रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-13


मूल स्लोकः

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।




English translation by Swami Sivananda
3.13 The righteous who eat the remnants of the sacrifice are freed from all sins; but those sinful ones who cook food (only) for their own sake verily eat sin.


English commentary by Swami Sivananda
3.13 यज्ञशिष्टाशिनः who eat the remnants of the sacrifice, सन्तः the righteous, मुच्यन्ते are freed, सर्वकिल्बिषैः from all sins, भुञ्जते eat, ते those, तु indeed, अघम् sin, पापाः sinful ones, ये who, पचन्ति cook, आत्मकारणात् for their own sake.Commentary: Those who, after performing the five great sacrifices, eat the remnants of the food are freed from all the sins committed by these five agents of insect slaughter, viz., (1) the pestle and mortar, (2) the grinding stone, (3) the fireplace, (4) the place where the water-pot is kept, and (5) the broom. These are the five places where injury to life is daily committed. The sins are washed away by the performance of the five Maha-Yajnas or great sacrifices which every Dvija(twice-born or the people belonging to the first three castes in Hindu society, especially the Brahmin) ought to perform:1. Deva-Yajna: Offering sacrifices to the gods which will satisfy them,2. Brahma-Yajna or Rishi-Yajna: Teaching and reciting the scriptures which will satisfy Brahman and the Rishis,3. Pitri-Yajna: Offering libations of water to one's ancestors which will satisfy the manes,4. Nri-Yajna: The feeding of the hungry and the guests, and,5. Bhuta-Yajna: The feeding of the sub-human species, such as animals, birds, etc.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
यज्ञशेष-(योग-) का अनुभव करनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं ।।3.13।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः -- कर्तव्यकर्मोंका निष्कामभावसे विधिपूर्वक पालन करनेपर (यज्ञशेषके रूपमें) योग अथवा समता ही शेष रहती है। कर्मयोगमें यह खास बात है कि संसारसे प्राप्त सामग्रीके द्वारा ही कर्म होता है। अतः संसारकी सेवामें लगा देनेपर ही वह कर्म यज्ञ सिद्ध होता है। यज्ञकी सिद्धिके बाद स्वतः अवशिष्ट रहनेवाला योग अपने लिये होता है। यह योग (समता) ही यज्ञशेष है, जिसको भगवान्ने चौथे अध्यायमें अमृत कहा है -- यज्ञशिष्टामृतभुजः (4। 31)।मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः -- यहाँ किल्बिषैः पद बहुवचनान्त है, जिसका अर्थ है -- सम्पूर्ण पापोंसे अर्थात् बन्धनोंसे। परन्तु भगवान्ने इस पदके साथ सर्व पद भी दिया है, जिसका विशेष तात्पर्य यह हो जाता है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेपर मनुष्यमें किसी भी प्रकारका बन्धन नहीं रहता। उसके सम्पूर्ण (सञ्चित, प्रारब्ध और क्रियमाण) कर्म विलीन हो जाते हैं (टिप्पणी प0 135) (गीता 4। 23)। सम्पूर्ण कर्मोंके विलीन हो जानेपर उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 4। 31)।इसी अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने यज्ञार्थ कर्मसे अन्यत्र कर्मको बन्धनकारक बताया और चौथे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें यज्ञार्थ कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन होनेकी बात कही। इन दोनों श्लोकों (3। 9 तथा 4। 