रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-62


मूल स्लोकः

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।




English translation by Swami Sivananda
2.62 When a man thinks of the objects, attachment for them arises; from attachment desire is born; from desire anger arises.


English commentary by Swami Sivananda
2.62 ध्यायतः thinking, विषयान् (on) objects of the senses, पुंसः of a man, सङ्गः attachment, तेषु in them, उपजायते arises, सङ्गात् from attachment, संजायते is born, कामः desire, कामात् from desire, क्रोधः anger, अभिजायते arises.Commentary: When a man thinks of the beauty and the pleasant and alluring features of the sense-objects he becomes attached to them. He then regards them as something worthy of acquisition and possession and hankers after them. He develops a strong desire to possess them. Then he endeavours his level best to obtain them. When his desire is frustrated by some cause or other, anger arises in his mind. If anybody puts any obstruction in his way of obtaining the objects he hates him, fights with him and develops hostility towards hi. (Cf.II.64).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है ।।2.62 - 2.63।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते -- भगवान्के परायण न होनेसे, भगवान्का चिन्तन न होनेसे विषयोंका ही चिन्तन होता है। कारण कि जीवके एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्माका आश्रय छोड़ देता है, तब वह संसारका आश्रय लेकर संसारका ही चिन्तन करता है; क्योंकि संसारके सिवाय चिन्तनका कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिन्तन करते-करते मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति, राग, प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होनेसे मनुष्य उन विषयोंका सेवन करता है। विषयोंका सेवन चाहे मानसिक हो, चाहे शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे विषयोंमें प्रियता पैदा होती है। प्रियतासे उस विषयका बार-बार चिन्तन होने लगता है। अब उस विषयका सेवन करे, चाहे न करे, पर विषयोंमें राग पैदा हो ही जाता है -- यह नियम है।सङ्गात्संजायते कामः -- विषयोंमें राग पैदा होनेपर उन विषयोंको (भोगोंको) प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग, वस्तुएँ मेरेको मिलें।कामात्क्रोधोऽभिजायते -- कामनाके अनुकूल पदार्थोंके मिलते रहनेसे ' लोभ' पैदा हो जाता है और कामनापूर्तिकी सम्भावना हो रही है, पर उसमें कोई बाधा देता है, तो उसपर ' क्रोध ' आ जाता है।कामना एक ऐसी चीज है, जिसमें बाधा पड़नेपर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण, आश्रम, गुण, योग्यता, आदिको लेकर अपनेमें जो अच्छाईका अभिमान रहता है, उस अभिमानमें भी अपने आदर, सम्मान आदिकी कामना रहती है; उस कामनामें किसी व्यक्तिके द्वारा बाधा पड़नेपर भी क्रोध पैदा हो जाता है।' कामना ' रजोगुणी वृत्ति है, ' सम्मोह ' तमोगुणी वृत्ति है और ' क्रोध ' रजोगुण तथा तमोगुणके बीचकी वृत्ति है।कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है, तो उसके मूलमें कहीं-न-कहीं राग अवश्य होता है। जैसे, नीति-न्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है, तो नीति-न्यायमें राग है। अपमान-तिरस्कार करनेवालेपर क्रोध आता है, तो मान-सत्कारमें राग है। निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है, तो प्रशंसामें राग है। दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है, तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है; आदि-आदि।क्रोधाद्भवति सम्मोहः -- क्रोधसे सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है। वास्तवमें देखा जाय तो काम, क्रोध, लोभ और ममता -- इन चारोंसे ही सम्मोह होता है; जैसे -- (1) कामसे जो सम्मोह होता है, उसमें विवेकशक्ति ढक जानेसे मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करनेलायक कार्य भी कर बैठता है।(2) क्रोधसे जो सम्मोह होता है, उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनोंको भी उलटी-सीधी बातें कह बैठता है और न करनेलायक बर्ताव भी कर बैठता है।(3) लोभसे जो सम्मोह होता है, उसमें मनुष्यको सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदिका विचार नहीं रहता, और वह कपट करके लोगोंको ठग लेता है।(4) ममतासे जो सम्मोह होता है, उसमें समभाव नहीं रहता, प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है।