रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-08


मूल स्लोकः

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।।




English translation by Swami Sivananda
3.8 Do thou perform (thy) bounden duty, for action is superior to inaction and even the maintenance of the body would not be possible for thee by inaction.


English commentary by Swami Sivananda
3.8 नियतम् bounden (prescribed or obligatory), कुरु perform, कर्म action, त्वम् thou, कर्म action, ज्यायः superior, हि for, अकर्मणः than inaction, शरीरयात्रा maintenance of the body, अपि even, च and, ते thy, न not, प्रसिद्ध्येत् would be possible, अकर्मणः by inaction.Commentary: Niyatam Karma is an obligatory duty which one is bound to perform. Thenon-performance of the bounden duties causes demerit. The performance of the obligatory duties is not a means for the attainment of a specific result. The performance does not cause any merit.Living itself involves several natural and unavoidable actions which have to be performed by all. It is ignorance to say, "I can live doing nothing."



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
तू शास्त्रविधिसे नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा ।।3.8।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- नियतं कुरु कर्म त्वम् -- शास्त्रोंमें विहित तथा नियत -- दो प्रकारके कर्मोंको करनेकी आज्ञा दी गयी है। विहित कर्मका तात्पर्य है -- सामान्यरूपसे शास्त्रोंमें बताया हुआ आज्ञारूप कर्म; जैसे -- व्रत, उपवास, उपासना आदि। इन विहित कर्मोंको सम्पूर्णरूपसे करना एक व्यक्तिके लिये कठिन है। परन्तु निषिद्ध कर्मोंका त्याग करना सुगम है। विहित कर्मको न कर सकनेमें उतना दोष नहीं है, जितना निषिद्ध कर्मका त्याग करनेमें लाभ है; जैसे झूठ न बोलना, चोरी न करना, हिंसा न करना इत्यादि। निषिद्ध कर्मोंका त्याग होनेसे विहित कर्म स्वतः होने लगते हैं। नियतकर्मका तात्पर्य है -- वर्ण, आश्रम, स्वभाव एवं परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म; जैसे -- भोजन करना, व्यापार करना, मकान बनवाना, मार्ग भूले हुए व्यक्तिको मार्ग दिखाना आदि।कर्मयोगकी दृष्टिसे जो वर्णधर्मानुकूल शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म प्राप्त हो जाय, वह चाहे घोर हो या सौम्य, नियतकर्म ही है। यहाँ नियतं कुरु कर्म पदोंसे भगवान् अर्जुनसे यह कहते हैं कि क्षत्रिय होनेके नाते अपने वर्णधर्मके अनुसार परिस्थितिसे प्राप्त युद्ध करना तेरा स्वाभाविक कर्म है (गीता 18। 43)। क्षत्रियके लिये युद्धरूप हिंसात्मक कर्म घोर दीखते हुए भी वस्तुतः घोर नहीं है, प्रत्युत उसके लिये वह नियतकर्म ही है। दूसरे अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि स्वधर्म की दृष्टिसे भी युद्ध करना तेरे लिये नियतकर्म है -- स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि (2। 31)। वास्तवमें तो स्वधर्म और नियतकर्म दोनों एक ही हैं। यद्यपि दुर्योधन आदिके लिये भी युद्ध वर्णधर्मके अनुसार प्राप्त कर्म है; तथापि वह अन्याययुक्त होनेके कारण नियतकर्मसे अलग है; क्योंकि वे युद्ध करके अन्यायपूर्वक राज्य छीनना चाहते हैं। अतः उनके लिये यह युद्ध नियत तथा धर्मयुक्त कर्म नहीं है।कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः -- इसी अध्यायके पहले श्लोकमें (अर्जुनके प्रश्नमें) आये हुए ज्यायसी पदका उत्तर भगवान् यहाँ ज्यायः पदसे ही दे रहे हैं। वहाँ अर्जुनका प्रश्न है कि यदि आपको कर्मकी अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना ही मुझे श्रेष्ठ मान्य है। इस प्रकार अर्जुनका विचार युद्धरूप घोर कर्मसे निवृत्त होनेका है और भगवान्का विचार अर्जुनको युद्धरूप नियतकर्ममें प्रवृत्त करानेका है। इसीलिये आगे अठारहवें अध्यायमें भगवान् कहते हैं कि दोष-युक्त होनेपर भी सहज (नियत) कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये -- सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् (18। 