23) में जो बात आयी है, वही बात यहाँ सर्वकिल्बिषैः पदसे कही गयी है। तात्पर्य है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेवाले मनुष्य सम्पूर्ण बन्धनरूप कर्मोंसे मुक्त हो जाते हैं। पाप-कर्म तो बन्धनकारक होते ही हैं, सकामभावसे किये गये पुण्यकर्म भी (फलजनक होनेसे) बन्धनकारक होते हैं। यज्ञशेष-(समता-) का अनुभव करनेपर पाप और पुण्य -- दोनों ही नहीं रहते -- बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते (गीता 2। 50)।अब विचार करें कि बन्धनका वास्तविक कारण क्या है? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये -- इस कामनासे ही बन्धन होता है। यह कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है (गीता 3। 37)। अतः कामनाका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।वास्तवमें कामनाकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। कामना अभावसे उत्पन्न होती है और ' स्वयं' (सत्स्वरूप) में किसी प्रकारका अभाव है ही नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये ' स्वयं ' में कामना है ही नहीं। केवल भूलसे शरीरादि असत् पदार्थोंके साथ अपनी एकता मानकर मनुष्य असत् पदार्थोंके अभावसे अपनेमें अभाव मानने लगता है और उस अभावकी पूर्तिके लिये असत् पदार्थोंकी कामना करने लगता है। साधकको इस बातकी तरफ खयाल करना चाहिये कि आरम्भ और समाप्त होनेवाली क्रियाओंसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ ही तो मिलेंगे। ऐसे उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे मनुष्यके अभावकी पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। जब इन पदार्थोंसे अभावकी पूर्ति होनेका प्रश्न ही नहीं है, तो फिर इन पदार्थोंकी कामना करना भी भूल ही है। ऐसा ठीक-ठीक विचार करनेसे कामनाकी निवृत्ति सहज हो सकती है।हाँ, अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थोंको कभी भी अपना तथा अपने लिये न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगानेसे इन पदार्थोंसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, जिससे तत्काल अपने सत्स्वरूपका बोध हो जाता है। फिर कोई अभाव शेष नहीं रहता। जिसके मनमें किसी प्रकारके अभावकी मान्यता (कामना) नहीं रहती, वह मनुष्य जीते-जी ही संसारसे मुक्त है।ये पचन्त्यात्मकारणात् -- अपने लिये कुछ भी चाहनेका भाव अर्थात् स्वार्थ, कामना, ममता, आसक्ति एवं अपनेको अच्छा कहलानेका किञ्चित् भी भाव आत्मकारणात् पदके अन्तर्गत आ जाता है। मनुष्यमें स्वार्थबुद्धि जितनी ज्यादा होती है, वह उतना ही ज्यादा पापी होता है।यहाँ पचन्ति पद उपलक्षक है, जिसका अर्थ केवल ' पकाने ' से ही न होकर खाना, पीना, चलना, बैठना आदि समस्त सांसारिक क्रियाओंकी सिद्धिसे है।अपना स्वार्थ चाहनेवाला व्यक्ति अपने लिये पकाये (कार्य करे) अथवा दूसरेके लिये, वास्तवमें वह अपने लिये ही पकाता है। इसके विपरीत अपने स्वार्थभावका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करनेवाला साधक अपने कहलानेवाले शरीरके लिये पकाये अथवा दूसरेके लिये, वास्तवमें वह दूसरेके लिये ही पकाता है। संसारसे हमें जो भी सामग्री मिली है, उसे संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुखभोगमें लगाना ही अपने लिये पकाना है। संसारके छोटे-से-छोटे अंश शरीरको अपना और अपने लिये मानना महान् पाप है। परन्तु शरीरको अपना न मानकर इसको आवश्यकतानुसार अन्न, जल, वस्तु आदि देना और इसको आलसी, प्रमादी, भोगी नहीं होने देना इस शरीरकी सेवा है, जिससे शरीरमें ममता-आसक्ति नहीं रहती।मनुष्यको अपने कर्मोंका फल स्वयं भोगना पड़ता है; परन्तु उसके द्वारा किये गये कर्मोंका प्रभाव सम्पूर्ण संसारपर पड़ता है। ' अपने लिये ' कर्म करनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है और अपने कर्तव्यसे च्युत होनेपर ही राष्ट्रमें अकाल, महामारी, मृत्यु आदि महान् कष्ट होते हैं। अतः मनुष्यके लिये उचित है कि वह अपने लिये कुछ भी न करे, अपना कुछ भी न माने तथा अपने लिये कुछ भी न चाहे।