रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-65


मूल स्लोकः

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।




English translation by Swami Sivananda
2.65 In that peace all pains are destroyed; for the intellect of the tranquil-minded soon becomes steady.


English commentary by Swami Sivananda
2.65 प्रसादे in peace, सर्वदुःखानाम् (of) all pains, हानिः destruction, अस्य of him, उपजायते arises (or happens), प्रसन्नचेतसः of the tranquilminded, हि because, आशु soon, बुद्धिः intellect (or reason), पर्यवतिष्ठते becomes steady.Commentary: When the mental peace is attained, there is no hankering after sense-objects. The Yogi has perfect mastery over his reason. The intellect abides in the Self. It is quite steady. The miseries of the body and the mind come to an end.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त हो जाता है। प्रसन्नता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे प्रसन्नचित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है ।।2.64 - 2.65।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तु -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि आसक्ति रहते हुए विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता है और यहाँ कहते हैं कि आसक्ति न रहनेपर विषयोंका सेवन करनेसे उत्थान हो जाता है। वहाँ तो बुद्धिका नाश बताया और यहाँ बुद्धिका परमात्मामें स्थित होना बताया। इस प्रकार पहले कहे गये विषयससे यहाँके विषयका अन्तर बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है।विधेयात्मा -- साधकका अन्तःकरण अपने वशमें रहना चाहिये। अन्तःकरणको वशीभूत किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत कर्म करते हुए विषयोंमें राग होनेकी और पतन होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो अन्तःकरणको अपने वशमें रखना हरेक साधकके लिये आवश्यक है। कर्मयोगीके लिये तो इसकी विशेष आवश्यकता है।आत्मवश्यैः रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैः -- जैसे विधेयात्मा पद अन्तःकरणको वशमें करनेके अर्थमें आया है, ऐसे ही आत्मवश्यैः पद इन्द्रियोंको वशमें करनेके अर्थमें आया है। तात्पर्य है कि व्यवहार करते समय इन्द्रियाँ अपने वशीभूत होनी चाहिये और इन्द्रियाँ वशीभूत होनेके लिये इन्द्रियोंका राग-द्वेष रहित होना जरूरी है। अतः इन्द्रियोंसे किसी विषयका ग्रहण रागपूर्वक न हो और किसी विषयका त्याग द्वेषपूर्वक न हो। कारण कि विषयोंके ग्रहण और त्यागका इतना महत्त्व नहीं है, जितना महत्त्व इन्द्रियोंमें राग और द्वेष न होने देनेका है। इसीलिये तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने साधकके लिये सावधानी बतायी है कि ' प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष रहते हैं। साधक इनके वशीभूत न हो; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं।' पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि ' जो साधक राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है, वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।विषयान् चरन् -- जिसका अन्तःकरण अपने वशमें है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित तथा अपने वशमें की हुई है, ऐसा साधक इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन अर्थात् सब प्रकारका व्यवहार तो करता है, पर विषयोंका भोग नहीं करता। भोगबुद्धिसे किया हुआ विषय-सेवन ही पतनका कारण होता है। इस भोगबुद्धिका निषेध करनेके लिये ही यहाँ विधेयात्मा, आत्मवश्यैः आदि पद आये हैं।प्रसादमधिगच्छति -- राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करनेसे साधक अन्तःकरणकी प्रसन्नता-(स्वच्छता-) को प्राप्त होता है। यह प्रसन्नता मानसिक तप है (गीता 17। 16), जो शारीरिक और वाचिक तपसे ऊँचा है। अतः साधकको न तो रागपूर्वक विषयोंका सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक विषयोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष -- इन दोनोंसे ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है।राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन करनेसे जो प्रसन्नता होती है, उसका अगर सङ्ग न किया जाय, भोग न किया जाय, तो वह प्रसन्नता परमात्माकी प्राप्ति करा देती है।प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते -- चित्तकी प्रसन्नता (स्वच्छता) प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है अर्थात् कोई भी दुःख नहीं रहता। कारण कि राग होनेसे ही चित्तमें खिन्नता होती है। खिन्नता होते ही कामना पैदा हो जाती है और कामनासे ही सब दुःख पैदा होते हैं। परन्तु जब राग मिट जाता है, तब चित्तमें प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नतासे सम्पूर्ण दुःख मिट जाते हैं।जितने भी दुःख हैं, वे सब-के-सब प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके सम्बन्धसे ही होते हैं और शरीर-संसारसे सम्बन्ध होता है सुखकी लिप्सासे। सुखकी लिप्सा होती है खिन्नतासे। परन्तु जब प्रसन्नता होती है, तब खिन्नता मिट जाती है। खिन्नता मिटनेपर सुखकी लिप्सा नहीं रहती। सुखकी लिप्सा न रहनेसे शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहता और सम्बन्ध न रहनेसे सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है -- सर्वदुःखानां हानिः। तात्पर्य है कि प्रसन्नतासे दो बातें होती हैं -- संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मामें बुद्धिकी स्थिरता। यही बात भगवान्ने पहले तिरपनवें श्लोकमें ' निश्चला' और ' अचला ' पदोंसे कही है कि उसकी बुद्धि संसारमें निश्चल और परमात्मामें अचल हो जाती है।यहाँ सर्वदुःखानां हानिः का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके सामने दुःखदायी परिस्थिति आयेगी ही नहीं, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह है कि कर्मोंके अनुसार उसके सामने दुःखदायी घटना, परिस्थिति आ सकती है; परन्तु उसके अन्तःकरणमें दुःख सन्ताप, हलचल आदि विकृति नहीं हो सकती।प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते -- प्रसन्न (स्वच्छ) चित्तवालेकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मानें स्थिर हो जाती है अर्थात् साधक स्वयं परमात्मामें स्थिर हो जाता है, उसकी बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता।मार्मिक बातभगवद्विषयक प्रसन्नता हो अथवा व्याकुलता हो -- इन दोनोंमेंसे कोई एक भी अगर अधिक बढ़ जाती है, तो वह शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति करा देती है। जैसे, भगवान्के पास जाती हुई गोपियोंको माता-पिता, भाई, पति आदिने रोक दिया, मकानमें बंद कर दिया, तो उन गोपियोंमें भगवान्से मिलनेकी जो व्याकुलता हुई, उससे उनके पाप नष्ट हो गये और भगवान्का चिन्तन करनेसे जो प्रसन्नता हुई, उससे उनके पुण्य नष्ट हो गये। इस प्रकार पाप-पुण्यसे रहित होकर वे शरीरको वहीं छोड़कर सबसे पहले भगवान्से जा मिलीं (टिप्पणी प0 102)। परन्तु सांसारिक विषयोंको लेकर जो प्रसन्नता और खिन्नता होती है, उन दोनोंमें ही भोगोंके संस्कार दृढ़ होते हैं अर्थात् संसारका बन्धन दृढ़ होता है। इसके उदाहरण संसारमात्रके सामान्य प्राणी हैं, जो प्रसन्नता और खिन्नताको लेकर संसारमें फँसे हुए हैं।प्रसन्नता और व्याकुलता-(खिन्नता-) में अन्तःकरण द्रवित हो जाता है। जैसे द्रवित मोममें रंग डालनेसे मोममें वह रंग स्थायी हो जाता है, ऐसे ही अन्तःकरण द्रवित होनेपर उसमें भगवत्सम्बन्धी अथवा सांसारिक -- जो भी भाव आते हैं, वे स्थायी हो जाते हैं। स्थायी होनेपर वे भाव उत्थान अथवा पतन करनेवाले हो जाते हैं। अतः साधकके लिये उचित है कि संसारकी प्रिय-से-प्रिय वस्तु मिलनेपर भी प्रसन्न न हो और अप्रिय-से-अप्रिय वस्तु मिलनेपर भी उद्विग्न न हो।सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें जो बात कही है, उसीको आगेके दो श्लोकोंमें व्यतिरेक रीतिसे पुष्ट करते हैं ।।2.65।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- प्रसादे सर्वदुःखानाम् आध्यात्मिकादीनां हानिः विनाशः अस्य यतेः उपजायते। किञ्च -- प्रसन्नचेतसः स्वस्थान्तःकरणस्य हि यस्मात् आशु शीघ्रं बुद्धिः पर्यवतिष्ठते आकाशमिव परि समन्तात् अवतिष्ठते, आत्मस्वरूपेणैव निश्चलीभवतीत्यर्थः।।