अगर काम, क्रोध, लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है, तो फिर भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधका ही नाम क्यों लिया? इसमें गहराईसे देखा जाय तो काम, लोभ और ममता -- इनमें तो अपने सुखभोग और स्वार्थकी वृत्ति जाग्रत रहती है, पर क्रोधमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी वृत्ति जाग्रत् रहती है। अतः क्रोधसे जो सम्मोह होता है, वह काम, लोभ और ममतासे पैदा हुए सम्मोहसे भी भयंकर होता है। इस दृष्टिसे भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधसे ही सम्मोह होना बताया है।सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः -- मूढ़ता छा जानेसे स्मृति नष्ट हो जाती है अर्थात् शास्त्रोंसे, सद्विचारोंसे जो निश्चय किया था कि ' अपनेको ऐसा काम करना है, ऐसा साधन करना है, अपना उद्धार करना है ' उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है, उसकी याद नहीं रहती।स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः -- स्मृति नष्ट होनेपर बुद्धिमें प्रकट होनेवाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात् मनुष्यमें नया विचार करनेकी शक्ति नहीं रहती।बुद्धिनाशात्प्रणश्यति -- विवेक लुप्त हो जानेसे मनुष्य अपनी स्थितिसे गिर जाता है। अतः इस पतनसे बचनेके लिये सभी साधकोंको भगवान्के परायण होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है।यहाँ विषयोंका ध्यान करनेमात्रसे राग, रागसे काम, कामसे क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे पतन -- यह जो क्रम बताया है, इसका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर इन सभी वृत्तियोंके पैदा होनेमें और उससे मनुष्यका पतन होनेमें देरी नहीं लगती। बिजलीके करेंटकी तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्यका पतन करा देती हैं।सम्बन्ध -- अब भगवान् आगेके श्लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है? -- इस चौथे प्रश्नका उत्तर देते हैं ।।2.62।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- ध्यायतः चिन्तयतः विषयान् शब्दादीन् विषयविशेषान् आलोचयतः पुंसः पुरुषस्य सङ्गः आसक्तिः प्रीतिः तेषु विषयेषु उपजायते उत्पद्यते। सङ्गात् प्रीतेः संजायते समुत्पद्यते कामः तृष्णा। कामात् कुतश्चित् प्रतिहतात् क्रोधः अभिजायते। ।।2.62।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.62 Pumsah, in the case of a person; dhyayatah, who dwells on, thinks of; visayan, the objects, the specialities Specialities: The charms imagined in them. of the objects such as sound etc.; upajayate, there arises; sangah, attachment, fondness, love; tesu, for them, for those objects. Sangat, from attachment, from love; sanjayate, grows; kamah, hankering, thirst. When that is obstructed from any quarter, kamat, from hankering; abhijayate, springs; krodhah, anger. Krodhat, from anger; bhavati, follows; sammohah, delusion, absence of discrimination with regard to what should or should not be done. For, an angry man, becoming deluded, abuses even a teacher.Sammohat, from delusion; (comes) smrti-vibhramah, failure of memory originating from the impressions acquired from the instructions of the scriptures and teachers. When there is an occasion for memory to rise, it does not occur. Smrti-bhramsat, from that failure of memory; (results) buddhi-nasah, loss of understanding. The unfitness of the mind to discriminate between what should or should not be done is called loss of understanding. Buddhi-nasat, from the loss of understanding; pranasyati, he perishes. Indeed, a man continues tobe himself so long as his mind remains fit to distinguish between what he ought to and ought not do. When it becomes unfit, a man is verily ruined. Therefore, when his internal organ, his understanding, is destroyed, a man is ruined, i.e. he becomes unfit for the human Goal.Thinking of objects has been said to be the root of all evils. After that, this which is the cause of Liberation is being now stated: If even the memory of objects be a source of evil, then their enjoyment is more so. Hence, a sannyasin seeking Liberation cannot avoid this evil, since he has to move about for food which is necessary for the maintenance of his body. The present verse is an answer to this apprehension.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
