रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-54


मूल स्लोकः

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।




English translation by Swami Sivananda
2.54 Arjuna said -- What, O Krishna, is the description of him who has steady wisdom, and is merged in the superconscious state? How does one of steady wisdom speak, how does he sit, how does he walk?


English commentary by Swami Sivananda
2.54 स्थितप्रज्ञस्य of the (sage of) steady wisdom, का what, भाषा description, समाधिस्थस्य of the (man) merged in the superconscious state, केशव O Kesava, स्थितधीः the sage of steady wisdom, किम् what (how), प्रभाषेत speaks, किम् what (how), आसीत sits, व्रजेत walks, किम् what (how).Commentary: Arjuna wants to know from Lord Krishna the characteristic marks of one who is established in the Self in Samadhi; how he speaks, how he sits, how he moves about.The characteristic marks of the sage of steady wisdom and the means of attaining that steady knowledge of the Self are described in the verses from 55 to 72 of this chapter.Steady wisdom is settled knowledge of one's identity with Brahman attained by direct realisation. (Cf.XIV.21, 27).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अर्जुन बोले - हे केशव! परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ।।2.54।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- यहाँ अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें जो प्रश्न किये हैं, इन प्रश्नोंके पहले अर्जुनके मनमें कर्म और बुद्धि (2। 47 -- 50) को लेकर शङ्का पैदा हुई थी। परन्तु भगवान्ने बावनवें-तिरपनवें श्लोकोंमें कहा कि जब तेरी बुद्धि मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिको तर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा -- यह सुनकर अर्जुनके मनमें शंङ्का हुई कि जब मैं योगको प्राप्त हो जाऊँगा, स्थितप्रज्ञ हो जाऊँगा तब मेरे क्या लक्षण होंगे? अतः अर्जुनने इस अपनी व्यक्तिगत शङ्काको पहले पूछ लिया और कर्म तथा बुद्धिको लेकर अर्थात् सिद्धान्तको लेकर जो दूसरी शङ्का थी, उसको अर्जुनने स्थितप्रज्ञके लक्षणोंका वर्णन होनेके बाद (3। 1-2 में) पूछ लिया। अगर अर्जुन सिद्धान्तका प्रश्न यहाँ चौवनवें श्लोकमें ही कर लेते तो स्थितप्रज्ञके विषयमें प्रश्न करनेका अवसर बहुत दूर पड़ जाता।समाधिस्थस्य (टिप्पणी प0 92.1) -- जो मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो चुका है, उसके लिये यहाँ समाधिस्थ पद आया है।स्थितप्रज्ञस्य -- यह पद साधक और सिद्ध दोनोंका वाचक है। जिसका विचार दृढ़ है, जो साधनसे कभी विचलित नहीं होता, ऐसा साधक भी स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धिवाला) है और परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है, ऐसा सिद्ध भी स्थितप्रज्ञ है। अतः यहाँ स्थितप्रज्ञ शब्दसे साधक और सिद्ध दोनों लिये गये हैं। पहले इकतालीसवेंसे पैंतालीसवें श्लोकतक और सैंतालीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक साधकोंका वर्णन हुआ हैं; अतः आगेके श्लोकोंमें सिद्धके लक्षणोंमें साधकोंका भी वर्णन हुआ है।