रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-02


मूल स्लोकः

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुध्दिं मोहयसीव मे।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।3.2।।




English translation by Swami Sivananda
3.2 With this apparently perplexing speech, Thou confusest, as it were, my understanding; therefore tell me that one way for certain by which I may attain bliss.


English commentary by Swami Sivananda
3.2 व्यामिश्रेण perplexing, इव as it were, वाक्येन with speech, बुद्धिम् understanding, मोहयसि (Thou) confusest, इव as it were, मे my, तत् that, एकम् one, वद tell, निश्चित्य for certain, येन by which, श्रेयः bliss (the good or the highest), अहम् I, आप्नुयाम् may attain.Commentary: Arjuna says to Lord Krishna, "Tecah me one of the two, knowledge or action, by which I may attain to the highest good or bliss or Moksha." (Cf.V.I).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अर्जुन बोले -- हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि-(ज्ञान-) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? आप अपने मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अतः आप निश्चय करके एक बात कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ ।।3.1 -- 3.2।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- जनार्दन -- इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ... नियोजयसि केशव -- मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें बुद्धिर्योगे पदसे समबुद्धि-(समता-) की ही बात कही थी; परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया। अतः वे भगवान्से कहते हैं कि हे जनार्दन! आपने पहले कहा कि ' मैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी, इसीको तुम योगके विषयमें सुनो। इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा। ' परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा, जब ज्ञान होगा। आपने यह भी कह दिया कि ' बुद्धियोग अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं ' (2। 49)। अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, उत्तम है, तो फिर मेरेको शास्त्रविहित यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये, केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्ध-जैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें, जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े, क्यों लगा रहे हैं?पहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान्से कहा कि ' हे अच्युत! दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है। ' परन्तु भगवान्ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कि ' तू इन कुरुवंशियोंको देख ', तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया। मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे, कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी; क्योंकि ज्ञानमें युद्ध-जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?यहाँ बुद्धिः पदका अर्थ ' ज्ञान ' लिया गया है। अगर यहाँ बुद्धिः पदका अर्थ ' समबुद्धि ' (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा। कारण कि दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको योग-(समता-) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। व्यामिश्र वचन तभी सिद्धि होगा, जब अर्जुनकी मान्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? दूसरी बात, भगवान्ने आगे अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें दो निष्ठाएँ कही हैं -- ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे। इससे भी अर्जुनके प्रश्नोंमें बुद्धिः पदका अर्थ ' ज्ञान ' लेना युक्तिसंगत बैठता है।कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं। अर्जुनकी भगवान्पर पूर्ण श्रद्धा है; अतः भगवान्के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्ध-जैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैं-ऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्नसे प्रकट होता है।व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे -- इन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करे कुरु कर्माणि (2। 48) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञानका आश्रय लो -- बुद्धौ शरणमन्विच्छ (2। 49)। आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये।यहाँ दो बार इव पदके प्रयोगसे भगवान्पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है। श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान्के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं। परन्तु भगवान्के वचनोंको ठीक-ठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान्के वचन मिले हुए-से लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहति-सी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहति करते, तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौन?तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् -- मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगा -- इनमेंसे आप निश्चय करके मेरे लिये एक बात कहिये, जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये -- यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे (2। 7) और अब भी मैं वही बात कर रहा हूँ।सम्बन्ध -- अब आगेके तीन (तीसरे, चौथे और पाँचवें) श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके व्यामिश्रेणेव वाक्येन (मिले हुए-से वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं ।।3.2।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- व्यामिश्रेणेव, यद्यपि विविक्ताभिधायी भगवान्, तथापि मम मन्दबुद्धेः व्यामिश्रमिव भगवद्वाक्यं प्रतिभाति। तेन मम बुद्धिं मोहयसि इव, मम बुद्धिव्यामोहापनयाय हि प्रवृत्तः त्वं तु कथं मोहयसि? अतः ब्रवीमि बुद्धिं मोहयसि इव मे मम इति। त्वं तु भिन्नकर्तृकयोः ज्ञानकर्मणोः एकपुरुषानुष्ठानासंभवं यदि मन्यसे, तत्रैवं सति तत् तयोः एकं बुद्धिं कर्म वा इदमेव अर्जुनस्य योग्यं बुद्धिशक्त्यवस्थानुरूपमिति निश्चित्य वद ब्रूहि, येन ज्ञानेन कर्मणा वा अन्यतरेण श्रेयः अहम् आप्नुयां प्राप्नुयाम्; इति यदुक्तं तदपि नोपपद्यते।।यदि हि कर्मनिष्ठायां गुणभूतमपि ज्ञानं भगवता उक्तं स्यात् , तत् कथं तयोः 'एकं वद' इति एकविषयैव अर्जुनस्य शुश्रूषा स्यात्। न हि भगवता पूर्वमुक्तम् 'अन्यतरदेव ज्ञानकर्मणोः वक्ष्यामि, नैव द्वयम्' इति, येन उभयप्राप्त्यसंभवम् आत्मनो मन्यमानः एकमेव प्रार्थयेत्।।प्रश्नानुरूपमेव प्रतिवचनं श्रीभगवानुवाच -- ।।3.2।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.2 'Though the Lord speaks lucidly, still, to me who am of a dull understanding, the Lord's utterance appears to be conflicting.' 'Mohayasi, You bewilder; me, any; buddhim, understanding; iva, as it were; vyamisrena iva, by that seemingly conflicting; vakyena, statement! You have surely undertaken to dispel the confusion of my understanding; but why do You bewildered (it)? Hence I say, "You bewildered my understanding, as it were."'However, if You In some readings, 'tvam tu, however, you', is substituted by 'tatra, as to that'.