रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-72


मूल स्लोकः

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।

स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2.72।।




English translation by Swami Sivananda
2.72 This is the Brahmic seat (eternal state), O son of Pritha. Attaining to this, none is deluded. Being established therein, even at the end of life, one attains to oneness with Brahman.


English commentary by Swami Sivananda
2.72 एषा this, ब्राह्मी of Brahmic, स्थितिः state, पार्थ O Partha, न not, एनाम् this, प्राप्य having obtained, विमुह्यति is deluded, स्थित्वा being established, अस्याम् in this, अन्तकाले at the end of life, अपि even, ब्रह्मनिर्वाणम् oneness with Brahman, ऋच्छति attains.Commentary: The state described in the previous verse -- to renounce everything and to live in Brahman -- is the Brahmic state or the state of Brahman. If one attains to this state one is never deluded. He attains Moksha if he stays in that state even at the hour of his death. It is needless to say that he who gets establised in Brahman throughout his life attains to the state of Brahman or Brahma-Nirvana (Cf.VIII.5,6).Maharshi Vidyaranya says in his Panchadasi that Antakala here means "the moment at which Avidya or mutual superimposition of the Self and the not-Self ends."Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita, the science of the Eternal, the scripture of Yoga, the dialogue between Sri Krishna and Arjuna, ends the second discourse entitled:The Sankhya Yoga.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे पृथानन्दन! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती ।।2.72।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ -- यह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त हुए मनुष्यकी स्थिति है। अहंकाररहित होनेसे जब व्यक्तित्व मिट जाता है, तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्ममें होती है। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही व्यक्तित्व था। उस सम्बन्धको सर्वथा छोड़ देनेसे योगीकी अपनी कोई व्यक्तिगत स्थिति नहीं रहती।अत्यन्त नजदीकका वाचक होनेसे यहाँ एषा पद पूर्वश्लोकमें आये विहाय कामान्, निःस्पृहः निर्ममः और निरहङ्कारः पदोंका लक्ष्य करता है।भगवान्के मुखसे तेरी बुद्धि जब मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिसे तर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा ' -- ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वह स्थिति क्या होगी? इसपर अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें चार प्रश्न किये। उन चारों प्रश्नोंका उत्तर देकर भगवान्ने यहाँ वह स्थिति बतायी कि वह ब्राह्मी स्थिति है। तात्पर्य है कि वह व्यक्तिगत स्थिति नहीं है अर्थात् उसमें व्यक्तित्व नहीं रहता। वह नित्ययोगकी प्राप्ति है। उसमें एक ही तत्त्व रहता है। इस विषयकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ पार्थ सम्बोधन दिया गया है।नैनां प्राप्य विमुह्यति -- जबतक शरीरमें अहंकार रहता है, तभीतक मोहित होनेकी सम्भावना रहती है। परन्तु जब अहंकारका सर्वथा अभाव होकर ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव हो जाता है, तब व्यक्तित्व टूटनेके कारण फिर कभी मोहित होनेकी सम्भावना नहीं रहती।सत् और असत्को ठीक तरहसे न जानना ही मोह है। तात्पर्य है कि स्वयं सत् होते हुए भी असत्के साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है। जब साधक असत्को ठीक तरहसे जान लेता है, तब असत्से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है (टिप्पणी प0 109) और सत्में अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। इस स्थितिका अनुभव होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता 4। 35)।