति -- 'योगस्थ इति'। योगस्थः उपायस्थः। सङ्गं फलस्नेहं त्यक्त्वा। तत एव सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा। स एव च मयोक्तो योगः ।।2.48।।

BhagvatGita-02-47


मूल स्लोकः

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।




English translation by Swami Sivananda
2.47 Thy right is to work only, but never with its fruits; let not the fruits of action be thy motive, nor let thy attachment be to inaction.


English commentary by Swami Sivananda
2.47 कर्मणि in work, एव only, अधिकारः right, ते thy, मा not, फलेषु in the fruits, कदाचन at any time, मा not, कर्मफलहेतुः भूः let not the fruits of action be thy motive, मा not, ते thy, सङ्गः attachment, अस्तु let (there) be, अकर्मणि in inaction.Commentary: When you perform actions have no desire for the fruits thereof under any circumstances. If you thirst for the fruits of your actions, you will have to take birth again and again to enjoy them. Action done with expectation of fruits (rewards) brings bondage. If you do not thirst for them, you get purification of heart and you will get knowledge of the Self through purity of heart and through the knowledge of the Self you will be freed from the round of births and deaths.Neither let thy attachment be towards inaction thinking "what is the use of doing actions when I cannot get any reward for them?"In a broad sense Karma means action. It also means duty which one has to perform according to his caste or station of life. According to the followers of the Karma Kanda of the Vedas (the Mimamsakas) Karma means the rituals and sacrifices prescribed in the Vedas. It has a deep meaning also. It signifies the destiny or the storehouse of tendencies of a man which give rise to his future birth.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो ।।2.47।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कर्मण्येवाधिकारस्ते -- प्राप्त कर्तव्य कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है। मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करनेके लिये नहीं है। पशु-पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदिमें नया कर्म करनेकी सामर्थ्य तो है, पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये ही हैं। वे भगवान्के विधानके अनुसार मनुष्योंके लिये कर्म करनेकी सामग्री दे सकते हैं, पर केवल सुखभोगमें ही लिप्त रहनेके कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय जीव भी भोगयोनि होनेके कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करनेमें तो केवल-मनुष्यका ही अधिकार है। भगवान्ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करनेके लिये यह अन्तिम मनुष्यजन्म दिया है। अगर यह कर्मोंको अपने लिये करेगा तो बन्धनमें पड़ जायगा और अगर कर्मोंको न करके आलस्य-प्रमादमें पड़ा रहेगा तो बार-बार जन्मता-मरता रहेगा। अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है।कर्मणि पदमें एकवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्यके सामने देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलग-अलग होंगे, पर एक समयमें एक मनुष्य किसी एक कर्मको ही तत्परतापूर्वक कर सकता है। जैसे, क्षत्रिय होनेके कारण अर्जुनके लिये युद्ध करना, दान देना आदि कर्तव्यकर्मोंका विधान है, पर वर्तमानमें युद्धके समय वह एक युद्धरूप कर्तव्य-कर्म ही कर सकता है, दान आदि कर्तव्य-कर्म नहीं कर सकता।मार्मिक बात मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं -- पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियोंमें केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्म-लोकतककी योनियाँ भोग-योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ' ऐसा करो और ऐसा मत करो ' -- यह विधान नहीं है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग, आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं, उनका वह कर्म भी फलभोगमें है। कारण कि उनके द्वारा किया जानेवाला कर्म उनके प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही रचा हुआ है। उनके जीवनमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका जो कुछ भोग होता है, वह भोग भी फलभोगमें ही है। परन्तु मनुष्यशरीर तो केवल नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है, जिससे यह अपना उद्धार कर ले।इस मनुष्यशरीरमें दो विभाग हैं -- एक तो इसके सामने पुराने कर्मोंके फलरूपमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है; और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मोंके अनुसार ही इसके भविष्यका निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त-महापुरुषोंका विधि-निषेध, राज्य आदिका शासन केवल मनुष्योंके लिये ही होता है, क्योंकि मनुष्यमें पुरुषार्थकी प्रघानता है, नये कर्मोंको करनेकी स्वतन्त्रता है। परन्तु पिछले कर्मोंके फलस्वरूप मिलनेवाली अनुकूल-प्रतिकूलरूप परिस्थितिको बदलनेमें यह परतन्त्र है। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल-प्राप्तिमें परतन्त्र है। परन्तु अनुकूल-प्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन सामग्री बना सकता है; क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है। इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धारके लिये है और पुराने कर्मोंके फल फलरूपसे प्राप्त परिस्थिति भी उद्धारके लिये ही है।इसमें एक विशेष समझनेकी बात है कि इस मनुष्य-जीवनमें प्रारब्धके अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति आती है, उस परिस्थितिको मनुष्य सुखदायी या दुःखदायी तो मान सकता है, पर वास्तवमें देखा जाय तो उस परिस्थितिसे सुखी या दुःखी होना कर्मोंका फल नहीं हैं, प्रत्युत मूर्खताका फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहरसे बनती हैऔर सुखी-दुःखी होता है यह स्वयं। उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःखका भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे, तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करनेके लिये साधन-सामग्री बन जायगी। सुखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है -- दूसरोंकी सेवा करना और दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है -- सुखभोगकी इच्छाका त्याग करना।दुःखदायी परिस्थिति आनेपर मनुष्यको कभी भी घबराना नहीं चाहिये, प्रत्युत यह विचार करना चाहिये कि हमने पहले सुख-भोगकी इच्छासे ही पाप किये थे और वे ही पाप दुःखदायी परिस्थितिके रूपमें आकर नष्ट हो रहे हैं। इसमें एक लाभ यह है कि उन पापोंका प्रायश्चित्त हो रहा है। और हम शुद्ध हो रहे हैं। दूसरा लाभ यह है कि हमें इस बातकी चेतावनी मिलती है कि अब हम सुखभोगके लिये पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार दुःखदायी परिस्थिति आयेगी। इसलिये सुखभोगकी इच्छासे अब कोई काम करना ही नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्रके हितके लिये ही काम करना है।तात्पर्य यह हुआ है पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियोंके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म -- ये दोनों ही भोगरूपमें हैं, और मनुष्यके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म (पुरुषार्थ) -- ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं।मा फलेषु कदाचन -- फलमें तेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्तिमें तेरी स्वतन्त्रता नहीं है; क्योंकि फलका विधान तो मेरे अधीन है। अतः फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्य-कर्म कर। अगर तू फलकी इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जायेगा -- फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)। कारण कि फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वपर ही कर्तव्य टिका हुआ है अर्थात् भोक्तृत्वसे ही कर्त्तृत्व आता है। फलेच्छा सर्वथा मिटनेसे कर्तृत्व मिट जाता है, और कर्तृत्व मिटनेसे मनुष्य कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता। भाव यह हुआ कि वास्तवमें मनुष्य कर्तृत्वमें उतना फँसा हुआ नहीं है, जितना फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वमें फँसा हुआ है (टिप्पणी प0 84)। दूसरी बात, जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनसे ही होते हैं। पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनके बिना स्वयं कर्म कर ही नहीं सकता; अतः इनके संगठनके द्वारा किये हुए कर्मका फल अपने लिये चाहना ईमानदारी नहीं है। अतः कर्मका फल चाहना मनुष्यके लिये हितकारक नहीं है।फलमें तेरा अधिकार नहीं है -- इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि फलके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें अथवा न जोड़नेमें मात्र मनुष्य स्वतन्त्र हैं, सबल हैं। इसमें वे पराधीन और निर्बल नहीं है।फलेषु पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म तो एक करता है, पर उस कर्मके फल अनेक चाहता है। जैसे, मैं अमुक कर्म कर रहा हूँ तो इससे मेरेको पुण्य हो जाय, संसारमें मेरी कीर्ति हो जाय, लोग मेरेको अच्छा समझें, मेरा आदर-सत्कार करें, मेरेको इतना धन प्राप्त हो जाय आदि-आदि।निष्काम होनेके उपाय -- (1) कामना पैदा होनेसे अभाव होता है, कामनाकी पूर्ति होनेसे परतन्त्रता और पूर्ति न होनेसे दुःख होता है, तथा कामना-पूर्तिका सुख लेनेसे नयी कामनाकी उत्पत्ति होती है और सकामभावपूर्वक नये-नये कर्म करनेकी रुचि बढ़ती चली जाती है -- ऐसा ठीक-ठीक समझ लेनेसे निष्कामता स्वतः आ जाती है।(2) कर्म नित्य नहीं है; क्योंकि उनका आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मोंका फल भी नित्य नहीं है; क्योंकि उनका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु स्वयं नित्य है। अनित्य कर्म और कर्मफलसे नित्य स्वरूपको कोई लाभ नहीं होता। ऐसा ठीक समझ लेनेसे निष्कामता आ जाती है। निष्काम होनेसे संसारका सम्बन्ध छूट जाता है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।कर्मोंमें निष्काम होनेके लिये साधकमें तेजीका विवेक भी होना चाहिये और सेवाभाव भी होना चाहिये; क्योंकि इन दोनोंके होनेसे ही कर्मयोग ठीक तरहसे आचरणमें आयेगा, नहीं तो ' कर्म ' हो जायँगे , पर ' योग ' नहीं होगा। तात्पर्य है कि अपने सुख-आरामका त्याग करनेमें तो ' विवेक' की प्रधानता होना चाहिये और दूसरोंको सुख-आराम पहुँचानेमें ' सेवाभाव ' की प्रधानता होना चाहिये।मा कर्मफलहेतुर्भूः -- तू कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्रीके साथ अपनी किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि इनमें ममता होनेसे मनुष्यकर्म-फलका हेतु बन जाता है। आगे पाँचवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी भगवान्ने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके साथ केवलैः पद देकर बताया है कि शरीर आदिके साथ किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होनी चाहिये।शुभ क्रियाओंमें फलकी इच्छा न होनेपर भी ' मेरे द्वारा किसीका उपकार हो गया, किसीका हित हो गया, किसीको सुख पहुँचा ' -- ऐसा भाव हो जाता है तो यह कर्मफलका हेतु बनना है। कारण कि ऐसा भाव होनेसे शुभ कर्मके साथ और मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिके साथ सम्बन्ध हो जाता है, जोकि असत्का सङ्ग है। वास्तवमें अन्तःकरण, बहिःकरण और क्रियाओंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है। जैसे दूसरे किसी व्यक्तिके द्वारा दूसरे किसीका हित होता है, तो उसमें हम अपना सम्बन्ध नहीं मानते, उसमें अपनेको निमित्त नहीं मानतो। ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे किसीका हित हो जाय, तो उसमें अपनेको निमित्त न माने। जब अपनेको किसी भी क्रियामें निमित्त, हेतु नहीं मानेंगे, तो कर्म-फलका हेतु भी नहीं बनेंगे।मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि -- कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म न करनेमें आसक्ति होनेसे आलस्य, प्रमाद आदि होंगे। कर्मफलमें आसक्ति रहनेसे जैसा बन्धन होता है, वैसा ही बन्धन कर्म न करनेमें आलस्य, प्रमाद आदि होनेसे होता है; क्योंकि आलस्य-प्रमादका भी एक भोग होता है अर्थात् उनका भी एक सुख होता है, जो तमोगुण है -- निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् (गीता 18। 39) और जिसका फल अधोगति होता है -- अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)। तात्पर्य यह हुआ है कि राग, आसक्ति कहीं भी होगी तो वह बाँधनेवाली हो ही जायगी -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)।कर्मरहित होनेसे हमें लौकिक लाभ होगा, संसारमें हमारी प्रसिद्धि होगी आदि कोई सासारिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये; और समाधि लग जानेसे आध्यात्मिक तत्त्वमें हमारी स्थिति होगी आदि कोई पारमार्थिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये। तात्पर्य है कि ' कर्म न करनेसे सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति होगी ' -- यह भी कर्म न करनेमें आसक्ति है; क्योंकि वास्तविक तत्त्व कर्म करने और न करनेसे अतीत है।इस श्लोकमें भगवान्का यह तात्पर्य मालूम देता है कि परिवर्तनशील वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, क्रिया, घटना, परिस्थिति, अवस्था, स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर आदिके साथ साधककी सर्वथा निर्लिप्तता होनी चाहिये। इनकेसाथ किञ्चिन्मात्र भी किसी तरहका सम्बन्ध नहीं होना चाहिये।इस श्लोकके चार चरणोंमें चार बातें आयी हैं -- (1) कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, (2) फलमें कभी तेरा अधिकार नहीं है, (3) तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और (4) कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इनमेंसे पहले और चौथे चरणकी बात एक है, तथा दूसरे और तीसरे चरणकी बात एक है। पहले चरणमें कर्म करनेमें अधिकार बताया है और चौथे चरणमें कर्म न करनेमें आसक्ति होनेका निषेध किया है। दूसरे चरणमें फलकी इच्छाका निषेध किया है और तीसरे चरणमें फलका हेतु बननेका निषेध किया है।तात्पर्य यह हुआ कि अकर्मण्यतामें रुचि होनेसे प्रमाद, आलस्य आदि ' तामसी वृत्ति ' के साथ तेरा सम्बन्ध हो जायगा। कर्म एवं कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे तेरा ' राजसी ' वृत्ति के साथ सम्बन्ध हो जायगा। प्रमाद, आलस्य, कर्म, कर्मफल, आदिका सम्बन्ध न रहनेपर जो विवेकजन्य सुख होता है, प्रकाश मिलता है, ज्ञान मिलता है, उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ' सात्त्विकी वृत्ति ' के साथ सम्बन्ध हो जायगा। इनके साथ सम्बन्ध होना ही जन्म-मरणका कारण है। अतः साधक कर्म, कर्मफल और इनके त्यागका सुख -- इनमेंसे किसीके भी साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, इनमें राग या आसक्ति न करे। कर्म करते हुए इनके साथ सम्बन्ध न रखना ही कर्मयोग है।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें कर्म करनेकी आज्ञा देनेके बाद अब भगवान् कर्म करते हुए सम रहनेका प्रकार बताते हैं ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- कर्मण्येव अधिकारः न ज्ञाननिष्ठायां ते तव। तत्र च कर्म कुर्वतः मा फलेषु अधिकारः अस्तु, कर्मफलतृष्णा मा भूत् कदाचन कस्याञ्चिदप्यवस्थायामित्यर्थः। यदा कर्मफले तृष्णा ते स्यात् तदा कर्मफलप्राप्तेः हेतुः स्याः, एवं मा कर्मफलहेतुः भूः। यदा हि कर्मफलतृष्णाप्रयुक्तः कर्मणि प्रवर्तते तदा कर्मफलस्यैव जन्मनो हेतुर्भवेत्। यदि कर्मफलं नेष्यते, किं कर्मणा दुःखरूपेण? इति मा ते तव सङ्गः अस्तु अकर्मणि अकरणे प्रीतिर्मा भूत्।।यदि कर्मफलप्रयुक्तेन न कर्तव्यं कर्म, कथं तर्हि कर्तव्यमिति; उच्यते -- ।।2.47।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.47 Te, your; adhikarah, right; is karmani eva, for action alone, not for steadfastness in Knowledge. Even there, when you are engaged in action, you have ma kadacana, never, i.e. under no condition whatever; a right phalesu, for the results of action -- may you not have a hankering for the results of action. Whenever you have a hankering for the fruits of action, you will become the agent of acquiring the results of action. Ma, do not; thus bhuh, become; karma-phalahetuh, the agent of acquiring the results of action. For when one engages in action by being impelled by thirst for the results of action, then he does become the cause for the production of the results of action. Ma, may you not; astu, have; sangah, an inclination; akarmani, for inaction, thinking, 'If the results of work be not desired, what is the need of work which involves pain?'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तेरा कर्ममें ही अधिकार है, ज्ञाननिष्ठामें नहीं। वहाँ ( कर्ममार्गमें ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कभी अधिकार न हो, अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये। यदि कर्मफलमें तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफल-प्राप्तिका कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल-प्राप्तिका कारण तू मत बन। क्योंकि जब मनुष्य कर्म-फलकी कामनासे प्रेरित होकर कर्ममें प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्मका हेतु बन ही जाता है। 'यदि कर्मफलकी इच्छा न करें तो दुःखरूप कर्म करनेकी क्या आवश्यकता है?' इस प्रकार कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति-प्रीति नहीं होनी चाहिये ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
नित्ये नैमित्तिके काम्ये च केनचित् फलविशेषेण संबन्धितया श्रूयमाणे कर्मणि नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः ते कर्ममात्रे अधिकारः। तत्संबन्धितया अवगतेषु फलेषु न कदाचिद् अपि अधिकारः। सफलस्य बन्धरूपत्वात् फलरहितस्य केवलस्य मदाराधनरूपस्य मोक्षहेतुत्वाच्च।मा च कर्मफलयोः हेतुः भूः। त्वया अनुष्ठीयमाने अपि कर्मणि नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः तवाकर्तृत्वम् अपि अनुसन्धेयम्। फलस्य अपि क्षुन्निवृत्त्यादेः न त्वं हेतुः इति अनुसन्धेयम्। तद् उभयं गुणेषु वा सर्वेश्वरे मयि वा अनुसन्धेयम् इति उत्तरत्र वक्ष्यते। एवम् अनुसन्धाय कर्म कुरु। अकर्मणि अननुष्ठाने न योत्स्यामि इति यत् त्वया अभिहितं न तत्र ते सङ्गः अस्तु। उक्तेन प्रकारेण युद्धादिकर्मणि एव सङ्गः अस्तु इत्यर्थः।एतद् एव स्पष्टीकरोति -- ।।2.47।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.47 As for obligatory, occasional and desiderative acts taught in the Vedas and associated with some result or other, you, an aspirant established in Sattva, have the right only to perform them: You have no right to the fruits known to be derived from such acts. Acts done with a desire for fruit bring about bondage. But acts done without an eye on fruits form My worship and become a means for release. Do not become an agent of acts with the idea of being the reaper of their fruits. Even when you, who are established in pure Sattva and are desrious of release, perform acts, you should not look upon yourself as the agent. Likewise, it is necessary to contemplate yourself as not being the cause of even appeasing hunger and such other bodily necessities. Later on it will be said that both of these, agency of action and desire for fruits, should be considered as belonging to Gunas, or in the alternative to Me who am the Lord of all. Thinking thus, do work. With regard to inaction, i.e., abstaining from performance of duties, as when you said, 'I will not fight,' let there be no attachment to such inaction in you. The meaning is let your interest be only in the discharge of such obligatory duties like this war in the manner described above.Sri Krsna makes this clear in the following verse:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एवं सति मम वेदोदन्वति किमुपादेयमित्याकाङ्क्षायामाह -- कर्मण्येवाधिकारस्ते इति। कर्मैवोपादेयं तत्रैव तत्राधिकार इति। परन्तु तत्फलेषु मा कदाचनाधिकारोऽस्तु। उपदेशमुद्रामाह -- मा कर्मफलहेतुर्भूरिति। अकर्मणि च निषिद्धे परधर्मे सङ्गो मा तेऽस्तु ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु निष्कामकर्मभिरात्मज्ञानं संपाद्य परमानन्दप्राप्तिः क्रियते चेदात्मज्ञानमेव तर्हि संपाद्यं किं बह्वायासैः कर्मभिर्बहिरङ्गसाधनभूतैरित्याशङ्क्याह -- ते तवाशुद्धान्तःकरणस्य तात्त्विकज्ञानोत्पत्त्ययोग्यस्य कर्मण्येवान्तःकरणशोधकेऽधिकारो मयेदं कर्तव्यमिति बोधोऽस्तु न ज्ञाननिष्ठारुपे वेदान्तवाक्यविचारादौ। कर्म च कुर्वतस्तव तत्फलेषु स्वर्गादिषु कदाचन कस्यांचिदप्यवस्थायां कर्मानुष्ठानात्प्रागूर्ध्वं तत्काले वाधिकारो मयेदं भोक्तव्यमिति बोधो मास्तु। ननु मयेदं भोक्तव्यमिति बुद्ध्यभावेऽपि कर्म स्वसामर्थ्यादेव फलं जनयिष्यतीति चेन्नेत्याह -- मा कर्मफलहेतुर्भूः, फलकामनया हि कर्म कुर्वन्फलस्य हेतुरुत्पादको भवति। त्वं तु निष्कामः सन्कर्मफलहेतुर्माभूः। नहि निष्कामेन भगवदर्पणबुद्ध्या कृतं कर्म फलाय कल्पत इत्युक्तम्। फलाभावे किं कर्मणेत्यत आह -- मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि। यदि फलं नेष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेणेत्यकरणे तव प्रीतिर्माभूत् ।।2.47।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
कामात्मनां निन्दा कृता। कथं? एषां "स्वर्गकामो यजेत" आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ कामस्यापि विहितत्वात्, इत्यत आह -- 'कर्मण्येवेति'। त इत्युपलक्षणार्थम्। तव ज्ञानिनोऽपि न फलकामकर्तव्यता, किम्वन्येषाम्?। नत्वस्ति केषाञ्चिन्न तेऽस्तीति। स हि ज्ञानी नरांश इन्द्रश्च, मोहादिस्त्वभिभवादेः। यदि तेषां शुद्धसत्त्वानां न स्याज्ज्ञानं, कान्येषाम्?। उपदेशादेश्च सिद्धं ज्ञानं तेषाम्।पार्थार्ष्टिषेणेत्यादिज्ञानिगणनाच्च कामनिषेध एवात्र। फलानि ह्यस्वातन्त्र्येण भवन्ति। नहि कर्मफलानि कर्माभावे यत्नतो भवन्ति। भवन्ति च काम्यकर्मिणो विपर्ययप्रयत्नेऽप्यविरोधे। अतः कर्माकरण एव प्रत्यवायः, न तु ज्ञानादिना वाऽकामनया फलाप्राप्तौ, अतः कर्मण्येवाधिकारः। अतस्तदेव कार्यम्। न तु कामेन ज्ञानादिनिषेधेन वा फलप्राप्तिः।कामवचनानां तु तात्पर्यं भगवतैवोक्तम् -- 'रोचनार्थं फलश्रुतिः'।'यथा भैषज्यरोचनम्' इति भागवते। 11।21।23 अत एव कामी यजेतेत्यर्थः। न तु कामी भूत्वेत्यर्थः।'निष्कामं ज्ञानपूर्वं च' इति वचनात् वक्ष्यमाणेभ्यश्च। "वसन्ते वसन्ते ज्योतिषा यजेत" इत्यादिभ्यश्च। अतो मा कर्मफलहेतुर्भूः। कर्मफलं तत्कृतौ हेतुर्यस्य स कर्मफलहेतुः स मा भूः।तर्हि न करोमीत्यत आह -- 'मा त' इति। कर्माकरणे स्नेहो मास्त्वित्यर्थः। अन्यथा फलाभावेऽपि मत्प्रसादाख्यफलभावात्। इच्छा च तस्य युक्ता,'वृणीमहे ते परितोषणाय' इति महदाचारात्। अनिन्दनाद्विशेषत इतरनिन्दनाच्च। सामान्यं विशेषो बाधत इति च प्रसिद्धम्'सर्घानानय नैकं मैत्रम्' इत्यादौ। अतो'नैकात्मतां मे स्पृद्दयन्ति केचित्' भाग.3।25।34 भक्तिमन्विच्छन्तः।'ब्रह्मजिज्ञासा' ब्र.सू.1।1।1 "विज्ञाय प्रज्ञां" "द्रष्टव्यः" बृ.उ.2।4।5+।5।6 इत्यादिववनेभ्यः। स्वार्थसेवकं प्रति न तथा स्नेहः। किं ददामीत्युक्ते सेवादि याचकंप्रति बहुतरस्नेह इति लोकप्रसिद्धन्यायाच्च भक्तिज्ञानादिकामना कार्येति सिद्धम् ।।2.47।।

