रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-25


मूल स्लोकः

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।3.25।।




English translation by Swami Sivananda
3.25 As the ignorant men act from attachment to action, O Bharata (Arjuna), so should the wise act without attachment, wishing the welfare of the world.


English commentary by Swami Sivananda
3.25 सक्ताः attached, कर्मणि to action, अविद्वांसः the ignorant, यथा as, कुर्वन्ति act, भारत O Bharata, कुर्यात् should act, विद्वान् the wise, तथा so, असक्तः unattached, चिकीर्षुः wishing, लोकसंग्रहम् the welfare of the world.Commentary: The ignorant man works in expectation of fruits. He says, "I will do such and such work and will get such and such fruit." But the wise man who knows the Self, serves not for his own end. He should so act that the world, following his example, would attain peace, harmony, purity of heart, divine light and knowledge. A wise man is one who knows the Self. (Cf.II.64;III.19;XVIII.49).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान् भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्योंकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मोंको अच्छी तरहसे करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाये ।।3.25 -- 3.26।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो तथा कुर्वन्ति भारत -- जिन मनुष्योंकी शास्त्र, शास्त्र-पद्धति और शास्त्र-विहित शुभकर्मोंपर पूरी श्रद्धा है एवं शास्त्रविहित कर्मोंका फल अवश्य मिलता है -- इस बातपर पूरा विश्वास है; जो न तो तत्त्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं; किन्तु कर्मों, भोगों एवं पदार्थोंमें आसक्त हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये यहाँ सक्ताः, अविद्वांसः पद आये हैं। शास्त्रोंके ज्ञाता होनेपर भी केवल कामनाके कारण ऐसे मनुष्य अविद्वान् (अज्ञानी) कहे गये हैं। ऐसे पुरुष शास्त्रज्ञ तो हैं, पर तत्त्वज्ञ नहीं। ये केवल अपने लिये कर्म करते हैं, इसीलिये अज्ञानी कहलाते हैं।ऐसे अविद्वान् मनुष्य कर्मोंमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म करते हैं; क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि कर्मोंको करनेमें कोई कमी आ जानेसे उनके फलमें भी कमी आ जायगी। भगवान् उनके इस प्रकार कर्म करनेकी रीतिको आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित विद्वान्के लिये भी इसी विधिसे लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् -- जिसमें कामना, ममता, आसक्ति, वासना, पक्षपात, स्वार्थ आदिका सर्वथा अभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषके लिये यहाँ असक्तः, विद्वान् पद आये हैं (टिप्पणी प0 158)।बीसवें श्लोकमें लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कहकर फिर इक्कीसवें श्लोकमें जिसकी व्याख्या की गयी, उसीको यहाँ लोकसंग्रहं चिकीर्षुः पदोंसे कहा गया है।श्रेष्ठ मनुष्य (आसक्तिरहित विद्वान्) के सभी आचरण स्वाभाविक ही यज्ञके लिये, मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये होते हैं। जैसे भोगी मनुष्यकी भोगोंमें, मोही मनुष्यकी कुटुम्बमें और लोभी मनुष्यकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ मनुष्यकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है। उसके अन्तःकरणमें ' मैं लोकहित करता हूँ ' -- ऐसा भाव भी नहीं होता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक लोकहित होता है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी ' लोकसंग्रह ' पदमें आये ' लोक ' शब्दके अन्तर्गत आते हैं।दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती। कारण कि वे संसारसे प्राप्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, पद, अधिकार, धन, योग्यता, सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किञ्चिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही मानते हैं, जो कि वास्तवमें है। वही प्रवाह रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतः-स्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं।