रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-06


मूल स्लोकः

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।




English translation by Swami Sivananda
3.6 He who, restraining the organs of action, sits thinking of the sense-objects in mind, he of deluded understanding is called a hypocrite.


English commentary by Swami Sivananda
3.6 कर्मेन्द्रियाणि organs of action, संयम्य restraining, यः who, आस्ते sits, मनसा by the mind, स्मरन् remembering, इन्द्रियार्थान् sense-objects, विमूढात्मा of deluded understanding, मिथ्याचारः hypocrite, सः he, उच्यते is called.Commentary: The five organs of action, Karma Indriyas, are Vak (organ of speech), Pani (hands), Padam (feet), Upastha (genitals) and Guda (anus). They are born of the Rajasic portion of the five Tanmatras or subtle elements; Vak from the Akasa Tanmatra (ether), Pani from the Vayu Tanmatra (air), Padam from the Agni Tanmatra (fire), Upastha from the Apas Tanmatra (water), and Guda from the Prithivi Tanmatra (earth). That man who, restraining the organs of action, sits revolving in his mind thoughts regarding the objects of the senses is a man of sinful conduct. He is self-deluded. He is a veritable hypocrite.The organs of action must be controlled. The thoughts should also be controlled. The mind should be firmly fixed on the Lord. Only then will you become a true Yogi. Only then will you attain to Self-realisation.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
जो कर्मेन्द्रियों-(सम्पूर्ण इन्द्रियों-) को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है ।।3.6।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- कर्मेन्द्रियाणि संयम्य ... मिथ्याचारः स उच्यते -- यहाँ कर्मेन्द्रियाणि पदका अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा) से ही नहीं है, प्रत्युत इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण) से भी है; क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंके बिना केवल कर्मेन्द्रियोंसे कर्म नहीं हो सकते। इसके सिवाय केवल हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोकनेसे तथा आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियोंको न रोकनेसे पूरा मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होता।गीतामें कर्मेन्द्रियोंके अन्तर्गत ही ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। इसलिये गीतामें ' कर्मेन्द्रिय ' शब्द तो आता है, पर ' ज्ञानेन्द्रिय ' शब्द कहीं नहीं आता। पाँचवें अध्यायके आठवें-नवें श्लोकोंमें देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियोंकी क्रियाओंको भी कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंके साथ सम्मिलित किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि गीता ज्ञानेन्द्रियोंको भी कर्मेन्द्रियाँ ही मानती है। गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है -- शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः (18। 15)। तात्पर्य यह है कि मात्र प्रकृति क्रियाशील होनेसे प्रकृतिका कार्यमात्र क्रियाशील है।यद्यपि संयम्य पदका अर्थ होता है -- इन्द्रियोंका अच्छी तरहसे नियमन अर्थात् उन्हें वशमें करना, तथापि यहाँ इस पदका अर्थ इन्द्रियोंको वशमें करना न होकर उन्हें हठपूर्वक बाहरसे रोकना ही है। कारण कि इन्द्रियोंके वशमें होनेपर उसे मिथ्याचार कहना नहीं बनता।मूढ़ बुद्धिवाला (सत्-असत्के विवेकसे रहित) मनुष्य बाहरसे तो इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोक देता है, पर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है और ऐसी स्थितिको क्रियारहित मान लेता है। इसलिये वह मिथ्याचारी अर्थात् मिथ्या आचरण करनेवाला कहा जाता है।यद्यपि उसने इन्द्रियोंके विषयोंको बाहरसे त्याग दिया है और ऐसा समझता है कि मैं कर्म नहीं करता हूँ, तथापि ऐसी अवस्थामें भी वह वस्तुतः कर्मरहित नहीं हुआ है। कारण कि बाहरसे क्रियारहित दीखनेपर भी अहंता, ममता और कामनाके कारण रागपूर्वक विषयचिन्तनके रूपमें विषयभोगरूप कर्म तो हो ही रहा है।सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी। बाहरसे रागपूर्वक भोगोंको भोगनेसे अन्तःकरणमें भोगोंके जैसे संस्कार पड़ते हैं, वैसे ही संस्कार मनसे भोगोंको भोगनेसे अर्थात् रागपूर्वक भोगोंका चिन्तन करनेसे भी पड़ते हैं। बाहरसे भोगोंका त्याग तो मनुष्य विचारसे, लोक-लिहाजसे और व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे भी कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः वह मनसे भोगोंको भोगता रहता है और मिथ्या अभिमान करता है कि मैं भोगोंका त्यागी हूँ। मनसे भोग भोगनेसे विशेष हानि होती है; क्योंकि इसके सेवनका विशेष अवसर मिलता है। अतः साधकको चाहिये कि जैसे वह बाहरके भोगोंसे अपनेको बचाता है, उनका त्याग करता है, ऐसे ही मनसे भोगोंके चिन्तनका भी विशेष सावधानीसे त्याग करे।