रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-04


मूल स्लोकः

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।




English translation by Swami Sivananda
3.4 Not by non-performance of actions does man reach actionlessness; nor by mere renunciation does he attain to perfection.


English commentary by Swami Sivananda
3.4 न not, कर्मणाम् of actions, अनारम्भात् from non-performance, नैष्कर्म्यम् actionlessness, पुरुषः man, अश्नुते reaches, न not, च and, संन्यसनात् from renunciation, एव only, सिद्धिम् perfection, समधिगच्छति attains.Commentary: Actionlessness (Naishkarmyam) and perfection (Siddhi) are synonymous. The sage who has attained to perfection or reached the state of actionlessness rests in his own essential nature as Existence-Knowledge-Bliss Absolute (Satchidananda Svarupa). He has neither necessity nor desire for action as a means to an end. He has perfect satisfaction in the Self.One attains to the state of actionlessness by gaining the knowledge of the Self. If a man simply sits quiet by abandoning action you cannot say that he has attained to the state of actionlessness. His mind will be planning, scheming and speculating. Thought is real action. The sage who is free from affirmative thoughts, wishes, and likes and dislikes, who has the knowledge of the Self can be said to have attained to the state of actionlessness.No one can reach perfection or freedom from action or knowledge of the Self by mere renunciation or by simply giving up activities without possessing the knowledge of the Self. (Cf.XVIII.49).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है ।।3.4।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते -- कर्मयोगमें कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि निष्कामभावसे कर्म करनेपर ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है (टिप्पणी प0 117)। यह सिद्धि मनुष्यको कर्म किये बिना नहीं मिल सकती।मनुष्यके अन्तःकरणमें कर्म करनेका जो वेग विद्यमान रहता है, उसे शान्त करनेके लिये कामनाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है। कामना रखकर कर्म करनेपर यह वेग मिटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता है।नैष्कर्म्यम् अश्नुते पदोंका आशय है कि कर्मयोगका आचरण करनेवाला मनुष्य कर्मोंको करते हुए ही निष्कर्मताको प्राप्त होता है। जिस स्थितिमें मनुष्यके कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते, उस स्थितिको'निष्कर्मता' कहते हैं।कामनासे रहित होकर किये गये कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिका उसी प्रकार सर्वथा अभाव हो जाता है, जिस प्रकार बीजको भूनने या उबालनेपर उसमें पुनः अंकुर देनेकी शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है। अतः निष्काम मनुष्यके कर्मोंमें पुनः जन्म-मरणके चक्रमें घुमानेकी शक्ति नहीं रहती।कामनाका त्याग तभी हो सकता है, जब सभी कर्म दूसरोंकी सेवाके लिये किये जायँ, अपने लिये नहीं। कारण कि कर्ममात्रका सम्बन्ध संसारसे है और अपना (स्वरूपका) सम्बन्ध परमात्मासे है। अपने साथ कर्मका सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये जबतक अपने लिये कर्म करेंगे, तबतक कामनाका त्याग नहीं होगा; और जबतक कामनाका त्याग नहीं होगा, तबतक निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होगी।