48)। कारण कि इसके त्यागसे दोष लगता है एवं कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध भी बना रहता है। अतः कर्मका त्याग करनेकी अपेक्षा नियतकर्म करना ही श्रेष्ठ है। फिर आसक्ति-रहित होकर कर्म करना तो और भी श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि इससे कर्मोंके साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अतः भगवान् इस श्लोकके पूर्वार्धमें अर्जुनको अनासक्तभावसे नियतकर्म करनेकी आज्ञा देते हैं और उत्तरार्धमें कहते हैं कि कर्म किये बिना तेरा जीवन-निर्वाह भी नहीं होगा।कर्मयोगमें कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः -- यह भगवान्का प्रधान सिद्धान्त है। इसीको भगवान्ने मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (गीता 2। 47) पदोंसे स्पष्ट किया है कि अर्जुन! तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो। कारण यह है कि कर्तव्य-कर्मोंसे जी चुरानेवाला मनुष्य प्रमाद, आलस्य और निद्रामें अपना अमूल्य समय नष्ट कर देगा अथवा शास्त्र-निषिद्ध कर्म करेगा, जिससे उसका पतन होगा।स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करनेकी अपेक्षा कर्म करते हुए ही कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना श्रेष्ठ है। कारण कि कामना, वासना, फलासक्ति, पक्षपात आदि ही कर्मोंसे सम्बध जोड़ देते हैं, चाहे मनुष्य कर्म करे अथवा न करे। कामना आदिके त्यागका उद्देश्य रखकर कर्मयोगका आचरण करनेसे कामना आदिका त्याग बड़ी सुगमतासे हो जाता है।शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः -- अर्जुनके मनमें ऐसा भाव उत्पन्न हो गया था कि अगर कर्म ही न करें तो कर्मोंसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा। इसलिये भगवान् नाना प्रकारकी युक्तियोंद्वारा उनको कर्म करनेके लिये प्रेरित करते हैं। उन्हीं युक्तियोंमेंसे एक इस युक्तिका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि अर्जुन! तुम्हें कर्म तो करने ही पड़ेंगे। अन्यकी तो बात ही क्या है, कर्म किये बिना तेरा शरीर-निर्वाह (खाना-पीना आदि) भी असम्भव हो जायगा।जैसे ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, ऐसे ही कर्मयोगमें कर्तव्य-कर्मका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अतः ज्ञानयोगकी अपेक्षा कर्मयोगको किसी भी प्रकारसे कम नहीं मानना चाहिये। कर्मयोगी शरीरको संसारका ही मानकर उसको संसारकी ही सेवामें लगा देता है अर्थात् शरीरमें उसका कोई अपनापन नहीं रहता। वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरकी एकता क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण-संसारसे करता है, जबकि ज्ञानयोगी अपनी एकता ब्रह्मसे करता है। इस प्रकार कर्मयोगी जड-तत्त्वकी एकता करता है और ज्ञानयोगी चेतन-तत्त्वकी एकता करता है। साधन-सम्बन्धी मार्मिक बातअर्जुनकी कर्मोंसे अरुचि है अर्थात् उनके मनमें कर्म न करनेका आग्रह है। केवल अर्जुनकी ही बात नहीं है, प्रत्युत पारमार्थिक मार्गके अन्य साधक भी प्रायः इस विषयमें ऐसी ही बड़ी भूल करते हैं। यद्यपि उनकी इच्छा साधन करनेकी रहती है, और साधन करते भी हैं, तथापि वे अपनी मनचाही परिस्थिति, अनुकूलता और सुखबुद्धि भी साथमें रखते हैं, जो उसके साधनमें महान् बाधक होती है।जो साधक तत्त्वप्राप्तिमें सुगमता ढूँढ़ता है और उसे शीघ्र प्राप्त करना चाहता है, वह वास्तवमें सुखका रागी है, न कि साधनका प्रेमी। जो सुगमतासे तत्त्वप्राप्ति चाहता है, उसे कठिनता सहनी पड़ती है और जो शीघ्रतासे तत्त्वप्राप्ति चाहता है, उसे विलम्ब सहना पड़ता है। कारण कि सुगमता और शीघ्रताकी इच्छा करनेसे साधककी दृष्टि ' साधन'पर न रहकर ' फल'पर चली जाती है, जिससे साधनमें उकताहट प्रतीत होती है और साध्यकी प्राप्तिमें विलम्ब भी होता है। जिसका यह दृढ़ निश्चय या उद्देश्य है कि चाहे जैसे भी हो, मुझे तत्त्वकी प्राप्ति होनी ही चाहिये, उसकी दृष्टि सुगमता और शीघ्रतापर नहीं जाती। तत्परताके साथ कार्यमें लगा हुआ मनस्वी व्यक्ति जब अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिये कमर कसकर लग जाता है, तब वह सुख और दुःखकी ओर नहीं देखता -- मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् (भर्तृहरिनीतिशतक)। साधककी तो बात ही क्या है, एक साधारण लोभी मनुष्य ही दुःखकी ओर नहीं देखता। प्रायः देखा जाता है कि पसीना आ रहा है, भूख-प्यास लगी है