स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति -- यह मनुष्य-शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। इसलिये भगवान् यह मौका देते हैं कि साधारण-से-साधारण और पापी-से-पापी व्यक्ति ही क्यों न हो, अगर वह अन्तकालमें भी अपनी स्थिति परमात्मामें कर ले अर्थात् जडतासे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले, तो उसे भी निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जायगी, वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जायगा। ऐसी ही बात भगवान्ने सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें कही है कि ' अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ एक भगवान् ही हैं -- ऐसा प्रयाणकालमें भी मेरेको जो जान लेते हैं, वे मेरेको यथार्थरूपसे जान लेते हैं अर्थात् मेरेको प्राप्त हो जाते हैं।' आठवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा कि ' अन्तकालमें मेरा स्मरण करता हुआ कोई प्राण छोड़ता है, वह मेरेको ही प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं है। 'दूसरी बात, उपर्युक्त पदोंसे भगवान् उस ब्राह्मी स्थितिकी महिमाका वर्णन करते हैं कि इसमें यदि अन्तकालमें भी कोई स्थित हो जाय, तो वह शान्त ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। जैसे समबुद्धिके विषयमें भगवान्ने कहा था कि इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता है (2। 40) ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि अन्तकालमें भी ब्राह्मी स्थिति हो जाय, जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय, तो निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस स्थितिका अनुभव होनेमें जडताका राग ही बाधक है। यह राग अन्तकालमें भी कोई छोड़ देता है तो उसको अपनी स्वतःसिद्ध वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है।यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो अनुभव उम्रभरमें नहीं हुआ, वह अन्तकालमें कैसे होगा? अर्थात् स्वस्थ अवस्थामें तो साधककी बुद्धि स्वस्थ होगी, विचार-शक्ति होगी, सावधानी होगी तो वह ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर लेगा; परन्तु अन्तकालमें प्राण छूटते समय बुद्धि विकल हो जाती है, सावधानी नहीं रहती -- ऐसी अवस्थामें ब्राह्मी स्थितिका अनूभव कैसे होगा? इसका समाधान यह है कि मृत्युके समयमें जब प्राण छूटते हैं, तब शरीर आदिसे स्वतः ही सम्बन्ध-विच्छेद होता है। यदि उस समय उस स्वतःसिद्ध तत्त्वकी तरफ लक्ष्य हो जाय, तो उसका अनुभव सुगमतासे हो जाता है। कारण कि निर्विकल्प अवस्थाकी प्राप्तिमें तो बुद्धि, विवेक आदिकी आवश्यकता है, पर अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्तिमें केवल लक्ष्यकी आवश्यकता है (टिप्पणी प0 110)। वह लक्ष्य चाहे पहलेके अभ्याससे हो जाय, चाहे किसी शुभ संस्कारसे हो जाय, चाहे भगवान् या सन्तकी अहैतुकी कृपासे हो जाय, लक्ष्य होनेपर उसकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है।यहाँ अपि पदका तात्पर्य है कि अन्तकालसे पहले अर्थात् जीवित-अवस्थामें यह स्थिति प्राप्ति कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है; परन्तु अगर अन्तकालमें भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्मम-निरहंकार हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती है। स्थितिके लिये अभ्यास करने, ध्यान करने, समाधि लगानेकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है।भगवान्ने यहाँ कर्मयोगके प्रकरणमें ब्रह्मनिर्वाणम् पद दिया है। इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगीको निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है (गीता 5। 24-26), ऐसे ही कर्मयोगीको भी निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। इसी बातको पाँचवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि सांख्ययोगी - द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, वही स्थान कर्मयोगीद्वारा भी प्राप्त किया जाता है।विशेष बात जड और चेतन -- ये दो पदार्थ है। प्राणिमात्रका स्वरूप चेतन है, पर उसने जडका सङ्ग किया हुआ है। जडकी तरफ आकर्षण होना पतनकी तरफ जाना है और चिन्मय-तत्त्वकी तरफ आकर्षण होना उत्थानकी तरफ जाना है, अपना कल्याण करना है। जडकी तरफ जानेमें ' मोह ' की मुख्यता होती है और परमात्मतत्त्वकी तरफ जानेमें विवेक की मुख्यता होती है।समझनेकी दृष्टिसे मोह और विवेकके दो-दो विभाग कर सकते हैं -- (1) अहंता-ममातयुक्त मोह एवं कामनायुक्त मोह, (2) सत्-असत्का विवेक एवं कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक।प्राप्त वस्तु, शरीरादिमें अहंता-ममता करना -- यह अहंता-ममतायुक्त मोह है; और अप्राप्त वस्तु, घटना, परिस्थिति आदिकी कामना करना -- यह कामनायुक्त मोह है। शरीरी (शरीरमें रहनेवाला) अलग है और शरीर अलग है, शरीरी सत् है और शरीर असत् है शरीरी चेतन है और शरीर जड है -- इसको ठीक तरहसे अलग-अलग जानना सत्-असत्का विवेक है और कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य क्या है, धर्म क्या है, अधर्म क्या है -- इसको ठीक तरहसे समझकर उसके अनुसार कर्तव्य करना और अकर्तव्यका त्याग करना कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक है।पहले अध्यायमें अर्जुनको भी दो प्रकारका मोह हो गया था, जिसमें प्राणिमात्र फँसे हुए हैं। अहंताको लेकर ' हम दोषोंको जाननेवाले धर्मात्मा है' और ममताको लेकर ' ये कुटुम्बी मर जायँगे ' -- यह अहंता-ममतायुक्त मोह हुआ। हमें पाप न लगे, कुलके नाशका दोष न लगे, मित्रद्रोहका पाप न लगे, नरकोंमें न जाना पड़े, हमारे पितरोंका पतन न हो -- यह कामना-युक्त मोह हुआ।उपर्युक्त दोनों प्रकारके मोहको दूर करनेके लिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें दो प्रकारका विवेक बताया है -- शरीरी-शरीरका, सत्-असत्का विवेक (2। 11 -- 30) और कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक (2। 31 -- 53)।शरीरी-शरीरका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि मैं, तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे -- यह बात भी नहीं और आगे नहीं रहेंगे -- यह बात भी नहीं अर्थात् हम सभी पहले भी थे और आगे भी रहेंगे तथा ये शरीर पहले भी नहीं थे और आगे भी नहीं रहेंगे तथा बीचमें भी प्रतिक्षण बदल रहे हैं। जैसे शरीरमें कुमार, युवा और वृद्धावस्था -- ये अवस्थाएँ बदलती हैं और जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, ऐसे ही जीव पहले शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है, यह तो अकाट्य नियम है। इसमें चिन्ताकी, शोककी बात ही क्या है? कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि क्षत्रियके लिये युद्धसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अनायास प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्गप्राप्तिका खुला दरवाजा है। तू युद्धरूप स्वधर्मका पालन नहीं करेगा तुझे पाप लगेगा। यदि तू जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके युद्ध करेगा तो तुझे पाप नहीं लगेगा। तेरा तो कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं। तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इसलिये तू कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर और समतामें स्थित होकर कर्मोंको कर; क्योंकि समता ही योग है। जो मनुष्य समबुद्धिसे युक्त होकर कर्म करता है, वह जीवित-अवस्थामें ही पुण्य-पापसे रहित हो जाता है।जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको और श्रुतिविप्रतिपत्तिको पार कर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा।इस प्रकार ॐ, तत्, सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या औ योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।2। ।।2.72।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- एषा यथोक्ता ब्राह्मी ब्रह्मणि भवा इयं स्थितिः सर्वं कर्म संन्यस्य ब्रह्मरूपेणैव अवस्थानम् इत्येतत्। हे पार्थ, न एनां स्थितिं प्राप्य लब्ध्वा न विमुह्यति न मोहं प्राप्नोति। स्थित्वा अस्यां स्थितौ ब्राह्म्यां यथोक्तायां अन्तकालेऽपि अन्त्ये वयस्यपि ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मनिर्वृतिं मोक्षम् ऋच्छति गच्छति। किमु वक्तव्यं ब्रह्मचर्यादेव संन्यस्य यावज्जीवं यो ब्रह्मण्येव अवतिष्ठते स ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येद्वितीयोऽध्यायः। ।।2.72।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.72 O Partha, esa, this, the aforesaid; is brahmisthitih, the state of being established in Brahman, i.e. continuing (in life) in indentification with Brahman, after renouncing all actions.Na vimuhyati, one does not become deluded; prapya, after attaining ; enam, this Rcchati, one attains; brahma-nirvanam, identification with Brahman, Liberation; sthitva, by being established; asyam, in this, in the state of Brahman-hood as described; api, even; anta-kale, in the closing years of one's life. What need it be said that, one who remains established only in Brahman during the whole life, after having espoused monasticism even from the stage of celibacy, attains indetification with Brahman!



