रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-09


मूल स्लोकः

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।3.9।।




English translation by Swami Sivananda
3.9 The world is bound by actions other than those performed for the sake of sacrifice; do thou, therefore, O son of Kunti (Arjuna), perform action for that sake (for sacrifice alone), free from attachment.


English commentary by Swami Sivananda
3.9 यज्ञार्थात् for the sake of sacrifice, कर्मणः of action, अन्यत्र otherwise, लोकः the world, अयम् this, कर्मबन्धनः bound by action, तदर्थम् for that sake, कर्म action, कौन्तेय O Kaunteya, मुक्तसंगः free from attachment, समाचार perform.Commentary: Yajna means sacrifice or religious rite or any unselfish action done with a pure motive. It means also Isvara. The Taittiriya Samhita (of the Veda) says "Yajna verily is Vishnu" (1-7-4). If anyone does actions for the sake of the Lord, he is not bound. His heart is purified by performing actions for the sake of the Lord. Where this spirit of unselfishness does not govern the action, it will bind one to Samsara however good or glorious it may be. (Cf.II.48).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
यज्ञ (कर्तव्यपालन) के लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अन्यत्र (अपने लिये किये जानेवाले) कर्मोंमें लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्मोंसे बँधता है, इसलिये हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञके लिये ही कर्तव्य-कर्म कर ।।3.9।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र -- गीताके अनुसार कर्तव्यमात्रका नाम'यज्ञ' है। ' यज्ञ' शब्दके अन्तर्गत यज्ञ, दान, तप, होम, तीर्थ-सेवन, व्रत, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कर्तव्य मानकर किये जानेवाले व्यापार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मोंका नाम भी यज्ञ है। दूसरोंको सुख पहुँचाने तथा उनका हित करनेके लिये जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी यज्ञार्थ कर्म हैं। यज्ञार्थ कर्म करनेसे आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (गीता 4। 23) अर्थात् वे कर्म स्वयं तो बन्धनकारक होते नहीं, प्रत्युत पूर्वसंचित कर्मसमूहको भी समाप्त कर देते हैं।वास्तवमें मनुष्यकी स्थिति उसके उद्दश्यके अनुसार होती है, क्रियाके अनुसार नहीं। जैसे व्यापारीका प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है; अतः वास्तवमें उसकी स्थिति धनमें ही रहती है और दुकान बंद करते ही उसकी वृत्ति धनकी तरफ चली जाती है। ऐसे ही यज्ञार्थ कर्म करते समय कर्मयोगीकी स्थिति अपने उद्देश्य -- परमात्मामें ही रहती है और कर्म समाप्त करते ही उसकी वृत्ति परमात्माकी तरफ चली जाती है।सभी वर्णोंके लिये अलग-अलग कर्म हैं। एक वर्णके लिये कोई कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्णोंके लिये (विहित न होनेसे) परधर्म अर्थात् अन्यत्र कर्म हो जाता है; जैसे -- भिक्षासे जीवन-निर्वाह करना ब्राह्मणके लिये तो स्वधर्म है, पर क्षत्रियके लिये परधर्म है। इसी प्रकार निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना मनुष्यका स्वधर्म है और सकामभावसे कर्म करना परधर्म है। जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब-के-सब'अन्यत्र-कर्म' की श्रेणीमें ही हैं। अपने सुख, मान, बड़ाई, आराम आदिके लिये जितने कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब भी ' अन्यत्र-कर्म ' हैं (टिप्पणी प0 126)। अतः छोटा-से-छोटा तथा