रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-61


मूल स्लोकः

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।




English translation by Swami Sivananda
2.61 Having restrained them all he should sit steadfast, intent on Me; his wisdom is steady whose senses are under control.


English commentary by Swami Sivananda
2.61 तानि them, सर्वाणि all, संयम्य having restrained, युक्तः joined, आसीत should sit, मत्परः intent on Me, वशे under control, हि indeed, यस्य whose, इन्द्रियाणि senses, तस्य his, प्रज्ञा wisdom, प्रतिष्ठिता is settled.Commentary: He should control the senses and sit focussed on Me as the Supreme, with a calm mind. The wisdom of the Yogi who thus seated has brought all his senses under subjugation is doubtless quite steady. He is established in the Self. Sri Sankaracharya explains Asita Matparah as "He should sit contemplating: 'I am no other than He'." (Cf.II.64).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है ।।2.61।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः -- जो बलपूर्वक मनका हरण करनेवाली इन्द्रियाँ हैं, उन सबको वशमें करके अर्थात् सजगतापूर्वक उनको कभी भी विषयोंमें विचलित न होने देकर स्वयं मेरे परायण हो जाय। तात्पर्य यह हुआ कि जब साधक इन्द्रियोंको वशमें करता है, तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है। यह अभिमान साधकको उन्नत नहीं होने देता और उसे भगवान्से विमुख करा देता है। अतः साधक इन्द्रियोंका संयमन करनेमें कभी अपने बलका अभिमान न करे उसमें अपने उद्योगको कारण न माने, प्रत्युत केवल भगवत्कृपाको ही कारण माने कि मेरेको इन्द्रियोंके संयमनमें जो सफलता मिली है, वह केवल भगवान्की कृपासे ही मिली है। इस प्रकार केवल भगवान्के परायण होनेसे उसका साधन सिद्ध हो जाता है।यहाँ मत्परः कहनेका मतलब है कि मानवशरीरका मिलना, साधनमें रुचि होना, साधनमें लगना, साधनका सिद्ध होना -- ये सभी भगवान्की कृपापर ही निर्भर हैं। परन्तु अभिमानके कारण मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है। कर्मयोगीयोंमें तो कर्म करनेकी ही प्रधानता रहती है और उसमें वह अपना ही पुरुषार्थ मानता रहता है। अतः भगवान् विशेष कृपा करके कर्मयोगी साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कह रहे हैं।भगवान्के परायण होनेका तात्पर्य है -- केवल भगवान्में ही महत्त्वबुद्धि हो कि भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का हूँ; संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ। कारण कि भगवान् ही हरदम मेरे साथ रहते हैं; संसार मेरे साथ रहता ही नहीं। इस प्रकार साधकका ' मैं-पन ' केवल भगवान्में ही लगा रहे।कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ भगवान्को कर्मयोगके अनुसार उपाय बताना चाहिये था। परन्तु गीताका अध्ययन करनेसे ऐसा मालूम देता है कि साधनकी सफलतामें केवल भगवत्परायणता ही कारण है। अतः गीतामें भगवत्परायणताकी बहुत महिमा गायी गयी है; जैसे -- जितने भी योगी हैं, उन सब योगियोंमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मेरे परायण होकर मेरा भजन करनेवाला श्रेष्ठ है (6। 47 ) आदि-आदि।वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता -- पहले उनसठवें श्लोकमें भगवान्ने यह कहा कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी स्थितप्रज्ञता नहीं होती और इस श्लोकमें कहते हैं कि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, वह स्थितप्रज्ञ है। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (2। 59 में) इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि पड़ी है; अतः इन्द्रियाँ वशमें नहीं है। परन्तु यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और उसकी रसबुद्धि निवृत्त हो गयी है। इसलिये यह नियम नहीं है कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह स्थितप्रज्ञ हो ही जायगा; क्योंकि उसमें रसबुद्धि रह सकती है। परन्तु यह नियम है, स्थितप्रज्ञ होनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो ही जायँगी।सम्बन्ध -- भगवान्के परायण होनेसे तो इन्द्रियाँ वशमें होकर रसबुद्धि निवृत्त हो ही जायगी, पर भगवान्के परायण न होनेसे क्या होता है -- इसपर आगेके दो श्लोक कहते हैं ।।2.61।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- तानि सर्वाणि संयम्य संयमनं वशीकरणं कृत्वा युक्तः समाहितः सन् आसीत मत्परः अहं वासुदेवः सर्वप्रत्यगात्मा परो यस्य सः मत्परः, 'न अन्योऽहं तस्मात्' इति आसीत इत्यर्थः। एवमासीनस्य यतेः वशे हि यस्य इन्द्रियाणि वर्तन्ते अभ्यासबलात् तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।अथेदानीं पराभविष्यतः सर्वानर्थमूलमिदमुच्यते -- ।।2.61।