न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति -- इस श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने कर्मयोगकी दृष्टिसे कहा कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना कर्मयोगीको निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। अब श्लोकके उत्तरार्धमें सांख्ययोगकी दृष्टिसे कहते हैं कि केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेसे सांख्ययोगीको सिद्धि अर्थात् निष्कर्मताकी प्राप्ति नहीं होती। सिद्धिकी प्राप्ति के लिये उसे कर्तापन-(अहंता-) का त्याग करना आवश्यक है। अतः सांख्ययोगीके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना मुख्य नहीं है, प्रत्युत अहंताका त्याग ही मुख्य है।सांख्ययोगमें कर्म किये भी जा सकते हैं औ किसी सीमातक कर्मोंका त्याग भी किया जा सकता है; परन्तु कर्मयोगमें सिद्धि-प्राप्तिके लिये कर्म करना आवश्यक होता है (गीता 6। 3)।मार्मिक बातश्रीमद्भगवद्गीता मनुष्यको व्यवहारमें परमार्थ-सिद्धिकी कला सिखाती है। उसका आशय कर्तव्य-कर्म करानेमें है, छुड़ानेमें नहीं। इसलिये भगवान् कर्मयोग और ज्ञानयोग -- दोनों ही साधनोंमें कर्म करनेकी बात कहते हैं।यह एक स्वाभाविक बात है कि जब साधक अपना कल्याण चाहता है, तब वह सांसारिक कर्मोंसे उकताने लगता है और उन्हें छोड़ना चाहता है। इसी कारण अर्जुन भी कर्मोंसे उकताकर भगवान्से पूछते हैं कि जब कर्मयोग और ज्ञानयोग -- दोनों प्रकारके साधनोंका तात्पर्य समतासे है, तो फिर कर्म करनेकी बात आप क्यों कहते हैं? मुझे युद्ध-जैसे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? परन्तु भगवान्ने दोनों ही प्रकारके साधनोंमें अर्जुनको कर्म करनेकी आज्ञा दी है; जैसे -- कर्मयोगमें योगस्थः कुरु कर्माणि (गीता 2। 48) और सांख्ययोगमें तस्माद्युध्यस्व भारत (गीता 2। 18)। इससे सिद्ध होता है कि भगवान्का अभिप्राय कर्मोंको स्वरूपसे छुड़ानेमें नहीं, प्रत्युत कर्म करानेमें है। हाँ, भगवान् कर्मोंमें जो जहरीला अंश -- कामना, ममता और आसक्ति है, उसका त्याग करके ही कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी अपेक्षा साधकको उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे कर्म करते हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको संसारकी वस्तु मानकर संसारकी सेवामें लगाता है और कर्मों तथा पदार्थोंके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता (गीता 5। 11)। ज्ञानयोगमें सत्-असत्के विवेककी प्रधानता रहती है। अतएव ज्ञानयोगी ऐसा मानता है कि गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे ही कर्म हो रहे हैं। मेरा कर्मोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है (गीता 3। 28; 5। 8-9)।प्रायः सभी साधकोंके अनुभवकी बात है कि कल्याणकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होते ही कर्म, पदार्थ और व्यक्ति-(परिवार-) से उनकी अरुचि होने लगती है। परन्तु वास्तवमें देहके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेसे यह आराम-विश्रामकी इच्छा ही है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है। साधकोंके मनमें ऐसा भाव रहता कि कर्म, पदार्थ और व्यक्तिका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही हम परमार्थमार्गमें आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु वास्तवमें इनका स्वरूपसे त्याग न करके इनमें आसक्तिका त्याग करना ही आवश्यक है। सांख्ययोगमें उत्कट वैराग्यके बिना आसाक्तिका त्याग करना कठिन होता है। परन्तु कर्मयोगमें वैराग्यकी कमी होनेपर भी केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे आसक्तिका त्याग सुगमतापूर्वक हो जाता है।