बड़ा-से़-बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधकको सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी स्वार्थकी भावनासे तो कर्म नहीं हो रहा है! साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है। इसलिये साधकको अपनी साधनाके प्रति सतर्क, जागरूक रहना ही चाहिये।' अन्यत्र-कर्म ' के विषयमें दो गुप्त भाव -- (1) किसीके आनेपर यदि कोई मनुष्य उसके प्रति ' आइये! बैठिये!' आदि आदरसूचक शब्दोंका प्रयोग करता है, पर भीतरसे अपनेमें सज्जनताका आरोप करता है अथवा ' ऐसा कहनेसे आनेवाले व्यक्तिपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा ' -- इस भावसे कहता है तो इसमें स्वार्थकी भावना छिपी रहनेसे यह ' अन्यत्र-कर्म ' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।(2) सत्सङ्ग, सभा आदिमें कोई व्यक्ति मनमें इस भावको रखते हुए प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोतागण मुझे अच्छा जानकार समझेंगे तथा उनपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा तो यह ' अन्यत्र-कर्म ' ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदिका भाव नहीं रहना चाहिये। कर्मका निषेध नहीं है, प्रत्युत सकामभावका निषेध है।साधकको भोग और ऐश्वर्य-बुद्धिसे कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसी बुद्धिमें भोगसक्ति और कामना रहती है, जिससे कर्मयोगका आचरण नहीं हो पाता। निर्वाह-बुद्धिसे कर्म करनेपर भी जीनेकी कामना बनी रहती है। अतः निर्वाह-बुद्धि भी त्याज्य है। साधकको केवल साधन-बुद्धिसे ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्तिके लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। कारण कि अपना हित दूसरोंके लिये कर्म करनेसे होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं। दूसरोंके हितमें ही अपना हित है। दूसरोंके हितसे अपना हित अलग अलग मानना ही गलती है। इसलिये लौकिक तथा शास्त्रीय जो कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब केवल लोक-हितार्थ होने चाहिये। अपने सुखके लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक है ही, अपने व्यक्तिगत हितके लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है। केवल अपने हितकी तरफ दृष्टि रखनेसे व्यक्तित्व बना रहता है। इसलिये और तो क्या जप, चिन्तन, ध्यान, समाधि भी केवल लोकहितके लिये ही करे। तात्पर्य यह कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण -- तीनों शरीरोंसे होनेवाली मात्र क्रिया संसारके लिये ही हो, अपने लिये नहीं। ' कर्म ' संसारके लिय है और संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमात्माके साथ ' योग ' अपने लिये है। इसीका नाम है-कर्मयोग।लोकोऽयं कर्मबन्धनः -- कर्तव्य-कर्म (यज्ञ) करनेका अधिकार मुख्यरूपसे मनुष्यको ही है। इसका वर्णन भगवान्ने आगे सृष्टिचक्रके प्रसङ्ग (3। 14 -- 16) में भी किया है। जिसका उद्देश्य प्राणिमात्रका हित करना, उनको सुख पहुँचाना होता है, उसीके द्वारा कर्तव्य-कर्म हुआ करते हैं। जब मनुष्य दूसरोंके हितके लिये कर्म न करके केवल अपने सुखके लिये कर्म करता है, तब वह बँध जाता है।आसक्ति और स्वार्थभावसे कर्म करना ही बन्धनका कारण है। आसक्ति और स्वार्थके न रहनेपर स्वतः सबके हितके लिये कर्म होते हैं। बन्धन भावसे होता है, क्रियासे नहीं। मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत कर्मोंमें वह जो आसक्ति और स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बँधता है।तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर -- यहाँ मुक्तसङ्गः पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि कर्मोंमें, पदार्थोंमें तथा जिनसे कर्म किये जाते हैं, उन शरीर, मन, बुद्धि आदि सामग्रीमें ममता-आसक्ति होनेसे ही बन्धन होता है। ममता, आसक्ति रहनेसे कर्तव्य-कर्म भी स्वाभाविक एवं भलीभाँति नहीं होते। ममता-आसक्ति न रहनेसे परहितके लिये कर्तव्य-कर्मका स्वतः आचरण होता है और यदि कर्तव्य-कर्म प्राप्त न हो तो स्वतः निर्विकल्पतामें, स्वरूपमें स्थिति होती है। परिणामस्वरूप साधन निरन्तर होता है ओर असाधन कभी होता ही नहीं।आलस्य और प्रमादके कारण नियत कर्मका त्याग करना ' तामस त्याग' कहलाता है (गीता 18। 7), जिसका फल मूढ़ता अर्थात् मूढ़योनियोंकी प्राप्ति है -- अज्ञानं तमसः फलम् (गीता 14। 16)। कर्मोंको दुःखरूप समझकर उनका त्याग करना'राजस त्याग' कहलाता है (गीता 18। 8), जिसका फल दुःखोंकी प्राप्ति है -- रजसस्तु फलं दुःखम् (गीता 14। 16)। इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुनको कर्मोंका त्याग करनेके लिये नहीं कहते, प्रत्युत स्वार्थ, ममता, फलासक्ति, कामना, वासना, पक्षपात आदिसे रहित होकर शास्त्रविधिके अनुसार सुचारुरूपसे उत्साहपूर्वक कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी आज्ञा देते हैं, जो ' सात्त्विक त्याग ' कहलाता है (गीता 18। 9)। स्वयं भगवान् भी आगे चलकर कहते हैं कि मेरे लिये कुछ भी करना शेष नहीं है, फिर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ (3। 22-23)।कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करनेमें दो कारणोंसे शिथिलता आती है -- (1) मनुष्यका स्वभाव है कि वह पहले फलकी कामना करके ही कर्ममें प्रवृत्त होता है। जब वह देखता है कि कर्मयोगके अनुसार फलकी कामना नहीं रखनी है, तब वह विचार करता है कि कर्म ही क्यों करूँ? (2) कर्म आरम्भ करनेके बाद जब अन्तमें उसे पता लग जाय कि इसका फल विपरीत होगा, तब वह विचार करता है कि मैं कर्म तो अच्छा-से-अच्छा करूँ, पर फल विपरीत मिले तो फिर कर्म करूँ ही क्यों?कर्मयोगी न तो कोई कामना करता है और न कोई नाशवान् फल ही चाहता है, वह तो मात्र संसारका हित सामने रखकर ही कर्तव्य-कर्म करता है। अतः उपर्युक्त दोनों कारणोंसे उसके कर्तव्य-कर्ममें शिथिलता नहीं आ सकती। मार्मिक बातमनुष्यका प्रायः ऐसा स्वभाव हो गया है कि जिसमें उसको अपना स्वार्थ दिखायी देता है, उसी कर्मको वह बड़ी तत्परतासे करता है। परन्तु वही कर्म उसके लिये बन्धन-कारक हो जाता है। अतः इस बन्धनसे छूटनेके लिये उसे कर्मयोगके अनुसार आचरण करनेकी बड़ी आवश्यकता है।कर्मयोगमें सभी कर्म केवल दूसरोंके लिये किये जाते हैं, अपने लिये कदापि नहीं। दूसरे कौन-कौन हैं? इसे समझना भी बहुत जरूरी है। अपने शरीरके सिवाय दूसरे प्राणी-पदार्थ तो दूसरे हैं ही, पर ये अपने कहलानेवाले स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और कारण-शरीर (जिसमें माना हुआ ' अहम् ' है) भी स्वयंसे दूसरे ही हैं (टिप्पणी प0 127)। कारण कि स्वयं (जीवात्मा) चेतन परमात्माका अंश है और ये शरीर आदि पदार्थ जड प्रकृतिके अंश है। समस्त क्रियाएँ जडमें और जडके लिये ही होती हैं। चेतनमें और चेतनके लिये कभी कोई क्रिया नहीं होती। अतः ' करना ' अपने लिये है ही नहीं, कभी हुआ नहीं और हो सकता भी नहीं। हाँ, संसारसे मिले हुए इन शरीर आदि जड पदार्थोंको चेतन जितने अंशमें ' मैं ', ' मेरा ' और ' मेरे लिये ' मान लेता है, उतने अंशमें उसका स्वभाव ' अपने लिये ' करनेका हो जाता है। अतः दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ममता-आसक्ति सुगमतासे मिट जाती है।