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
( अब ) उस उपर्युक्त ज्ञाननिष्ठाकी स्तुति की जाती है -- यह उपर्युक्त अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्ममें होनेवाली स्थिति है, अर्थात् सर्व कर्मोंका संन्यास करके केवल ब्रह्मरूपसे स्थित हो जाना है। हे पार्थ ! इस स्थितिको पाकर मनुष्य फिर मोहित नहीं होता अर्थात् मोहको प्राप्त नहीं होता। अन्तकालमें -- अन्तके वयमें भी इस उपर्युक्त ब्राह्मी स्थितिमें स्थित होकर मनुष्य, ब्रह्ममें लीनतारूप मोक्षको लाभ करता है। फिर जो ब्रह्मचर्याश्रमसे ही संन्यास ग्रहण करके जीवनपर्यन्त ब्रह्ममें स्थित रहता है वह ब्रह्मनिर्वाणको प्राप्त होता है, इसमें तो कहना ही क्या है?। ।।2.72।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एषा नित्यात्मज्ञानपूर्विका असङ्गकर्मणि स्थितिः स्थितधीलक्षणा ब्राह्मी ब्रह्मप्रापिका। ईदृशीं कर्मस्थितिं प्राप्य न विमुह्यति न पुनः संसारम् आप्नोति। अस्यां स्थित्याम् अन्तिमे अपि वयसि स्थित्वा ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति निर्वाणमयं ब्रह्म गच्छति, सुखैकतानम् आत्मानम् आप्नोति इत्यर्थः।एवम् आत्मयाथात्म्यं युद्धाख्यस्य च कर्मणः तत्प्राप्तिसाधनताम् अजानतः शरीरात्मज्ञानेन मोहितस्य तेन च मोहेन युद्धात् निवृत्तस्य तन्मोहशान्तये नित्यात्मविषया सांख्यबुद्धिः तत्पूर्विका च असङ्गकर्मानुष्ठानरूपकर्मयोगविषया बुद्धिः स्थितप्रज्ञतायोगसाधनभूता द्वितीयेऽध्याये प्रोक्ता। तदुक्तम् -- 'नित्यात्मासङ्गकर्मेहागोचरा सांख्ययोगधीः। द्वितीये स्थितधीलक्ष्या प्रोक्ता तन्मोहशान्तये।।' (गीतार्थसंग्रहे 6) इति ।।2.72।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.72 This state of performing disinterested work which is preceded by the knowledge of the eternal self and which is characterised by firm wisdom, is the Brahmi-state, which secures the attainment of the Brahman (the self). After attaining such a state, he will not be deluded, i.e., he will not get again the mortal coil. Reaching this state even during the last years of life, he wins the blissful Brahman (the self) i.e., which is full of beatitude. The meaning is that he attains the self which is constituted of nothing but bliss.Thus in the second chapter, the Lord wanted to remove the delusion of Arjuna, who did not know the real nature of the self and also did not realize that the activity named 'war' (here an ordained duty) is a means for attaining the nature of Sankhya or the self. Arjuna was under the delusion that the body is itself the self, and dominated by that delusion, had retreated from battle. He was therefore taught the knowledge called 'Sankhya' or the understanding of the self, and Yoga or what is