गीताने एकान्तमें रहकर साधन करनेका भी आदर किया है; परन्तु एकान्तमें सात्त्विक पुरुष तो साधन-भजनमें अपना समय बिताता है, पर राजस पुरुष संकल्प-विकल्पमें, तामस पुरुष निद्रा-आलस्य-प्रमादमें अपना समय बिताता है, जो पतन करनेवाला है। इसलिये साधककी रुचि तो एकान्तकी ही रहनी चाहिये अर्थात् सांसारिक कर्मोंका त्याग करके पारमार्थिक कार्य करनेमें ही उसकी प्रवृत्ति रहनी चाहिये, परन्तु कर्तव्यरूपसे जो कर्म सामने आ जाय, उसको वह तत्परतापूर्वक करे। उस कर्ममें उसका राग नहीं होना चाहिये। राग न तो जन-समुदायमें होना चाहिये और न अकर्मण्यतामें ही। कहीं भी राग न रहनेसे साधका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है। वास्तवमें शरीरको एकान्तमें ले जानेको ही एकान्त मान लेना भूल है; क्योंकि शरीर संसारका ही एक अंश है। अतः शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होना अर्थात् उसमें अहंता-ममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है ।।3.4।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- न कर्मणां क्रियाणां यज्ञादीनाम् इह जन्मनि जन्मान्तरे वा अनुष्ठितानाम् उपात्तदुरितक्षयहेतुत्वेन सत्त्वशुद्धिकारणानां तत्कारणत्वेन च ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण ज्ञाननिष्ठाहेतूनाम्, 'ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः। यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि' (महा0 शान्ति0 204।8) इत्यादिस्मरणात्, अनारम्भात् अननुष्ठानात् नैष्कर्म्यं निष्कर्मभावं कर्मशून्यतां ज्ञानयोगेन निष्ठां निष्क्रियात्मस्वरूपेणैव अवस्थानमिति यावत्। पुरुषः न अश्नुते न प्राप्नोतीत्यर्थः।।कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति वचनात् तद्विपर्ययात् तेषामारम्भात् नैष्कर्म्यमश्नुते इति गम्यते। कस्मात् पुनः कारणात् कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति? उच्यते, कर्मारम्भस्यैव नैष्कर्म्योपायत्वात्। न ह्युपायमन्तरेण उपेयप्राप्तिरस्ति। कर्मयोगोपायत्वं च नैष्कर्म्यलक्षणस्य ज्ञानयोगस्य, श्रुतौ इह च, प्रतिपादनात्। श्रुतौ तावत् प्रकृतस्य आत्मलोकस्य वेद्यस्य वेदनोपायत्वेन 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन' (बृह0 उ0 4।4।22) इत्यादिना कर्मयोगस्य ज्ञानयोगोपायत्वं प्रतिपादितम्। इहापि च -- 'संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः' (गीता 5।6) 'योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ' (गीता 5।11) 'यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्' (गीता 18।5) इत्यादि प्रतिपादयिष्यति।।ननु च 'अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्' इत्यादौ कर्तव्यकर्मसंन्यासादपि नैष्कर्म्यप्राप्तिं दर्शयति। लोके च कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यमिति प्रसिद्धतरम्। अतश्च नैष्कर्म्यार्थिनः किं कर्मारम्भेण? इति प्राप्तम्। अत आह -- न च संन्यसनादेवेति। नापि संन्यसनादेव केवलात् कर्मपरित्यागमात्रादेव ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां ज्ञानयोगेन निष्ठां समधिगच्छति न प्राप्नोति।।कस्मात् पुनः कारणात् कर्मसंन्यासमात्रादेव केवलात् ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां पुरुषो नाधिगच्छति इति हेत्वाकाङ्क्षायामाह -- ।।3.4।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.4 Purusah, a person; na does not; asnute, attain; naiskarmyam, freedom from action, the state of being free from action, steadfastness in the Yoga of Knowledge, i.e. the state of abiding in one's own Self which is free from action; anarambhat, by abstaining; karmanam, from actions-by the non-performance of actions such as sacrifices etc. which are or were performed in the present or past lives, which are the causes of the purification of the mind by way of attenuating the sins incurred, and which, by being the cause of that (purification), become the source of steadfastness in Knowledge through the generation of Knowledge, as stated in the Smrti (text), 'Knowledge arises in a person from the attenuation of sinful acts' the whole verse is:Jnanam utpadyate pumsamksayatpapasya karmanah;Yathadarsatalaprakhye pasyatyatmanamatmani.'Knowledge arises...acts. One sees the Self in oneself as does one (see oneself) in a cleaned surface of a mirror'.