इस श्लोकमें यथा और तथा पद कर्म करनेके प्रकारके अर्थमें आये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अज्ञानी (सकाम) पुरुष अपने स्वार्थके लिये सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी लोकसंग्रह अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करे। ज्ञानी पुरुषको प्राणिमात्रके हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये। सबका कल्याण कैसे हो? -- इस भावसे कर्तव्य-कर्म करनेपर लोकमें अच्छे भावोंका प्रचार स्वतः होता है।अज्ञानी पुरुष तो फलकी प्राप्तिके लिये सावधानी और तत्परतासे विधिपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, पर ज्ञानी पुरुषकी फलमें आसक्ति नहीं होती और उसके लिये कोई कर्तव्य भी नहीं होता। अतः उसके द्वारा कर्मकी उपेक्षा होना सम्भव है। इसीलिये भगवान् कर्म करनेके विषयमें ज्ञानी पुरुषको भी अज्ञानी (सकाम) पुरुषकी ही तरह कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।इक्कीसवें श्लोकमें तो विद्वान्को आदर्श बताया गया था, पर यहाँ उसे अनुयायी बताया है। तात्पर्य यह है कि विद्वान् चाहे आदर्श हो अथवा अनुयायी, उसके द्वारा स्वतः लोगसंग्रह होता है। जैसे भगवान् श्रीराम प्रजाको उपदेश भी देते हैं और पिताजीकी आज्ञाका पालन करके वनवास भी जाते हैं। दोनों ही परिस्थितियोंमें उनके द्वारा लोकसंग्रह होता है; क्योंकि उनका कर्मोंके करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन नहीं था।जब विद्वान् आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करता है, तब आसक्तियुक्त चित्तवाले पुरुषोंके अन्तःकरणपर भी विद्वान्के कर्मोंका स्वतः प्रभाव पड़ता है, चाहे उन पुरुषोंको ' यह महापुरुष निष्कामभावसे कर्म कर रहा है ' -- ऐसा प्रत्यक्ष दीखे या न दीखे। मनुष्यके निष्कामभावोंका दूसरोंपर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है -- यह सिद्धान्त है। इसलिये आसक्तिरहित विद्वान्के भावों, आचरणोंका प्रभाव मनुष्योंपर ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी आदिपर भी पड़ता है।विशेष बातमनुष्य जबतक निष्कामभावपूर्वक विहित-कर्म नहीं करता, तबतक उसका जन्म-मरण नहीं मिट सकता। वह जबतक अपने लिये कर्म करता है, तबतक वह कृतकृत्य नहीं होता अर्थात् उसका ' करना ' समाप्त नहीं होता। कारण कि ' स्वयं ' नित्य रहनेवाला है और कर्म एवं उसका फल नष्ट होनेवाला है। अतः प्रत्येक मनुष्यके लिये स्वार्थ-त्यागपूर्वक (अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये) कर्तव्य-कर्म करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है।सांसारिक पदार्थोंको मूल्यवान् समझनेके कारण ही कर्मयोग-(निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म-) के पालनमें कठिनाई प्रतीत होती है। हमें दूसरोंसे कुछ न चाहकर केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करने हैं -- इस बातको यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोगका पालन सुगम हो जाय।वास्तवमें महत्ता पदार्थकी नहीं, प्रत्युत आचरण-(उसके उपयोग-) की ही होती है। आचरणकी महत्ता भी तब है, जब अन्तःकरणमें पदार्थकी महत्ता न हो। कोई भी पदार्थ व्यक्तिगत नहीं है; केवल उपयोगके लिये ही व्यक्तिगत है। पदार्थको व्यक्तिगत माननेसे ही परहितके लिये उसका त्याग कठिन प्रतीत होता है। कोई भी पदार्थ या क्रिया बन्धनकारक नहीं, उनका सम्बन्ध ही बन्धनकारक है।