called the path of practical work without attachment. These together have as their objective the attainment of steady wisdom (Sthitaprajnata)This has been explained in the following verse by Sri Yamunacarya: Sankhya and Yoga, which comprehend within their scope the understanding of the eternal self and the practical way of disinterested action respectively, were imparted in order to remove Arjuna's delusion.Through them the state of firm wisdom can be reached.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
उक्तां योगवन्निष्ठां स्तुवन्नुपसंहरति -- एषेति। ब्रह्म हि निर्दोषं समम्; तस्यैवेति ब्राह्मी ब्रह्मसम्बन्धिनी वा स्थितिः स्थितधीलक्षणा। अस्यां स्थित्वा ब्रह्मसुखं प्राप्नोति ।।2.72।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
तदेवं चतुर्णां प्रश्नानामुत्तरव्याजेन सर्वाणि स्थितप्रज्ञलक्षणानि मुमुक्षुकर्तव्यतया कथितानि, संप्रति कर्मयोगफलभूतां सांख्यनिष्ठां फलेन स्तुवन्नुपसंहरति -- एषा स्थितप्रज्ञलक्षणव्याजेन कथिता,'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिः' इति च प्रागुक्ता स्थितिर्निष्ठा सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकपरमात्मज्ञानलक्षणा ब्राह्मी ब्रह्मविषया। हे पार्थ, एनां स्थितिं प्राप्य यः कश्चिदपि पुनर्न विमुह्यति। नहि ज्ञानबाधितस्याज्ञानस्य पुनः संभवोऽस्ति अनादित्वेनोत्पत्त्यसंभवात्। अस्यां स्थितावन्तकालेऽप्यन्त्येऽपि वयसि स्थित्वा ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मणि निर्वाणं निर्वृतिं, ब्रह्मरूपं निर्वाणमिति वा, ऋच्छति गच्छत्यभेदेन। किमु वक्तव्यं यो ब्रह्मचर्यादेव संन्यस्य यावज्जीवमस्यां ब्राह्म्यां स्थिताववतिष्ठते स ब्रह्मनिर्वाणमृच्छतीत्यपिशब्दार्थः ।।2.72।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
उपसंहरति -- 'एषेति'। ब्राह्मी स्थितिः ब्रह्मविषया स्थितिः लक्षणम्। अन्तकालेऽप्यस्यां स्थित्वैव ब्रह्म गच्छति, अन्यथा जन्मान्तरं प्राप्नोति।'यं यं वाऽपि' 8।6 इति वक्ष्यमाणत्वात्। ज्ञानिनामपि सति प्रारब्धकर्मणि शरीरान्तरं युक्तम्।'भोगेन त्वितरे' इति ह्युक्तम्। सन्ति हि बहुशरीरफलानि कर्माणि कानिचित्;'सप्तजन्मनि विप्रः स्यात्' इत्यादेः; दृष्टेश्च ज्ञानिनामपि बहुशरीरप्राप्तेः। तथा ह्युक्तम्'स्थितप्रज्ञोऽपि यस्तूर्ध्वः प्राप्य रुद्रपदं गतः। साङ्कर्षणं ततो मुक्तिमगाद्विष्णुप्रसादतः' इति गारुडे।'महादेव परे जन्मनि तव मुक्तिर्निरूप्यते' इति नारदीये।निश्चितफलं च ज्ञानं "तस्य तावदेव चिरम्" छां.उ.6।14।2़। "यदु... च नार्चिषमेवाभिसम्भवन्ति" छां.उ.4।15।5 इत्यादिश्रुतिभ्यः न च कायव्यूहापेक्षा "तद्यथेषीकातूलम्" छां.उ.5।24।3। "तद्यथा पुष्करपलाशे" छां.उ.4।14।3'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि' 4।37 इत्यादिवचनेभ्यः। प्रारब्धे त्वविरोधः, प्रमाणाभावाच्च। न च तच्छास्त्रं प्रमाणम्।'