रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-70


मूल स्लोकः

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं

समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।




English translation by Swami Sivananda
2.70 He attains peace into whom all desires enter as waters enter the ocean which, filled from all sides, remains unmoved; but not the man who is full of desires.


English commentary by Swami Sivananda
2.70 आपूर्यमाणम् filled from all sides, अचलप्रतिष्ठम् based in stillness, समुद्रम् ocean, आपः water, प्रविशन्ति enter, यद्वत् as, तद्वत् so, कामाः desires, यम् whom, प्रविशन्ति enter, सर्वे all, सः he, शान्तिम् peace, आप्नोति attains, न not, कामकामी desirer of desires.Commentary: Just as the ocean filled with waters from all sides remains unmoved, so also the sage who is resting in his own Svarupa or the Self is not a bit affected though desires of all sorts enter from all sides. The sage attains peace or liberation but not he who longs for objects of sensual enjoyment and entertains various desires. (Cf.XVIII.53,54).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादामें अचल प्रतिष्ठित रहता है। ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्यमें विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंकी कामनावाला नहीं ।।2.70।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् -- वर्षाकालमें नदियों और नदोंका जल बहुत बढ़ जाता है कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है; परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है, तब समुद्र बढ़ता नहीं, अपनी मर्यादामें ही रहता है। परन्तु जब गरमीके दिनोंमें नदियों और नदोंका जल जब बहुत कम हो जाता है, तब समुद्र घटता नहीं। तात्पर्य है कि नदी-नदोंका जल ज्यादा आनेसे अथवा कम आनेसे या न आनेसे तथा बड़वानल (जलमें पैदा होनेवाली अग्नि) और सूर्यके द्वारा जलका शोषण होनेसे समुद्रमें कोई फरक नहीं पड़ता, वह बढ़ता-घटता नहीं। उसको नदी-नदोंके जलकी अपेक्षा नहीं रहती। वह तो सदा-सर्वदा ज्यों-का-त्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादाका कभी त्याग नहीं करता।तद्वत्कामा (टिप्पणी प0 106) यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति -- ऐसे ही संसारके सम्पूर्ण भोग उस परमात्मतत्त्वको जाननेवाले संयमी मनुष्यको प्राप्त होते हैं, उसके सामने आते हैं, पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुख-दुःखरूप विकार पैदा नहीं कर सकते। अतः वह परमशान्तिको प्राप्त होता है। उसकी जो शान्ति है, वह परमात्मतत्त्वके कारणसे है, भोग-पदार्थोंके कारणसे नहीं (गीता 2। 46)।यहाँ जो समुद्र और नदियोंके जलका दृष्टान्त दिया गया है, वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्यके विषयमें पूरा नहीं घटता है। कारण कि समुद्र और नदियोंके जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्रमें भरा हुआ है, उसी जातिका जल नद-नदियोंसे आता है; और नद-नदियोंसे जो जल आता है, उसी जातिका जल समुद्रमें भरा हुआ है। परन्तु स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोग-पदार्थोंमें इतना फरक है कि इसको समझानेके लिये रात-दिन, आकाश-पातालका दृष्टान्त भी नहीं बैठ सकता! कारण कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य जिस तत्त्वमें स्थित है, वह तत्त्व चेतन है, नित्य है, सत्य है, असीम है, अनन्त है और सांसारिक भोग-पदार्थ जड हैं, अनित्य हैं, असत् हैं, सीमित हैं अन्तवाले हैं।