विद्वान् पुरुषोंसे भी लोकसंग्रहके लिये सब कर्म होते हैं। परन्तु ऐसा होते हुए भी उनमें ' मैं लोगसंग्रह कर रहा हूँ ' -- यह अभिमान नहीं रहता। कारण यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, विद्या, योग्यता, पद आदि सब संसारके हैं और संसारसे मिले हैं। संसारसे मिली सामग्रीको संसारकी ही सेवामें लगा देना ईमानदारी है। उस सामग्रीको बहुत सच्चाईसे, ईमानदारीसे संसारके अर्पण कर देना है। यह अर्पण करना कोई बड़ा काम नहीं है। जैसे किसीने हमारे पास धरोहररूपसे रुपये रखे और कुछ समय बाद उसके माँगनेपर हमने उसके रुपये उसे वापस कर दिये, तो कौन-सा बड़ा काम किया? हाँ, हमारा दायित्व समाप्त हो गया, हम ऋणमुक्त हो गये। इसी प्रकार संसारकी वस्तु संसारके अर्पण कर देनेसे हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है, हम ऋणमुक्त हो जाते हैं -- जन्म-मरणके बन्धनसे सदाके लिये छूट जाते हैं। इसलिये सांसारिक पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर कोई दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन पदार्थोंसे अपना पिण्ड छुड़ाना है।न बुद्धिभेदं ... विद्वानयुक्तः समाचरन् -- पचीसवें श्लोकमें असक्तः, विद्वान् पदोंसे जिसका वर्णन हुआ है, उसी आसक्तिरहित विद्वान्को यहाँ युक्तः, विद्वान् पदोंसे कहा गया है।जिसके अन्तःकरणमें स्वतः-स्वाभाविक समता है, जिसकी स्थिति निर्विकार है, जिसकी समस्त इन्द्रियाँ अच्छी तरह जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान हैं, ऐसा तत्त्वज्ञ महापुरुष ही युक्तः, विद्वान् कहलाता है (गीता 6। 8)।पीछेके (पचीसवें) श्लोकमें सक्ताः, अविद्वांसः पदोंसे जिनका वर्णन हुआ है, उन्हीं शास्त्रविहित शुभकर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी पुरुषोंको यहाँ कर्मसङ्गिनाम्, अज्ञानम् पदोंसे कहा गया है।शास्त्रविहित कर्मोंको अपने लिये (सुख-भोग, मान, बड़ाई आदिकी प्राप्तिके लिये) करनेके कारण इन पुरुषोंको ' कर्मसङ्गी ' और ' अज्ञानी ' कहा गया है।श्रेष्ठ पुरुषपर विशेष जिम्मेवारी होती है; क्योंकि दूसरे लोग स्वाभाविक ही उसका अनुसरण करते हैं। इसलिये भगवान् उपर्युक्त पदोंसे विद्वानको आज्ञा देते हैं कि उसे ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिये और ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये, जिसे अज्ञानी (कामनायुक्त) पुरुषोंका वर्तमान स्थितिसे पतन हो जाय। अज्ञानी पुरुष अभी जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिसे उन्हें विचलित करना (नीचे गिराना) ही उनमें ' बुद्धिभेद ' उत्पन्न करना है। अतः विद्वान्को सबके हितका भाव रखते हुए अपने वर्णाश्रम-धर्मके अनुसार शास्त्रविहत शुभ-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये, जिससे दूसरे पुरुषोंको भी निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती रहे। समाज एवं परिवारके मुख्य व्यक्तियोंपर भी यही बात लागू होती है। उनको भी सावधानीपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करते रहना चाहिये, जिससे समाज और परिवारपर अच्छा प्रभाव पड़े।बुद्धिभेद पैदा करनेके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -- 1-'कर्मोंमें क्या रखा है? कर्मोंसे जो जीव बँधता है; कर्म निकृष्ट हैं; कर्म छोड़कर ज्ञानमें लगना चाहिये' आदि उपदेश देना अथवा इस प्रकारके अपने आचरणों और वचनोंसे दूसरोंमें कर्तव्य-कर्मोंके प्रति अश्रद्धा-अविश्वास उत्पन्न करना।2- ' जहाँ देखो, वहीं स्वार्थ है; स्वार्थके बिना कोई रह नहीं सकता; सभी स्वार्थके लिये कर्म करते हैं; मनुष्य कोई कर्म करे तो फलकी इच्छा रहती ही है; फलकी इच्छा न रहे तो सभी कर्म करेगा ही क्यों ' आदि उपदेश देना।3- ' फलकी इच्छा रखकर (अपने लिये) कर्म करनेसे (फल भोगनेके लिये) बार-बार जन्म लेना पड़ता है ' आदि उपदेश देना। इस प्रकारके उपदेशोंसे कामनावाले पुरुषोंका कर्मफलपर विश्वास नहीं रहता। फलस्वरूप उनकी (फलमें) आसक्ति तो छूटती नहीं; शुभ-कर्म जरूर छूट जाते हैं। बन्धनका कारण आसक्ति ही है, कर्म नहीं। इस प्रकार लोगोंमें बुद्धि-भेद उत्पन्न न करके तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह अपने वर्णाश्रम-धर्मके अनुसार स्वयं कर्तव्य-कर्म करे और दूसरोंसे भी वैसे ही करवाये। उसे चाहिये कि वह अपने आचरणों और वचनोंके द्वारा अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भ्रम पैदा न करते हुए उन्हें वर्तमान स्थितिसे क्रमशः ऊँचे उठाये। जिन शास्त्रविहित शुभ-कर्मोंको अज्ञानी पुरुष अभी कर रहे हैं, उनकी वह विशेषरूपसे प्रशंसा करे और उनके कर्मोंमें होनेवाली त्रुटियोंसे उन्हें अवगत कराये, जिससे वे