रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-18


मूल स्लोकः

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।3.18।।




English translation by Swami Sivananda
3.18 For him there is no interest whatever in what is done or what is not done; nor does he depend on any being for any object.


English commentary by Swami Sivananda
3.18 न not, एव even, तस्य of hi, कृतेन by action, अर्थः concern, न not, अकृतेन by actions not done, इह here, कश्चन् any, न not, च and, अस्य of this man, सर्वभूतेषु in all beings, कश्चित् any, अर्थव्यपाश्रयः depending for any object.Commentary: The sage who is thus rejoicing in the Self does not gain anything by doing any action. For him really no purpose is served by an action. No evil (Pratyavaya Dosha) can touch him from inaction. He does not lose anything from inaction. He need not depend upon anybody to gain a particular object. He need not exert himself to get the favour of anybody.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए) महापुरुषका इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है, और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है, तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता ।।3.18।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- नैव तस्य कृतेनार्थः -- प्रत्येक मनुष्यकी कुछ-न-कुछ करनेकी प्रवृत्ति होती है। जबतक यह करनेकी प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिके लिये होती है, तबतक उसका अपने लिये ' करना ' शेष रहता ही है। अपने लिये-कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही मनुष्य बँधता है। उस इच्छाकी निवृत्तिके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकता है।कर्म दो प्रकारसे किये जाते हैं। कामना-पूर्तिके लिये और कामना-निवृत्तिके लिये। साधारण मनुष्य तो कामना-पूर्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी कामना-निवृत्तिके लिये कर्म करता है। इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें कोई भी कामना न रहनेके कारण उसका किसी भी कर्तव्यसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। उसके द्वारा निःस्वार्थभावसे समस्त सृष्टिके हितके लिये स्वतः कर्तव्य-कर्म होते हैं।कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका कर्मोंसे अपने लिये (व्यक्तिगत सुख-आरामके लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस महापुरुषका यह अनुभव होता है कि पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि केवल संसारके हैं और संसारसे मिले हैं, व्यक्तिगत नहीं हैं। अतः इनके द्वारा केवल संसारके लिये ही कर्म करना है, अपने लिये नहीं। कारण यह है कि संसारकी सहायताके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। इसके अलावा मिली हुई कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध भी समष्टि संसारके साथ ही है, अपने साथ नहीं। इसलिये अपना कुछ नहीं है। व्यष्टिके लिये समष्टि हो ही नहीं सकती। मनुष्यकी यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्टिका उपयोग करना चाहता है इसीसे उसे अशान्ति होती है। अगर वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका समष्टिके लिये उपयोग करे तो उसे महान् शान्ति प्राप्त हो सकती है। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें यही विशेषता रहती है कि उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका उपयोग मात्र संसारके लिये ही होता है। अतः उसका शरीरादिकी क्रियाओंसे अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता। प्रयोजन न रहनेपर भी उस महापुरुषसे स्वाभाविक ही लोगोंके लिये आदर्शरूप उत्तम कर्म होते हैं। जिसका कर्म करनेसे प्रयोजन रहता है, उससे आदर्श कर्म नहीं होते -- यह सिद्धान्त है।