रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-64


मूल स्लोकः

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2.64।।




English translation by Swami Sivananda
2.64 But the self-controlled man, moving among the objects with the senses under restraint and free from attraction and repulsion, attains to peace.


English commentary by Swami Sivananda
2.64 रागद्वेषवियुक्तैः free from attraction and repulsion, तु but, विषयान् objects, इन्द्रियैः with senses, चरन् moving (amongst), आत्मवश्यैः self-restrained, विधेयात्मा the self-controlled, प्रसादम् to peace, अधिगच्छति attains.Commentary: The mind and the senses are naturally endowed with the two currents of attraction and repulsion. Therefore, the mind and the senses like certain objects and dislike certain other objects. But the disciplined man moves among sense-objects with the mind and the senses free from attraction and repulsion and mastered by the Self, attains to the peace of the Eternal. The senses and the mind obey his will, as the disciplined self has a very strong will. The disciplined self takes only those objects which are quite necessary for the maintenance of the body without any love or hatred. He never takes those objects which are forbidden by the scriptures.In this verse Lord Krishna gives the answer to Arjuna's fourth question, "How does a sage of steady wisdom move about?" (Cf.III.7.19,25;XVIII.9).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त हो जाता है। प्रसन्नता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे प्रसन्नचित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है ।।2.64 - 2.65।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तु -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि आसक्ति रहते हुए विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता है और यहाँ कहते हैं कि आसक्ति न रहनेपर विषयोंका सेवन करनेसे उत्थान हो जाता है। वहाँ तो बुद्धिका नाश बताया और यहाँ बुद्धिका परमात्मामें स्थित होना बताया। इस प्रकार पहले कहे गये विषयससे यहाँके विषयका अन्तर बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है।विधेयात्मा -- साधकका अन्तःकरण अपने वशमें रहना चाहिये। अन्तःकरणको वशीभूत किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत कर्म करते हुए विषयोंमें राग होनेकी और पतन होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो अन्तःकरणको अपने वशमें रखना हरेक साधकके लिये आवश्यक है। कर्मयोगीके लिये तो इसकी विशेष आवश्यकता है।आत्मवश्यैः रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैः -- जैसे विधेयात्मा पद अन्तःकरणको वशमें करनेके अर्थमें आया है, ऐसे ही आत्मवश्यैः पद इन्द्रियोंको वशमें करनेके अर्थमें आया है। तात्पर्य है कि व्यवहार करते समय इन्द्रियाँ अपने वशीभूत होनी चाहिये और इन्द्रियाँ वशीभूत होनेके लिये इन्द्रियोंका राग-द्वेष रहित होना जरूरी है। अतः इन्द्रियोंसे किसी विषयका ग्रहण रागपूर्वक न हो और किसी विषयका त्याग द्वेषपूर्वक न हो। कारण कि विषयोंके ग्रहण और त्यागका इतना महत्त्व नहीं है, जितना महत्त्व इन्द्रियोंमें राग और द्वेष न होने देनेका है। इसीलिये तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने साधकके लिये सावधानी बतायी है कि ' प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष रहते हैं। साधक इनके वशीभूत न हो; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं।' पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि ' जो साधक राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है, वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।विषयान् चरन् -- जिसका अन्तःकरण अपने वशमें है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित तथा अपने वशमें की हुई है, ऐसा साधक इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन अर्थात् सब प्रकारका व्यवहार तो करता है, पर विषयोंका भोग नहीं करता। भोगबुद्धिसे किया हुआ विषय-सेवन ही पतनका कारण होता है। इस भोगबुद्धिका निषेध करनेके लिये ही यहाँ विधेयात्मा, आत्मवश्यैः आदि पद आये हैं।प्रसादमधिगच्छति -- राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करनेसे साधक अन्तःकरणकी प्रसन्नता-(स्वच्छता-) को प्राप्त होता है। यह प्रसन्नता मानसिक तप है (गीता 17। 16), जो शारीरिक और वाचिक तपसे ऊँचा है। अतः साधकको न तो रागपूर्वक विषयोंका सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक विषयोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष -- इन दोनोंसे ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है।राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन करनेसे जो प्रसन्नता होती है, उसका अगर सङ्ग न किया जाय, भोग न किया जाय, तो वह प्रसन्नता परमात्माकी प्राप्ति करा देती है।