अथवा शौच जानेकी आवश्यकता जान पड़ती है, फिर भी यदि मालकी विशेष बिक्री हो रही है तथा पैसे आ रहे हैं तो वह लोभी व्यापारी सब कष्ट सह लेता है। ठीक लोभी व्यक्तिकी तरह साधककी साध्यमें निष्ठा होनी चाहिये। उसे साध्यकी प्राप्तिके बिना चैनसे न रहा जाय, जीवन भारस्वरूप प्रतीत होने लगे, खाना-पीना, आराम आदि कुछ भी अच्छा न लगे और हृदयमें साधनका आदर और तत्परता रहे! साध्यको प्राप्ति करनेकी उत्कण्ठा होनेपर देरी तो असह्य होती है, पर वह जल्दी प्राप्त हो जाय -- यह इच्छा नहीं होती। उत्कण्ठा दूसरी बात है एवं शीघ्र मिलनेकी इच्छा दूसरी बात। आसक्तिपूर्वक साधन करनेवाला साधक साधनमें सुखभोग करता है और उसमें विलम्ब या बाधा लगनेसे उसे क्रोध आता है एवं वह साधनमें दोषदृष्टि करता है। परन्तु आदर और प्रेमपूर्वक साधन करनेवाला साधक साधनमें विलम्ब या बाधा लगनेपर आर्तभावसे रोने लगता है और उसकी उत्कण्ठा और तेजीसे बढ़ती है। यही शीघ्रता और उत्कण्ठामें अन्तर है। शीघ्रतामें साधकका सुख-सुविधाका भाव रहता है कि तत्त्वप्राप्ति शीघ्र हो जाय तो पीछे आराम करेंगे! इस प्रकार फलकी ओर दृष्टि रहनेसे साधनका आदर कम हो जाता है। परन्तु उत्कण्ठामें साधक अपने साधनमें ही आराम मानता है कि साधनके सिवाय और करना ही क्या है? इससे बढ़िया और काम ही क्या है, जिसे करें? अतः यही काम (साधन) करना है, चाहे सुगमतासे हो या कठिनतासे, शीघ्रतासे हो या देरीसे। इसलिये उसकी पूरी शक्ति साधनमें लग जाती है, जिससे उसको शीघ्रतासे तत्त्वप्राप्ति हो जाती है। परन्तु शीघ्रतासे सिद्धि चाहनेवाला साधक साध्यकी प्राप्तिमें देरी होनेपर निराश भी हो सकता है। अतः साधकको साध्यसे भी अधिक आदर साधनको देना चाहिये, जैसा कि माता पार्वतीने कहा है -- जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी।।तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू।। (मानस 1। 81। 5)माता पार्वतीके भावोंमें शीघ्रता नहीं है। इनमें तो साधनको साध्यसे भी अधिक आदर दिया गया है।प्रस्तुत श्लोकमें भगवान् अर्जुनको निमित्त बनाकर साधकोंको सावधान करते हैं कि उन्हें अपनी अनुकूलता तथा सुखबुद्धि (जो कि साधनमें मूल बाधा है) का त्याग करके कर्तव्य-कर्मोंको करनेमें बड़ी तत्परतासे लग जाना चाहिये।सम्बन्ध -- पीछेके श्लोकमें भगवान्ने कर्म किये बिना शरीर-निर्वाह भी नहीं होनेकी बात कही। इससे सिद्ध होता है कि कर्म करना बहुत आवश्यक है। परन्तु कर्म करनेसे तो मनुष्य बँधता है -- कर्मणा बध्यते जन्तुः तो फिर मनुष्यको बन्धनसे छूटनेके लिये क्या करना चाहिये -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।3.8।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- नियतं नित्यं शास्त्रोपदिष्टम्, यो यस्मिन् कर्मणि अधिकृतः फलाय च अश्रुतं तत् नियतं कर्म, तत् कुरु त्वं हे अर्जुन, यतः कर्म ज्यायः अधिकतरं फलतः, हि यस्मात् अकर्मणः अकरणात् अनारम्भात्। कथम्? शरीरयात्रा शरीरस्थितिः अपि च ते तव न प्रसिध्येत् प्रसिद्धिं न गच्छेत् अकर्मणः अकरणात्। अतः दृष्टः कर्माकर्मणोर्विशेषो लोके।।यच्च मन्यसे बन्धार्थत्वात् कर्म न कर्तव्यमिति तदप्यसत्। कथम् -- ।।3.8।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.8 Tvam, you, O Arjuna; kuru, perform; niyatam, the obligatory; karma, duties, those daily obligatory duties (nitya-karmas) or which one is competent (according to the scriptures), and which are not heard of although no result of daily obligatory duties is mentioned in the scriptures, still Sankaracarya holds that it is either heaven or purification of the heart, because something done must have its consequence.-Tr. as productive of any result; hi, for, from the point of view of result; karma, action; is jyayah, superior; akarmanah, to inaction, to non-performance (of duties). Why? Ca, and; akarmanah, through inaction; api, even; te sarira-yatra, the maintenance of your body; na prasiddhyet, will not be possible. Therefore, the distinction between action and in action is abvious in this world.'And as regards your ideea that action should not be udnertaken because it leads to bondage-that too is wrong.' How?