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-46


मूल स्लोकः

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।




English translation by Swami Sivananda
2.46 To the Brahmana who has known the Self, all the Vedas are of as much as is a reservoir of water in a place where there is a flood.


English commentary by Swami Sivananda
2.46 यावान् as much, अर्थः use, उदपाने in a reservoir, सर्वतः everywhere, संप्लुतोदके being flooded, तावान् so much (use), सर्वेषु in all, वेदेषु in the Vedas, ब्राह्मणस्य of the Brahmana, विजानतः of the knowing.Commentary: Only for a sage who has realised the Self, the Vedas are of no use, because he is in possession of the infinite knowledge of the Self. This does not, however, mean that the Vedas are useless. They are useful for the neophytes or the aspirants who have just started on the spiritual path.All the transient pleasures derivable from the proper performance of all actions enjoined in the Vedas are comprehended in the infinite bliss of Self-knowledge.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सब तरफसे परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, वेदों और शास्त्रोंको तत्त्वसे जाननेवाले ब्रह्मज्ञानीका सम्पूर्ण वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता ।।2.46।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- यावनार्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके -- जलसे सर्वथा परिपूर्ण, स्वच्छ, निर्मल महान् सरोवरके प्राप्त होनेपर मनुष्यको छोटे-छोटे जलाशयोंकी कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण कि छोटे-से जलाशयमें अगर हाथ-पैर धोये जायँ तो उसमें मिट्टी घुल जानेसे वह जल स्नानके लायक नहीं रहता; और अगर उसमें स्नान किया जाय तो वह जल कपड़े धोनेके लायक नहीं रहता और यदि उसमें कपड़े धोये जायँ तो वह जल पीनेके लायक नहीं रहता। परन्तु महान् सरोवरके मिलनेपर उसमें सब कुछ करनेपर भी उसमें कुछ भी फरक-नहीं पड़ता अर्थात् उसकी स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता वैसी-की-वैसी ही बनी रहती है।तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः -- ऐसे ही जो महापुरुष परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो गये हैं, उनके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी पुण्यकारी कार्य हैं, उन सबसे उनका कोई मतलब नहीं रहता अर्थात् वे पुण्यकारी कार्य उनके लिये छोटे-छोटे जलाशयोंकी तरह हो जाते हैं। ऐसा ही दृष्टान्त आगे सत्तरवें श्लोकमें दिया है कि वह ज्ञानी महात्मा समुद्रकी तरह गम्भीर होता है। उसके सामने कितने ही भोग आ जायँ पर वे उसमें कुछ भी विकृति पैदा नहीं कर सकते।जो परमात्मतत्त्वको जाननेवाला है और वेदों तथा शास्त्रोंके तत्त्वको भी जाननेवाला है, उस महापुरुषको यहाँ ब्राह्मणस्य विजानतः पदोंसे कहा गया है।तावान् कहनेका तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर वह तीनों गुणोंसे रहित हो जाता है। वह निर्द्वन्द्व हो जाता है अर्थात् उसमें राग-द्वेष आदि नहीं रहते। वह नित्य तत्त्वमें स्थित हो जाता है। वह निर्योगक्षेम हो जाता है अर्थात् कोई वस्तु मिल जाय और मिली हुई वस्तुकी रक्षा होती रहे -- ऐसा उसमें भाव भी नहीं होता। वह सदा ही परमात्मपरायण रहता है।सम्बन्ध -- भगवान्ने उन्तालीसवें श्लोकमें जिस समबुद्धि-(समता-) को सुननेके लिये अर्जुनको आज्ञा दी थी, अब आगेके श्लोकमें उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं ।।2.46।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- यथा लोके कूपतडागाद्यनेकस्मिन् उदपाने परिच्छिन्नोदके यावान् यावत्परिमाणः स्नानपानादिः अर्थः फलं प्रयोजनं स सर्वः अर्थः सर्वतःसंप्लुतोदकेऽपि यः अर्थः तावानेव संपद्यते, तत्र अन्तर्भवतीत्यर्थः। एवं तावान् तावत्परिमाण एव संपद्यते सर्वेषु वेदेषु वेदोक्तेषु कर्मसु यः अर्थः यत्कर्मफलं सः अर्थः ब्राह्मणस्य संन्यासिनः परमार्थतत्त्वं विजानतो यः अर्थः यत् विज्ञानफलं सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीयं तस्मिन् तावानेव संपद्यते तत्रैवान्तर्भवतीत्यर्थः। 'यथा कृताय विजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेनं सर्वं तदभिसमेति यत् किञ्चित् प्रजाः साधु कुर्वन्ति यस्तद्वेद यत्स वेद' इति श्रुतेः। 'सर्वं कर्माखिलम्' इति च वक्ष्यति। तस्मात् प्राक् ज्ञाननिष्ठाधिकारप्राप्तेः कर्मण्यधिकृतेन कूपतडागाद्यर्थस्थानीयमपि कर्म कर्तव्यम्।।तव च -- ।।2.46।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.46 If there be no need for the infinite results of all the rites and duties mentioned in the Vedas, then why should they be performed as a dedication to God? Listen to the answer being given:In the world, yavan, whatever; arthah, utility, use, like bathing, drinking, etc.; one has udapane, in a well, pond and other numerous limited reservoirs; all that, indeed, is achieved, i.e. all those needs are fulfilled to that very extent; sampluhtodake, when there is a flood; sarvatah, all arount. In a similar manner, whatever utility, result of action, there is sarvesu, in all; the vedesu, Vedas, i.e. in the rites and duties mentioned in the Vedas; all that utility is achieved, i.e. gets fulfilled; tavan, to that very extent; in that result of realization which comes brahmanasya, to a Brahmana, a sannyasin; vijanatah, who knows the Reality that is the supreme Goal -- that result being comparable to the flood all around. For there is the Upanisadic text, '...so all virtuous deeds performed by people get included in this one...who knows what he (Raikva) knows...' (Ch. 4.1.4). The Lord also will say, 'all actions in their totality culminate in Knowledge' (4.33). The Commentators quotation from the Ch. relates to meditation on the qualified Brahman. Lest it be concluded that the present verse relates to knowledge of the qualified Brahman only, he quotes again from the Gita toshow that the conclusion holds good in the case of knowledge of the absolute Brahman as well.Therefore, before one attains the fitness for steadfastness in Knowledge, rites and duties, even though they have (limited) utility as that of a well, pond, etc., have to be undertaken by one who is fit for rites and duties.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
सम्पूर्ण वेदोक्त कर्मोंके जो अनन्त फल हैं, उन फलोंको यदि कोई न चाहता हो तो वह उन कर्मोंका अनुष्ठान ईश्वरके लिये क्यों करे? इसपर कहते हैं, सुन -- जैसे जगत्में कूप, तालाब आदि अनेक छोटे-छोटे जलाशयोंमें जितना स्नान-पान आदि प्रयोजन सिद्ध होता है, वह सब प्रयोजन सब ओरसे परिपूर्ण महान् जलाशयमें उतने ही परिमाणमें ( अनायास ) सिद्ध हो जाता है। अर्थात् उसमें उनका अन्तर्भाव है। इसी तरह सम्पूर्ण वेदोंमें यानी वेदोक्त कर्मोंसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् जो कुछ उन कर्मोंका फल मिलता है, वह समस्त प्रयोजन परमार्थ-तत्त्वको जाननेवाले ब्राह्मणका यानी संन्यासीका जो सब ओरसे परिपूर्ण महान् जलाशयस्थानीय विज्ञान आनन्दरूप फल है, उसमें उतने ही परिमाणमें ( अनायास ) सिद्ध हो जाता है। अर्थात् उसमें उसका अन्तर्भाव है। श्रुतिमें भी कहा है कि -- 'जिसको वह ( रैक्व ) जानता है उस ( परब्रह्म ) को जो भी कोई जानता है, वह उन सबके फलको पा जाता है कि जो कुछ प्रजा अच्छा कार्य करती है।' आगे गीतामें भी कहेंगे कि 'सम्पूर्ण कर्म ज्ञानमें समाप्त हो जाते हैं। ' इत्यादि। सुतरां यद्यपि कूप, तालाब आदि छोटे जलाशयोंकी भाँति कर्म अल्प फल देनेवाले हैं तो भी ज्ञाननिष्ठाका अधिकार मिलनेसे पहले-पहले कर्माधिकारीको कर्म करना चाहिये ।।2.46।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यथा सर्वार्थपरिकल्पिते सर्वतः संप्लुतोदके उदपाने पिपासोः यावान् अर्थः यावद् एव प्रयोजनं पानीयम् तावद् एव तेन उपादीयते न सर्वम्; एवम् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः वैदिकस्य मुमुक्षोः यदेव मोक्षसाधनं तद् एव उपादेयम्, न अन्यत्।अतः सत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः एतावद् एव उपादेयम् इत्याह -- ।।2.46।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.46 Whatever use, a thirsty person has for a reservoir, which is flooded with water on all sides and which has been constructed for all kinds of purposes like irrigation, only to that extent of it, i.e., enough to drink will be of use to the thirsty person and not all the water. Likewise, whatever in all the Vedas from the means for release to a knowing Brahmana, i.e., one who is established in the study of the Vedas and who aspires for release only to that extent is it to be accepted by him and not anything else.Sri Krsna now says that this much alone is to be accepted by an aspirant, established in Sattva:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
न चोक्तरूपं वेदोदितं सर्वं सगुणस्यागुणस्य सर्वस्योपादेयं युगपत्, किन्तु यावदर्थमित्याह निदर्शनेन -- यावानर्थ इति। सर्वार्थपरिकल्पके सर्वतः सम्प्लुतोदके च निम्नजले उदपाने उदन्वति सरसि पिपासादिमतो यावानर्थः यावदेव प्रयोजनं तावदेव तेन तेनोपादीयते, न सर्वं; एवं सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य वेदाधिकृतस्य तदर्थं विवेकेन जानतो योगिनो यदेवात्मसंसिद्धिसाधनं तदेवोपादेयं; न सर्वम् ।।2.46।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
न चैवं शङ्कनीयं सर्वकामनापरित्यागेन कर्म कुर्वन्नहं तैस्तैः कर्मजनितैरानन्दैर्वञ्चितः स्यामिति। यस्मात् उदपाने क्षुद्रजलाशये। जातावेकवचनम्। यावानर्थः यावत्स्नानपानादिप्रयोजनं भवति, सर्वतःसंप्लुतोदके महति जलाशये तावानर्थो भवत्येव। यथाहि पर्वतनिर्झराः सर्वतः स्रवन्तः क्वचिदुपत्यकायामेकत्र मिलन्ति तत्र प्रत्येकं जायमानमुदकप्रयोजनं समुदिते सुतरां भवति, सर्वेषां निर्झराणामेकत्रैव कासारेऽन्तर्भावात्, एवं सर्वेषु वेदेषु वेदोक्तेषु काम्यकर्मसु यावानर्थो हैरण्यगर्भानन्दपर्यन्तस्तावान्विजानतो ब्रह्मतत्त्वं साक्षात्कृतवतो ब्राह्मणस्य ब्रह्मबुभूषोर्भवत्येव। क्षुद्रानन्दानां ब्रह्मानन्दांशत्वात्तत्र क्षुद्रानन्दानामन्तर्भावात्'एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति' इति श्रुतेः। एकस्याप्यानन्दस्याविद्याकल्पिततत्तदुपाधिपरिच्छेदमादायांशांशिवद्व्यपदेश आकाशस्येव घटाद्यवच्छेदकल्पनया। तथाच निष्कामकर्मभिः शुद्धान्तःकरणस्य तवात्मज्ञानोदये परब्रह्मानन्दप्राप्तिः स्यात्तयैव च सर्वानन्दप्राप्तौ न क्षुद्रानन्दप्राप्तिनिबन्धनवैय्यग्र्यावकाशः। अतः परमानन्दप्रापकाय तत्त्वज्ञानाय निष्कामकर्माणि कुर्वित्यभिप्रायः। अत्र यथातथाभवतीति पदत्रयाध्याहारो यावान्-तावानिति पदद्वयानुषङ्गश्च दार्ष्टान्तिके द्रष्टव्यः ।।2.46।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तथापि काम्यकर्मिणां फलं ज्ञानिनां न भवतीति साम्यमेवेत्यत आह -- 'यावानर्थ' इति। यथा यावानर्थः प्रयोजनमुदपाने कूपे भवति, तावान्सर्वतः सम्प्लुतोदकेऽन्तर्भवत्येव। एवं सर्वेषु वेदेषु यत्फलं तद्विजानतोऽपि ज्ञानिनो ब्राह्मणस्य फलेऽन्तर्भवति। ब्रह्म अणतीति ब्राह्मणोऽपरोक्षज्ञानी। स हि ब्रह्म गच्छति। विजानत इति ज्ञानफलत्वं तस्य दर्शयति ।।2.46।।

BhagvatGita-02-45


मूल स्लोकः

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।




English translation by Swami Sivananda
2.45 The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes. O Arjuna, free yourself from the pairs of opposites, and ever remain in the quality of Sattva (goodness), freed from (the thought of) acquisition and preservation, and be established in the Self.