एवं प्रसन्नचेतसः अवस्थितबुद्धेः कृतकृत्यता यतः, तस्मात् रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैः शास्त्राविरुद्धेषु अवर्जनीयेषु युक्तः समाचरेत् इति वाक्यार्थः।।सेयं प्रसन्नता स्तूयते -- ।।2.65।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.65 Prasade, when there is serenity; upajayate, there follows; hanih, eradication; asya sarva-duhkhanam, of all his, the sannyasin's, sorrow on the physical and other planes. Moreover, (this is so) hi, because; buddhih, the wisdom; prasanna-cetasah, of one who has a serene mind, of one whose mind is poised in the Self; asu, soon; pari-avatisthate, becomes firmly established; remains steady (avatisthate) totally (pari), like the sky, i.e. it becomes unmoving in its very nature as the Self.The meaning of the sentence is this: Since a person with such a poised mind and well-established wisdom attains fulfilment, therefore a man of concentration A man who is free whom slavery to objects of the senses. ought to deal with the indispensable and scripturally non-forbidden objects through his senses that are free from love and hatred.That same serenity is being eulogized:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
प्रसन्नता होनेसे क्या होता है? सो कहते हैं -- प्रसन्नता प्राप्त होनेपर इस यतिके आध्यात्मिकादि तीनों प्रकारके समस्त दुःखोंका नाश हो जाता है। क्योंकि ( उस ) प्रसन्नचित्तवालेकी अर्थात् स्वस्थ अन्तःकरणवाले पुरुषकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे आकाशकी भाँति स्थिर हो जाती है -- केवल आत्मरूपसे निश्चल हो जाती है। इस वाक्यका अभिप्राय यह है कि इस प्रकार प्रसन्नचित्त और स्थिरबुद्धिवाले पुरुषको कृतकृत्यता मिलती है, इसलिये साधक पुरुषको चाहिये कि राग-द्वेषसे रहित की हुई इन्द्रियोंद्वारा शास्त्रके अविरोधी अनिवार्य विषयोंका सेवन करे ।।2.65।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अस्य पुरुषस्य मनसः प्रसादे सति प्रकृतिसंसर्गप्रयुक्तसर्वदुःखानां हानिः उपजायते। प्रसन्नचेतसः आत्मावलोकनविरोधिदोषरहितमनसः तदानीम् एव हि विविक्तात्मविषया बुद्धिः मयि पर्यवतिष्ठते; अतो मनःप्रसादे सर्वदुःखानां हानिः भवति एव ।।2.65।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.65 When the mind of this person gets serene, he gets rid of all sorrows originating from contact with matter. For, in respect of the peson whose mind is serene, i.e., is free from the evil which is antagonistic to the vision of the self, the Buddhi, having the pure self for its object, becomes established immediately. Thus, when the mind is serene, the loss of all sorrow surely arises.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
नन्विन्द्रियाणां विषयाभिमुखस्वभावानां निरोधस्याशक्यत्वाद्दोषो दुष्परिहर इति कथं प्रज्ञायाः प्रतिष्ठितत्वं? इत्याशङ्क्याह द्वाभ्याम् -- रागेति। यो वश्यात्मा स्वेन्द्रियै रागद्वेषवियुक्तैर्विषयानुपभुञ्जानोऽपि प्रसादं प्रशान्तिमधिगच्छति तस्य प्रसन्नचेतसः प्रज्ञा प्रतिष्ठिताऽवसेया ।।2.64 -- 2.65।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
'प्रसादमधिगच्छति' इत्युक्तं तत्र प्रसादे सति किं स्यादित्युच्यते। चित्तस्य प्रसादे स्वच्छत्वरूपे सति सर्वदुःखानामाध्यात्मिकादीनामज्ञानविलसितानां हानिर्विनाशोऽस्य यतेरुपजायते। हि यस्मात्प्रसन्नचेतसो यतेराशु शीघ्रमेव बुद्धिर्ब्रह्मात्मैक्याकारा पर्यवतिष्ठते परि समन्तादवतिष्ठते स्थिरा भवति विपरीतभावनादिप्रतिबन्धाभावात्। ततश्च प्रसादे सति बुद्धिपर्यवस्थानं, ततस्तद्विरोध्यज्ञाननिवृत्तिः, ततस्तत्कार्यसकलदुःखहानिरिति क्रमेऽपि प्रसादे यत्नाधिक्याय सर्वदुःखहानिकरत्वकथनमिति न विरोधः ।।2.65।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
कथं प्रसादमात्रेण सर्वदुःखहानिः? प्रसन्नचेतसो हि बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ब्रह्मापरोक्ष्येण सम्यक्स्थितिं करोति। प्रसादो नाम स्वतः प्रायो विषयागतिः ।।2.65।।

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