शरीरकी अवस्थाएँ (बचपन, जवानी आदि) बदलनेपर भी ' मैं वही हूँ ' -- इस रूपमें अपनी एक निरन्तर रहनेवाली सत्ताका प्राणिमात्रको अनुभव होता है। इस अपरिवर्तनशील सत्ता (अपने होनेपन) की परमात्मतत्त्वके साथ स्वतः एकता है और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी संसारके साथ स्वतः एकता है। हमारे द्वारा जो भी क्रिया की जाती है, वह शरीर, इन्द्रियों आदिके द्वारा ही की जाती है; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ है, स्वयं (अपने स्वरूप) के साथ नहीं। इसलिये शरीरके सम्बन्धके बिना हम कोई भी क्रिया नहीं कर सकते। इससे यह बात निश्चितरूपसे सिद्ध होती है कि हमें अपने लिये कुछ भी नहीं करना है; जो कुछ करना है, संसारके लिये ही करना है। कारण कि ' करना ' उसीपर लागू होता है, जो स्वयं कर सकता है। जो स्वयं कुछ कर ही नहीं सकता, उसके लिये'करने' का विधान है ही नहीं। जो कुछ किया जाता है, संसारकी सहायतासे ही किया जाता है। अतः ' करना ' संसारके लिये ही है। अपने लिये करने से ही मनुष्य कर्मोंसे बँधता है -- यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।विनाशी और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके साथ अपने अविनाशी और अपरिवर्तनशील स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये अपना और अपने लिये कुछ भी नहीं है। शरीरादिकी सहायताके बिना हम कुछ नहीं कर सकते, इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं करना है। अपने सत्स्वरूपमें कभी कोई कमी नहीं आती और कमी आये बिना कोई इच्छा नहीं होती, इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये। इस प्रकार जब क्रिया और पदार्थसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है (जो वास्तवमें है) तब यदि ज्ञानके संस्कार हैं तो स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है, और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो भगवान्में प्रेम हो जाता है।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि यज्ञ-(कर्तव्य-कर्म-) के अतिरिक्त कर्म बन्धनकारक होते हैं। अतः इस बन्धनसे मुक्त होनेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके कर्तव्यबुद्धिसे कर्म करना आवश्यक है। अब कर्मोंकी अवश्यकर्तव्यताको पुष्ट करनेके लिये और भी हेतु बताते हैं ।।3.9।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- 'यज्ञो वै विष्णुः' (तै0 सं0 1.7.4) इति श्रुतेः यज्ञः ईश्वरः, तदर्थं यत् क्रियते तत् यज्ञार्थं कर्म। तस्मात् कर्मणः अन्यत्र अन्येन कर्मणा लोकः अयम् अधिकृतः कर्मकृत् कर्मबन्धनः कर्म बन्धनं यस्य सोऽयं कर्मबन्धनः लोकः, न तु यज्ञार्थात्। अतः तदर्थं यज्ञार्थं कर्म कौन्तेय, मुक्तसङ्गः कर्मफलसङ्गवर्जितः सन् समाचर निर्वर्तय।।इतश्च अधिकृतेन कर्म कर्तव्यम् -- ।।3.9।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.9 Ayam, this; lokah, man, the one who is eligible for action; karma-bandhanah, becomes bound by actions- the person who has karma as his bondage (bandhana) is karma-bandhanah-; anyatra, other than; that karmanah, action; yajnarthat, meant for Got not by that meant for God. According to the Vedic text, 'Sacrifice is verily Visnu' (Tai. Sam. 1.7.4), yajnah means God; whatever is done for Him is yajnartham.Therefore, mukta-sangah, without being attached, being free from attachment to the results of actions; O son of Kunti, samacara, you perform; karma, actions; tadartham, for Him, for God.An eligible person should engage in work for the following reason also:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो तू ऐसा समझता है कि बन्धनकारक होनेसे कर्म नहीं करना चाहिये तो यह समझना भी भूल है। कैसे? 'यज्ञ ही विष्णु है' इस श्रुतिप्रमाणसे यज्ञ ईश्वर है और उसके लिये जो कर्म किया जाय वह 'यज्ञार्थ कर्म' है, उस ( ईश्वरार्थ ) कर्मको छोड़कर दूसरे कर्मोंसे, कर्म करनेवाला अधिकारी मनुष्यसमुदाय, कर्मबन्धनयुक्त हो जाता है, पर ईश्वरार्थ किये जानेवाले कर्मसे नहीं। इसलिये हे कौन्तेय ! तू कर्मफल और आसक्तिसे रहित होकर ईश्वरार्थ कर्मोंका भली प्रकार आचरण कर ।।3.9।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