English commentary by Swami Sivananda
2.45 त्रैगुण्यविषयाः deal with the three attributes, वेदाः the Vedas, निस्त्रैगुण्यः without these three attributes, भव be, अर्जुन O Arjuna निर्द्वन्द्वः free from the pairs of opposites, नित्यसत्त्वस्थः ever remaining in the Sattva (goodness), निर्योगक्षेमः free from (the thought of) acquisition and preservation, आत्मवान् established in the Self.Commentary: Guna means attribute or quality. It is substance as well as quality. Nature (Prakriti) is made up of three Gunas, viz., Sattva (purity, light or harmony), Rajas (passion or motion) and Tamas (darkness or inertia). The pairs of opposites are heat and cold, pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat, honour and dishonour, praise and censure. He who is anxious about new acuqisitions or about the preservation of his old possessions cannot have peace of mind. He is ever restless. He cannot concentrate or meditate on the Self. He cannot practise virtue. Therefore, Lord Krishna advises Arjuna that he should be free from the thought of acquisition and preservation of things. (Cf.IX.20,21).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तुमें स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा ।।2.45।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- त्रैगुण्यविषया वेदाः -- यहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोँके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है।यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है। जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है। ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है।निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन -- हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा।निर्द्वन्द्वः -- संसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीता 3।34) (टिप्पणी प0 81)। इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा।यहाँ भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा क्यों दे रहे हैं? कारण कि द्वन्द्वोंसे सम्मोह होता है, संसारमें फँसावट होती है, (गीता 7। 27)। जब साधक निर्द्वन्द्व होता है, तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है (गीता 7। 28)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक सुखपूर्वक संसार-बंधनसे मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। निर्द्वन्द्व होनेसे मूढ़ता चली जाती है (गीता 15। 5)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (गीता 4। 22)। तात्पर्य है कि साधककी साधना निर्द्वन्द्व होनेसे ही दृढ़ होती है। इसलिये भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा देते हैं।दूसरी बात, अगर संसारमें किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिमें राग होगा , तो दूसरी वस्तु, व्यक्ति आदिमें द्वेष हो जायगा -- यह नियम है। ऐसा होनेपर भगवान्की उपेक्षा हो जायगी -- यह भी एक प्रकारका द्वेष है। परन्तु जब साधकका भगवान्में प्रेम हो जायगा, तब संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारसे स्वाभाविक उपरति हो जायगी। उपरति होनेकी पहली अवस्था यह होगी कि साधकका प्रतिकूलतामें द्वेष नहीं होगा; किन्तु उसकी उपेक्षा होगी। उपेक्षाके बाद उदासीनता होगी और उदासीनताके बाद उपरति होगी। उपरतिमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं। इस क्रममें अगर सूक्ष्मतासे देखा जाय तो उपेक्षामें राग-द्वेषके संस्कार रहते हैं, उदासीनतामें राग-द्वेषकी सत्ता रहती है, और उपरतिमें राग-द्वेषके न संस्कार रहते हैं, न सत्ता रहती है; किन्तु राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है।नित्यसत्त्वस्थः -- द्वन्द्वोंसे रहित होनेका उपाय यह है कि जो नित्य-निरन्तर रहनेवाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है, तू उसीमें निरन्तर स्थित रह।निर्योगक्षेमः (टिप्पणी प0 82.1) -- तू योग और क्षेमकी (टिप्पणी प0 82.2) इच्छा भी मत रख, क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं, उनके योगक्षेमका वहन मैं स्वयं करता हूँ (गीता 9। 22)।आत्मवान् -- तू केवल परमात्माके परायण हो जा। एक परमात्मप्राप्तिका ही लक्ष्य रख।सम्बन्ध -- तीनों गुणोंसे रहित, निर्द्वन्द्व आदि हो जानेसे क्या होगा -- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।2.45।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- त्रैगुण्यविषयाः त्रैगुण्यं संसारो विषयः प्रकाशयितव्यः येषां ते वेदाः त्रैगुण्यविषयाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव अर्जुन, निष्कामो भव इत्यर्थः। निर्द्वन्द्वः सुखदुःखहेतू सप्रतिपक्षौ पदार्थौ द्वन्द्वशब्दवाच्यौ, ततः निर्गतः निर्द्वन्द्वो भव। नित्यसत्त्वस्थः सदा सत्त्वगुणाश्रितो भव। तथा निर्योगक्षेमः अनुपात्तस्य उपादानं योगः, उपात्तस्य रक्षणं क्षेमः, योगक्षेमप्रधानस्य श्रेयसि प्रवृत्तिर्दुष्करा इत्यतः निर्योगक्षेमो भव। आत्मवान् अप्रमत्तश्च भव। एष तव उपदेशः स्वधर्ममनुतिष्ठतः।।सर्वेषु वेदोक्तेषु कर्मसु यान्युक्तान्यनन्तानि फलानि तानि नापेक्ष्यन्ते चेत्, किमर्थं तानि ईश्वरायेत्यनुष्ठीयन्ते इत्युच्यते; श्रृणु -- ।।2.45।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.45 To those who are thus devoid of discriminating wisdom, who indulge in pleasure, Here Ast. adds 'yat phalam tad aha, what result accrues, that the Lord states:'-Tr. O Arjuna, vedah, the Vedas; traigunya-visayah, have the three qualities as their object, have the three gunas, Traigunya means the collection of the three qualities, viz sattva (purity), rajas (energy) and tamas (darkness); i.e. the collection of virtuous, vicious and mixed activities, as also their results. In this derivative sense traigunya means the worldly life. i.e. the worldly life, as the object to be revealed. But you bhava, become; nistraigunyah, free from the three qualities, i.e. be free from desires. There is a seeming conflict between the advices to be free from the three qualities and to be ever-poised in the quality of sattva. Hence, the Commentator takes the phrase nistraigunya to mean niskama, free from desires. (Be) nirdvandvah, free from the pairs of duality -- by the word dvandva, duality, are meant the conflicting pairs Of heat and cold, etc. which are the causes of happiness and sorrow; you become free from them. From heat, cold, etc. That is, forbear them.You become nitya-sattvasthah, ever-poised in the quality of sattva; (and) so also niryoga-ksemah, without (desire for) acquisition and protection. Yoga means acquisition of what one has not, and ksema means the protection of what one has. For one who as 'acquisition and protection' foremost in his mind, it is difficult to seek Liberation. Hence, you be free from acquisition and protection. And also be atmavan, self-collected, vigilant. This is the advice given to you while you are engaged in your own duty. And not from the point of view of seeking Liberation.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो इस प्रकार विवेक-बुद्धिसे रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषोंके -- वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन ! तू असंसारी हो -- निष्कामी हो। तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुख-दुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी ( युग्म ) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है, योगक्षेमको प्रधान माननेवालेकी कल्याण-मार्गमें प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो अर्थात् ( आत्म-विषयोंमें ) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठानमें लगे हुएके लिये यह उपदेश है ।।2.45।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
त्रयो गुणाः त्रैगुण्यं सत्त्वरजस्तमांसि; सत्त्वरजस्तमःप्रचुराः पुरुषाः त्रैगुण्यशब्देन उच्यन्ते। तद्विषया वेदाः; तमःप्रचुराणां रजःप्रचुराणां सत्त्वप्रचुराणां च वत्सलतरतया एव हितम् अवबोधयन्ति वेदाः।यदि एषां स्वगुणानुगुण्येन स्वर्गादिसाधनम् एव हितं न अवबोधयन्ति, तदा एव ते रजस्तमःप्रचुरतया सात्त्विकफलमोक्षविमुखाः स्वापेक्षितफलसाधनम् अजानन्तः कामप्रावण्यविवशा अनुपायेषु उपायभ्रान्त्या प्रविष्टाः प्रणष्टा भवेयुः। अतः त्रैगुण्यविषया वेदाः; त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव, इदानीं सत्त्वप्रचुरः त्वं तदेव वर्धय; नान्योन्यसंकीर्णगुणत्रयप्रचुरो भव। न तत्प्राचुर्यं वर्धय इत्यर्थः निर्द्वन्द्वः निर्गतसकलसांसारिकस्वभावः। नित्यसत्त्वस्थः गुणद्वयरहितनित्यप्रवृद्धसत्त्वस्थो भव।कथम्? इति चेत्, निर्योगक्षेमः आत्मस्वरूपतत्प्राप्त्युपायबहिर्भूतानाम् अर्थानां योगं प्राप्तानां च क्षेमं परिपालनं परित्यज्य आत्मवान् भव, आत्मस्वरूपान्वेषणपरो भव। अप्राप्तस्य प्राप्तिः योगः, प्राप्तस्य परिरक्षणं क्षेमः। एवं वर्तमानस्य ते रजस्तमः प्रचुरता नश्यति सत्त्वं च वर्धते।न च वेदोदितं सर्वं सर्वस्य उपादेयम् -- ।।2.45।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.45 The word Traigunya means the three Gunas --- Sattva, Rajas and Tamas. Here the term Traigunya denotes persons in whom Sattva, Rajas and Tamas are in abundance. The Vedas in prescribing desire-oriented rituals (Kamya-karmas) have such persons in view. Because of their great love, the Vedas teach what is good to those in whom Tamas, Rajas and Sattva preponderate. If the Vedas had not explained to these persons the means for the attainment of heaven etc., according to the Gunas, then those persons who are not interested in liberation owing to absence of Sattva and preponderance of Rajas and Tamas in them, would get completely lost amidst what should not be resorted to, without knowing the means for attaining the results they desire. Hence the Vedas are concerned with the Gunas. Be you free from the three Gunas. Try to acquire Sattva in abundance; increase that alone. The purport is: do not nurse the preponderance of the three Gunas in their state of inter-mixture; do not cultivate such preponderance.Be free from the pairs of opposites; be free from all the characteristics of worldly life. Abide in pure Sattva; be established in Sattva, in its state of purity without the admixture of the other two Gunas. If it is questioned how that is possible, the reply is as follows. Never care to acquire things nor protect what has been acquired. While abandoning the acquisition of what is not required for self-realisation, abandon also the conservation of such things already acquired. You can thus be established in self-control and thereby become an aspirant after the essentail nature of the self. 'Yoga' is acquisition of what has not been acquired; 'Ksema' is preservation of things already acquired. Abandoning these is a must for an aspirant after the essential nature of the self. If you conduct yourself in this way, the preponderance of Rajas and Tamas will be annihilated, and pure Sattva will develop.Besides, all that is taught in the Vedas is not fit to be utilised by all.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
स्वयमेव वेदतात्पर्यमाह भगवान् -- त्रैगुण्यविषया वेदा इति। यत एवं कामात्मनां त्रैगुण्याधिकारिणां त्रैगुण्यफलविषया वेदास्त्रिकाण्डविषया अपि अतस्त्वं वेदादिमूलानिस्त्रिगुणतत्त्वाश्रितो भव। त्रिगुणमाश्रितस्त्रैगुण्यस्तद्भिन्नो निस्त्रैगुण्यः। निस्त्रिगुणं मामाश्रितो भवेति गूढाभिप्रायः। तल्लिङ्गमाह -- निर्द्वन्द्व इत्यादि।'त्रिदुःखसहनं धैर्यं' इति नित्यं सत्वे धैर्ये स्थितः'सत्त्वैकमनसो वृत्तिः' इति वाक्यान्नित्यसत्त्वरूपभगवन्निष्ठो भवेति गूढाभिसन्धिः। स्वबलेन कृतमप्राप्तसम्पादनं योगः। प्राप्तपरिपालनं क्षेमः। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमौ तद्रहित इति योगानुरोधेनोक्तम्। वस्तुतस्तु सत्त्वैकमनसो भगवदीयस्य भक्तियोगानुसारेण भगवदधीनयोगक्षेमवत्त्वं सूच्यते निर्योगक्षेमशब्देन। एवमेवाग्रे वक्ष्यति। -- 'तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्' 9।22 इति। आत्मना मनो विद्यते यस्य वश इति तथा ।।2.45।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु सकामानां माभूदाशयदोषाद्व्यवसायात्मिका बुद्धिः, निष्कामानां तु व्यवसायात्मकबुद्ध्या कर्म कुर्वतां कर्मस्वाभाव्यात्स्वर्गादिफलप्राप्तौ ज्ञानप्रतिबन्धः समान इत्याशङ्क्याह -- त्रयाणां गुणानां कर्म त्रैगुण्यं काममूलः संसारः स एव प्रकाश्यत्वेन विषयो येषां तादृशा वेदाः कर्मकाण्डात्मकाः, यो यत्फलकामस्तस्यैव तत्फलं बोधयन्तीत्यर्थः। नहि सर्वेभ्यः कोमेभ्यो दर्शपूर्णमासाविति विनियोगेऽपि सकृदनुष्ठानात्सर्वफलप्राप्तिर्भवति तत्तत्कामनाविरहात्, यत्फलकामनयानुतिष्ठिति तदेव फलं तस्मिन्प्रयोग इति स्थितं योगसिद्ध्यधिकरणे। यस्मादेवं कामनाविरहे फलविरहः तस्मात्त्वं निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव हे अर्जुन। एतेन कर्मस्वाभाव्यात्संसारो निरस्तः। ननु शीतोष्णादिद्वन्द्वप्रतीकाराय वस्त्राद्यपेक्षणात्कुतो निष्कामत्वमत आह -- निर्द्वन्द्वः। सर्वत्र भवेति संबध्यते। मात्रास्पर्शास्त्वित्युक्तन्यायेन शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुर्भव। असह्यं दुःखं कथं वा सोढव्यमित्यपेक्षायामाह -- नित्यसत्त्वस्थः नित्यमचञ्चलं यत्सत्त्वं धैर्यापरर्यायं तस्मिंस्तिष्ठतीति तथा। रजस्तमोभ्यामभिभूतसत्त्वो हि शोतोष्णादिपीडया मरिष्यामीति मन्वानो धर्माद्विमुखो भवति, त्वं तु, रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वमात्रालम्बनो भव। ननु शीतोष्णादिसहनेऽपि क्षुत्पिपासादिप्रतीकारार्थं किंचिदनुपात्तमुपादेयमुपात्तं च रक्षणीयमिति तदर्थं यत्ने क्रियमाणे कुतः सत्त्वस्थत्वमित्यत आह -- निर्योगक्षेमः। अलब्धलाभो योगः, लब्धपरिरक्षणं क्षेमस्तद्रहितो भव। चित्तविक्षेपकारिपरिग्रहरहितो भवेत्यर्थः। नचैवं चिन्ता कर्तव्या कथमेवं सति जीविष्यामिति। यतः सर्वान्तर्यामी परमेश्वर एव तव योगक्षेमादि निर्वाहयिष्यतीत्याह -- आत्मवान् आत्मा परमात्मा ध्येयत्वेन योगक्षेमादिनिर्वाहकत्वेन च वर्तते यस्य स आत्मवान्। सर्वकामनापरित्यागेन परमेश्वरमाराधयतो मम सएव देहयात्रामात्रमपेक्षितं संपादयिष्यतीति निश्चित्य निश्चिन्तो भवेत्यर्थः। आत्मवानप्रमत्तो भवेति वा ।।2.45।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तां योगबुद्धिमाह -- 'त्रैगुण्यविषया' इत्यादिना। इतरदपोद्य वेदानां परोक्षार्थत्वात्ित्रगुणसम्बन्धिस्वर्गादिप्रतीतितोऽर्थ इव भाति।'परोक्षवादो वेदोऽयं' इति ह्युक्तम्। अतः प्रातीतिकेऽर्थे भ्रान्तिं मा कुर्वित्यर्थः।'वादो विषयकत्वं च मुखतोवचनं स्मृतम्' इत्यभिधानात्। न तु वेदपक्षो निषिध्यते।'वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च विष्णुः सर्वत्र गीयते।' "सर्वे वेदा यत्पदम्" कठो.2।15'वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनो रुचि-(नस्तुष्टि-) रेव च' मनुः2।16'वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः।' भाग.6।1।40 इति वेदानां सर्वात्मना विष्णुपरत्वोक्तेस्तद्विहितस्य तद्विरुद्धस्य च धर्माधर्मोक्तेश्च ।।2.45।।

