रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-67


मूल स्लोकः

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।




English translation by Swami Sivananda
2.67 For the mind, which follows in the wake of the wandering senses, carries away his discrimination, as the wind (carries away) a boat on the waters.


English commentary by Swami Sivananda
2.67 इन्द्रियाणाम् senses, हि for, चरताम् wandering, यत् which, मनः mind, अनुविधीयते follows, तत् that, अस्य his, हरति carries away, प्रज्ञाम् discrimination, वायुः the wind, नावम् boat, इव like, अम्भसि in the water.Commentary: The mind which constantly dwells on the sensual objects and moves in company with the senses destroys altogether the discrimination of the man. Just as the wind carries away a boat from its course, so also the mind carries away the aspirant from his spiritual path and turns him towards the objects of the senses.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अपने-अपने विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे एक ही इन्द्रिय जिस मनको अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जलमें नौकाको वायुकी तरह बुद्धिको हर लेता है ।।2.67।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- मनुष्यका यह जन्म केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अतः मुझे तो केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है, चाहे जो हो जाय -- ऐसा अपना ध्येय दृढ़ होना चाहिये। ध्येय दृढ़ होनेसे साधककी अहंतामेंसे भोगोंका महत्त्व हट जाता है। महत्त्व हट जानेसे व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ हो जाती है। परन्तु जबतक व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ नहीं होती, तबतक उसकी क्या दशा होती है -- इसका वर्णन यहाँ कर रहे हैं। इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते (टिप्पणी प0 103.2) -- जब साधक कार्यक्षेत्रमें सब तरहका व्यवहार करता है, तब इन्द्रियोंके सामने अपने-अपने विषय आ ही जाते हैं। उनमेंसे जिस इन्द्रियका अपने विषयमे राग हो जाता है, वह इन्द्रिय मनको अपना अनुगामी बना लेती है, मनको अपने साथ कर लेती है। अतः मन उस विषयका सुखभोग करने लग जाता है अर्थात् मनमें सुखबुद्धि, भोगबुद्धि पैदा हो जाती है; मनमें उस विषयका रंग चढ़ जाता है, उसका महत्त्व बैठ जाता है। जैसे, भोजन करते समय किसी पदार्थका स्वाद आता है तो रसनेन्द्रिय उसमें आसक्त हो जाती है। आसक्त होनेपर रसनेन्द्रिय मनको भी खीँच लेती है, तो मन उस स्वादमें प्रसन्न हो जाता है राजी हो जाता है।तदस्य हरति प्रज्ञाम् -- जब मनमें विषयका महत्त्व बैठ जाता है, तब वह अकेला मन ही साधककी बुद्धिको हर लेता है अर्थात् साधकमें कर्तव्य-परायणता न रहकर भोगबुद्धि पैदा हो जाती है। वह भोगबुद्धि होनेसे साधकमें ' मुझे परमात्माकी ही प्राप्ति करनी है' -- यह व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं रहती। इस तरहका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर बुद्धि विचलित होनेमें देरी नहीं लगती अर्थात् जहाँ इन्द्रियने मनको अपना अनुगामी बनाया कि मनमें भोगबुद्धि पैदा हो जाती है और उसी समय बुद्धि मारी जाती है।वायुर्नावमिवाम्भसि -- वह बुद्धि किस तरह हर ली जाती है -- इसको दृष्टान्तरूपसे समझाते हैं कि जलमें चलती हुई नौकाको वायु जैसे हर लेती है, ऐसे ही मन बुद्धिको हर लेता है। जैसे, कोई मनुष्य नौकाके द्वारा नदी या समुद्रको पार करते हुए अपने गन्तव्य स्थानको जा रहा है। यदि उस समय नौकाके विपरीत वायु चलती है तो वह वायु उस नौकाको गन्तव्य स्थानसे विपरीत ले जाती है। ऐसे ही साधक व्यवसायात्मिका बुद्धिरूप नौकापर आरूढ़ होकर संसार-सागरको पार करता हुआ परमात्माकी तरफ चलता है, तो एक इन्द्रिय जिस मनको अपना अनुगामी बनाती है, वह अकेला मन ही बुद्धिरूप नौकाको हर लेता है अर्थात् उसे संसारकी तरफ ले जाता है। इससे साधककी विषयोंमें सुख बुद्धि और उनके उपयोगी पदार्थोंमें महत्त्वबुद्धि हो जाती है।वायु नौकाको दो तरहसे विचलित करती है -- नौकाको पथभ्रष्ट कर देती है अथवा जलमें डुबा देती है। परन्तु कोई चतुर नाविक होता है तो वह वायुकी क्रियाको अपने अनुकूल बना लेता है, जिससे वायु नौकाको अपने मार्गसे अलग नहीं ले जा सकती, प्रत्युत उसको गन्तव्य स्थानतक पहुँचानेमें सहायता करती है -- ऐसे ही इन्द्रियोंके अनुगामी हुआ मन बुद्धिको दो तरहसे विचलित करता है -- परमात्मप्राप्तिके निश्चय को दबाकर भोगबुद्धि पैदा कर देता है अथवा निषिद्ध भोगोंमें लगाकर पतन करा देता है। परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, उसकी बुद्धिको मन विचलित नहीं करता, प्रत्युत परमात्माके पास पहुँचानेमें सहायता करता है (2। 64-65)।सम्बन्ध -- अयुक्त पुरुषकी निश्चयात्मिका बुद्धि क्यों नहीं होती इसका हेतु तो पूर्वश्लोकमें बता दिया। अब जो युक्त होता है, उसकी स्थितिका वर्णन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं ।।