इतना कहनेके उपरान्त अब यह पतनाभिमुख पुरुषके समस्त अनर्थोंका कारण बतलाया जाता है -- विषयोंका ध्यान -- चिन्तन करनेवाले पुरुषकी अर्थात् शब्दादि विषयोंके भेदोंकी बारंबार आलोचना करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति -- प्रीति उत्पन्न हो जाती है। आसक्तिसे कामना -- तृष्णा उत्पन्न होती है। कामसे अर्थात् किसी भी कारणवश विच्छिन्न हुई इच्छासे क्रोध उत्पन्न होता है ।।2.62।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अनिरस्तविषयानुरागस्य हि मयि अनिवेशतिमनस इन्द्रियाणि संयम्य अवस्थितस्य अपि अनादिपापवासनया विषयध्यानम् अवर्जनीयं स्यात्। ध्यायतो विषयान् पुंसः पुनरपि सङ्गः अतिप्रवृद्धो जायते। सङ्गात् संजायते कामः। कामो नाम सङ्गस्य विपाकदशा। पुरुषो यां दशाम् आपन्नो विषयान् अभुक्त्वा स्थातुं न शक्नोति स कामः। कामात् क्रोधः अभिजायते। कामे वर्तमाने विषये च असन्निहिते सन्निहितान् पुरुषान् प्रति एभिः अस्मदिष्टं विहतम् इति क्रोधो भवति ।।2.62।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.62 Indeed, in respect of a person, whose attachment to sense-objects is expelled but whose mind is not focussed on Me, even though he controls the senses, contemplation on sense-objects is unavoidable on account of the impressions of sins from time immemorial. Again attachment increases fully in 'a man who thinks about sense-objects'. From attachment arises desire.' What is called 'desire' is the further stage of attachment. After reaching that stage, it is not possible for a man to stay without experiencing the sense-objects. 'From such desire arises anger.' When a desire exists without its object being nearby, anger arises against persons nearby under the following. 'Our desire is thwarted by these persons.''From anger there comes delusion'. Delusion is want of discrimination between what ought to be done and what ought not to be done. Not possessing that discrimination one does anything and everything. Then there follows the failure of memory, i.e., of the impressions of the earlier efforts of sense control, when one strives again to control the senses.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एवं बाह्येन्द्रियसंयमाभावे दोष उक्तः; इदानीं मनोनिरोधाभावे योगबुद्धिभ्रंशदोष इति कथयंस्तस्य स्थिरप्रज्ञतां दर्शयति -- चतुर्भिः। तत्र मनःसंयमाभावे दोषमाह द्वाभ्याम् -- ध्यायत इति विषयानिति। विचारयतश्चिन्तयत इति यावत्, आसक्तिर्भवति; ततः कामाभिलाषः। ततः प्रतिहतादेव क्रोधः। ततो विवेकाभावः। ततश्च शास्त्राचार्योपदिष्टार्थः स्मृतेर्विप्लवः। ततो व्यवसायात्मिकबुद्धेर्नाशः। ततः प्रणश्यति अत्यन्तविस्मृतिं प्राप्तः प्राकृत एव भवति अविशुद्धोऽपि च ।।2.62 -- 2.63।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु मनसो बाह्येन्द्रियप्रवृत्तिद्वाराऽनर्थहेतुत्वं निगृहीतबाह्येन्द्रियस्य तूत्खातदंष्ट्रोरगवन्मनस्यनिगृहीतेऽपि न कापि क्षतिर्बाह्योद्योगाभावेनैव कृतकृत्यत्वादतो युक्त आसीतेति व्यर्थमुक्तमित्याशङ्का निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि युक्तत्वाभावे सर्वानर्थप्राप्तिमाह द्वाभ्याम् -- निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि शब्दादीन्विषयान्ध्यायतो मनसा पुनःपुनश्चिन्तयतः पुंसस्तेषु विषयेषु सङ्ग आसङ्गो ममात्यन्तं सुखहेतव एत इत्येवं शोभनाध्यासलक्षणः प्रीतिविशेष उपजायते। सङ्गात्सुखहेतुत्वज्ञानलक्षणात्संजायते कामो ममैते भवन्त्विति तृष्णाविशेषः। तस्मात्कामात्कुतश्चित्प्रतिहन्यमानात्तत्प्रतिघातकविषयः क्रोधोऽभिज्वलनात्माभिजायते। क्रोधाद्भवति संमोहः कार्याकार्यविवेकाभावरूपः। संमोहात्स्मृतिविभ्रमः स्मृतेः शास्त्राचार्योपदिष्टार्थानुसन्धानस्य विभ्रमो विचलनं विभ्रंशः। तस्माच्च स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धेरैकात्म्याकारमनोवृत्तेर्नाशो विपरीतभावनोपचयदोषेण प्रतिबन्धादनुत्पत्तिरनुत्पन्नायाश्च फलायोग्यत्वेन विलयः। बुद्धिनाशात्प्रणश्यति तस्याश्च फलभूताया बुद्धेर्विलोपात्प्रणश्यति सर्वपुरुषार्थायोग्यो भवति। यो हि पुरुषार्था- योग्यो जातः स मृत एवेति लोके व्यवह्रियते। अतः प्रणश्यतीत्युक्तम्। यस्मादेवं मनसो निग्रहाभावे निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि परमानर्थप्राप्तिस्तस्मान्महता प्रयत्नेन मनो निगृह्णीयादित्यभिप्रायः। अतो युक्तमुक्तं'तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत' इति ।।2.62 -- 2.63।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
रागादिदोषकारणमाह परिहाराय श्लोकद्वयेन। सम्मोहोऽधर्मेच्छा। तथा हि -- मोहशब्दार्थ उक्त उपगीतासु'मोहसंज्ञितम्। अधर्मलक्षणं च नियतं पापकर्मसु' इति। तथाचान्यत्र'सम्मोहोऽधर्मकामिता' इति। स्मृतिविभ्रमः प्रतिषेधादिस्मृतिनाशः। बुद्धिनाशः सर्वात्मना दोषबुद्धिनाशः। विनश्यति नरकाद्यनर्थं प्राप्नोति। तथा ह्युक्तम् -- 'अधर्मकामिनः शास्त्रे विस्मृतिर्जायते यदा। दोषादृष्टेस्तत्कृतेश्च नरकं प्रतिपद्यते' ।।2.62 -- 2.63।।

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