कर्मफल -- (उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुमात्र-) का आश्रय लेना ' अपने लिये पकाने ' के अन्तर्गत है। इसीलिये भगवान्ने छठे अध्यायके पहले श्लोकमें अनाश्रितः कर्मफलम् पदोंसे कर्मयोगीको कर्मफलका आश्रय न लेनेके लिये कहा है। सर्वथा अनाश्रित हो जानेपर ही मनुष्य अपने लिये कुछ नहीं करता, जिससे वह योगमें स्थित हो जाता है।भुञ्जते ते त्वघं पापाः -- इस पदोंमें भगवान्ने ' अपने लिये ' कर्म करनेवालोंकी सभ्य भाषामें निन्दा की है। अपने लिये किये गये कर्मोंसे वह इतना पाप-संग्रह कर लेता है कि चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंका दुःख भोगनेपर भी वह खत्म नहीं होता, प्रत्युत सञ्चितके रूपमें बाकी रह जाता है। मनुष्ययोनि एक ऐसा अद्भुत खेत है, जिसमें जो भी पाप या पुण्यका बीज बोया जाता है, वह अनेक जन्मोंतक फल देता है (टिप्पणी प0 136.1)। अतः मनुष्यको तुरंत यह निश्चय कर लेना चाहिये कि ' अब मैं पाप (अपने लिये कर्म) नहीं करूँगा'। इस निश्चयमें बड़ी भारी शक्ति है। सच तो यह है कि परमात्माकी तरफ चलनेका दृढ़ निश्चय होनेपर पाप होना स्वतः रुक जाता है।सम्बन्ध -- 'मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?' -- अर्जुनके इस प्रश्नके उत्तरमें भगवान् अनेक हेतु देते हुए आगेके दो श्लोकोंमें सृष्टि-चक्रकी सुरक्षाके लिये भी यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते हैं ।।3.13।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- देवयज्ञादीन् निर्वर्त्य तच्छिष्टम् अशनम् अमृताख्यम् अशितुं शीलं येषां ते यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः सर्वपापैः चुल्ल्यादिपञ्चसूनाकृतैः प्रमादकृतहिंसादिजनितैश्च अन्यैः। ये तु आत्मंभरयः, भुञ्जते ते तु अघं पापं स्वयमपि पापाः -- ये पचन्ति पाकं निर्वर्तयन्ति आत्मकारणात् आत्महेतोः।।इतश्च अधिकृतेन कर्म कर्तव्यम् जगच्चक्रप्रवृत्तिहेतुर्हि कर्म। कथमिति उच्यते -- ।।3.13।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.13 Those again, who are yajna-sista-asinah, partakers of the remnants of sacrifices, who, after making offering to the gods and others, The panca-maha-yajnas, five great offerings, which have to be made by every householder are offerings to gods, manes, humans, creatures and rsis (sages). are habituated to eat the remnants (of those offerings), called nectar; they, santah, by being (so); mucyante, become freed; sarva-kilbisaih, from all sins-from those sins incurred through the five things the five things are; oven, water-pot, cutting instruments, grinding machines and broom. A householder incurs sin by killing insects etc. with these things, knowingly or unknowingly. It is atoned by making the aforesaid five offerings., viz oven etc., and also from those others incurred owing to injury etc. caused inadvertently. Tu, but; the papah, unholy persons, who are selfish; ye, who; pacanti, cook; atma-karanat, for themselves; te, they, being themselves sinful; bhunjate, incur; agham, sin.For the following reasons also actions should be undertaken by an eligible person. Action is definitely the cause of the movement of the wheel of the world. How? This is being answered:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
परंतु जो -- यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष हैं अर्थात् देवयज्ञादि करके उससे बचे हुए अमृत नामक अन्नको भक्षण करना जिनका स्वभाव है, वे सब पापोंसे अर्थात् गृहस्थमें होनेवाले चक्की, चूल्हे आदिके पाँच पापोंसे और प्रमादसे होनेवाले हिंसादिजनित अन्य पापोंसे भी छूट जाते हैं। तथा जो उदरपरायण लोग केवल अपने लिये ही अन्न पकाते हैं वै स्वयं पापी हैं और पाप ही खाते हैं ।।3.13।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