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
ऐसा होनेके कारण -- हे अर्जुन ! जो कर्म श्रुतिमें किसी फलके लिये नहीं बताया गया है, ऐसे जिस कर्मका जो अधिकारी है उसके लिये वह नियत कर्म है, उस नियत अर्थात् नित्य कर्मका तू आचरण कर; क्योंकि कर्मोंके न करनेकी अपेक्षा कर्म करना परिणाममें बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि कुछ भी न करनेसे तो तेरी शरीरयात्रा भी नहीं चलेगी अर्थात् तेरे शरीरका निर्वाह भी नहीं होगा। इसलिये कर्म करने और न करनेमें जो अन्तर है वह संसारमें प्रत्यक्ष है ।।3.8।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
नियतं व्याप्तम् प्रकृतिसंसृष्टेन हि व्याप्तं कर्म, प्रकृतिसंसृष्टत्वम् अनादिवासनया। नियतत्वेन सुशकत्वाद् असंभावितप्रमादत्वाच्च कर्मणः, कर्म एव कुरु; अकर्मणः ज्ञाननिष्ठाया अपि कर्म एव ज्यायः; नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते' (गीता 3।4) इति प्रक्रमात् अकर्मशब्देन ज्ञाननिष्ठा एव उच्यते;ज्ञाननिष्ठाधिकारिणः अपि अनभ्यस्तपूर्वतया हि अनियतत्वेन दुःशकत्वात् सप्रमादत्वाच्च ज्ञाननिष्ठायाः कर्मनिष्ठा एव ज्यायसी।कर्मणि क्रियमाणे च आत्मयाथात्म्यज्ञानेन आत्मनः अकर्तृत्वानुसंधानम् अनन्तरम् एव वक्ष्यते; अत आत्मज्ञानस्य अपि कर्मयोगान्तर्गतत्वात् स एव ज्यायान् इत्यर्थः।कर्मणो ज्ञाननिष्ठाया ज्यायस्त्ववचनं ज्ञाननिष्ठायाम् अधिकारे सति एव उपपद्यते। यदि सर्वं कर्म परित्यज्य केवलं ज्ञाननिष्ठायाम् अधिकरोषि तर्हि अकर्मणः ते ज्ञाननिष्ठस्य ज्ञाननिष्ठोपकारिणी शरीरयात्रा अपि न सेत्स्यति।यावत्साधनसमाप्ति शरीरधारणं च अवश्यं कार्यम्; न्यायार्जितधनेन महायज्ञादिकं कृत्वा तच्छिष्टाशनेन एव शरीरधारणं कार्यम्;'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।' (छा0 उ0 7।26।2) इत्यादिश्रुतेः।'भुञ्जते ते त्वघं पापाः' (गीता 3।13) इति च वक्ष्यते। अतो ज्ञाननिष्ठस्य अपि कर्म अकुर्वतो देहयात्रा न सेत्स्यति।यतो ज्ञाननिष्ठस्य अपि ध्रियमाणशरीरस्य यावत्साधनसमाप्ति महायज्ञादिनित्यनैमित्तिकं कर्म अवश्यं कार्यम्। यतश्च कर्मयोगे अपि आत्मनः अकर्तृत्वभावनया आत्मयाथात्म्यानुसन्धानम् अन्तर्भूतम्; यतश्च प्रकृतिसंसृष्टस्य कर्मयोगः सुशकः अप्रमादश्च, अतो ज्ञाननिष्ठायोग्यस्य अपि ज्ञानयोगात् कर्मयोगो ज्यायान्। तस्मात् त्वं कर्मयोगम् एव कुरु इत्यभिप्रायः।एवं तर्हि द्रव्यार्जनादेः कर्मणः अहङ्कारममकारादिसर्वेन्द्रियव्याकुलतागर्भत्वेन अस्य पुरुषस्य कर्मवासनया बन्धनं भविष्यति इति अत्र आह -- ।।3.8।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.8 'Obligatory' (Niyatam) means 'concomitant' (Vyaptam); for action is concomitant with that which is conjoined with Prakrti or the body. The contact with Prakrti has arisen from beginingless subtle impressions (Vasanas). You must perform work, because the performance of action is easy and may not cause accidents by reason of its being obligatory. Action is superior to non-action, i.e., even to the devotee of Jnana. Because of the instruction at the beginning (of this context), 'No man experiences freedom from activity' (3.4), devotion to Jnana alone is indicated by the word, 'Non-action' (Akarma). Even in the case of one qualified for devotion to Jnana, devotion to Karma indeed is better because Jnana-nistha is difficult to perform and liable to accidents, as it has not been practised previoulsy and as it does not come to one naturally. Subsequently it will be described how, one with the knowledge of the true nature of the self can carry on actions