BhagvatGita-02-44


मूल स्लोकः

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुध्दिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।




English translation by Swami Sivananda
2.44 For those who are attached to pleasure and power, whose minds are drawn away by such teaching, that determinate reason is not formed which is steadily bent on meditation and Samadhi (superconscious state).


English commentary by Swami Sivananda
2.44 भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् of the people deeply attached to pleasure and lordship, तया by that, अपहृतचेतसाम् whose minds are drawn away, व्यवसायात्मिका determinate, बुद्धिः reason, समाधौ in Samadhi, न not, विधीयते is fixed.Commentary: Those who cling to pleasure and power cannot have steadiness of mind. They cannot concentrate or meditate. They are ever busy in planning projects for the acquisition of wealth and power. Their minds are ever restless. They have no poised understanding.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।।2.44।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तयापहृतचेतसाम् -- पूर्वश्लोकोंमें जिस पुष्पित वाणीका वर्णन किया गया है, उस वाणीसे जिनका चित्त अपहृत हो गया है अर्थात् स्वर्गमें बड़ा भारी सुख है, दिव्य नन्दनवन है, अप्सराएँ हैं, अमृत है -- ऐसी वाणीसे जिनका चित्त उन भोगोंकी तरफ खिंच गया है।भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् -- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध -- ये पाँच विषय, शरीरका आराम, मान और नामकी बड़ाई -- इनके द्वारा सुख लेनेका नाम ' भोग' है। भोगोंके लिये पदार्थ, रूपये-पैसे, मकान आदिका जो संग्रह किया जाता है, उसका नाम ' ऐश्वर्य' है। इन भोग और ऐश्वर्यमें जिनकी आसक्ति है, प्रियता है, खिंचाव है अर्थात् इनमें जिनकी महत्त्वबुद्धि है, उनको भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् कहा गया है।जो भोग और ऐश्वर्यमें ही लगे रहते हैं, वे आसुरी सम्पत्तिवाले होते हैं। कारण कि ' असु ' नाम प्राणोंका है और उन प्राणोंको जो बनाये रखना चाहते हैं, उन प्राणपोषण-परायण लोगोंका नाम असुर है। वे शरीरकी प्रधानताको लेकर यहाँके अथवा स्वर्गके भोग भोगना चाहते हैं (टिप्पणी प0 80)। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते -- जो मनुष्यजन्मका असली ध्येय है, जिसके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, उस परमात्माको ही प्राप्त करना है -- ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि उन लोगोंमें नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जो भोग भोगे जा चुके हैं, जो भोग भोगे जा सकते हैं, जिन भोगोंको सुन रखा है और जो भोग सुने जा सकते हैं, उनके संस्कारोंके कारण बुद्धिमें जो मलिनता रहती है, उस मलिनताके कारण संसारसे सर्वथा विरक्त होकर एक परमात्माकी तरफ चलना है -- ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता। ऐसे ही संसारकी अनेक विद्याओं, कलाओं आदिका जो संग्रह है, उससे ' मैं विद्वान हूँ ', ' मैं जानकार हूँ ' -- ऐसा जो अभिमानजन्य सुखका भोग होता है, उसमें आसक्त मनुष्योंका भी परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं होता।विशेष बातपरमदयालु प्रभुने कृपा करके इस मनुष्यशरीरमें एक ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है, जिससे वह सुख-दुःखसे ऊँचा उठ जाय, अपना उद्धार कर ले, सबकी सेवा करके भगवान्तकको अपने वशमें कर ले! इसीमें मनुष्य-शरीरकी सार्थकता है। परन्तु प्रभुप्रदत्त इस विवेकशक्तिका अनादर करके नाशवान् भोग और संग्रहमें आसक्त हो जाना पशुबुद्धि है। कारण कि पशु-पक्षी भी भोगोंमें लगे रहते हैं, ऐसे ही अगर मनुष्य भी भोगोंमें लगा रहे तो पशु-पक्षियोंमें और मनुष्यमें अन्तर ही क्या रहा?पशु-पक्षी तो भोगयोनि है; अतः उनके सामने कर्तव्यका प्रश्न ही नहीं है। परन्तु मनुष्यजन्म तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करके अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है, भोग भोगनेके लिये नहीं। इसलिये मनुष्यके सामने जो कुछ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, वह सब साधन-सामग्री है, भोग-सामग्री नहीं। जो उसको भोग-सामग्री मान लेते हैं, उनकी परमात्मामें व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती।वास्तवमें सांसारिक पदार्थ परमात्माकी तरफ चलनेमें बाधा नहीं देते, प्रत्युत वर्तमानमें जो भोगोंका महत्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ है, वही बाधा देता है। भोग उतना नहीं अटकाते, जितना भोगोंका महत्व अटकाता है। अटकानेमें अपनी रुचि, नीयतकी प्रधानता है। भोग और संग्रहकी रुचिको रखते हुए कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहे, तो परमात्माकी प्राप्ति तो दूर रही, उनकी प्राप्तिका एक निश्चय भी नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि है, वहीं भोगोंकी रुचि भी है। जबतक भोग और संग्रहमें मान-बड़ाई-आराममें रुचि है, तबतक कोई भी एक निश्चय करके परमात्मामें नहीं लग सकता; क्योंकि उसका अन्तःकरण भोगोंकी रुचिद्वारा हर लिया गया; उसकी जो शक्ति थी, वह भोग और संग्रहमें लग गयी।सम्बन्ध -- किसी बातको पुष्ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्ट किया जाता है। यहाँ भगवान् निष्कामभावको पुष्ट करना चाहते हैं; अतः पीछेके तीन श्लोकोंमें सकामभाववालोंका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें निष्काम होनेकी प्रेरणा करते हैं ।।2.44।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- भोगैश्वर्यप्रसक्तानां भोगः कर्तव्यः ऐश्वर्यं च इति भोगैश्वर्ययोरेव प्रणयवतां तदात्मभूतानाम्। तया क्रियाविशेषबहुलया वाचा अपहृतचेतसाम् आच्छादितविवेकप्रज्ञानां व्यवसायात्मिका सांख्ये योगे वा बुद्धिः समाधौ समाधीयते अस्मिन् पुरुषोपभोगाय सर्वमिति समाधिः अन्तःकरणं बुद्धिः तस्मिन् समाधौ, न विधीयते न भवति इत्यर्थः।।ये एवं विवेकबुद्धिरहिताः तेषां कामात्मनां यत् फलं तदाह -- ।।2.44।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.44 And vyavasayatmika, one-pointed; buddhih, conviction, with regard to Knowledge or Yoga; na vidhiyate, does not become established, i.e. does not arise; samadhau, in the minds -- the word samadhi being derived in the sese of that into which everthing is gathered together for the enjoyment of a person --; bhoga-aisvarya-prasaktanam, of those who delight in enjoyment and wealth, of those who have the hankering that only enjoyment as also wealth is to be sought for, of those who identify themselves with these; and apahrta-cetasam, of those whose intellects are carried away, whose discriminating judgement becomes covered; taya, by that speech which is full of various special rites.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त हैं अर्थात् भोग और ऐश्वर्य ही पुरषार्थ है ऐसे मानकर उनमें ही जिनका प्रेम हो गया है इस प्रकार जो तद्रूप हो रहे हैं, तथा क्रियाभेदोंको विस्तारपूर्वक बतलानेवाली उस उपर्युक्त वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है अर्थात् ( जिनकी ) विवेक-बुद्धि आच्छादित हो रही है; उनकी समाधिमें सांख्यविषयक या योगविषयक निश्चयात्मिका बुद्धि ( नहीं ठहरती )। 'पुरुषके भोगके लिये जिसमें सब कुछ स्थापित किया जाता है, उसका नाम समाधि है।' इस व्युत्पत्तिके अनुसार समाधि अन्तःकरणका नाम है, उसमें बुद्धि नहीं ठहरती अर्थात् उत्पन्न ही नहीं होती ।।2.44।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
तेषां भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया वाचा भोगैश्वर्यविषयया अपहृतात्मज्ञानानां यथोदिता व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ मनसि न विधीयते, न उत्पद्यते। समाधीयते अस्मिन् आत्मज्ञानम् इति समाधिः मनः। तेषां मनसि आत्मयाथात्म्यनिश्चयज्ञानपूर्वकमोक्षसाधनभूतकर्मविषया बुद्धिः कदाचिद् अपि न उत्पद्यते इत्यर्थः। अतः काम्येषु कर्मसु मुमुक्षुणा न सङ्गः कर्तव्यः।एवम् अत्यन्ताल्पफलानि पुनर्जन्मप्रसवानि कर्माणि मातापितृसहस्रेभ्यः अपि वत्सलतरतया आत्मोपजीवने प्रवृत्ता वेदाः किमर्थं वदन्ति कथं वा वेदोदितानि त्याज्यतया उच्यन्ते इति अत्र आह -- ।।2.44।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.42 - 2.44 The ignorant, whose knowledge is little, and who have as their sole aim the attainment of enjoyment and power, speak the flowery language i.e., having its flowers (show) only as fruits, which look apparently beautiful at first sight. They rejoice in the letter of the Vedas i.e., they are attached to heaven and such other results (promised in the Karma-kanda of the Vedas). They say that there is nothing else, owing to their intense attachment to these results. They say that there is no fruit superior to heaven etc. They are full of worldly desires and their minds are highly attached to secular desires. They hanker for heaven, i.e. think of the enjoyment of the felicities of heaven, after which one can again have rebirth which offers again the opportunity to perform varied rites devoid of true knowledge and leads towards the attainment of enjoyments and power once again.With regard to those who cling to pleasure and power and whose understanding is contaminated by that flowery speech relating to pleasure and lordly powers, the aforesaid mental disposition characterised by resolution, will not arise in their Samadhi. Samadhi here means the mind. The knowledge of the self will not arise in such minds. In the minds of these persons, there cannot arise the mental disposition that looks on all Vedic rituals as means for liberation based on the determined conviction about the real form of the self. Hence, in an aspirant for liberation, there should be no attachment to rituals out of the conviction that they are meant for the acquisition of objects of desire only.It may be questioned why the Vedas, which have more of love for Jivas than thousands of parents, and which are endeavouring to save the Jivas, should prescribe in this way rites whose fruits are infinitesimal and which produce only new births. It can also be asked if it is proper to abandon what is given in the Vedas. Sri Krsna replies to these questions.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
तथाभूतानां तेषां तया वाचाऽपहृतचेतसां काम्यकर्मपराणां व्यवसायात्मिकैका बुद्धिः समाधिविषयिणी न विधीयते। विशेषेण न स्थाप्यते इति वा। तेषां समाधौ हृदीति ।।2.44।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अव्यवसायिनामपि व्यवसायात्मिका बुद्धिः कुतो न भवति प्रमाणस्य तुल्यत्वादित्याशङ्क्य प्रतिबन्धकसद्भावान्न भवतीत्याह त्रिभिः -- यामिमां वाचं प्रवदन्ति तया वाचापहृतचेतसामविपश्चितां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीत्यन्वयः। इमामध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धां पुष्पितां पुष्पितपलाशवदापातरमणीयांसाध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्निरतिशयफलाभावाच्च। कुतो निरतिशयफलत्वाभावस्तत्राह -- जन्मकर्मफलप्रदां जन्म चापूर्वशरीरेन्द्रियादिसंबन्धलक्षणं, तदधीनं च कर्म तत्तद्वर्णाश्रमाभिमाननिमित्तं, तदधीनं च फलं पुत्रपशुस्वर्गादिलक्षणं विनश्वरं, तानि प्रकर्षेण घटीयन्त्रवदविच्छेदेन ददातीति तथा ताम्। कुतएवमत आह -- भोगैश्वर्यगतिं प्रति क्रियाविशेषबहुलां अमृतपानोर्वशीविहारपारिजातपरिमलादिनिबन्धनो यो भोगस्तत्कारणं च यदैश्वर्यं देवादिस्वामित्वं तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादयस्तैर्बहुलां विस्तृताम्। अतिबाहुल्येन भोगैश्वर्यसाधनक्रियाकलापप्रतिपादिकामिति यावत्। कर्मकाण्डस्य हि ज्ञानकाण्डापेक्षया सर्वत्रातिविस्तृतत्वं प्रसिद्धम्। एतादृशीं कर्मकाण्डलक्षणां वाचं प्रवदन्ति प्रकृष्टां परमार्थस्वर्गादिफलामभ्युपगच्छन्ति। के। येऽविपश्चितो विचारजन्यतात्पर्यपरिज्ञानशून्याः। अतएव वेदवादरताः वेदे ये सन्ति वादा अर्थवादाः'अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति' इत्येवमादयस्तेष्वेव रता वेदार्थसत्यत्वेनैवमेवैतदिति मिथ्याविश्वासेन संतुष्टाः। हे पार्थ, अतएव नान्यदस्तीतिवादिनः कर्मकाण्डापेक्षया नास्त्यन्यज्ज्ञानकाण्डं, सर्वस्यापि वेदस्य कार्यपरत्वात्, कर्मफलापेक्षया च नास्त्यन्यन्निरतिशयं ज्ञानफलमिति वदनशीलाः। महता प्रबन्धेन ज्ञानकाण्डविरुद्धार्थभाषिण इत्यर्थः। कुतो मोक्षद्वेषिणस्ते। यतः कामात्मानः काम्यमानविषयशताकुलचित्तत्वेन काममयाः। एवंसति मोक्षमपि कुतो न कामयन्ते। यतः स्वर्गपराः स्वर्ग एवोर्वश्याद्युपेतत्वेन पर उत्कृष्टो येषां ते तथा। स्वर्गातिरिक्तः पुरुषार्थो नास्तीति भ्राम्यन्तो विवेकवैराग्याभावान्मोक्षकथामपि सोढुमक्षमा इति यावत्। तेषां च पूर्वोक्तभोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानां क्षयित्वादिदोषादर्शनेन निविष्टान्तःकरणानां तया क्रियाविशेषबहुलया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो विवेकज्ञानं येषां तथाभूतानामर्थवादाः स्तुत्यर्थास्तात्पर्यविषये प्रमाणान्तराबाधिते वेदस्य प्रामाण्यमिति सुप्रसिद्धमपि ज्ञातुमशक्तानां समाधावन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। न भवतीत्यर्थः। समाधिविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषां न भवतीति वा। अधिकरणे विषये वा सप्तम्यास्तुल्यत्वात्। विधीयत इति कर्मकर्तरि लकारः। समाधीयतेऽस्मिन्सर्वमिति व्युत्पत्त्या समाधिरन्तःकरणं वा परमात्मा वेति नाप्रसिद्धार्थकल्पनम्। अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तं व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नोत्पद्यत इति व्याख्याने तु रूढिरेवादृता। अयंभावः-यद्यति काम्यान्यग्निहोत्रादीनि शुद्ध्यर्थेभ्यो न विशिष्यन्ते तथापि फलाभिसंधिदोषान्नाशयशुद्धिं संपादयन्ति। भोगानुगुणा तु शुद्धिर्न ज्ञानोपयोगिनी। एतदेव दर्शयितुं भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति पुनरुपात्तम्। फलाभिसन्धिभन्तरेण तु कृतानि कर्माणि ज्ञानोपयोगिनीं शुद्धिमादधतीति सिद्धं विपश्चिदविपश्चितोः फलवैलक्षण्यम्। विस्तरेण चैतदग्रे प्रतिपादयिष्यते ।।2.42 -- 2.44।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तेषां सम्यण्युक्तिनिर्णयात्मिका बुद्धिः समाधौ समाध्यर्थे न विधीयते। सम्यङ्निर्णीतार्थानामीश्वरे मनस्समाधानं सम्यग्भवति। तद्धि मोक्षसाधनम्। उक्तं चैतदन्यत्र -- 'न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्वरीयसीरपि वाचः समासन्। स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात्' भाग.5।11।3 ।।2.44।।