2.67।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- इन्द्रियाणां हि यस्मात् चरतां स्वस्वविषयेषु प्रवर्तमानानां यत् मनः अनुविधीयते अनुप्रवर्तते तत् इन्द्रियविषयविकल्पनेन प्रवृत्तं मनः अस्य यतेः हरति प्रज्ञाम् आत्मानात्मविवेकजां नाशयति। कथम्? वायुः नावमिव अम्भसि उदके जिगमिषतां मार्गादुद्धृत्य उन्मार्गे यथा वायुः नावं प्रवर्तयति, एवमात्मविषयां प्रज्ञां हृत्वा मनो विषयविषयां करोति।।'यततो हि' इत्युपन्यस्तस्यार्थस्य अनेकधा उपपत्तिमुक्त्वा तं चार्थमुपपाद्य उपसंहरति -- ।।2.67।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.67 Hi, for; yat manah, the mind which; anu-vidhiyate, follows in the wake of; caratam, the wandering; indriyani, senses that are tending towards their respective objects; tat, that, the mind engaged in thinking Perceiving objects like sound etc. in their respective varieties. of the objects of the senses; harati, carries away, destroys; asya, his, the sannyasin's; prajnam, wisdom born from the discrimination between the Self and the not-Self. How? Iva, like; vayuh, the wind; diverting a navam, boat; ambhasi, on the waters. As wind, by diverting a boat on the waters from its intended course, drives it along a wrong course, similarly the mind, by diverting the wisdom from the pursuit of the Self, makes it engage in objects.After having stated variously the reasons for the idea conveyed through the verse, 'For, O son of Kunti,' etc. (60), and having established that very idea, the Lord concludes thus:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
अयुक्त पुरुषमें बुद्धि क्यों नहीं होती? इसपर कहते हैं -- क्योंकि अपने-अपने विषयमें विचरनेवाली अर्थात् विषयोंमें प्रवृत्त हुई इन्द्रियोंमेंसे जिसके पीछे-पीछे यह मन जाता है -- विषयोंमें प्रवृत्त होता है वह उस इन्द्रियके विषयको विभागपूर्वक ग्रहण करनेमें लगा हुआ मन, इस साधककी आत्म-अनात्मसम्बन्धी विवेक-ज्ञानसे उत्पन्न हुई बुद्धिको हर लेता है अर्थात् नष्ट कर देता है। कैसे? जैसे जलमें नौकाको वायु हर लेता है वैसे ही, अर्थात् जैसे जलमें चलनेकी इच्छावाले पुरुषोंकी नौकाको वायु गन्तव्य मार्गसे हटाकर उल्टे मार्गपर ले जाता है वैसे ही यह मन आत्मविषयक बुद्धिको विचलित करके विषयविषयक बना देता है ।।2.67।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
इन्द्रियाणां विषयेषु चरतां विषयेषु वर्तमानानां वर्तनम् अनु यन्मनः अनु विधीयते पुरुषेण अनुवर्त्यते तत् मनः अस्य विविक्तात्मप्रवणां प्रज्ञां हरति विषेयप्रवणतां करोति इत्यर्थः। यथा अम्भसि नीयमानां नावं प्रतिकूलो वायुः प्रसह्य हरति ।।2.67।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.67 That mind, which is allowed by a person to be submissive to, i.e., allowed to go after the senses which go on operating, i.e., experiencing sense-objects, such a mind loses its inclination towards the pure self. The meaning is that it gets inclined towards sense-objects. Just as a contrary wind forcibly carries away a ship moving on the waters, in the name manner wisdon also is carried away from such a mind. The idea is that the pursuit of sense pleasures dulls one's spiritual inclination, and the mind ultimately succumbs to them unresisting.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अत्र हेतुमाह -- इन्द्रियाणामिति। विषयेषु चरतामिन्द्रियाणां मध्ये यन्मनः कर्तृ प्रबलमेकमनुविधीयते अनेन चानुक्रियते तदस्य प्रज्ञां हरति। तत्र दृष्टान्तः -- वायुर्नावमिवाम्भसीति ।।2.67।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अयुक्तस्य कुतो नास्ति बुद्धिरित्यत आह -- चरतां स्वविषयेषु प्रवर्तमानानामवशीकृतानामिन्द्रियाणां मध्ये यदेकमपीन्द्रियमनुलक्षीकृत्य मनोऽनुविधीयते प्रेर्यते। प्रवर्तत इति यावत्। कर्मकर्तरि लकारः। तदिन्द्रियमेकमपि मनसानुसृतमस्य साधकस्य मनसो वा प्रज्ञामात्मविषयां शास्त्रीयां हरत्यपनयति, मनसस्तद्विषयाविष्टत्वात्। यदैकमपीन्द्रियं प्रज्ञां हरति तदा सर्वाणि हरन्तीति किमु वक्तव्यमित्यर्थः। दृष्टान्तस्तु स्पष्टः। अम्भस्येव वायोर्नौकाहरणसामर्थ्यं न भुवीति सूचयितुमम्भसीत्युक्तम्। एवं दार्ष्टान्तिकेऽप्यम्भःस्थानीये मनश्चाञ्चल्ये सत्येव प्रज्ञाहरणसामर्थ्यमिन्द्रियस्य नतु भूस्थानीये मनःस्थैर्य इति सूचितम् ।।2.67।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
कथमयुक्तस्य भावना न भवति? इत्याह -- 'इन्द्रियाणामिति'। अनुविधीयते क्रियते नन्वीश्वरेण इन्द्रियाणामनु बुद्धिर्ज्ञानमिति वक्ष्यमाणत्वात्। प्रज्ञां ज्ञानं उत्पत्स्यदपि निवारयतीत्यर्थः। उत्पन्नस्याप्यभिभवो भवति ।।2.67।।

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