यहाँ शङ्का होती है कि अर्जुनने तो समाधिस्थस्य पदसे सिद्ध स्थितप्रज्ञकी बात ही पूछी थी, पर भगवान्ने स्थितप्रज्ञके लक्षणोंमें साधकोंकी बातें क्यों कहीं? इसका समाधान है कि ज्ञानयोगी साधककी तो प्रायः साधन-अवस्थामें ही कर्मोंसे उपरति हो जाती है। सिद्ध-अवस्थामें वह कर्मोंसे विशेष उपराम हो जाता है। भक्तियोगी साधककी भी साधन-अवस्थामें जप, ध्यान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्म करनेकी रुचि होती है और इनकी बहुलता भी होती है। सिद्ध-अवस्थामें तो भगवत्सम्बन्धी कर्म विशेषतासे होते हैं। इस तरह ज्ञानयोगी और भक्तियोगी -- दोनोंकी साधन और सिद्ध-अवस्थामें अन्तर आ जाता है, पर कर्मयोगीकी साधन और सिद्ध-अवस्थामें अन्तर नहीं आता। उसका दोनों अवस्थाओंमें कर्म करनेका प्रवाह ज्यों-का-त्यों चलता रहता है। कारण कि साधन-अवस्थामें उसका कर्म करनेका प्रवाह रहा है और उसके योगपर आरूढ़ होनेमें भी कर्म ही खास कारण रहे हैं। अतः भगवान्ने सिद्धके लक्षणोंमें, साधक जिस तरह सिद्ध हो सके, उसके साधन भी बता दिये हैं और जो सिद्ध हो गये हैं, उनके लक्षण भी बता दिये हैं।का भाषा (टिप्पणी प0 92.2) -- परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यको किस वाणीसे कहा जाता है अर्थात् उसके क्या लक्षण होते हैं? (इसका उत्तर भगवान्ने आगेके श्लोकमें दिया है।)स्थितधीः किं प्रभाषेत -- वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है? (इसका उत्तर भगवान्ने छप्पनवें-सत्तानवें श्लोकमें दिया है।)किमासीत -- वह कैसे बैठता है अर्थात् संसारसे किस तरह उपराम होता है? (इसका उत्तर भगवान्ने अट्ठावनवें श्लोकसे तिरसठवें श्लोकतक दिया है।)व्रजेत किम् -- वह कैसे चलता है अर्थात् व्यवहार कैसे करता है? (इसका उत्तर भगवान्ने चौंसठवेंसे इकहत्तरवें श्लोकतक दिया है।)सम्बन्ध -- अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनके पहले प्रश्नका उत्तर देते हैं ।।2.54।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- स्थिता प्रतिष्ठिता 'अहमस्मि परं ब्रह्म' इति प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः तस्य स्थितप्रज्ञस्य का भाषा किं भाषणं वचनं कथमसौ परैर्भाष्यते समाधिस्थस्य समाधौ स्थितस्य हे केशव। स्थितधीः स्थितप्रज्ञः स्वयं वा किं प्रभाषेत। किम् आसीत व्रजेत किम् आसनं व्रजनं वा तस्य कथमित्यर्थः। स्थितप्रज्ञस्य लक्षणमनेन श्लोकेन पृच्छ्यते।।यो ह्यादित एव संन्यस्य कर्माणि ज्ञानयोगनिष्ठायां प्रवृत्तः, यश्च कर्मयोगेन, तयोः 'प्रजहाति' इत्यारभ्य आ अध्यायपरिसमाप्तेः स्थितप्रज्ञलक्षणं साधनं चोपदिश्यते। सर्वत्रैव हि अध्यात्मशास्त्रे कृतार्थलक्षणानि यानि तान्येव साधनानि उपदिश्यन्ते, यत्नसाध्यत्वात्। यानि यत्नसाध्यानि साधनानि लक्षणानि च भवन्ति तानि श्रीभगवानुवाच -- श्रीभगवानुवाच -- ।।2.54।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.54 O Kesava, ka, what; is the bhasa, description, the language (for the description) -- how is he described by others --; sthita-prajnasya, of a man of steady wisdom, of one whose realization, 'I am the supreme Brahman', remains steady; samadhi-sthasya, of one who is Self-absorbed? Or kim, how; does the sthitadhih, dhih, man of steady wisdom; himself probhaseta, speak? How does he asita, sit? How does he vrajeta, move about? That is to say, of what kind is his sitting or moving?Through this verse Arjuna asks for a description of the man of steady wisdom.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