-Tr. (Mbh. Sa. 204.8). This is the import.From the statement that one does not attain freedom from action by abstaining from actions, it may be concluded that one attains freedom from action by following the opposite course of performing actions. What, again, is the reason that one does not attain freedom from action by abstaining from actions? The answer is: Because performing actions is itself a means to freedom from action. Indeed, there can be no attainment of an end without (its) means. And Karma-yoga is the means to the Yoga of Knowledge characterized by freedom from action, because it has been so established in the Upanisads and here as well. As for the Upanisads, it has been shown in the texts, 'The Brahmanas seek to know It through the study of the Vedas, sacrifices, (charity, and austerity consisting in a dispassionate enjoyment of sense-objects)' (Br. 4.4.22), etc. whch deal with the means of realizing the goal of Knowledge under discussion, viz the Realm of the Self, that the Yoga of Karma is a means to the Yoga of Knowledge . And even here (in the Gita), the Lord will established that, 'But, O mighty-armed one, renunciation is hard to attain without (Karma-)yoga' (5.6); 'By giving up attachment, the yogis undertake work...for the purification of themselves' (5.11); 'Sacrifice, charity and austerity are verily the purifiers of the wise' (18.5), etc.Objection: Is it not that in such texts as-'Extending to all creatures immunity from fear' (Na. Par. 5.43), (one should take recourse to freedom from action)-, it is shown that attainment of freedom from action follows even from the renunciation of obligatory duties? And in the world, too, it is a better known fact that freedom from action follows abstention from actions. Hence also arises the question, 'Why should one who desires freedom from action undertake action?'Reply: Therefore the Lord said: Na ca, nor; samadhi-gacchati, does he attain; siddhim, fulfilment steadfastness in the Yoga of Knowledge, characterized by freedom from action; sannyasanat eva, merely through renunciation-even from the mere renunciation of actions which is devoid of Knowledge.What, again, is the reason that by the mere giving up of actions which is not accompanied with Knowledge, a person does not attain fulfulment in the form of freedom from actions? To this query seeking to know the cause, the Lord says:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