यज्ञादिशास्त्रीयकर्मशेषभूताद् द्रव्यार्जनादेः कर्मणः अन्यत्र आत्मीयप्रयोजनशेषभूते कर्मणि क्रियमाणे अयं लोकः कर्मबन्धनो भवति। अतः त्वं यज्ञाद्यर्थं द्रव्यार्जनादिकं कर्म समाचर; तत्र आत्मप्रयोजनसाधनतया यः सङ्गः तस्मात् सङ्गात् मुक्तः सन् समाचर।एवं मुक्तसङ्गेन यज्ञाद्यर्थतया कर्मणि क्रियमाणे यज्ञादिभिः कर्मभिः आराधितः परमपुरुषः अस्य अनादिकालप्रवृत्तकर्मवासनां समुच्छिद्य अव्याकुलात्मावलोकनं ददाति इत्यर्थः।यज्ञशिष्टेन एव सर्वपुरुषार्थसाधननिष्ठानां शरीरधारणकर्तव्यताम् अयज्ञशिष्टेन शरीरधारणं कुर्वतां दोषं च आह -- ।।3.9।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.9 The world is imprisoned by the bond of work only when work is done for personal ends, but not when work is performed or money acquired for the purpose of sacrifice etc. prescribed in the scriptures. So, for the purpose of sacrifice, you must perform acts like the acquisition of money. In doing so, overcome attachments generated by the pursuit of personal ambitions, and then do your work in the spirit of Yajna. When a person free from attachment does the work for the sake of sacrifices etc., the Supreme Person, propitiated by sacrifices etc., grants him the calm vision of the self after destroying the subtle impressions of his Karmas, which have continued from time without beginning.Sri Krsna stresses the need for sustenance of the body solely by the remnants of sacrifices in respect of those who are devoted to all ends of human life. He decries the sin of those who nourish the body by things other than the remnants of sacrifices:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
साङ्ख्यास्त्वात्मातिरिक्तस्य बन्धकत्वमालोच्य कर्म न कार्यमिति वदन्ति, तत्तदधिकृतविषयमपि न श्रौतमिति निर्णयमाह -- यज्ञार्थादिति। इज्यतेऽनेन सावयवो भगवानिति यज्ञस्तदर्थात्। वेदे हि मुख्यः कर्मयज्ञ एव, भगवद्रूपत्वात्। ततोऽन्यत्र काम्ये परधर्मे वा बन्धनम्।'यज्ञरूपो हरिः कर्मोपास्तिकाण्डे परे बृहत्। प्रेमभक्तौ तु स्वयं हीत्यानर्थक्यं न युज्यते।'बुद्ध्वा चेत्कुरुते कर्म ततस्तद्बन्धकं न हि। अन्यथा करणे तस्य सर्वथा बन्धसम्भवः' इत्यर्थो दर्शितः ।।3.9।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
'कर्मणा बध्यते जन्तुः' इति स्मृतेः सर्वं कर्म बन्धात्मकत्वान्मुमुक्षुणा न कर्तव्यमिति मत्वा तस्योत्तरमाह -- यज्ञः परमेश्वरः'यज्ञो वै विष्णुः' इति श्रुतेः तदाराधनार्थं यत्कर्म क्रियते तद्यज्ञार्थं तस्मात्मर्कणोऽन्यत्र कर्मणि प्रवृत्तोऽयं लोकः कर्माधिकारी कर्मबन्धनः कर्मणा बध्यते नत्वीश्वराराधनार्थेन। अतस्तदर्थं यज्ञार्थं कर्म हे कौन्तेय, त्वं कर्मण्यधिकृतो मुक्तसङ्गः सन्समाचर सम्यक् श्रद्धादिपुरःसरमाचर ।।3.9।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
'कर्मणा बध्यते जन्तुः' म.भा.12।241।7 इति कर्म बन्धकं स्मृतमित्यत आह -- 'यज्ञार्थादिति'। कर्म बन्धनं यस्य लोकस्य स कर्मबन्धनः। यज्ञो विष्णुः, यज्ञार्थं सङ्गरहितं कर्म न बन्धकमित्यर्थः।'मुक्तसङ्ग' इति सङ्ग विशेषणात्, "कामान्यः कामयते" मुं.उ.3।2।2 इति श्रुतेश्च,'अनिष्टमिष्टं' 18।12 इति वक्ष्यमाणत्वाच्च'एतान्यपि तु कर्माणि' 18।6 इति च "तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात्" बृ.उ.1।5।2 इति च विशेषवचनत्वे समेऽपि विशेषणं परिशिष्यते ।।3.9।।

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