BhagvatGita-02-43


मूल स्लोकः

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।2.43।।




English translation by Swami Sivananda
2.43 Full of desires, having heaven as their goal, (they utter speech which is directed to ends) leading to new births as the result of their works, and prescribe various methods abounding in specific actions, for the attainment of pleasure and power.


English commentary by Swami Sivananda
2.43 कामात्मानः full of desires, स्वर्गपराः with heaven as their highest goal, जन्मकर्मफलप्रदाम् leading to (new) births as the result of their works, क्रियाविशेषबहुलाम् exuberant with various specifi actions, भोगैश्वर्यगतिम् प्रति for the attainment of pleasure and lordship.No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे पृथानन्दन! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं, भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं - ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है ।।2.42 - 2.43।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कामात्मानः -- वे कामनाओंमें इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपनेमें और कामनामें भिन्नता ही नहीं दीखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामनाके बिना आदमी जी नहीं सकता, कामनाके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता, कामनाके बिना आदमी पत्थरकी जड हो जाता है, उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाववाले पुरुष कामात्मानः हैं।स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्माका अंश है और कामना संसारके अंशको लेकर है। अतः स्वयं और कामना -- ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं। परन्तु कामनामें रचे-पचे लोगोंको अपने स्वरूपका अलग भान ही नहीं होता।स्वर्गपराः -- स्वर्गमें बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं, इसलिये उनके लक्ष्यमें स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्तिमें ही रात-दिन लगे रहते हैं।यहाँ स्वर्गपराः पदसे उन मनुष्योंकी बात कही गयी है, जो वेदोंमें, शास्त्रोंमें वर्णित स्वर्गादि लोकोंमें आस्था रखनेवाले हैं।वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः -- वे वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं अर्थात् वेदोंका तात्पर्य वे केवल भोगोंमें और स्वर्गकी प्राप्तिमें मानते हैं, इसलिये वे वेदवादरताः हैं। उनकी मान्यतामें यहाँके और स्वर्गके भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टिमें भोगोंके सिवाय परमात्मा, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अतः वे भोगोंमें ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है।यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः -- जिनमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशीका विवेक नहीं है, ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदोंकी जिस वाणीमें संसार और भोगोंका वर्णन है, उस पुष्पित वाणीको कहा करते हैं।यहाँ पुष्पिताम् कहनेका तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है, फल नहीं है। तृप्ति फलसे ही होती है, फूल-पत्तीकी शोभासे नहीं। वह वाणी स्थायी फल देनेवाली नहीं है। उस वाणीका जो फल -- स्वर्गादिका भोग है, वह केवल देखनेमें ही सुन्दर दीखता है, उसमें स्थायीपना नहीं है।जन्मकर्मफलप्रदाम् -- वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है; क्योंकि उसमें सांसारिक भोगोंको ही महत्व दिया गया है। उन भोगोंका राग ही आगे जन्म होनेमें कारण है (गीता 13। 21)।क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति -- वह पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये जिन सकाम अनुष्ठानोंका वर्णन करती है, उनमें क्रियाओंकी बहुलता रहती है अर्थात् उन अनुष्ठानोंमें अनेक तरहकी विधियाँ होती हैं, अनेक तरहकी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, अनेक तरहके पदार्थोंकी जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदिमें परिश्रम भी अधिक होता है (गीता 18। 24) ।।2.43।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- कामात्मानः कामस्वभावाः, कामपरा इत्यर्थः। स्वर्गपराः स्वर्गः परः पुरुषार्थः येषां ते स्वर्गपराः स्वर्गप्रधानाः। जन्मकर्मफलप्रदां कर्मणः फलं कर्मफलं जन्मैव कर्मफलं जन्मकर्मफलं तत् प्रददातीति जन्मकर्मफलप्रदा, तां वाचम्। प्रवदन्ति इत्यनुषज्यते। क्रियाविशेषबहुलां क्रियाणां विशेषाः क्रियाविशेषाः ते बहुला यस्यां वाचि तां स्वर्गपशुपुत्राद्यर्थाः यया वाचा बाहुल्येन प्रकाश्यन्ते। भोगैश्वर्यगतिं प्रति भोगश्च ऐश्वर्यं च भोगैश्वर्ये, तयोर्गतिः प्राप्तिः भोगैश्वर्यगतिः, तां प्रति साधनभूताः ये क्रियाविशेषाः तद्बहुलां तां वाचं प्रवदन्तः मूढाः संसारे परिवर्तन्ते इत्यभिप्रायः।।तेषां च -- ।।2.43।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.43 Partha, O son of Prtha; those devoid of one-pointed conviction, who pravadanti, utter; imam, this; yam puspitam vacam, flowery talk, which is going to be stated, which is beautiful like a tree in bloom, pleasant to hear, and appears to be (meaningful) sentences Sentences that can be called really meaningful are only those that reveal the self.-Tr.; -- who are they? they are -- avipascitah, people who are undiscerning, of poor intellect, i.e. non-discriminating; veda-vada-ratah, who remain engrossed in the utterances of the Vedas, in the Vedic sentences which reveal many panegyrics, fruits of action and their means; and vadinah, who declare, are apt tosay; iti, that; na anyat, nothing else God, Liberation, etc.; asti, exists, apart from the rites and duties conducive to such results as attainment of heaven etc.And they are kamatmanah, have their minds full of desires, i.e. they are swayed by desires, they are, by nature, full of desires; (and) svarga-parah, have heaven as the goal. Those who accept heaven (svarga) as the supreme (para) human goal, to whom heaven is the highest, are svarga-parah. They utter that speech (-- this is supplied to construct the sentence --) which janma-karma-phala-pradam, promises birth as a result of rites and duties. The result (phala) of rites and duties (karma) is karma-phala. Birth (janma) itself is the karma-phala. That (speech) which promises this is janma-karma-phala-prada. (This speech) is kriya-visesa-bahulam, full of various special rites; bhoga-aisvarya-gatim-prati, for the attainment of enjoyment and affluence. Special (visesa) rites (kriya) are kriya-visesah. The speech that is full (bahula) of these, the speech by which that is full (bahula) of these, the speech by which these, viz objects such as heaven, animals and sons, are revealed plentifully, is kriya-visesa-bahula. Bhoga, enjoyment, and aisvarya, affluence, are bhoga-aisvarya. Their attainment (gatih) is bhoga-aisvarya-gatih. (They utter a speech) that is full of the specialized rites, prati, meant for that (attainment). The fools who utter that speech move in the cycle of transmigration. This is the idea.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तथा वे -- कामात्मा-जिन्होंने भोग-कामनाको ही अपना स्वभाव बना लिया है ऐसे भोगपरायण और स्वर्गको प्रधान माननेवाले यानी स्वर्ग ही जिनका परम पुरुषार्थ है ऐसे पुरुष जन्मरूप कर्मफलको देनेवाली ही बातें किया करते हैं। कर्मके फलका नाम 'कर्म-फल' है, जन्मरूप कर्म-फल 'जन्म-कर्मफल' कहलाता है, उसको देनेवाली वाणी 'जन्म-कर्म-फल-प्रदा' कही जाती है। ऐसी वाणी कहा करते हैं। इस प्रकार भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये जो क्रियाओंके भेद हैं वे जिस वाणीमें बहुत हों अर्थात् स्वर्ग, पशु, पुत्र आदि अनेक पदार्थ जिस वाणीद्वारा अधिकतासे बतलाये जाते हों, ऐसी बहुत-से क्रियाभेदोंको बतलानेवाली वाणीको बोलनेवाले वे मूढ़ बारंबार संसार-चक्रमें भ्रमण करते हैं, यह अभिप्राय है ।।2.43।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
याम् इमां पुष्पितां पुष्पमात्रफलाम् आपातरमणीयां वाचम् अविपश्चितः अल्पज्ञा भोगैश्वर्यगतिं प्रति वर्तमानां प्रवदन्ति, वेदवादरताः वेदेषु ये स्वर्गादिफलवादाः तेषु सक्ताः न अन्यद् अस्ति इति वादिनः तत्सङ्गातिरेकेण स्वर्गा देः अधिकं फलं न अन्यद् अस्ति इति वदन्तः। कामात्मानः कामप्रवणमनसः स्वर्गपराः स्वर्गपरायणाः स्वर्गादिफलावसाने पुनर्जन्मकर्माख्यफलप्रदां क्रियाविशेषबहुलां तत्त्वज्ञानरहिततया क्रियाविशेषप्रचुरां तेषां भोगैश्वर्यगतिं प्रति वर्तमानां याम् इमां वाचं ये प्रवदन्ति इति सम्बन्धः ।।2.43।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.42 - 2.44 The ignorant, whose knowledge is little, and who have as their sole aim the attainment of enjoyment and power, speak the flowery language i.e., having its flowers (show) only as fruits, which look apparently beautiful at first sight. They rejoice in the letter of the Vedas i.e., they are attached to heaven and such other results (promised in the Karma-kanda of the Vedas). They say that there is nothing else, owing to their intense attachment to these results. They say that there is no fruit superior to heaven etc. They are full of worldly desires and their minds are highly attached to secular desires. They hanker for heaven, i.e. think of the enjoyment of the felicities of heaven, after which one can again have rebirth which offers again the opportunity to perform varied rites devoid of true knowledge and leads towards the attainment of enjoyments and power once again.With regard to those who cling to pleasure and power and whose understanding is contaminated by that flowery speech relating to pleasure and lordly powers, the aforesaid mental disposition characterised by resolution, will not arise in their Samadhi. Samadhi here means the mind. The knowledge of the self will not arise in such minds. In the minds of these persons, there cannot arise the mental disposition that looks on all Vedic rituals as means for liberation based on the determined conviction about the real form of the self. Hence, in an aspirant for liberation, there should be no attachment to rituals out of the conviction that they are meant for the acquisition of objects of desire only.It may be questioned why the Vedas, which have more of love for Jivas than thousands of parents, and which are endeavouring to save the Jivas, should prescribe in this way rites whose fruits are infinitesimal and which produce only new births. It can also be asked if it is proper to abandon what is given in the Vedas. Sri Krsna replies to these questions.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
किम्भूतास्तेऽविपश्चितः? वेदवादतात्पर्यानभिज्ञाः। भोगैश्वर्यगतिं प्रति कामात्मानः, कामयते आत्मा येषाम्। तथा स्वर्गलोक एव परः प्राप्यं फलं येषाम्। किम्भूतां वाचम्? जन्मकर्मफलप्रदाम्। गतिविशेषणं वा। क्रियाविशेषबहुलां वाचं जन्मकर्मफलप्रदां वा प्रवदन्तीत्यन्वयः ।।2.43।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अव्यवसायिनामपि व्यवसायात्मिका बुद्धिः कुतो न भवति प्रमाणस्य तुल्यत्वादित्याशङ्क्य प्रतिबन्धकसद्भावान्न भवतीत्याह त्रिभिः -- यामिमां वाचं प्रवदन्ति तया वाचापहृतचेतसामविपश्चितां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीत्यन्वयः। इमामध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धां पुष्पितां पुष्पितपलाशवदापातरमणीयांसाध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्निरतिशयफलाभावाच्च। कुतो निरतिशयफलत्वाभावस्तत्राह -- जन्मकर्मफलप्रदां जन्म चापूर्वशरीरेन्द्रियादिसंबन्धलक्षणं, तदधीनं च कर्म तत्तद्वर्णाश्रमाभिमाननिमित्तं, तदधीनं च फलं पुत्रपशुस्वर्गादिलक्षणं विनश्वरं, तानि प्रकर्षेण घटीयन्त्रवदविच्छेदेन ददातीति तथा ताम्। कुतएवमत आह -- भोगैश्वर्यगतिं प्रति क्रियाविशेषबहुलां अमृतपानोर्वशीविहारपारिजातपरिमलादिनिबन्धनो यो भोगस्तत्कारणं च यदैश्वर्यं देवादिस्वामित्वं तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादयस्तैर्बहुलां विस्तृताम्। अतिबाहुल्येन भोगैश्वर्यसाधनक्रियाकलापप्रतिपादिकामिति यावत्। कर्मकाण्डस्य हि ज्ञानकाण्डापेक्षया सर्वत्रातिविस्तृतत्वं प्रसिद्धम्। एतादृशीं कर्मकाण्डलक्षणां वाचं प्रवदन्ति प्रकृष्टां परमार्थस्वर्गादिफलामभ्युपगच्छन्ति। के। येऽविपश्चितो विचारजन्यतात्पर्यपरिज्ञानशून्याः। अतएव वेदवादरताः वेदे ये सन्ति वादा अर्थवादाः'अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति' इत्येवमादयस्तेष्वेव रता वेदार्थसत्यत्वेनैवमेवैतदिति मिथ्याविश्वासेन संतुष्टाः। हे पार्थ, अतएव नान्यदस्तीतिवादिनः कर्मकाण्डापेक्षया नास्त्यन्यज्ज्ञानकाण्डं, सर्वस्यापि वेदस्य कार्यपरत्वात्, कर्मफलापेक्षया च नास्त्यन्यन्निरतिशयं ज्ञानफलमिति वदनशीलाः। महता प्रबन्धेन ज्ञानकाण्डविरुद्धार्थभाषिण इत्यर्थः। कुतो मोक्षद्वेषिणस्ते। यतः कामात्मानः काम्यमानविषयशताकुलचित्तत्वेन काममयाः। एवंसति मोक्षमपि कुतो न कामयन्ते। यतः स्वर्गपराः स्वर्ग एवोर्वश्याद्युपेतत्वेन पर उत्कृष्टो येषां ते तथा। स्वर्गातिरिक्तः पुरुषार्थो नास्तीति भ्राम्यन्तो विवेकवैराग्याभावान्मोक्षकथामपि सोढुमक्षमा इति यावत्। तेषां च पूर्वोक्तभोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानां क्षयित्वादिदोषादर्शनेन निविष्टान्तःकरणानां तया क्रियाविशेषबहुलया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो विवेकज्ञानं येषां तथाभूतानामर्थवादाः स्तुत्यर्थास्तात्पर्यविषये प्रमाणान्तराबाधिते वेदस्य प्रामाण्यमिति सुप्रसिद्धमपि ज्ञातुमशक्तानां समाधावन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। न भवतीत्यर्थः। समाधिविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषां न भवतीति वा। अधिकरणे विषये वा सप्तम्यास्तुल्यत्वात्। विधीयत इति कर्मकर्तरि लकारः। समाधीयतेऽस्मिन्सर्वमिति व्युत्पत्त्या समाधिरन्तःकरणं वा परमात्मा वेति नाप्रसिद्धार्थकल्पनम्। अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तं व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नोत्पद्यत इति व्याख्याने तु रूढिरेवादृता। अयंभावः-यद्यति काम्यान्यग्निहोत्रादीनि शुद्ध्यर्थेभ्यो न विशिष्यन्ते तथापि फलाभिसंधिदोषान्नाशयशुद्धिं संपादयन्ति। भोगानुगुणा तु शुद्धिर्न ज्ञानोपयोगिनी। एतदेव दर्शयितुं भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति पुनरुपात्तम्। फलाभिसन्धिभन्तरेण तु कृतानि कर्माणि ज्ञानोपयोगिनीं शुद्धिमादधतीति सिद्धं विपश्चिदविपश्चितोः फलवैलक्षण्यम्। विस्तरेण चैतदग्रे प्रतिपादयिष्यते ।।2.42 -- 2.44।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
भोगैश्वर्यमतिं तत्प्राप्तिं प्रति। तत्प्राप्तिफला एव वेदा इति वदन्तीत्यर्थः ।।2.43।।

BhagvatGita-02-42


मूल स्लोकः

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।2.42।।




English translation by Swami Sivananda
2.42 Flowery speech is uttered by the unwise, taking pleasure in the eulogising words of the Vedas, O Arjuna, saying, "There is nothing else."