नाकृतेनेह कश्चन -- जो मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य, प्रमाद आदिमें रुचि रखता है, वह कर्मोंको नहीं करना चाहता; क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद, आलस्य, आराम आदिसे उत्पन्न तामस-सुख रहता है (गीता 18।39)। परन्तु यह महापुरुष, जो सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठ चुका है, तामस सुखमें प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है? क्योंकि इसका शरीरादिसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता, फिर आलस्य-आराम आदिमें रुचि रहनेका तो प्रश्न ही नहीं उठता। मार्मिक बातप्रायः साधक कर्मोंके न करनेको ही महत्त्व देते हैं। वे कर्मोंसे उपरत होकर समाधिमें स्थित होना चाहते हैं, जिससे कोई भी चिन्तन बाकी न रहे। यह बात श्रेष्ठ और लाभप्रद तो है, पर सिद्धान्त नहीं है। यद्यपि प्रवृत्ति-(करना-) की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्ठ है, तथापि यह तत्त्व नहीं है।प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) -- दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं। निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है -- प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः, और क्रिया हुए बिना व्युत्थानका होना सम्भव ही नहीं। इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह सोना, बैठना, खड़ा होना, मौन होना, मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है (टिप्पणी प0 142)। वास्तविक तत्त्व-(चेतन स्वरूप-) में प्रवृत्ति और निवृत्ति -- दोनों ही नहीं हैं। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति -- दोनोंका निर्लिप्त प्रकाशक है।शरीरसे तादात्म्य होनेपर ही (शरीरको लेकर) ' करना ' और ' न करना ' -- ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं। वास्तवमें ' करना ' और ' न करना' दोनोंकी एक ही जाति है। शरीरसे सम्बन्ध रखकर ' न करना ' भी वास्तवमें ' करना ' ही है। जैसे गच्छति (जाता है) क्रिया है, ऐसे ही तिष्ठति (खड़ा है) भी क्रिया ही है। यद्यपि स्थूल दृष्टिसे गच्छति में क्रिया स्पष्ट दिखायी देती है और तिष्ठति में क्रिया नहीं दिखायी देती है, तथापि सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो जिस शरीरमें ' जाने ' की क्रिया थी, उसीमें अब ' खड़े रहने ' की क्रिया है। इसी प्रकार किसी कामको ' करना ' और ' न करना ' -- इन दोनोंमें ही क्रिया है। अतः जिस प्रकार क्रियाओंका स्थूल-रूपसे दिखायी देना (प्रवृत्ति) प्रकृतिमें ही है, उसी प्रकार स्थूल दृष्टिसे क्रियाओंका दिखायी न देना (निवृत्ति) भी प्रकृतिमें ही है। जिसका प्रकृति एवं उसके कार्यसे भौतिक तथा आध्यात्मिक और लौकिक तथा पारलौकिक कोई प्रयोजन नहीं रहता, उस महापुरुषका करने एवं न करनेसे कोई स्वार्थ नहीं रहता।जडताके साथ सम्बन्ध रहनेपर ही करने और न करनेका प्रश्न होता है; क्योंकि जडताके सम्बन्धके बिना कोई क्रिया होती ही नहीं। इस महापुरुषका जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति -- दोनोंसे अतीत सहज-निवृत्त-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। अतः साधकको जडता-(शरीरमें अहंता और ममता-) से सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ही आवश्यकता है। तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों विद्यमान है ही।न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः -- शरीर तथा संसारसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध न रहनेके कारण उस महापुरुषकी समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरोंके हितके लिये होती हैं। जैसे शरीरके सभी अङ्ग स्वतः शरीरके हितमें लगे रहते हैं, ऐसे ही उस महापुरुषका अपना कहलानेवाला शरीर (जो संसारका एक छोटा-सा अङ्ग है) स्वतः संसारके हितमें लगा रहता है। उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ संसारके हितके लिये ही होती हैं। जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर अपनेमें स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता, ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीरके द्वारा संसारका हित होनेपर उस महापुरुषमें किञ्चित् भी स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता।पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सिद्ध महापुरुषके लिये कहा कि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है -- तस्य कार्यं न विद्यते। उसका हेतु बताते हुए भगवान्ने इस श्लोकमें उस महापुरुषके लिये तीन बातें कही हैं -- (1) कर्म करनेसे उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता, (2) कर्म न करनेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और (3) किसी भी प्राणी और पदार्थसे उसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पानेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता।वस्तुतः स्वरूपमें करने अथवा न करनेका कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। कारण कि शुद्ध स्वरूपके द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं। जो भी क्रिया होती है, वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके सम्बन्धसे ही होती है। इसलिये अपने लिये कुछ करनेका विधान ही नहीं है।जबतक मनुष्यमें करनेका राग, पानेकी इच्छा, जीनेकी आशा और मरनेका भय रहता है, तबतक उसपर कर्तव्यका दायित्व रहता है। परन्तु जिसमें किसी भी क्रियाको करने अथवा न करनेका कोई राग नहीं है, संसारकी किसी भी वस्तु आदिको प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं है, जीवित रहनेकी कोई आशा नहीं है और मृत्युसे कोई भय नहीं है, उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उससे स्वतः कर्तव्य-कर्म होते रहते हैं। जहाँ अकर्तव्य होनेकी सम्भावना हो, वहीं कर्तव्य पालनकी प्रेरणा रहती है।विशेष बातगीतामें भगवान्की ऐसी शैली रही है कि वे भिन्न-भिन्न साधनोंसे परमात्माकी ओर चलनेवाले साधकोंके भिन्न-भिन्न लक्षणोंके अनुसार ही परमात्माको प्राप्त सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं। यहाँ सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें भी इसी शैलीका प्रयोग किया गया है।जो साधन जहाँसे प्रारम्भ होता है, अन्तमें वहीं उसकी समाप्ति होती है। गीतामें कर्मयोगका प्रकरण यद्यपि दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकसे प्रारम्भ होता है, तथापि कर्मयोगके मूल साधनका विवेचन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें किया गया है। उस श्लोक (2। 47) के चार चरणोंमें बताया गया है-(1) कर्मण्येवाधिकारस्ते (तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है)(2) मा फलेषु कदाचन (कर्मफलोंमें तेरा कभी भी अधिकार नहीं है)।(3) मा कर्मफलहेतुर्भूः (तू कर्मफलका हेतु मत बन)।(4) मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो)।प्रस्तुत श्लोक (3। 18) में ठीक उपर्युक्त साधनाकी सिद्धिकी बात है। वहाँ (2। 47) में दूसरे और तीसरे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके उत्तरार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका किसी प्राणी और पदार्थसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। वहाँ पहले और चौथे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके पूर्वार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने -- दोनोंसे ही कोई प्रयोजन नहीं रहता। इस प्रकार सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें ' कर्मयोग ' से सिद्ध हुए महापुरुषके लक्षणोंका ही वर्णन किया गया है।