इन्द्राद्यात्मना अवस्थितपरमपुरुषाराधनार्थतया एव द्रव्याणि उपादाय विपच्य तैः यथावस्थितं परमपुरुषम् आराध्य तच्छिष्टाशनेन ये शरीरयात्रां कुर्वते, ते तु अनादिकालोपार्जि तैः किल्बिषैः आत्मयाथात्म्यावलोकनविरोधिभिः सर्वैः विमुच्यन्ते।ये तु परमपुरुषेण इन्द्राद्यात्मना स्वाराधनाय दत्तानाम् आत्मार्थतया उपादाय विपच्य अश्नन्ति ते पापात्मानः अघम् एव भुञ्जते। अघपरिणामित्वाद् अघम् इति उच्यते। आत्मावलोकनविमुखा नरकाय एव पच्यन्ते।पुनरपि लोकदृष्ट्या शास्त्रदृष्ट्या च सर्वस्य यज्ञमूलत्वं दर्शयित्वा यज्ञानुवर्तनस्य अवश्यकार्यताम् अननुवर्तने च दोषं च आह -- ।।3.13।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.13 Those persons who acquire food materials solely for propitiating the Supreme Person abiding as the Self of Indra and other deities, and who, after cooking them, propitiate, through them, the Supreme Person as He is, and then sustain themselves on the remnants of oblations (made for such propitiation), they alone will be free of impurities which have resulted from beginningless evil and which are inimical to the vision of the self. But they are evil-minded, who acquire for selfish use the things which the Supreme Being, abiding as the Self of Indra and other deities, has granted them for worshipping Him with, and use it all on the other hand for feeding themselves --- they eat only sin. Turning away from the vision of the self, they cook only for being led to Naraka (for the expiation of the sin incurred thereby).Sri Krsna says that, from the standpoint of the world as well as that of the scriptures, everything has its origin in sacrifice; and He speaks of the need for the performance of the sacrifices and of the blemish in not performing the same:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यज्ञशिष्टाशिन इति। पञ्चविधयज्ञो भगवत्स्वरूपस्तच्छिष्टाशिनः सर्वेऽपि मुच्यन्ते गृहिणः ।।3.13।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ये तु वैश्वदेवादियज्ञावशिष्टममृतं येऽश्नन्ति ते सन्तः शिष्टा वेदोक्तकारित्वेन देवाद्यृणापाकरणात्। अतस्ते मुच्यन्ते। सर्वैर्विहिताकरणनिमित्तैः पूर्वकृतैश्च पञ्चसूनानिमित्तैः किल्बिषैः। भूतभाविपातकासंसर्गिणस्ते भवन्तीत्यर्थः। एवमन्वये भूतभाविपापाभावमुक्त्वा व्यतिरेके दोषमाह -- भुञ्जते इति। ते वैश्वदेवाद्यकारिणोऽघं पापमेव। तुशब्दोऽवधारणे। ये पापाः पञ्चसूनानिमित्तं प्रमादकृतहिंसानिमित्तं च कृतपापाः सन्तः आत्मकारणादेव पचन्ति नतु वैश्वदेवाद्यर्थम्। तथाच पञ्चसूनादिकृतपापे विद्यमानएव वैश्वदेवादिनित्यकर्माकरणनिमित्तमपरं पापमाप्नुवन्तीति भुञ्जते ते त्वघं पापा इत्युक्तम्। तथाच स्मृतिः'कण्डणी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य ताभिः स्वर्गं न विन्दति' इति।'पञ्चसूनाकृतं पापं पञ्चयज्ञैर्व्यपोहति।' इति च। श्रुतिश्च'इदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते स य एतदुपास्ते न स पाप्मनो व्यावर्तते मिश्रं ह्येतत्' इति। मन्त्रवर्णोऽपि'मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य। नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी' इति। इदं चोपलक्षणं पञ्चमहायज्ञानां स्मार्तानां श्रौतानां च नित्यकर्मणाम्। अधिकृतेन नित्यानि कर्माण्यवश्यमनुष्ठेयानीति प्रजापतिवनार्थः ।।3.13।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।3.13।।

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