यह बात स्पष्ट प्रकट करनेकी इच्छासे कि ज्ञाननिष्ठाकी प्राप्तिमें साधन होनेके कारण कर्मनिष्ठा मोक्षरूप पुरुषार्थमें हेतु है, स्वतन्त्र नहीं है; और कर्मनिष्ठारूप उपायसे सिद्ध होनेवाली ज्ञाननिष्ठा अन्यकी अपेक्षा न रखकर स्वतन्त्र ही मुक्तिमें हेतु है, भगवान् बोले -- कर्मोंका आरम्भ किये बिना अर्थात् यज्ञादि कर्म जो कि इस जन्म या जन्मान्तरमें किये जाते हैं और सञ्चित पापोंका नाश करनेके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण हैं एवं 'पाप-कर्मोंका नाश होनेपर मनुष्योंके ( अन्तःकरणमें ) ज्ञान प्रकट होता है' इस स्मृतिके अनुसार जो अन्तःकरणकी शुद्धिमें कारण होनेसे ज्ञाननिष्ठाके भी हेतु हैं, उन यज्ञादि कर्मोंका आरम्भ किये बिना -- मनुष्य निष्कर्मभावको -- कर्मशून्य स्थितिको, अर्थात् जो निष्क्रिय आत्मस्वरूपमें स्थित होनारूप ज्ञानयोगसे प्राप्त होनेवाली निष्ठा है, उसको नहीं पाता। पू0 -- कर्मोंका आरम्भ नहीं करनेसे निष्कर्मभावको प्राप्त नहीं होता -- इस कथनसे यह पाया जाता है कि इसके विपरीत करनेसे अर्थात् कर्मोंका आरम्भ करनेसे मनुष्य निष्कर्मभावको पाता है, सो ( इसमें ) क्या कारण है कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मताको प्राप्त नहीं होता? उ0 -- क्योंकि कर्मोंका आरम्भ ही निष्कर्मताकी प्राप्तिका उपाय है और उपायके बिना उपेयकी प्राप्ति हो नहीं सकती, यह प्रसिद्ध ही है। निष्कर्मतारूप ज्ञानयोगका उपाय कर्मयोग है, यह बात श्रुतिमें और यहाँ गीतामें भी प्रतिपादित है। श्रुतिमें प्रस्तुत ज्ञेयरूप आत्मलोकके जाननेका उपाय बतलाते हुए 'उस आत्माको बाह्मण वेदाध्ययन और यज्ञसे जाननेका इच्छा करते हैं' इत्यादि वचनोंसे कर्मयोगको ज्ञानयोगका उपाय बतलाया है। तथा यहाँ ( गीताशास्त्रमें ) भी -- 'हे महाबाहो ! बिना कर्मयोगके संन्यास प्राप्त करना कठिन है', 'योगी लोग आसक्ति छो़ड़कर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म किया करते हैं', 'यज्ञ, दान और तप बुद्धिमानोंको पवित्र करनेवाले हैं' इत्यादि वचनोंसे आगे प्रतिपादित करेंगे। यहाँ यह शंका होती है कि 'सब भूतोंको अभयदान देकर संन्यास ग्रहण करे', इत्यादि वचनोंमें कर्तव्यकर्मोंके त्यागद्वारा भी निष्कर्मताकी प्राप्ति दिखलायी है और लोकमें भी कर्मोंका आरम्भ न करनेसे निष्कर्मताका प्राप्त होना अत्यन्त प्रसिद्ध है। फिर निष्कर्मता चाहनेवालेको कर्मोंके आरम्भसे क्या प्रयोजन? इसपर कहते हैं -- केवल संन्याससे अर्थात् बिना ज्ञानके केवल कर्मपरित्यागमात्रसे मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धिको अर्थात् ज्ञानयोगसे होनेंवाली स्थितको नहीं पाता ।।3.4।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
न शास्त्रीयाणां कर्मणाम् अनारम्भाद् एव पुरुषः नैष्कर्म्यं ज्ञाननिष्ठाम् आप्नोति; सर्वेन्द्रियव्यापाराख्यकर्मोपरतिपूर्विकां ज्ञाननिष्ठां न प्राप्नोति इत्यर्थः। न च आरब्धस्य शास्त्रीयस्य कर्मणः त्यागात्; यतः अनभिसंहितफलस्य परमपुरुषाराधनविषयस्य कर्मणः सिद्धिः आत्मनिष्ठा स्यात्; अतः तेन विना तां न प्राप्नोति; अनभिसंहितफलैः कर्मभिः अनाराधितगोविन्दैः अविनष्टानादिकालप्रवृत्तानन्तपापसंचयैः अव्याकुलेन्द्रियतापूर्विका आत्मनिष्ठा दुःसंपाद्या।एतद् एव उपपादयति -- ।।3.4।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.4 Not by non-performance of the acts prescribed by the scriptures, does a person attain freedom from Karma, i.e., Jnana Yoga; nor by ceasing to perform such actions as are prescribed in the scriptures and are already begun by him. For, success is achieved by actions done without attachment to the fruits and by way of worshipping the Supreme Person. Hence devoid of it (Karma-nistha), one does not achieve Jnana-nistha. By those persons who have not worshipped Govinda by acts done without attachment to fruits and whose beginningless and endless accumulation of evil has not been annulled thereby, constant contemplation on the self is not possible. It can be done only if it is preceded by the attainment of a state in which the operation of the senses have been freed from disturbance.This view is put forward by the Lord:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