-Tr. think that it is impossible for a single person to pursue both Knowledge and action, which can be undertaken (only) by different persons then, that being the case, vada, tell me; niscitya, for certain; tadekam, one of these, either Knowledge or action: "This indeed is fit for Arjuna, according to his understanding, strength and situation"; yena, by which, by one of either Knowledge or action; aham, I; apnuyam, may attain; sreyah, the highest Good.'Even if Knowledge had been spoken of at all by the Lord as being subsidiary to steadfastness in action, how then could there be the desire in Arjuna to know of only one of them, as expressed in 'Tell me one of these two?' Certainly the Lord did not say, 'I shall speak of only one among Knowledge and action, but surely not of both', owing to which, Arjuna, considering it impossible for himself to acquire both, should have prayed for one only!The answer was in accordance witht the question:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तथा -- यद्यपि भगवान् स्पष्ट कहनेवाले हैं तो भी मुझ मन्दबुद्धिको भगवान्के वाक्य मिले हुए-से प्रतीत होते हैं, उन मिले हुए-से वचनोंसे आप मानो मेरी बुद्धिको मोहित कर रहे हैं। वास्तवमें आप तो मेरी बुद्धिका मोह दूर करनेके लिये प्रवृत्त हुए हैं, फिर मुझे मोहित कैसे करते ! इसीलिये कहता हूँ कि आप मेरी बुद्धिको मोहित-सी करते हैं। आप यदि अलग-अलग अधिकारियोंद्वारा किये जाने योग्य ज्ञान और कर्मका अनुष्ठान एक पुरुषद्वारा किया जाना असम्भव मानते हैं तो उन दोनोंमेंसे 'ज्ञान या कर्म यही एक बुद्धि, शक्ति और अवस्थाके अनुसार अर्जुनके लिये योग्य है' -- ऐसा निश्चय करके मुझसे कहिये, जिस ज्ञान या कर्म किसी एकसे में कल्याणको प्राप्त कर सकूँ। यदि कर्मनिष्ठामें गौणरूपसे भी ज्ञानको भगवान्ने कहा होता तो 'दोनोंमेंसे एक कहिये' इस प्रकार एकहीको सुननेकी अर्जुनकी इच्छा कैसे होती? क्योंकि 'ज्ञान और कर्म इन दोनोंमेंसे मैं तुझसे एक ही कहूँगा, दोनों नहीं' -- ऐसा भगवान्ने कहीं नहीं कहा कि जिससे अर्जुन अपने लिये दोनोंकी प्राप्ति असम्भव मानकर एकके लिये ही प्रार्थना करता ।।3.2।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अतो व्यामिश्रवाक्येन मां मोहयसि इव इति मे प्रतिभाति; तथा हि आत्मावलोकनसाधनभूतायाः सर्वेन्द्रियव्यापारोपरतिरूपाया ज्ञाननिष्ठायाः तद्विपर्ययरूपं कर्म साधनं तद् एव कुरु इति वाक्यं विरुद्धं व्यामिश्रम् एव; तस्माद् एकम् अमिश्ररूपं वाक्यं वद; येन वाक्येन अहम् अनुष्ठेयरूपं निश्चित्य आत्मनः श्रेयः प्राप्नुयाम् ।।3.2।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.2 Consequently, it appears to me as if 'you confuse me with statements that seem to contradict each other.' For, firm devotion to knowledge which forms the means for the vision of the self and which is of the nature of stopping the operations of the senses on the one hand, and on the other exhortation to action which is of a nature opposite to it, i.e., knowledge, as a means to the same vision of that Atman --- these statements are contradictory and confusing. Therefore tell me clearly the path following which I can take a determined course and win the Supreme Being.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