कर्मयोगके साधनकी दृष्टिसे वास्तवमें अठारहवाँ श्लोक पहले तथा सत्रहवाँ श्लोक बादमें आना चाहिये। कारण कि जब कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। तब उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही हो जाती है। परन्तु सोलहवें श्लोकमें भगवान्ने मोघं पार्थ स जीवति पदोंसे कर्तव्य-पालन न करनेवाले मनुष्यके जीनेको निरर्थक बतलाया था; अतः सत्रहवें श्लोकमें यः तु पद देकर यह बतलाते हैं कि यदि सिद्ध महापुरुष कर्तव्य-कर्म नहीं करता तो उसका जीना निरर्थक नहीं है, प्रत्युत महान् सार्थक है। कारण कि उसने मनुष्यजन्मके उद्देश्यको पूरा कर लिया है। अतः उसके लिये अब कुछ भी करना शेष नहीं रहा।जिस स्थितिमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, उस स्थितिको साधारण-से-साधारण मनुष्य भी प्रत्येक अवस्थामें तत्परता एवं लगनपूर्वक निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करनेपर प्राप्त कर सकता है; क्योंकि उसकी प्राप्तिमें सभी स्वतन्त्र और अधिकारी हैं। कर्तव्यका सम्बन्ध प्रत्येक परिस्थितिसे जुड़ा हुआ है। इसलिये प्रत्येक परिस्थितिमें कर्तव्य निहित रहता है। केवल सुखलोलुपतासे ही मनुष्य कर्तव्यको भूलता है। यदि वह निःस्वार्थ-भावसे दूसरोंकी सेवा करके अपनी सुखलोलुपता मिटा डाले, तो जीवनके सभी दुःखोंसे छुटकारा पाकर परम शान्तिको प्राप्ति हो सकता है। इस परम शान्तिकी प्राप्तिमें सबका समान अधिकार है। संसारके सर्वोपरि पदार्थ, पद आदि सबको समानरूपसे मिलने सम्भव नहीं हैं; किन्तु परम शान्ति सबको समानरूपसे ही मिलती है।सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें वर्णित महापुरुषकी स्थितिको प्राप्त करनेके लिये साधकको क्या करना चाहिये -- इसपर भगवान् आगेके श्लोकमें साधन बताते हैं ।।3.18।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- नैव तस्य परमात्मरतेः कृतेन कर्मणा अर्थः प्रयोजनमस्ति। अस्तु तर्हि अकृतेन अकरणेन प्रत्यवायाख्यः अनर्थः, न अकृतेन इह लोके कश्चन कश्चिदपि प्रत्यवायप्राप्तिरूपः आत्महानिलक्षणो वा नैव अस्ति। न च अस्य सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु भूतेषु कश्चित् अर्थव्यपाश्रयः प्रयोजननिमित्तक्रियासाध्यः व्यपाश्रयः व्यपाश्रयणम् आलम्बनं कञ्चित् भूतविशेषमाश्रित्य न साध्यः कश्चिदर्थः अस्ति, येन तदर्था क्रिया अनुष्ठेया स्यात्। न त्वम् एतस्मिन् सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीये सम्यग्दर्शने वर्तसे।।यतः एवम् -- ।।3.18।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.18 Moreover, tasya, for him, who rejoices in the supreme Self; na, there is no; artham, concern; eva, at all; krtena, with performing action.Objection: In that case, let there be some evil called sin owing to non-performance!Reply: Iha, here, in this world; na, nor is there; for him kascana, any (concern); akrtena, with nonperfromance. Certainly there is no evil in the form of incurring sin or in the form of self-destruction. Ca, moreover; asya, for him; na asti, there is no; kascit artha-vyapasrayah sarva-bhutesu, dependence on any object, from Brahma to an unmoving thing, to serve any purpose. Vyapasrayah is the same as vyapasrayanam, dependence, which is possible of being created by action promted by necessity. (For him) there is no end to gain by depending on any praticular object, due to which there can be some action for that purpose.'You (Arjuna) are not established in this fullest realization which is comparable to a flood all around.'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