प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते -- चित्तकी प्रसन्नता (स्वच्छता) प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है अर्थात् कोई भी दुःख नहीं रहता। कारण कि राग होनेसे ही चित्तमें खिन्नता होती है। खिन्नता होते ही कामना पैदा हो जाती है और कामनासे ही सब दुःख पैदा होते हैं। परन्तु जब राग मिट जाता है, तब चित्तमें प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नतासे सम्पूर्ण दुःख मिट जाते हैं।जितने भी दुःख हैं, वे सब-के-सब प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके सम्बन्धसे ही होते हैं और शरीर-संसारसे सम्बन्ध होता है सुखकी लिप्सासे। सुखकी लिप्सा होती है खिन्नतासे। परन्तु जब प्रसन्नता होती है, तब खिन्नता मिट जाती है। खिन्नता मिटनेपर सुखकी लिप्सा नहीं रहती। सुखकी लिप्सा न रहनेसे शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहता और सम्बन्ध न रहनेसे सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है -- सर्वदुःखानां हानिः। तात्पर्य है कि प्रसन्नतासे दो बातें होती हैं -- संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मामें बुद्धिकी स्थिरता। यही बात भगवान्ने पहले तिरपनवें श्लोकमें ' निश्चला' और ' अचला ' पदोंसे कही है कि उसकी बुद्धि संसारमें निश्चल और परमात्मामें अचल हो जाती है।यहाँ सर्वदुःखानां हानिः का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके सामने दुःखदायी परिस्थिति आयेगी ही नहीं, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह है कि कर्मोंके अनुसार उसके सामने दुःखदायी घटना, परिस्थिति आ सकती है; परन्तु उसके अन्तःकरणमें दुःख सन्ताप, हलचल आदि विकृति नहीं हो सकती।प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते -- प्रसन्न (स्वच्छ) चित्तवालेकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मानें स्थिर हो जाती है अर्थात् साधक स्वयं परमात्मामें स्थिर हो जाता है, उसकी बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता।मार्मिक बातभगवद्विषयक प्रसन्नता हो अथवा व्याकुलता हो -- इन दोनोंमेंसे कोई एक भी अगर अधिक बढ़ जाती है, तो वह शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति करा देती है। जैसे, भगवान्के पास जाती हुई गोपियोंको माता-पिता, भाई, पति आदिने रोक दिया, मकानमें बंद कर दिया, तो उन गोपियोंमें भगवान्से मिलनेकी जो व्याकुलता हुई, उससे उनके पाप नष्ट हो गये और भगवान्का चिन्तन करनेसे जो प्रसन्नता हुई, उससे उनके पुण्य नष्ट हो गये। इस प्रकार पाप-पुण्यसे रहित होकर वे शरीरको वहीं छोड़कर सबसे पहले भगवान्से जा मिलीं (टिप्पणी प0 102)। परन्तु सांसारिक विषयोंको लेकर जो प्रसन्नता और खिन्नता होती है, उन दोनोंमें ही भोगोंके संस्कार दृढ़ होते हैं अर्थात् संसारका बन्धन दृढ़ होता है। इसके उदाहरण संसारमात्रके सामान्य प्राणी हैं, जो प्रसन्नता और खिन्नताको लेकर संसारमें फँसे हुए हैं।प्रसन्नता और व्याकुलता-(खिन्नता-) में अन्तःकरण द्रवित हो जाता है। जैसे द्रवित मोममें रंग डालनेसे मोममें वह रंग स्थायी हो जाता है, ऐसे ही अन्तःकरण द्रवित होनेपर उसमें भगवत्सम्बन्धी अथवा सांसारिक -- जो भी भाव आते हैं, वे स्थायी हो जाते हैं। स्थायी होनेपर वे भाव उत्थान अथवा पतन करनेवाले हो जाते हैं। अतः साधकके लिये उचित है कि संसारकी प्रिय-से-प्रिय वस्तु मिलनेपर भी प्रसन्न न हो और अप्रिय-से-अप्रिय वस्तु मिलनेपर भी उद्विग्न न हो।सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें जो बात कही है, उसीको आगेके दो श्लोकोंमें व्यतिरेक रीतिसे पुष्ट करते हैं ।।2.64।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- रागद्वेषवियुक्तैः रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषौ, तत्पुरःसरा हि इन्द्रियाणां प्रवृत्तिः स्वाभाविकी, तत्र यो मुमुक्षुः भवति सः ताभ्यां वियुक्तैः श्रोत्रादिभिः इन्द्रियैः विषयान् अवर्जनीयान् चरन् उपलभमानः आत्मवश्यैः आत्मनः वश्यानि वशीभूतानि इन्द्रियाणि तैः आत्मवश्यैः विधेयात्मा इच्छातः विधेयः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयं प्रसादम् अधिगच्छति। प्रसादः प्रसन्नता स्वास्थ्यम्।।प्रसादे सति किं स्यात् इत्युच्यते -- ।।2.64।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.64 Certainly the functions of the organs are naturally preceded by attraction and repulsion. This being so, caran, by perceiving; visayan, objects, which are unavoidable; indriyaih, with the organs such as ears etc.; raga-dvesa-viyuktaih, that are free from those attraction and repulsion; and are atma-vasyaih, under his own control; vidheya-atma, A.G. takes atma-vasyaih in the sense of '(with the organs) under the control of the mind'. He then argues that it the mind be not under control, there can be no real control, over the organs. Hence the text uses the second expression, 'vidheyatma, whose mind can be subdued at will'. Here atma is used in the sense of the mind, according to the Commentator himself. the self-controlled man, whose mind can be subdued at will, a seeker after Liberation; adhigacchati, attains; prasadam, serenity, self-poise.What happens when there is serenity? This is being answered:



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
विषयोंके चिन्तनको सब अनर्थोंका मूल बतलाया गया। अब यह मोक्षका साधन बतलाया जाता है -- आसक्ति और द्वेषको राग-द्वेष कहते हैं, इन दोनोंको लेकर ही इन्द्रियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हुआ करती है। परंतु जो मुमुक्षु होता है वह स्वाधीन अन्तःकरणवाला अर्थात् जिसका अन्तःकरण इच्छानुसार वशमें है, ऐसा पुरुष रोग-द्वेषसे रहित और अपने वशमें की हुई श्रोत्रादि इन्द्रियोंद्वारा अनिवार्य विषयोंको ग्रहण करता हुआ प्रसादको प्राप्त होता है। प्रसन्नता और स्वास्थ्यको प्रसाद कहते हैं ।।2.64।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
उक्तेन प्रकारेण मयि सर्वेश्वरे चेतसः शुभाश्रयभूते न्यस्तमना निर्दग्धाशेषकल्मषतया रागद्वेषवियुक्तैः आत्मवश्यैः इन्द्रियैः विषयान् चरन् विषयान् तिरस्कृत्य वर्तमानो विधेयात्मा विधेयमनाः प्रसादम् अधिगच्छति। निर्मलान्तःकरणो भवति इत्यर्थः ।।2.64।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.64 Having focussed, in the way already described, the mind on Me --- the Lord of all and the auspicious object of meditation, he who goes through, i.e., considers with contempt the sense-objects, with senses under control and free from hate and attraction by reason of all impurities of mind being burnt out --- such a person has a disciplined self, i.e., disciplined mind. He attains serenity. The meaning is that his mind will be free of impurities.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
नन्विन्द्रियाणां विषयाभिमुखस्वभावानां निरोधस्याशक्यत्वाद्दोषो दुष्परिहर इति कथं प्रज्ञायाः प्रतिष्ठितत्वं? इत्याशङ्क्याह द्वाभ्याम् -- रागेति। यो वश्यात्मा स्वेन्द्रियै रागद्वेषवियुक्तैर्विषयानुपभुञ्जानोऽपि प्रसादं प्रशान्तिमधिगच्छति तस्य प्रसन्नचेतसः प्रज्ञा प्रतिष्ठिताऽवसेया ।।2.64 -- 2.65।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
मनसि निगृहीते तु बाह्येन्द्रियनिग्रहाभावेऽपि न दोष इति वदन् किं व्रजेतेत्यस्योत्तरमाहाष्टभिः -- योऽसमाहितचेताः स बाह्येन्द्रियाणि निगृह्यापि रागद्वेषदुष्टेन मनसा विषयांश्चिन्तयन्पुरुषार्थाद्भ्रष्टो भवति। विधेयात्मा तु। तुशब्दः पूर्वस्माद्व्यतिरेकार्थः। वशीकृतान्तःकरणस्तु आत्मवश्यैर्मनोधीनैः स्वाधीनैरिति वा रागद्वेषाभ्यां वियुक्तैर्विरहितैरिन्द्रियैः श्रोत्रादिभिर्विषयाञ्शब्दादीननिषिद्धांश्चरन्नुपलभमानः प्रसादं प्रसन्नतां चित्तस्य स्वच्छतां परमात्मसाक्षात्कारयोग्यतामधिगच्छति। रागद्वेषप्रयुक्तानीन्द्रियाणि दोषहेतुतां प्रतिपद्यन्ते। मनसि स्ववशे तु न रागद्वेषौ। तयोरभावे च न तदधीनेन्द्रियप्रवृत्तिः। अवर्जनीयतया तु विषयोपलम्भो न दोषमावहंतीति न शुद्धिव्याघात इति भावः। एतेन विषयाणां स्मरणमपि चेदनर्थकारणं सुतरां तर्हि भोगस्तेन जीवनार्थं विषयान्भुञ्जानः कथमनर्थं न प्रतिपद्येतेति शङ्का निरस्ता। स्वाधीनैरिन्द्रियैर्विषयान्प्राप्नोतीति च किं व्रजेतेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं भवति ।।2.64।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
इन्द्रियजयफलमाहोत्तराभ्यां श्लोकाभ्याम् -- विषयाननुभवन्नपि विधेय आत्मा यस्य सः, जितात्मेत्यर्थः। प्रसादं मनःप्रसादम् ।।2.64।।

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