English commentary by Swami Sivananda
2.42 याम which, इमाम् this, पुष्पिताम् flowery, वाचम् speech, प्रवदन्ति utter, अविपश्चितः the unwise, वेदवादरताः takign pleasure in the eulogising words of the Vedas, पार्थ O Partha, न not, अन्यत् other, अस्ति is, इति thus, वादिनः saying.Commentary: Unwise people who are lacking in discrimination lay great stress upon the Karma Kanda or the ritualistic portion of the Vedas, which lays down specific rules for specific actions for the attainment of specific fruits and ectol these actions and rewards unduly. They are highly enamoured of such Vedic passages which prescribe ways for the attainment of heavenly enjoyments. They say that there is nothing else beyond the sensual enjoyments in Svarga (heaven) which can be obtained by performing the rites of the Karma Kanda of the Vedas.There are two main divisions of the Vedas -- Karma Kanda (the section dealing with action) and Jnana Kanda (the section dealing with knowledge). The Karma Kanda comprises the Brahmanas and the Samhitas. This is the authority for the Purvamimamsa school founded by Jaimini. The followers of this school deal with rituals and prescribe many of them for attaining enjoyments and power here and happiness in heaven. They regard this as the ultimate object of human existence. Ordinary people are attracted by their panegyrics. The Jnana Kanda comprises the Aranyakas and the Upanishads which deal with the nature of Brahman or the Supreme Self.Life in heaven is also transitory. After the fruits of the good actions are exhausted, one has to come back to this earth-plane. Liberatio or Moksha can only be attained by knowledge of the Self but not by performing a thousand and one sacrifices.Lord Krishna assigns a comparatively inferior position to the doctrine of the Mimamsakas of performing Vedic sacrifices for obtaining heaven, power and lordship in this world as they cannot give us final liberation.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे पृथानन्दन! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं, भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं - ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है ।।2.42 - 2.43।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कामात्मानः -- वे कामनाओंमें इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपनेमें और कामनामें भिन्नता ही नहीं दीखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामनाके बिना आदमी जी नहीं सकता, कामनाके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता, कामनाके बिना आदमी पत्थरकी जड हो जाता है, उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाववाले पुरुष कामात्मानः हैं।स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्माका अंश है और कामना संसारके अंशको लेकर है। अतः स्वयं और कामना -- ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं। परन्तु कामनामें रचे-पचे लोगोंको अपने स्वरूपका अलग भान ही नहीं होता।स्वर्गपराः -- स्वर्गमें बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं, इसलिये उनके लक्ष्यमें स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्तिमें ही रात-दिन लगे रहते हैं।यहाँ स्वर्गपराः पदसे उन मनुष्योंकी बात कही गयी है, जो वेदोंमें, शास्त्रोंमें वर्णित स्वर्गादि लोकोंमें आस्था रखनेवाले हैं।वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः -- वे वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं अर्थात् वेदोंका तात्पर्य वे केवल भोगोंमें और स्वर्गकी प्राप्तिमें मानते हैं, इसलिये वे वेदवादरताः हैं। उनकी मान्यतामें यहाँके और स्वर्गके भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टिमें भोगोंके सिवाय परमात्मा, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अतः वे भोगोंमें ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है।यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः -- जिनमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशीका विवेक नहीं है, ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदोंकी जिस वाणीमें संसार और भोगोंका वर्णन है, उस पुष्पित वाणीको कहा करते हैं।यहाँ पुष्पिताम् कहनेका तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है, फल नहीं है। तृप्ति फलसे ही होती है, फूल-पत्तीकी शोभासे नहीं। वह वाणी स्थायी फल देनेवाली नहीं है। उस वाणीका जो फल -- स्वर्गादिका भोग है, वह केवल देखनेमें ही सुन्दर दीखता है, उसमें स्थायीपना नहीं है।जन्मकर्मफलप्रदाम् -- वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है; क्योंकि उसमें सांसारिक भोगोंको ही महत्व दिया गया है। उन भोगोंका राग ही आगे जन्म होनेमें कारण है (गीता 13। 21)।क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति -- वह पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये जिन सकाम अनुष्ठानोंका वर्णन करती है, उनमें क्रियाओंकी बहुलता रहती है अर्थात् उन अनुष्ठानोंमें अनेक तरहकी विधियाँ होती हैं, अनेक तरहकी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, अनेक तरहके पदार्थोंकी जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदिमें परिश्रम भी अधिक होता है (गीता 18। 24) ।।2.42।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- याम् इमां वक्ष्यमाणां पुष्पितां पुष्पित इव वृक्षः शोभमानां श्रूयमाणरमणीयां वाचं वाक्यलक्षणां प्रवदन्ति। के? अविपश्चितः अमेधसः अविवेकिन इत्यर्थः। वेदवादरताः बह्वर्थवादफलसाधनप्रकाशकेषु वेदवाक्येषु रताः हे पार्थ, न अन्यत् स्वर्गपश्वादिफलसाधनेभ्यः कर्मभ्यः अस्ति इति एवं वादिनः वदनशीलाः।।ते च -- ।।2.42।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.42 Partha, O son of Prtha; those devoid of one-pointed conviction, who pravadanti, utter; imam, this; yam puspitam vacam, flowery talk, which is going to be stated, which is beautiful like a tree in bloom, pleasant to hear, and appears to be (meaningful) sentences Sentences that can be called really meaningful are only those that reveal the self.-Tr.; -- who are they? they are -- avipascitah, people who are undiscerning, of poor intellect, i.e. non-discriminating; veda-vada-ratah, who remain engrossed in the utterances of the Vedas, in the Vedic sentences which reveal many panegyrics, fruits of action and their means; and vadinah, who declare, are apt tosay; iti, that; na anyat, nothing else God, Liberation, etc.; asti, exists, apart from the rites and duties conducive to such results as attainment of heaven etc.And they are kamatmanah, have their minds full of desires, i.e. they are swayed by desires, they are, by nature, full of desires; (and) svarga-parah, have heaven as the goal. Those who accept heaven (svarga) as the supreme (para) human goal, to whom heaven is the highest, are svarga-parah. They utter that speech (-- this is supplied to construct the sentence --) which janma-karma-phala-pradam, promises birth as a result of rites and duties. The result (phala) of rites and duties (karma) is karma-phala. Birth (janma) itself is the karma-phala. That (speech) which promises this is janma-karma-phala-prada. (This speech) is kriya-visesa-bahulam, full of various special rites; bhoga-aisvarya-gatim-prati, for the attainment of enjoyment and affluence. Special (visesa) rites (kriya) are kriya-visesah. The speech that is full (bahula) of these, the speech by which that is full (bahula) of these, the speech by which these, viz objects such as heaven, animals and sons, are revealed plentifully, is kriya-visesa-bahula. Bhoga, enjoyment, and aisvarya, affluence, are bhoga-aisvarya. Their attainment (gatih) is bhoga-aisvarya-gatih. (They utter a speech) that is full of the specialized rites, prati, meant for that (attainment). The fools who utter that speech move in the cycle of transmigration. This is the idea.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जिनमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं है वे -- इस आगे कही जानेवाली, पुष्पित वृक्षों-जैसी शोभित -- सुननेमें ही रमणीय जिस वाणीको कहा करते हैँ। कौन कहा करते हैं? अज्ञानी अर्थात् अल्प-बुद्धिवाले अविवेकी, जो कि बहुत अर्थवाद और फलसाधनोंको प्रकाश करनेवाले वेदवाक्योंमें रत हैं। तथा हे पार्थ ! जो ऐसे भी कहनेवाले हैं कि स्वर्ग-प्राप्ति आदि फलके साधनरूप कर्मोंसे अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं ।।2.42।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