क्योंकि -- उस परमात्मामें प्रीतिवाले पुरुषका इस लोकमें कर्म करनेसे कोई प्रयोजन ही नहीं रहता है। तो फिर कर्म न करनेसे उसको प्रत्यवायरूप अनर्थकी प्राप्ति होती होगी? ( इसपर कहते हैं -- ) उसके न करनेसे भी उसे इस लोकमें कोई प्रत्यवायप्राप्तिरूप या आत्महानिरूप अनर्थकी प्राप्ति नहीं होती तथा ब्रह्मासे लेकर स्थावरतक सब प्राणियोंमें उसका कुछ भी अर्थ-व्यपाश्रय नहीं होता। किसी फलके लिये ( किसी प्राणिविशेषका ) जो क्रियासाध्य आश्रय है उसका नाम अर्थ-व्यपाश्रय है सो इस आत्मज्ञानीको, किसी प्राणिविशेषका सहारा लेकर कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं करना है जिससे कि उसे तदर्थक किसी क्रियाका आरम्भ करना पड़े। परन्तु तू इस सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयस्थानीय यथार्थ ज्ञानमें स्थित नहीं है ।।3.18।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अत एव तस्य आत्मदर्शनाय कृतेन तत्साधनेन न अर्थः -- न किञ्चित् प्रयोजनम्, अकृतेन आत्मदर्शनसाधनेन न कश्चिद् अनर्थः -- असाधनायत्तात्मदर्शनत्वात्। स्वत एवात्मव्यतिरिक्तसकलाचिद्वस्तुविमुखस्य अस्य सर्वेषु प्रकृतिपरिणामविशेषेषु आकाशादिषु भूतेषु सकार्येषु न कश्चित् प्रयोजनतया साधनतया वा व्यपाश्रयः, यतः तद्विमुखीकरणाय साधनारम्भः; स हि मुक्त एव।यस्माद् असाधनायत्तात्मदर्शनस्य एव साधनाप्रवृत्तिः, यस्मात् च साधने प्रवृत्तस्य अपि सुशकत्वाद् अप्रमादत्वात् तदन्तर्गतात्मयाथात्म्यानुसन्धानत्वाद् च ज्ञानयोगिनः अपि देहयात्रायाः कर्मानुवृत्त्यपेक्षत्वात् च कर्मयोग एव आत्मदर्शननिर्वृत्तौ श्रेयान् -- ।।3.18।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.18 Thus, for such a one there is no purpose, i.e., nothing to be gained from work done as a means for the vision of the self, nor is he subject to any evil or calamity from work left undone, because his vision of the self does not rest on any external means. To such a person who has turned by himself away from non-intelligent matter which is different from the self, there is nothing acceptable as a purpose to be gained from the constituents of Prakrti and their products; only if there were such a purpose, there would be the need for the means of retreat therefrom. For, the adoption of the means is only for effecting such a retreat. But he is verily liberated.Non-pursuit of the means for vision of the self is only for that person whose vision of the self no longer depends on any means. But Karma Yoga is better in gaining the vision of the self for one who is in pursuit of the means for that vision, because it is easy to perfom, because it is secure from possible error, because the contemplation of the true nature of the self is included in it, and because even for a Jnana Yogin the performance of minimum activity is necessary. For these reasons, Karma Yoga is better as a means for the vision of the Atman.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
नैवेति। तस्य कृतेन निषिद्धेन चार्थः फलं सुखदुःखादि नास्ति। किञ्चार्थार्थमाश्रयः कश्चिन्नास्ति ।।3.18।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
नन्वात्मविदोऽप्यभ्युदयार्थं निःश्रेयसार्थं प्रत्यवायपरिहारार्थं वा कर्म स्यादित्यतआह -- तस्यात्मरतेः कृतेन कर्मणाभ्युदयलक्षणो निःश्रेयसलक्षणो वाऽर्थः प्रयोजनं नैवास्ति। तस्य स्वर्गाद्यभ्युदयानर्थित्वात्, निःश्रेयसस्य च कर्मासाध्यत्वात्। तथाचं श्रुतिः'परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन' इति। अकृतो नित्यो मोक्षः कृतेन कर्मणा नास्तीत्यर्थः। ज्ञानसाध्यस्यापि व्यावृत्तिरेवकारेण सूचिता। आत्मरूपस्य हि निःश्रेयसस्य नित्यप्राप्तस्याज्ञानमात्रमप्राप्तिः। तच्च तत्वज्ञानमात्रापनोद्यम्। तस्मिंस्तत्त्वज्ञानेनापनुन्ने तस्यात्मविदो न किंचित्कर्मसाध्यं ज्ञानसाध्यं वा प्रयोजनमस्तीत्यर्थः। एवंभूतेनापि प्रत्यवायपरिहारार्थं कर्माण्यनुष्ठेयान्येवेत्यत आह -- नाकृतेनेति भावे निष्ठा। नित्यकर्माकरणेनेह लोके गर्हितत्वरूपः प्रत्यवायप्राप्तिरूपो वा कश्चनार्थो नास्ति। सर्वत्रोपपत्तिमाहोत्तरार्धेन। चो हेतौ। यस्मादस्यात्मविदः सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु कोऽप्यर्थव्यपाश्रयः प्रयोजनसंबन्धो नास्ति, कंचिद्भूतविशेषमाश्रित्य कोऽपि क्रियासाध्योऽर्थो नास्तीति वाक्यार्थः। अतोऽस्य कृताकृते निष्प्रयोजने।'