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.61 Samyamya, controlling, having subdued; sarvani, all; tani, of them; asita, one should remain; yuktah, concentrated; mat-parah, on Me as the supreme -- he to whom I, Vasudeva, the inmost Self of all, am the supreme (parah) is mat-parah. The idea is, he should remain (concentrated) thinking, 'I am not different from Him.'Hi, for; the prajna, wisdom; tasya, of one, of the sannyasin remaining thus concentrated; yasya, whose; indriyani, organs; are vase, under control, by dint of practice; The organs come under control either by constantly thinking of oneself as non-different from the Self, or by constantly being mindful of the evils that result from objects. pratisthita, becomes steadfast.Now, then, is being stated this This:what is described in the following two verses, and is also a matter of common experience. root, cause of all the evils that beset one who is the verge of being overwhelmed:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जब कि यह बात है, इसलिये -- उन सब इन्द्रियोंको रोककर यानी वशमें करके और युक्त -- समाहितचित्त हो मेरे परायण होकर बैठना चाहिये। अर्थात् सबका अन्तरात्मारूप मैं वासुदेव ही जिसका सबसे पर हूँ, वह मत्पर है, अर्थात् मैं उस परमात्मासे भिन्न नहीं हूँ। इस प्रकार मुझसे अपनेको अभिन्न माननेवाला होकर बैठना चाहिये। क्योंकि इस प्रकार बैठनेवाले जिस यतिकी इन्द्रियाँ अभ्यास-बलसे ( उसके ) वशमें है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है ।।2.61।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
सर्वस्य दोषस्य परिजिहीर्षया विषयानुरागयुक्ततया दुर्जयानि इन्द्रियाणि संयम्य चेतसः शुभाश्रय भूते मयि मनः अवस्थाप्य समाहितः आसीत। मनसि मद्विषये सति निर्दग्धाशेषकल्मषतया निर्मलीकृतं विषयानुरागरहितं मन इन्द्रियाणि स्ववशानि करोति। ततो वश्येन्द्रियं मन आत्मदर्शनाय प्रभवति। उक्तं च -- 'यथाग्निरुद्धतशिखः कक्षं दहति सानिलः। तथा चित्तस्थितो विष्णुर्योगिनां सर्वकिल्बिषम्।।' (वि0 पु0 6।7।74) इति। तदाह -- वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता इति।एवं मयि अनिवेश्य मनः स्वयत्नगौरवेण इन्द्रियजये प्रवृत्तो विनष्टो भवति इत्याह -- ।।2.61।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.61 With a desire to overcome this mutual dependence between the subduing of the senses and vision of the self, one has to conquer the senses which are difficult to subdue on account of their attachment to sense-objects. So, focussing the mind on Me who am the only auspicious object for meditation, let him remain steadfast. When the mind is focussed on Me as its object, then such a mind, purified by the burning away of all impurities and devoid of attachment to the senses, is able to control the senses. Then the mind with the senses under control will be able to experience the self. As said in Visnu Purana, 'As the leaping fire fanned by the wind burns away a forest of dry trees, so Visnu, who is in the hearts of all the Yogins, destroys all the sins.' Sri Krsna teaches the same here: 'He whose senses are under control, his knowledge is firmly set.'Sri Krsna says: 'One who endeavours to subdue the senses, depending on one's own exertions, and does not focus the mind on Me in this way, becomes lost.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
तेष्वेव प्रथममुपदेशे कर्त्तव्यतादृढनाय तस्यासनं सहेतुकं लक्षयति -- यततोऽपीति द्वाभ्याम्। यततोऽपि तत्तदिन्द्रियजयाभ्यास एव श्रेयान् मनःप्रमाथित्वादिद्रियाणां अतस्तानि सर्वाणि प्रथमं बुद्ध्या संयम्य युक्तो य आसीत मत्परः तस्यैव प्रतिष्ठिता प्रज्ञाऽवसेया ।।2.60 -- 2.61।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवं तर्हि तत्र कः प्रतीकार इत्यत आह -- तानीन्द्रियाणि सर्वाणि ज्ञानकर्मसाधनभूतानि संयम्य वशीकृत्य युक्तः समाहितो निगृहीतमनाः सन्नासीत निर्व्यापारस्तिष्ठेत्। प्रमाथिनां कथं स्ववशीकरणमिति चेत्तत्राह -- 'मत्पर इति'। अहं सर्वात्मा वासुदेव एव पर उत्कृष्ट उपादेयो यस्य स मत्परः। एकान्तमद्भक्त इत्यर्थः। तथा चोक्तम्'न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित्' इति। यथा हि लोके बलवन्तं राजानमाश्रित्य दस्यवो निगृह्यन्ते राजाश्रितोऽयमिति ज्ञात्वा च ते स्वयमेव तद्वश्या भवन्ति, तथैव भगवन्तं सर्वान्तर्यामिणमाश्रित्य तत्प्रभावेणैव दुष्टानीन्द्रियाणि निग्राह्याणि। पुनश्च भगवदाश्रितोऽयमिति मत्वा तानि तद्वश्यान्येव भवन्तीति भावः। यथाच भगवतद्भक्तेर्महाप्रभावत्वं तथा विस्तरेणाग्रे व्याख्यास्यामः। इन्द्रियवशीकारे फलमाह -- 'वशे हीति'। स्पष्टम्। तदेतद्वशीकृतेन्द्रियः सन्नासीतेति किमासीतेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं भवति ।।2.61।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तर्ह्यशक्यान्येवेत्यत आह -- 'तानीति'। बहुयत्नतः शक्यानि। अतो यत्नं कुर्यादित्याशयः। युक्तो मयि मनोयोगयुक्तः। अहमेव परः सर्वस्मादुत्कृष्टो यस्य स मत्परः। फलमाह -- 'वशे हीति' ।।2.61।।

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