योगेऽनःकरणशोधकत्वं कर्मादेः संयोगपृथक्त्वन्यायेनैव निर्णीतं, अन्यथा त्रयाणां जिज्ञासा स्वतन्त्रा न कृता स्यात्'योगेन संसिद्धिर्ज्ञानेन भक्त्या चेति पुरुषार्थसाधनं' इति आप्तभाष्ये निर्णीतं, तेनात्र कर्मणामारम्भान्नैष्कयमोक्षसिद्धिरिति योगमतं द्रढयति -- न कर्मणामनारम्भादिति। कर्माधिकारिणां त्वादृशानां कर्मसन्न्यसनासाङ्ख्यादपि च न सिद्धिरित्याह -- न चेति। जीवन्मुक्तिकैर्गुणैर्वा मुक्तेनापि देहवत्त्वेन कर्मकरणदर्शनात् ।।3.4।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तत्र कारणाभावे कार्यानुपपत्तेः कर्मणा -- 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन' इति श्रुत्यात्मज्ञाने विनियुक्तानामनारम्भादननुष्ठानाच्चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञानायोग्यो बहिर्मुखः नैष्कर्म्यं सर्वकर्मशून्यत्वं ज्ञानयोगेन निष्ठामिति यावत्, नाश्नुते न प्राप्नोति। ननु'एतमेव प्रवाजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति' इति श्रुतेः सर्वकर्मसंन्यासादेव ज्ञाननिष्ठोपपत्तेः कृतं कर्मभिरित्यत आह -- नच संन्यसनादेव चित्तशुद्धिंविना कृतात्सिद्धिं ज्ञाननिष्ठालक्षणां सम्यक्फलपर्यवसायित्वेन नाधिगच्छति नैव प्राप्नोतीत्यर्थः। कर्मजन्यां चित्तशुद्धिमन्तरेण सन्यास एव न संभवति यथा कथंचिदौत्सुक्यमात्रेण कृतोऽपि न फलपर्यवसायीति भावः ।।3.4।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
इतश्च नियोक्ष्यामीत्याह -- 'न कर्मणामिति'। कर्मणां युद्धादीनामनारम्भेण नैष्कर्म्यं निष्कर्मतां काम्यकर्मपरित्यागेन प्राप्यत इति मोक्षं नाश्नुते। ज्ञानमेव तत्साधनं, न तु कर्माकरणमित्यर्थः। कुतः? पुरुषत्वात्। सर्वदा स्थूलेन सूक्ष्मेण वा पुरेण युक्तो ननु जीवः; यदि कर्माकरणेन मुक्तिः स्यात् स्थावराणाम्। न चाकरणे कर्माभावान्मुक्तिर्भवति, प्रतिजन्मकृतानामनन्तकर्मणां भावात्।न च सर्वाणि भुक्तानि एकस्मिञ्च्छरीरे बहूनि हि कर्माणि करोति। तानि चैकैकानि बहुजन्मफलानि कानिचित्; तत्र चैकैकानि कर्माणि भुञ्जन्प्राप्नोत्येव शेषेण मानुष्यम्। ततश्च बहुशरीरफलकर्माणीत्यसमाप्तिः। तच्चोक्तं'जीवंश्चतुर्दशादूर्ध्वं पुरुषो नियमेन तु। स्त्री वाप्यनूनदशकं देहं मानुषमार्जते। चतुर्दशोर्ध्वजीवीनि संसारश्चादिवर्जितः। अतोऽवित्वा परं देवं मोक्षाशा का महामुने' इति ब्राह्मे। यदि सादिः स्यात्संसारः पूर्वकर्माभावादतत्प्राप्तिः। अबन्धकत्वं त्वकामेनैव भवति। तच्च वक्ष्यते'अनिष्टंमिष्टं' 18।12 इति।ननु निष्कामकर्मणः फलाभावान्मोक्षः स्मृतः।'निष्कामं ज्ञानपूर्वं तु निवृत्तमिह चोच्यते। निवृत्तं सेवमानस्तु ब्रह्माभ्येति सनातनम्' इति मानवे?। अतस्तत्साभ्यादकरणेऽपि भवतीत्यत आह -- 'न चेति'। सन्न्यासः काम्यकर्मपरित्यागः। 'काम्यानां कर्मणां' 18।2 इति वक्ष्यमाणत्वात्। अकामकर्मणामन्तःकरणशुद्ध्या ज्ञानान्मोक्षो भवति। तच्चोक्तं'कर्मभिः शुद्धसत्त्वस्य वैराग्यं जायते हृदि' इति भागवते । विरक्तानामेव च ज्ञानमुक्तम्'न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्वरीयसीरपि वाचः समासन्। स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात्' भाग.5।11।3 इति। न तु फलाभावात् कर्माभावात्। अतो न कर्मत्याग एव मोक्षसाधनम्।यत्याश्रमस्तु प्रायत्यार्थो भगवत्तोषणार्थश्च। अप्रयतत्वमेव हि प्रायो गृहस्थादीनाम्, इतरकर्मोद्योगात्। अप्रयतानां च न ज्ञानम्, तथा हि श्रुतिः "नाशान्तो नासमाहितः" कठो.2।23 इति। महांश्च यत्याश्रमे भगवतस्तोषः। तथा ह्याह -- 'यत्याश्रमं तुरीयं तु दीक्षां मम सुतोषिणीम्' इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। आधिकारिकास्तु तथैव प्रायत्ये समर्थाः। स एव च महान्भगवतस्तोषः। तच्चोक्तम् -- 'देवादीनामादिराज्ञां महोद्योगोऽपि भोगिनः। विष्णोश्चलति तद्भोगोऽत्यतीव हरितोषणम्' इति पाद्मे ।।3.4।।

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