नैनं कृताकृते तपतः' इति श्रुतेः।'तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवति' इति श्रुतेर्देवा अपि तस्य मोक्षाभवनाय न समर्था इत्युक्तेर्न विघ्नाभावार्थमपि देवाराधनरूपकर्मानुष्ठानमित्यभिप्रायः। एतादृशो ब्रह्मविद्भूमिकासप्तकभेदेन निरूपितो वसिष्ठेन'ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा परिकीर्तिता। विचारणा द्वितीया स्यात्तृतीया तनुमानसा।।सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका। पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता' इति। तत्र नित्यानित्यवस्तुविवेकादिपुरःसरा फलपर्यवसायिनी मोक्षेच्छा प्रथमा। ततो गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यविचारः श्रवणमननात्मको द्वितीया। ततो निदिध्यासनाभ्यासेन मनस एकाग्रतया सूक्ष्मवस्तुग्रहणयोग्यत्वं तृतीया। एतद्भूमिकात्रयं साधनरूपं जाग्रदवस्थोच्यते योगिभिः अभेदेन जगतो भानात्। तदुक्तम्'भूमिकात्रितयं त्वेतद्राम जाग्रदिति स्थितम्। यथावद्भेदबुद्ध्येदं जगज्जाग्रति दृश्यते।।' इति। ततो वेदान्तवाक्यान्निर्विकल्पको ब्रह्मात्मैक्यसाक्षात्कारश्चतुर्थी भूमिका फलरूपा सत्त्वापत्तिः स्वप्नावस्थोच्यते। सर्वस्यापि जगतो मिथ्यात्वेन स्फुरणात्। तदुक्तं'अद्वैते स्थैर्यमायाते द्वैते प्रशममागते। पश्यन्ति स्वप्नवल्लोकं चतुर्थी भूमिकामिताः।।' इति। सोऽयं चतुर्थभूमिं प्राप्तो योगी ब्रह्मिविदित्युच्यते। पञ्चमीषष्ठीसप्तम्यस्तुं भूमिका जीवन्मुक्तेरेवावान्तरभेदाः। तत्र सविकल्पकसमाध्यभ्यासेन निरुद्धे मनसि या निर्विकल्पकसमाध्यवस्था साऽसंसक्तिरिति सुषुप्तिरिति चोच्यते। ततः स्वयमेव व्युत्थानात्। सोऽयं योगी ब्रह्मविद्वरः। ततस्तदभ्यासपरिपाकेण या चिरकालावस्थायिनी सा पदार्थाभावनीति गाढसुषुप्तिरिति चोच्यते। ततः स्वयमनुत्थितस्य योगिनः परप्रयत्नेनैव व्युत्थानात् सोऽयं ब्रह्मविद्वरीयान्। उक्तंहि'पञ्चमीं भूमिकामेत्य सुषुप्तिपदनामिकाम्। षष्ठीं गाढसुषुप्त्याख्यां क्रमात्पतति भूमिकाम्।।' इति। यस्यास्तु समाध्यवस्थायाः न स्वतो न वा परतो व्युत्थितो भवति सर्वथा भेददर्शनाभावात्, किंतु सर्वदा तन्मय एव स्वप्रयत्नमन्तरेणैव परमेश्वरप्रेरितप्राणवायुवशादन्यैर्निर्वाह्यमाणदैहिकव्यवहारः परिपूर्णपरमानन्दघन एव सर्वतस्तिष्ठति सा सप्तमी तुरीयावस्था। तां प्राप्तो ब्रह्मविद्वरिष्ठ इत्युच्यते। उक्तंहि'षष्ठ्यां भूम्यामसौ स्थित्वा सप्तमीं भूमिमाप्नुयात्। किंचिदेवैष संपन्नस्त्वथवैष न किंचन।।विदेहमुक्तता तूक्ता सप्तमी योगमूमिका। अगम्या वचसां शान्ता सा सीमा योगभूमिषु।।' इति। यामधिकृत्य श्रीमद्भागवते स्मर्यते'देहं च नश्वरमवस्थिमुत्थितं वा सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम्। दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः।।देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः। तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः।।' इति। श्रुतिश्च'तद्यथाऽहिनिर्ल्वयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेदं शरीरं शेतेऽथायमशरीरो मृतः प्राणो ब्रह्मैव तेज एव' इति। तत्रायं संग्रहः -- 'चतुर्थीभूमिकाज्ञानं तिस्रः स्युः साधनं पुरा। जीवन्मुक्तेरवस्थास्तु परास्तिस्रः प्रकीर्तिताः।।' अत्र प्रथमभूमित्रयमारूढोऽज्ञोऽपि न कर्माधिकारी किं पुनस्तत्त्वज्ञानी तद्विशिष्टो जीवन्मुक्तो वेत्यभिप्रायः ।।3.18।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तस्य कर्मकाले वक्तव्योऽहमिति कञ्चित्प्रत्युक्त्वा तत्कृतावात्मरत्यधिकः प्तमो वाऽर्थो नास्ति। न च सन्ध्याद्यकृतौ कश्चिद्दोषोऽस्ति। न चैतदपहाय सर्वभूतेषु कश्चित्प्रयोजनाश्रयः। अर्थो येन दर्शनादिना भवति सोऽर्थव्यपाश्रयः। ज्ञानमात्रेण यद्यपि प्रत्यवायो न भवति, तदर्जुनस्यपि सममिति न तस्य कर्मोपदेशोपयोग्ये तद्भवति। ईषत्प्रारब्धानर्थसूचकं च तद्भवति। महच्चेद्वृत्रहत्यादिवत् ।।3.18।।

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