उन त्रुटियोंको दूर करके साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म कर सकें। इसके साथ ही ज्ञानी पुरुष उन्हें यह उपदेश दें कि यज्ञ, दान, पूजा, पाठ आदि शुभ-कर्म करना तो बहुत अच्छा है, पर उन कर्मोंमें फलकी इच्छा रखना उचित नहीं; क्योंकि हीरेको कंकड़-पत्थरोंके बदले बेचना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतः सकामभावका त्याग करके शुभ-कर्म करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है। इस प्रकार सकामभावसे निष्कामभावकी ओर जाना बुद्धिभेद नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है।इसी तरह उपासनाके विषयमें भी तत्त्वज्ञ पुरुषको बुद्धिभेद पैदा नहीं करना चाहिये। जैसे, प्रायः लोग कह दिया करते हैं कि नाम-जप करते समय भगवान्में मन नहीं लगा तो नाम-जप करना व्यर्थ है। परन्तु तत्त्वज्ञ पुरुषको ऐसा न कहकर यह उपदेश देना चाहिये कि नाम-जप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान्के प्रति कुछ-न-कुछ भाव रहनेसे ही नाम-जप होता है। भावके बिना नाम-जपमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। अतः नाम-जपका किसी भी अवस्थामें त्याग नहीं करना चाहिये। जो यह कहा गया है कि मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं इसका भी यही अर्थ है कि मन न लगनेसे यह ' सुमिरन ' (स्मरण) नहीं है, ' जप ' तो है ही। हाँ, मन लगाकर ध्यानपूर्वक नाम-जप करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है।कोई भी मनुष्य सर्वथा गुण-रहित नहीं होता। उसमें कुछ-न-कुछ गुण रहते ही हैं। इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषको चाहिये कि अगर किसी व्यक्तिको (उसकी उन्नतिके लिये) कोई शिक्षा देनी हो, कोई बात समझानी हो, तो उस व्यक्तिकी निन्दा या अपमान न करके उसके गुणोंकी प्रशंसा करे। गुणोंकी प्रसंशा करते हुए आदरपूर्वक उसे जो शिक्षा दी जायगी, उस शिक्षाका उसपर विशेष असर पड़ेगा। समाज और परिवारके मुख्य व्यक्तियोंको भी इसी रीतिसे दूसरोंको शिक्षा देनी चाहिये।समाचरन् और जोषयेत् पदोंसे भगवान् विद्वान्को दो आज्ञाएँ देते हैं -- (1) स्वयं सावधानीपूर्वक शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मोंको अच्छी तरह करे और (2) कर्मोंमें आसक्त अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवाये। लोगोंको दिखानेके लिये कर्म करना ' दम्भ ' है, जो पतन करनेवाली आसुरी-सम्पत्तिका लक्षण है (गीता 16। 4)। अतः भगवान् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं, प्रत्युत लोकसंग्रहके लिये ही कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि कर्म करनेसे अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी वह समस्त कर्तव्य-कर्मोंको सुचारुरूसे करता रहे, जिससे कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंकी निष्काम-कर्मोंके प्रति महत्त्वबुद्धि जाग्रत् हो और वे भी निष्कामभावसे कर्म करने लगें। तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषके आसक्तिरहित आचरणोंको देखकर अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करनेकी चेष्टा करने लगेंगे।इस प्रकार ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंको आदरपूर्वक समझाकर उनसे निषिद्धकर्मोंका स्वरूपसे (सर्वथा) त्याग करवाये, और विहित-कर्मोंमेंसे सकाम-भावका त्याग करनेकी प्रेरणा करे।सम्बन्ध -- ज्ञानी और अज्ञानीमें क्या अन्तर है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।3.25।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- सक्ताः कर्मणि 'अस्य कर्मणः फलं मम भविष्यति' इति केचित् अविद्वांसः यथा कुर्वन्ति भारत, कुर्यात् विद्वान् आत्मवित् तथा असक्तः सन्। तद्वत् किमर्थं करोति? तत् श्रृणु -- चिकीर्षुः कर्तुमिच्छुः लोकसंग्रहम्।।एवं लोकसंग्रहं चिकीर्षोः न मम आत्मविदः कर्तव्यमस्ति अन्यस्य वा लोकसंग्रहं मुक्त्वा। ततः तस्य आत्मविदः इदमुपदिश्यते -- ।।3.25।