दूसरा अन्तर यह है कि समुद्रमें तो नदियोंका जल पहुँचता है, पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्वमें स्थित है, वहाँ ये सांसारिक भोग-पदार्थ पहुँचते ही नहीं, प्रत्युत केवल उसके कहे जानेवाले शरीर अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं।अतः समुद्रका दृष्टान्त केवल उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणकी स्थितिको बतानेके लिये ही दिया गया है। उसके वास्तविक स्वरूपको बतानेवाला कोई दृष्टान्त नहीं है।न कामकामी -- जिनके मनमें भोग-पदार्थोंकी कामना है, जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं, जिनकी दृष्टि पदार्थोंकी तरफ ही है, उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ, तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती; उनकी कामना, जलन, सन्ताप नहीं मिट सकते; तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है? कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्ति जड पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती।सम्बन्ध -- अब आगेके श्लोकमें ' स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है?' इस प्रश्नके उत्तरका उपसंहार करते हैं ।।2.70।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- आपूर्यमाणम् अद्भिः अचलप्रतिष्ठम् अचलतया प्रतिष्ठा अवस्थितिः यस्य तम् अचलप्रतिष्ठं समुद्रम् आपः सर्वतो गताः प्रविशन्ति स्वात्मस्थमविक्रियमेव सन्तं यद्वत्, तद्वत् कामाः विषयसंनिधावपि सर्वतः इच्छाविशेषाः यं पुरुषम् -- समुद्रमिव आपः -- अविकुर्वन्तः प्रविशन्ति सर्वे आत्मन्येव प्रलीयन्ते न स्वात्मवशं कुर्वन्ति, सः शान्तिं मोक्षम् आप्नोति, न इतरः कामकामी, काम्यन्त इति कामाः विषयाः तान् कामयितुं शीलं यस्य सः कामकामी, नैव प्राप्नोति इत्यर्थः।।यस्मादेवं तस्मात् -- ।।2.70।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.70 Sah, that man; apnoti, attains; santim, peace Liberation; yam, into whom, into which person; sarve, all; kamah, desires, all forms of wishes; pravisanti, enter, from all directions, like waters entering into a sea, without overwhelming him even in the presence of objects; they vanish in the Self, they do not bring It under their own influence, tadvat, in the same way; yadvat, as; apah, waters, coming from all sides; pravisanti, flow into; samudram, a sea; that remains acala-pratistham, unchanged, that continues to be its own self, without any change; apuryamanam, (even) when filled up from all sides with water.Na, not so the other; who is kama-kami, desirous of objects. Kama means objects which are sought after. He who is given to desire them is kama-kami. The idea implied is that he never attains (peace).Since this is so, therefore.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जिसने तीनों एषणाओंका त्याग कर दिया है, ऐसे स्थितप्रज्ञ विद्वान् संन्यासीको ही मोक्ष मिलता है, भोगोंकी कामना करनेवाले असंन्यासीको नहीं। इस अभिप्रायको दृष्टान्तद्वारा प्रतिपादन करनेकी इच्छा करते हुए भगवान् कहते हैं -- जिस प्रकार, जलसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें अर्थात् अचल भावसे जिसकी प्रतिष्ठा -- स्थिति है ऐसे अपनी मर्यादामें स्थित, समुद्रमें सब ओरसे गये हुए जल, उसमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं। उसीप्रकार विषयोंका सङ्ग होनेपर भी जिस पुरुषमें समस्त इच्छाएँ समुद्रमें जलकी भाँति कोई भी विकार उत्पन्न न करती हुई सब ओरसे प्रवेश कर जाती हैं अर्थात् जिसकी समस्त कामनाएँ आत्मामें लीन हो जाती हैं, उसको अपने वशमें नहीं कर सकतीं -- उस पुरुषको शान्ति मोक्ष मिलता है, दूसरेको अर्थात् भोगोंकी कामना करनेवालेको नहीं मिलता। अभिप्राय यह कि जिनको पानेके लिये इच्छा की जाती है उन भोगोंका नाम काम है, उनको पानेकी इच्छा करना जिसका स्वभाव है वह कामकामी है, वह उस शान्तिको कभी नहीं पाता ।।