ननु'धर्म्याद्धि युद्धात्' 2।31 इति कर्मणः श्रेयस्त्वत्तो नोदितमिति चेत्तत्राह -- व्यामिश्रेणेति। तर्हि तव वाक्यं व्यामिश्रं नैकान्तिकं सन्देहोत्पादकमिव क्वचित् कर्मप्रशंसा क्वचित् कर्मत्यागप्रशंसा। एकमिति। एतेन मे बुद्धिं मोहयसीव, तदेकं निश्चित्य वद ।।3.2।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु नाहं कंचिदपि प्रतारयामि कि पुनस्त्वामतिप्रियम्। त्वं तु किं मे प्रतारणाचिन्हं पश्यसीति चेत्तत्राह -- तव वचनं व्यामिश्रं न भवत्येव ममत्वेकाधिकारिकत्वभिन्नाधिकारिकत्वसंदेहाद्व्यामिश्रं संकीर्णार्थमिव ते यद्वाक्यं मांप्रति ज्ञानकर्मनिष्ठाद्वयप्रतिपादकं तेन वाक्येन त्वं मे मम मन्दबुद्धेर्वाक्यतात्पर्यापरिज्ञानाद्बुद्धिमन्तःकरणं मोहयसीव भ्रान्त्या योजयसीव। परमकारुणिकत्वात्त्वं न मोहयस्येव। मम तु स्वाशयदोषान्मोहो भवतीतीवशब्दार्थः। एकाधिकारित्वे विरुद्धयोः समुच्चयानुपपत्तेरेकार्थत्वाभावेन च विकल्पानुपपत्तेः प्रागुक्तेर्यद्यधिकारिभेदं मन्यसे तदैकं मांप्रति विरुद्धयोर्निष्ठयोरुपदेशायोगात्तज्ज्ञानं वा कर्म वैकमेवाधिकारं मे निश्चित्य वद। येनाधिकारनिश्चयपुरःसरमुक्तेन त्वया मया चानुष्ठितेन ज्ञानेन कर्मणा वैकेन श्रेयो मोक्षमहमाप्नुयां प्राप्तुं योग्यः स्याम्। एवं ज्ञानकर्मनिष्ठयोरेकाधिकारित्वे विकल्पसमुच्चययोरसंभवादधिकारिभेदज्ञानायार्जुनस्य प्रश्न इति स्थितम्।'इहेतरेषां कुमतं समस्तं श्रुतिस्मृतिन्यायबलान्निरस्तम्। पुनः पुनर्भाष्यकृतातियत्नादतो न तत्कर्तुमहं प्रवृत्तः।।भाष्यकारमतसारदर्शिना ग्रन्थमात्रमिह योज्यते मया। आशयो भगवतः प्रकाश्यते केवलं स्ववचसो विशुद्धये।।' एवमधिकारिभेदेऽर्जुनेन पृष्टे तदनुरुपं प्रतिवचनं श्रीभगवानुवाच -- अस्मिन्नधिकारित्वाभिमते लोके शुद्धाशुद्धान्तःकरणभेदेन द्विविधे जने द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितिर्ज्ञानपरता कर्मपरता च पुरा पूर्वाध्याये मया तवात्यन्तहितकारिणा प्रोक्ता प्रकर्षेण स्पष्टत्वलक्षणेनोक्ता। तथा चाधिकार्यैक्यशङ्कया माग्लासीरिति भावः। हे अनघ अपापेति संबोधयन्नुपदेशयोग्यतामर्जुनस्य सूचयति। एकैव निष्ठा साध्यसाधनावस्थाभेदेन द्विप्रकारा नतु द्वे एव स्वतन्त्रे निष्ठे इति कथयितुं निष्ठेत्येकवचनम्। तथाच वक्ष्यति'एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति' इति। तामेव निष्ठां द्वैविध्येन दर्शयति -- सांख्येति। संख्या सम्यगात्मबुद्धिस्तां प्राप्तवतां ब्रह्मचर्यादेव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थानां ज्ञानभूमिमारूढानां शुद्धान्तःकरणानां सांख्यानां ज्ञानयोगेन ज्ञानमेव युज्यते ब्रह्मणानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्ता'तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः' इत्यादिना। अशुद्धान्तःकरणानां तु ज्ञानभूमिमनारूढानां योगिनां कर्माधिकारयोगिनां कर्मयोगेन कर्मैव युज्यतेऽन्तःकरणशुद्ध्यानेनेति व्युत्पत्त्या योगस्तेन निष्ठोक्तान्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानभूमिकारोहणार्थं'धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते' इत्यादिना। अतएव न ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो विकल्पो वा किंतु निष्कामकर्मणा शुद्धान्तःकरणानां सर्वकर्मसंन्यासेनैव ज्ञानमिति चित्तशुद्ध्यशुद्धिरूपावस्थाभेदेनैकमेव त्वांप्रति द्विविधा निष्ठोक्ता'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु' इति। अतो भूमिकाभेदेनैकमेव प्रत्युभयोपयोगान्नाधिकारभेदेऽप्युपदेशवैयर्थ्यमित्यभिप्रायः। एतदेव दर्शयितुमशुद्धचित्तस्य चित्तशुद्धिपर्यन्तं कर्मानुष्ठानं'न कर्मणामनारम्भात्' इत्यादिभिः'मोघं पार्थ स जीवति' इत्यन्तैस्त्रयोदशभिर्दर्शयति। शुद्धचित्तस्य तु ज्ञानिनो न किंचिदपि कर्मापेक्षितमिति दर्शयति'यस्त्वात्मरतिरेव' इति द्वाभ्याम्।'तस्मादसक्तः' इत्यारभ्य तु बन्धहेतोरपि कर्मणो मोक्षहेतुत्वं सत्त्वशुद्धिज्ञानोत्पत्तिद्वारेण संभवति फलाभिसंधिराहित्यरूपकौशलेनेति दर्शयिष्यति। ततः परंतु'अथ केन' इति प्रश्नमुत्थाप्य कामदोषेणैव काम्यकर्मणः शुद्धिहेतुत्वं नास्ति। अतः कामराहित्येनैव कर्माणि कुर्वन्नन्तःकरणशुद्ध्य ज्ञानाधिकारी भविष्यसीति यावदध्यायसमाप्ति वदिष्यति भगवान् ।।3.2 -- 3.3।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।3.2।।

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