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.25 O scion of the Bharata dynasty, yatha, as; some avidvamsah, unenlightened poele; kurvanti, act. saktah, with attachment; karmani, to work, (thinking) 'The reward of this work will accrue to me'; tatha, so; should vidvan, the enlightened person, the knower of the Self; kuryat, act; asaktah, without attachment, remaining unattached. Giving up the idea of agentship and the hankering for the rewards of actions to oneself. Whay does he (the enlightened person) act like him (the former)? Listen to that: Cikirsuh, being desirous of achieving; lokasamgraham, prevention of people from going astray.'Neither for Me who am a knower of the Self, nor for any other (knower of the Self) who wants thus prevent people from going astray, is there any duty apart from working for the welfare of the world. Hence, the following advice is being given to such a knower of the Self:'



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
यदि मेरी तरह तू या दूसरा कोई कृतार्थबुद्धि आत्मवेत्ता हो, तो उसको भी अपने लिये कर्तव्यका अभाव होनेपर भी केवल दूसरोंपर अनुग्रह ( करनेके लिये कर्म ) करना चाहिये -- हे भारत ! 'इस कर्मका फल मुझे मिलेगा' इस प्रकार कर्मोंमें आसक्त हुए कई अज्ञानी मनुष्य जैसे कर्म करते हैं आत्मवेत्ता विद्वान्को भी आसक्तिरहित होकर उसी तरह कर्म करना चाहिये। आत्मज्ञानी उसकी तरह कर्म क्यों करता है? सो सुन -- वह लोकसंग्रह करनेकी इच्छावाला है ( इसलिये करता है ) ।।3.25।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अविद्वांसः आत्मनि अकृत्स्नविदः कर्मणि सक्ताः कर्मणि अवर्जनीयसंबन्धाः, आत्मनि अकृत्स्नवित्तया तदभ्यासरूपज्ञानयोगे अनधिकृताः, कर्मयोगाधिकारणिः कर्मयोगम् एव यथा आत्मदर्शनाय कुर्वते, तथा आत्मनि कृत्स्नवित्तया कर्मणि असक्तः ज्ञानयोगाधिकारयोग्यः अपि व्यपदेश्यः शिष्टः, लोकरक्षणार्थं स्वाचारेण शिष्टलोकानां धर्मनिश्चयं चिकीर्षुः कर्मयोगम् एव कुर्यात् ।।3.25।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.25 'The ignorant' are those people who do not know the entire truth about the self; 'attached to their work' means they are inseparably yoked to work. Because of their incomplete knowledge of the self, they are not qualified for Jnana Yoga which is of the nature of practising knowledge of the self. They are qualified for Karma Yoga only. As they should practise Karma Yoga for the vision of the self in the same manner Karma Yoga should be practised by one who is recognised as virtuous, who is unattached to work by reason of the vision of the self, and who wishes that his conduct should give guidance to others in virtuous conduct. In this way he should protect the world from chaos by his example. Such a person, even though qualified for Jnana Yoga, should practice Karma Yoga.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
तस्माद्विदुषाऽपि लोकसङ्ग्रहार्थं तत्कृपया कर्म कर्त्तव्यमित्युपसंहरन्नाह -- सक्ता इति। उभयोः कर्माचरणे प्राप्ते प्रकारभेदं दर्शयति -- अविद्वांस आत्मानात्मतत्त्वमजानन्तः सक्ताः कुर्वन्ति, न तथा विद्वान्, यतो लोकसङ्ग्रहं चिकीर्षुरिति ।।3.25।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु तवेश्वरस्य लोकसंग्रहार्थं कर्माणि कुर्वाणस्यापि कर्तृत्वाभिमानाभावान्न कापि क्षतिः। मम तु जीवस्य लोकसंग्रहार्थं कर्माणि कुर्वाणस्य कर्तृत्वाभिमानेन ज्ञानाभिभवः स्यादित्यत आह -- सक्ताः कर्तृत्वाभिमानेन फलाभिसन्धिना च कर्मण्यभिनिविष्टा अविद्वांसोऽज्ञा यथा कुर्वन्ति कर्म लोकसंग्रहं कर्तुमिच्छुर्विद्वानात्मविदपि तथैव कुर्यात्। किंतु असक्तः सन्। कर्तृत्वाभिमानं फलाभिसंधिं चाकुर्वन्नित्यर्थः। भारतेति भरतवंशोद्भवत्वेन, भा ज्ञानं तस्यां रतत्वेन वा त्वं यथोक्तशास्त्रार्थबोधयोग्योऽसीति दर्शयति ।।3.25।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।3.25।।

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