2.70।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यथा आत्मना एव आपूर्यमाणम् एकरूपं समुद्रं नादेया आपः प्रविशन्ति, आसाम् अपां प्रवेशे अपि अप्रवेशे वा समुद्रो न कञ्चन विशेषम् आपद्यते। एवं सर्वे कामाः शब्दादिविषया यं संयमिनं प्रविशन्ति इन्द्रियगोचरतां यान्ति स शान्तिम् आप्नोति। शब्दादिषु इन्द्रियगोचरताम् आपन्नेषु अनापन्नेषु च स्वात्मावलोकनतृप्त्या एव यो न विकारम् आप्नोति स एव शान्तिम् आप्नोति इत्यर्थः; न कामकामी, यः शब्दादिभिर्विक्रियते स कदाचिद् अपि न शान्तिम् आप्नोति ।।2.70।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.70 The river waters enter into the sea which is full by itself and is thus the same, i.e., unchanging in shape. The sea exhibits no special increase or decrease, whether the waters or rivers enter it or not. Even so do all objects of desire, i.e., objects of sense perception like sound etc., enter into a self-controlled one, i.e., they produce only sensorial impressions but no reaction from him. Such a person will attain peace. The meaning is that he alone attains to peace, who by reason of the contentment coming from the vision of the self, feels no disturbance when objects of sense like sound, etc., come within the ken of the senses or when they do not come. This is not the case with one who runs after desires. Whoever is agitated by sound and other objects, never attains to peace.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अन्यच्च। यथा समुद्रो न कं प्रतियाति किन्तु तं प्रत्येवापः सर्वा यान्ति, तथा कामाः सर्वे तमेव विशन्ति, तत आप्तकामः स शानतिमाप्नोति क्षुब्धोऽपि समुद्र इवाचलप्रतिष्ठो बाह्याद्युपाधिकृतकामतरङ्गानाकुलितस्वरूपो भवति। उपमीयत इति तथा विशेषणसमभिव्याहारः ।।2.70।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एतादृशस्य स्थितप्रज्ञस्य सर्वविक्षेपशान्तिरप्यर्थसिद्धेति सदृष्टान्तमाह -- सर्वाभिर्नदीभिरापूर्यमाणं सन्तं वृष्ट्यादिप्रभवा अपि सर्वा अपि नद्यः समुद्रं प्रविशन्ति। कीदृशम्। अचलप्रतिष्ठमनतिक्रान्तमर्यादं, अचलानां मैनाकादीनां प्रतिष्ठा यस्मिन्निति वा गाम्भीर्यातिशय उक्तः। यद्वद्येन प्रकारेण निर्विकारत्वेन तद्वत्तेनैव निर्विकारत्वप्रकारेण यं स्थितप्रज्ञं निर्विकारमेव सन्तं कामा अज्ञैर्लोकैः काम्यमानाः शब्दाद्याः सर्वे विषया अवर्जनीयतया प्रारब्धकर्मवशात्प्रविशन्ति नतु तच्चित्तं विकर्तुं शक्नुवन्ति स महासमुद्रस्थानीयः स्थितप्रज्ञः शान्तिं सर्वलौकिकालौकिककर्मविक्षेणनिवृत्तिं बाधितानुवृत्ताविद्याकार्यनिवृत्तिं चाप्नोति ज्ञानबलेन। न कामकामी कामान्विषयान्कामयितुं शीलं यस्य स कामकाम्यज्ञः शान्तिं व्याख्यातां नाप्नोति, अपितु सर्वदा लौकिकालौकिककर्मविक्षेपेण महति शोकार्णवे मग्नो भवतीति वीक्यार्थः। एतेन ज्ञानिन एव फलभूतो विद्वत्संन्यासस्तस्यैव च सर्वविक्षेपनिवृत्तिरूपा जीवन्मुक्तिर्दैवाधीनविषयभोगेऽपि निर्विकारतेत्यादिकमुक्तं वेदितव्यम् ।।2.70।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तेन विषयानुभवप्रकारमाह -- 'आपूर्यमाणमिति'। यो विषयैरापूर्यमाणोऽप्यचलप्रतिष्ठो भवति नोत्सेकं प्राप्नोति; न च प्रयत्नं करोति; न चाभावे शुष्यति। न हि समुद्रः सरित्प्रवेशाप्रवेशनिमित्तौ वृद्धिशोषौ बहुतरौ प्राप्नोति, प्रयत्नं वा करोति। स मुक्तिं प्राप्नोतीत्यर्थः ।।2.70।।

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