याम् इमां पुष्पितां पुष्पमात्रफलाम् आपातरमणीयां वाचम् अविपश्चितः अल्पज्ञा भोगैश्वर्यगतिं प्रति वर्तमानां प्रवदन्ति, वेदवादरताः वेदेषु ये स्वर्गादिफलवादाः तेषु सक्ताः न अन्यद् अस्ति इति वादिनः तत्सङ्गातिरेकेण स्वर्गा देः अधिकं फलं न अन्यद् अस्ति इति वदन्तः। कामात्मानः कामप्रवणमनसः स्वर्गपराः स्वर्गपरायणाः स्वर्गादिफलावसाने पुनर्जन्मकर्माख्यफलप्रदां क्रियाविशेषबहुलां तत्त्वज्ञानरहिततया क्रियाविशेषप्रचुरां तेषां भोगैश्वर्यगतिं प्रति वर्तमानां याम् इमां वाचं ये प्रवदन्ति इति सम्बन्धः ।।2.42।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.42 - 2.44 The ignorant, whose knowledge is little, and who have as their sole aim the attainment of enjoyment and power, speak the flowery language i.e., having its flowers (show) only as fruits, which look apparently beautiful at first sight. They rejoice in the letter of the Vedas i.e., they are attached to heaven and such other results (promised in the Karma-kanda of the Vedas). They say that there is nothing else, owing to their intense attachment to these results. They say that there is no fruit superior to heaven etc. They are full of worldly desires and their minds are highly attached to secular desires. They hanker for heaven, i.e. think of the enjoyment of the felicities of heaven, after which one can again have rebirth which offers again the opportunity to perform varied rites devoid of true knowledge and leads towards the attainment of enjoyments and power once again.With regard to those who cling to pleasure and power and whose understanding is contaminated by that flowery speech relating to pleasure and lordly powers, the aforesaid mental disposition characterised by resolution, will not arise in their Samadhi. Samadhi here means the mind. The knowledge of the self will not arise in such minds. In the minds of these persons, there cannot arise the mental disposition that looks on all Vedic rituals as means for liberation based on the determined conviction about the real form of the self. Hence, in an aspirant for liberation, there should be no attachment to rituals out of the conviction that they are meant for the acquisition of objects of desire only.It may be questioned why the Vedas, which have more of love for Jivas than thousands of parents, and which are endeavouring to save the Jivas, should prescribe in this way rites whose fruits are infinitesimal and which produce only new births. It can also be asked if it is proper to abandon what is given in the Vedas. Sri Krsna replies to these questions.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अव्यवसायिनां बुद्धिभेदं निरूपयति -- यामिमामिति। जैमिनीया वेदवाचं सर्वकाण्डरूपां सर्वां पुष्पितां प्रकर्षेण कर्तृकर्मफलभावेन युक्तां वदन्ति। पुष्पस्थानीयेषु स्वर्गादिषु फलत्वबुद्ध्या रता भवन्तीत्यर्थः। यतो वेदवादेषु फलबोधककर्मवादेषु रताः। न च तत्सत्फलं वेदबोधितत्वादिति वाच्यम्, अर्थान्तरेण वेदबोधितत्वात् तत्फलस्य'यन्न दुःखेन सम्भिन्नं' इत्यादिवाक्यात्. तथा चेयं वाक् पुष्पिता न फलिता। तेषु परं गन्धलोभितचेतस एव ते भ्रान्ता भवन्तीति हृदयम् ।।2.42।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अव्यवसायिनामपि व्यवसायात्मिका बुद्धिः कुतो न भवति प्रमाणस्य तुल्यत्वादित्याशङ्क्य प्रतिबन्धकसद्भावान्न भवतीत्याह त्रिभिः -- यामिमां वाचं प्रवदन्ति तया वाचापहृतचेतसामविपश्चितां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीत्यन्वयः। इमामध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धां पुष्पितां पुष्पितपलाशवदापातरमणीयांसाध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्निरतिशयफलाभावाच्च। कुतो निरतिशयफलत्वाभावस्तत्राह -- जन्मकर्मफलप्रदां जन्म चापूर्वशरीरेन्द्रियादिसंबन्धलक्षणं, तदधीनं च कर्म तत्तद्वर्णाश्रमाभिमाननिमित्तं, तदधीनं च फलं पुत्रपशुस्वर्गादिलक्षणं विनश्वरं, तानि प्रकर्षेण घटीयन्त्रवदविच्छेदेन ददातीति तथा ताम्। कुतएवमत आह -- भोगैश्वर्यगतिं प्रति क्रियाविशेषबहुलां अमृतपानोर्वशीविहारपारिजातपरिमलादिनिबन्धनो यो भोगस्तत्कारणं च यदैश्वर्यं देवादिस्वामित्वं तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादयस्तैर्बहुलां विस्तृताम्। अतिबाहुल्येन भोगैश्वर्यसाधनक्रियाकलापप्रतिपादिकामिति यावत्। कर्मकाण्डस्य हि ज्ञानकाण्डापेक्षया सर्वत्रातिविस्तृतत्वं प्रसिद्धम्। एतादृशीं कर्मकाण्डलक्षणां वाचं प्रवदन्ति प्रकृष्टां परमार्थस्वर्गादिफलामभ्युपगच्छन्ति। के। येऽविपश्चितो विचारजन्यतात्पर्यपरिज्ञानशून्याः। अतएव वेदवादरताः वेदे ये सन्ति वादा अर्थवादाः'अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति' इत्येवमादयस्तेष्वेव रता वेदार्थसत्यत्वेनैवमेवैतदिति मिथ्याविश्वासेन संतुष्टाः। हे पार्थ, अतएव नान्यदस्तीतिवादिनः कर्मकाण्डापेक्षया नास्त्यन्यज्ज्ञानकाण्डं, सर्वस्यापि वेदस्य कार्यपरत्वात्, कर्मफलापेक्षया च नास्त्यन्यन्निरतिशयं ज्ञानफलमिति वदनशीलाः। महता प्रबन्धेन ज्ञानकाण्डविरुद्धार्थभाषिण इत्यर्थः। कुतो मोक्षद्वेषिणस्ते। यतः कामात्मानः काम्यमानविषयशताकुलचित्तत्वेन काममयाः। एवंसति मोक्षमपि कुतो न कामयन्ते। यतः स्वर्गपराः स्वर्ग एवोर्वश्याद्युपेतत्वेन पर उत्कृष्टो येषां ते तथा। स्वर्गातिरिक्तः पुरुषार्थो नास्तीति भ्राम्यन्तो विवेकवैराग्याभावान्मोक्षकथामपि सोढुमक्षमा इति यावत्। तेषां च पूर्वोक्तभोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानां क्षयित्वादिदोषादर्शनेन निविष्टान्तःकरणानां तया क्रियाविशेषबहुलया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो विवेकज्ञानं येषां तथाभूतानामर्थवादाः स्तुत्यर्थास्तात्पर्यविषये प्रमाणान्तराबाधिते वेदस्य प्रामाण्यमिति सुप्रसिद्धमपि ज्ञातुमशक्तानां समाधावन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। न भवतीत्यर्थः। समाधिविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषां न भवतीति वा। अधिकरणे विषये वा सप्तम्यास्तुल्यत्वात्। विधीयत इति कर्मकर्तरि लकारः। समाधीयतेऽस्मिन्सर्वमिति व्युत्पत्त्या समाधिरन्तःकरणं वा परमात्मा वेति नाप्रसिद्धार्थकल्पनम्। अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तं व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नोत्पद्यत इति व्याख्याने तु रूढिरेवादृता। अयंभावः-यद्यति काम्यान्यग्निहोत्रादीनि शुद्ध्यर्थेभ्यो न विशिष्यन्ते तथापि फलाभिसंधिदोषान्नाशयशुद्धिं संपादयन्ति। भोगानुगुणा तु शुद्धिर्न ज्ञानोपयोगिनी। एतदेव दर्शयितुं भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति पुनरुपात्तम्। फलाभिसन्धिभन्तरेण तु कृतानि कर्माणि ज्ञानोपयोगिनीं शुद्धिमादधतीति सिद्धं विपश्चिदविपश्चितोः फलवैलक्षण्यम्। विस्तरेण चैतदग्रे प्रतिपादयिष्यते ।।2.42 -- 2.44।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
स्युरवैदिकानि मतानि अव्यवसायात्मकानि; न तु वैदिकानि। तेऽपि हि केचित्कर्माणि स्वर्गादिफलान्येवाहुरित्यत आह -- 'यामिमामिति'। यामाहुस्तयेत्यन्वयः। मोक्षफलमपेक्ष्य स्वर्गादिपुष्पयुक्तां वाचं प्रवदन्ति। वेदवादरताः कर्मादिवाचकवेदवादरताः। वेदैर्यन्मुखत उच्यते तत्रैव रताः। नान्यदस्तीतिवादिनः'परोक्षविषया वेदाः' "परोक्षप्रिया इव हि देवाः" ऐ.उ.1।14बृ.उ.4।2।2'मां विधत्तेऽभिधत्ते माम्' भाग.11।21।43 इत्यादिभिः पारोक्ष्येण प्रायो भगवन्तं वदन्ति ।।2.42।।