प्रश्नके कारणको पाकर, समाधिप्रज्ञाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण जाननेकी इच्छासे अर्जुन बोला -- जिसकी बुद्धि इस प्रकार प्रतिष्ठित हो गयी है कि 'मैं परब्रह्म परमात्मा ही हूँ', वह स्थितप्रज्ञ है। हे केशव ! ऐसे समाधिमें स्थित हुए स्थितप्रज्ञ पुरुषकी क्या भाषा होती है? यानी वह अन्य पुरुषोंद्वारा किस प्रकार -- किन लक्षणोंसे बतलाया जाता है? तथा वह स्थितप्रज्ञ पुरुष स्वयं किस तरह बोलता है? कैसे बैठता है? और कैसे चलता है? अर्थात् उसका बैठना, चलना किस तरहका होता है? इस प्रकार इस श्लोकसे अर्जुन स्थितप्रज्ञ पुरुषके लक्षण पूछता है। जो पहलेसे ही कर्मोंको त्यागकर ज्ञाननिष्ठामें स्थित है और जो कर्मयोगसे ( ज्ञाननिष्ठाको प्राप्त हुआ है ) उन दोनों प्रकारके स्थितप्रज्ञोंके लक्षण और साधन 'प्रजहाति' इत्यादि श्लोकसे लेकर अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त कहे जाते हैं। अध्यात्मशास्त्रमें सभी जगह कृतार्थ पुरुषके जो लक्षण होते हैं, वे ही यत्नद्वारा साध्य होनेके कारण ( दूसरोंके लिये ) साधनरूपसे उपदेश किये जाते हैं। जो यत्नसाध्य साधन होते हैं वे ही ( सिद्ध पुरुषके स्वाभाविक ) लक्षण होते हैं ।।2.54।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अर्जुन उवाच -- समाधिस्थस्य स्थितप्रज्ञस्य का भाषा को वाचकः शब्दः -- तस्य स्वरूपं कीदृशम् इत्यर्थः। स्थितप्रज्ञः किं च भाषणादिकं करोति।वृत्तिविशेषकथनेन स्वरूपम् अपि उक्तं भवति इति वृत्तिविशेष उच्यते -- ।।2.54।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.54 Arjuna said -- What is the speech of a man of firm wisdom who is abiding with the mind controlled? What words can describe his state? What is his nature? This is the meaning of 'How does a man of firm wisdom speak etc.?'His specific conduct is now described as his nature can be inferred therefrom.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एवमुक्तेऽर्जुनः पूर्वश्लोकोक्तस्थिरप्रज्ञस्य स्वरूपमनुष्ठानप्रकारं च पृच्छति -- स्थितप्रज्ञस्येति। समाधिस्थस्येति पूर्वोक्तानुवादविशेषणम्। का भाषा कस्तद्वाचकः शब्दः? कीदृशं तत्स्वरूपमिति प्रश्नः ।।2.54।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवं लब्धावसरः स्थितप्रज्ञलक्षणं ज्ञातुमर्जुन उवाच -- यान्येव हि जीवन्मुक्तानां लक्षणानि तान्येव मुमुक्षूणां मोक्षोपायभूतानीति मन्वानः -- स्थिता निश्चलाहंब्रह्मास्मीति प्रज्ञा यस्य स स्थितप्रज्ञोऽवस्थाद्वयवान् समाधिस्थो व्युत्थितश्चेति। अतो विशिनष्टि -- समाधिस्थस्य स्थितप्रज्ञस्य का भाषा। कर्मणि षष्ठी। भाष्यतेऽनयेतिभाषा लक्षणम्। समाधिस्थः स्थितप्रज्ञः केन लक्षणेनान्यैर्व्यवह्रियत इत्यर्थः। सच व्युत्थितचित्तः स्थितधीः स्थितप्रज्ञः स्वयं किं प्रभाषेत स्तुतिनिन्दादावभिनन्दनद्वेषादिलक्षणं किं कथं प्रभाषेतेति सर्वत्र संभावनायां लिङ्। तथा किमासीत व्युत्थितचित्तनिग्रहाय कथं बहिरिन्द्रियाणां निग्रहं करोति, तन्निग्रहाभावकाले च किं व्रजेत कथं विषयान्प्राप्नोति। तत्कर्तृकभाषणासनव्रजनानि मूढजनविलक्षणानि कीदृशानीत्यर्थः। तदेवं चत्वारः प्रश्नाः समाधिस्थे स्थितप्रज्ञे एकः, व्युत्थिते स्थितप्रज्ञे त्रय इति। केशवेति संबोधयन्सर्वान्तर्यामितया त्वमेवैतादृशं रहस्यं वक्तुं समर्थोऽसीति सूचयति ।।2.54।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
स्थिता प्रज्ञा ज्ञानं यस्य स स्थितप्रज्ञः। भाष्यतेऽनयेति भाषा लक्षणमित्यर्थः। उक्तं लक्षणमनुवदति लक्षणानन्तरं पृच्छामीति ज्ञापयितुम्।'समाधिस्थस्येति'। कं ब्रह्माणं ईशं रुद्रं च वर्तयतीति केशवः। तथाहि निरुक्तिः कृता हरिवंशेषु रुद्रेण कैलासयात्रायाम् -- 'हिरण्यगर्भः कः प्रोक्त ईशः शङ्कर एव च। सृष्ट्यादिना वर्तयति तौ यतः केशवो भवान्' इतिवचनान्तराच्च। किमासीत किं प्रत्यासीत?। न चार्जुनो न जानाति तल्लक्षणादिकम्।'जानन्ति पूर्वराजानो देवर्षयस्तथैव च। तथाहि धर्मान्पृच्छन्ति वार्तायै गुह्यवित्तये। न ते गुह्याः प्रतीयन्ते पुराणेष्वल्पबुद्धिनाम्' इति वचनात् ।।2.54।।

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