अक्षपादकणादानां साङ्ख्ययोगजटाभृताम्। मतमालम्ब्य ये वेदं दूषयन्त्यल्पचेतसः' इति निन्दावचनात्।यत्र तु स्तुतिस्तत्र शिवभक्तानां स्तुतिपरत्वमेव, न सत्यत्वम्। न हि तेषामपीतरग्रन्थविरुद्धार्थे प्रामाण्यम्। तथाह्युक्तम्'एष मोहं सृजाम्याशु यो जनान्मोहयिप्यति। त्वं च रुद्र! महाबाहो! मोहशास्त्राणि कारय। अतथ्यानि वितथ्यानि दर्शयस्व महाभुज!। प्रकाशं कुरु चात्मानमप्रकाशं च मां कुरु' इति वाराहे।'कुत्सितानि च मिश्राणि रुद्रो विष्णुप्रचोदितः। चकार शास्त्राणि विभुः ऋषयस्तत्प्रचोदिताः। दधीचाद्याः पुराणानि तच्छास्त्रसमयेन तु। चक्रुर्वेदैश्च ब्राह्मणानि वैष्णवा विष्णुचोदिताः। पञ्चरात्रं भारतं च मूलरामायणं तथा। तथा पुराणं भागवतं विष्णुर्वेद इतीरितः। अतः शैवपुराणानि योज्यान्यन्याविरोधतः' इति नारदीये।अतो ज्ञानिनां भवत्येव मुक्तिः। भीष्मादीनां तु तत्क्षणे मुक्त्यभावः। स्मरंस्त्यजतीति वर्तमानव्यपदेशो हि कृतः। तच्चोक्तम्'ज्ञानिनां क्रमयुक्तानां कायत्यागक्षणो यदा। विष्णुमाया तदा तेषां मनो बाह्यं करोति हि' इति गारुडे। न चान्येषां तदा स्मृतिर्भवति।'बहुजन्मविपाकेन भक्तिज्ञानेन ये हरिम्। भजन्ति तत्स्मृतिं त्वन्ते देवो याति न चान्यथा' इति ब्रह्मवैवर्ते। निर्वाणमशरीरम्।'कायो बाणं शरीरं च' इत्यभिधानात्।'एतद्बाणमवष्टभ्य' इति प्रयोगाच्च। निर्वाणशब्दप्रतिपादनं'अनिन्द्रियाः' म.भा.12।336।29 इत्यादिवत्। कथमन्यथा सर्वपुराणादिप्रसिद्धाऽऽकृतिर्भगवत उपपद्यते?। न चान्यद्भगवत उत्तमं ब्रह्म।'ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शद्ब्यते' इति भागवते।'भगवन्तं परं ब्रह्म''परं ब्रह्मञ्जनार्दन'।'परमं यो महद्ब्रह्म' म.भा.13।149।9'यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।' 15।18'योऽप्तावतीन्द्रियग्राह्यः'।'नास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति'।'न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यः' 11।43 इत्यादिभ्यः। न च तस्य ब्रह्मणोऽशरीरत्वादेतत्कल्प्यम्; तस्यापि शरीरश्रवणात् "आनन्दरूपममृतम्" मुं.उ.2।2।7 "सुवर्णज्योतिः" तै.उ.3।10।6 "दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः" छां.उ.8।1।2 इत्यादिषु।यदि रूपं न स्यात्, आनन्दमित्येव स्यात्, न त्वानन्दरूपमिति। कथं सुवर्णरूपत्वं स्यादरूपस्य? कथं दहरत्वम्? दहरस्थश्च केचित्स्वदेहेत्यादौ रूपवानुच्यते "सहस्रशीर्षा पुरुषः" ऋक्सं.8।4।17।1+य.सं.31।1 "रुक्मवर्णं कर्तारं" मुं.उ.3।1।3 "आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्" य.सं.31।18 "सर्वतः पाणिपादं तत्" 13।13+श्वे.उ.3।16 "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः।" ऋक्सं. 8।3।16।3+य.सं.17।19 इत्यादिवचनात्। विश्वरूपाध्यायादेश्च रूपवानवसीयते। अतिपरिपूर्णतमज्ञानैश्वर्यवीर्यानन्दयशश्श्रीशक्त्यादिमांश्च भगवान्। "पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकीं ज्ञानबलक्रिया च।" श्वे.उ.6।8 "यः सर्वज्ञः" मुं.