along with that knowledge. Consequently, we should take the meaning here to be that, because knowledge of the self too is included in Karma Yoga, this kind of Yoga is superior.This statement on the superiority of activity (Karma Yoga) over Jnana Yoga is valid even when there is competency for one to adopt Jnana Yoga. For, if you abandon all activities to qualify yourself for Jnana Yoga, then, for you, who is thus inactive while following Jnana Yoga, even the nourishment of the body, which is necessary even for Jnana-nistha, will not be achieved. The body has to be necessarily sustained until the means are executed to the full. Performing 'great sacrifices' with the help of honestly earned wealth, the body should be sustained by consuming the remainders left after such sacrifices. This is made clear from scriptural texts like, 'When the food is pure, the Sattva (mind or inner organ) becomes pure; when the Sattva is pure, then the remembrance (meditation) will be steady' (Cha. U., 7.26.2). Sri Krsna himself will declare: 'The sinful ones who cook food for their own sake eat sin (3.13).Consequently,even the sustenance of the body will not be possible in the case of one who practises Jnana-nistha, and does not act. In other ways also Karma Yoga is superior to Jnana Yoga even in respect of one who is qualified for Jnana-nistha; for, obligatory and occasional rites like the 'great sacrifices' must be carried out by one who follows Jnana Yoga too, as he has to sustain the body until he attains perfection. Besides, the understanding of the true nature of the self is incorporated in Karma Yoga, as it involves the contemplation of the self as being a non-agent. It is also in line with the nature of life (Prakrti). Karma Yoga, is for these reasons easier and it is free from danger of downfall. Therefore, you must perform Karma Yoga only. This is the purport of the verse.If it is contended that any action such as earning money implies 'I-ness', 'My-ness' etc., and will therefore be disturbing to the senses, and that such a person devoted often to works will be in bondage through subtle impressions of his acts, Sri Krsna says:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यतस्त्वं कर्मयोगे कर्माधिकारी भवसीत्यतो नियतं कर्म कुरु। अकर्मणस्तज्ज्यायः। न हि कर्म विना किञ्चिच्छरीरयात्रादिकमपि सिद्ध्यतीत्यतः कर्मैव भगवदीयेनाऽसक्ततया कार्यम् ।।3.8।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
यस्मादेवं तस्मान्मनसा ज्ञानेन्द्रियाणि निगृह्य कर्मेन्द्रियैः -- त्वं प्रागननुष्ठितशुद्धिहेतुकर्मा नियतं विध्युद्देशे फलसंबन्धशून्यता नियतनिमित्तेन कर्म श्रौतं स्मार्तं च नित्यमिति प्रसिद्धं कुरु। कुर्विति मध्यमपुरुषप्रयोगेणैव त्वमिति लब्धे त्वमिति पदमर्थान्तरे संक्रमितम्। कस्मादशुद्धान्तःकरणेन कर्मैव कर्तव्यम्, हि यस्मात् अकर्मणोऽकरणात्कर्मैव ज्यायः प्रशस्यतरम्। न केवलं कर्माभावे तवान्तःकरणशुद्धिरेव न सिध्येत्, किन्तु अकर्मणो युद्धादिकर्मरहितस्य ते तव शरीरयात्रा शरीरस्थितिरपि न प्रकर्षेण क्षात्रवृत्तिकृतत्वलक्षणेन सिध्येत्। तथाच प्रागुक्तम्। अपिचेत्यन्तःकरणशुद्धिसमुच्चयार्थः ।।3.8।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
अतो नियतं वर्णाश्रमोचितं कर्म कुरु ।।3.8।।

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