अर्जुन भी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते हैं और भगवनान्से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि रखते हुए केवल बाहरसे कर्मोंका त्याग करके अपनेको क्रियारहित मानता है, उसका आचरण मिथ्या है। तात्पर्य यह है कि साधकको कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके उन्हें कामना-आसक्तिसे रहित होकर तत्परतापूर्वक करते रहना चाहिये।सम्बन्ध -- चौथे श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोग और सांख्ययोग -- दोनोंकी दृष्टिसे कर्मोंका त्याग अनावश्यक बताया। फिर पाँचवें श्लोकमें कहा कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। छठे श्लोकमें हठपूर्वक इन्द्रियोंकी क्रियाओंको रोककर अपनेको क्रियारहित मान लेनेवालेका आचरण मिथ्या बताया। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे उनका वास्तविक त्याग नहीं होता। अतः आगेके श्लोकमें भगवान् वास्तविक त्यागकी पहचान बताते हैं ।।3.6।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- कर्मेन्द्रियाणि हस्तादीनि संयम्य संहृत्य यः आस्ते तिष्ठति मनसा स्मरन् चिन्तयन् इन्द्रियार्थान् विषयान् विमूढात्मा विमूढान्तःकरणः मिथ्याचारो मृषाचारः पापाचारः सः उच्यते। ।।3.6।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.6 Yah, one who; samyamya, after withdrawing; karma-indriyani, the organs of action-hands etc.; aste, sits; manasa, mentally; smaran, recollecting, thinking; indriya-arthan, the objects of the senses; sah, that one; vimudha-atma, of deluded mind; ucyate, is called; mithya-acarah, a hypocrite, a sinful person.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जो आत्मज्ञानी न होनेपर भी शास्त्रविहित कर्म नहीं करता, उसका वह कर्म न करना बुरा है; यह कहते हैं -- जो मनुष्य हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोककर इन्द्रियोंके भोगोंको मनसे चिन्तन करता रहता है, वह विमूढात्मा अर्थात् मोहित अन्तःकरणवाला मिथ्याचारी, ढोंगी, पापाचारी कहा जाता है ।।3.6।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अविनष्टपापतया अजितबाह्यान्तःकरण आत्मज्ञानाय प्रवृत्तो विषयप्रवणतया आत्मनि विमुखीकृतमनाः विषयान् एव स्मरन् य आस्ते; अन्यथा संकल्प्य अन्यथा चरति इति स मिथ्याचारः उच्यते; आत्मज्ञानाय उद्युक्तो विपरीतो विनष्टो भवति इत्यर्थः ।।3.6।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.6 He whose inner and outer organs of senses are not conquered because of his sins not being annulled but is none the less struggling for winning knowledge of the self, whose mind is forced to turn away from the self by reason of it being attached to sense objects, and who consequently lets his minds dwell on them --- he is called a hypocrite, because his actions are at variance with his professions. The meaning is that by practising the knowledge of the self in this way, he becomes perverted and lost.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
यश्च कर्मेन्द्रियैः कर्माकरणे नैष्कर्म्यसम्भव उक्तः सोऽपि न साधुः, मानसक्रियानिवर्त्यत्वेनोक्तस्वरूपत्वासम्भवादित्याह -- कर्मेन्द्रियाणीति।'साङ्ख्ये प्रकीर्तितस्त्यागस्त्यागोऽपि मनसैव हि। अत्यागे योगमार्गो हि सिद्धे योगे कृतार्थता। तदर्थं प्रक्रिया काचित्पुराणेऽपि निरूपिता। ऋषिभिर्बहुधा प्रोक्ता फलमेकमबाह्यतः। कर्मत्यागेन सन्न्यासो मनसा तत्स्मृतेः पुनः। प्रत्यवायसमुद्भेदस्तस्मात्तत्करणं मतम्'। अतो यः पुमान्स्वयं मनसा कर्मकर्त्ता मानसविषयव्यापारवान् स मूढात्मा व्यर्थाचार उच्यते ।।3.6।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
यथाकथंचिदौत्सुक्यमात्रेण कृतसंन्यासस्त्वशुद्धचित्तस्तत्फलभाङ न भवति। यतः -- यो विमूढात्मा रागद्वेषादिदूषितान्तःकरण औत्सुक्यमात्रेण कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाण्यादीनि संयम्य निगृह्य, बहिरिन्द्रियैः कर्माण्यकुर्वन्निति यावत्। मनसा रागादिप्रेरितेनेन्द्रियार्थाञ्शब्दादीन् नत्वात्मतत्त्वं स्मरन्नास्ते कृतसंन्यासोऽहमित्यभिमानेन कर्मशून्यस्तिष्ठति स मिथ्याचारः सत्त्वशुद्ध्यभावेन फलायोग्यत्वात्पापाचार उच्यते'त्वंपदार्थविवेकाय संन्यासः सर्वकर्मणाम्। श्रुत्येह विहितो यस्मात्तत्त्यागी पतितो भवेत्।।' इत्यादिधर्मशास्त्रेण। अत उपपन्नं नच संन्यसनादेवाशुद्धान्तःकरणः सिद्धिं समधिगच्छतीति ।।3.6।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
तथापि शक्तितः त्यागः कार्य इत्याह -- 'कर्मेन्द्रियाणीति'। मन एव प्रयोजकमिति दर्शयितुमन्वयव्यतिरेकावाह -- 'मनसा स्मरन् मनसा नियम्येति'। कर्मयोगं स्ववर्णाश्रमोचितम्। न तु गृहस्थकर्मैवेति नियमः, सन्न्यासादिविधानात्, सामान्यवचनाच्च ।।3.6 -- 3.7।।

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