उ.1।1।92।2।7 "आनन्दं ब्रह्मणः" तै.उ.2।4।1+2।9।1 "एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति।" बृ.उ.4।3।32'अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यसहस्रलक्षामितकान्तिकान्तम्'।'मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे' भाग.6।4।48'विज्ञानशक्तिरहमासमन्तशक्तेः' भाग.3।9।24'तुर्यं तत्सर्वदृक् सदा'। गौ.पा.का.1।12'आत्मानमन्यं च स वेद विद्वान्' भाग.11।11।7'अन्यतमो मुकुन्दात्को नाम लोके भगवत्पदार्थः' भाग.3।18।21'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य'। वि.पु.6।5।74'अतीव परिपूर्णं ते सुखं ज्ञानं च सौभगम्। यच्चात्ययुक्तं स्मर्तुं वा शक्तः कर्तुमतः परः" इत्यादिभ्यः। "तानि सर्वाण्यन्योन्यानन्यरूपाणि"। "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" बृ.उ.3।9।28 "आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्" तै.उ.3।6 "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" तै.उ.2।1 "यस्य ज्ञानमयं तपः" मुं.उ.।1।19 "समा भग प्रविश स्वाहा" तै.उ.1।4।3'न तस्य प्राकृता मूर्तिर्मांसमेदोस्थिसम्भवा। न योगित्वादीश्वरत्वात्सत्यरूपोऽच्युतो विभुः। सद्देहःसुखगन्धश्च ज्ञानभाः सत्पराक्रमः। ज्ञानज्ञानः सुखसुखः स विष्णुः परमोऽक्षरः' इति पैङ्गिखिले।'देहोऽयं मे सदानन्दो नायं प्रकृतिनिर्मितः। परिपूर्णश्च सर्वत्र तेन नारायणोऽस्म्यहम्।' इत्यादि ब्रह्मवैवर्ते।तदेव लीलया चासौ परिच्छिन्नादिरूपेण दर्शयति मायया।'न च गर्भैऽवसद्देव्या न चापि वसुदेवतः। न चापि राघवाज्जातो न चापि जमदग्नितः। नित्यानन्दोऽव्ययोऽप्येवं क्रीडते मोघदर्शनः' इति च पाद्मे।'न वै स आत्माऽऽत्मव (तां सुहृत्तमाः सक्तस्त्रिलोक्यां) तामधीश्वरो भुङ्क्ते हि दुःखं भगवान्वासुदेवः' भाग.5।19।6'स्वर्गादेरीशिताञ्जः परमसुखनिधिर्बोधरूपोऽय बोधं लोकानां दर्शयन्यो मुनिसुतहृतात्मप्रियार्थे जगाम'।'स ब्रह्मवन्द्यचरणो जनमोहनाय स्त्रीसङ्गिनामिति रतिं प्रथयंश्चचार'।'पूर्तेरचिन्त्यवीर्यो यो यश्च दाशरथिः स्वयम्। रुद्रवाक्यमृतं कर्तुमजितो जितवत्स्थितः। योऽजितो विजितो भक्त्या गाङ्गेयं न जघान ह। न चाम्बां ग्राहयामास करुणः कोऽपरस्ततः' इत्यादिभ्यश्च स्कान्दे।न तत्र संसारधर्मा निरूप्याः, यत्र च परापरभेदोऽवगम्यते, तत्राज्ञबुद्धिमपेक्ष्यावरत्वं विश्वरूपमपेक्ष्य अन्यत्र। तच्चोक्तम् 'परिपूर्णानि रूपाणि समान्यखिलरूपतः। तथाप्यपेक्ष्य मन्दानां दृष्टिं त्वामृषयोऽपि हि। परावरं वदन्त्येव ह्यभक्तानां विमोहनम्' इति गारु़डे। न चात्र किञ्चिदुपचारादिति वाच्यम्, अचिन्त्यशक्तेः पदार्थवैचित्र्याच्चेत्युक्तम्।'रामकृष्णादिरूपाणि परिपूर्णानि सर्वदा। न चाणुमात्रं भिन्नानि तथाप्यस्प्तान्विमोहसि' इत्यादेश्च नारदीये। तस्मात्सर्वदा सर्वरूपेष्वपरिगणितानन्तगुणगणं नित्यनिरस्ताशेषदोषं च नारायणाख्यं परं ब्रह्मापरोक्षज्ञान्यृच्छतीति च सिद्धम् ।।2.72।।

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