शनिवार, 30 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-48


मूल स्लोकः

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।




English translation by Swami Sivananda
2.48 Perform action, O Arjuna, being steadfast in Yoga, abandoning attachment and balanced in success and failure. Evenness of mind is called Yoga.


English commentary by Swami Sivananda
2.48 योगस्थः steadfast in Yoga, कुरु perform, कर्माणि actions, सङ्गम् attachment, त्यक्त्वा having abandoned, धनञ्जय O Dhananjaya, सिद्ध्यसिद्ध्योः in success and failure, समः the smae, भूत्वा having become, समत्वम् evenness of mind, योगः Yoga, उच्यते is called.Commentary: Dwelling in union with the Divine perform actions merely for God's sake with a balanced mind in success and failure. Equilibrium is Yoga. The attainment of the knowledge of the Self through purity of heart obtained by doing actions without expectation of fruits is success (Siddhi). Failure is the non-attainment of knowledge by doing actions with expectation of fruit. (Cf.III.9;IV.14;IV.20).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे धनञ्जय! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है ।।2.48।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- सङ्गं त्यक्त्वा -- किसी भी कर्ममें, किसी भी कर्मके फलमें, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तुमें तेरी आसक्ति न हो, तभी तू निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकता है। अगर तू कर्म, फल आदि किसीमें भी चिपक जायेगा, तो निर्लिप्तता कैसे रहेगी? और निर्लिप्तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा?सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा -- आसक्तिके त्यागका परिणाम क्या होगा? सिद्धि और असिद्धिमें समता हो जायगा।कर्मका पूरा होना अथवा न होना, सांसारिक दृष्टिसे उसका फल अनुकूल होना अथवा प्रतिकूल होना, उस कर्मको करनेसे आदर-निरादर, प्रशंसा-निन्दा होना, अन्तःकरणकी शुद्धि होना अथवा न होना आदि-आदि जो सिद्धि और असिद्धि है, उसमें सम रहना चाहिये (टिप्पणी प0 86)।कर्मयोगीकी इतनी समता अर्थात् निष्कामभाव होना चाहिये कि कर्मोंकी पूर्ति हो चाहे न हो, फलकी प्राप्ति हो चाहे न हो, अपनी मुक्ति हो चाहे न हो मुझे तो केवल कर्तव्य-कर्म करना है। साधकको असङ्गताका अनुभव न हुआ हो, उसमें समता न आयी हो, तो भी उसका उद्देश्य असङ्ग होनेका, सम होनेका ही हो। जो बात उद्देश्यमें आ जाती है, वही अन्तमें सिद्ध हो जाती है। अतः साधनरूप समतासे अर्थात् अन्तःकरणकी समतासे साध्यरूप समता स्वतः आ जाती है -- तदा योगमवाप्स्यसि (2। 53)।योगस्थः कुरु कर्माणि -- सिद्धि-असिद्धिमें सम होनेके बाद उस समतामें निरन्तर अटल स्थित रहना ही ' योगस्थ ' होना है। जैसे किसी कार्यके आरम्भमें गणेशजीका पूजन करते हैं, तो उस पूजनको कार्य करते समय हरदम साथमें नहीं रखते, ऐसे ही कोई यह न समझ ले कि आरम्भमें एक बार सिद्धि-असिद्धिमें सम हो गये तो अब उस समताको हरदम साथमें नहीं रखना है, राग-द्वेष करते रहना है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि समतामें हरदम स्थित रहते हुए ही कर्तव्य-कर्मको करना चाहिये।समत्वं योग उच्यते -- समता ही योग है अर्थात् समता परमात्माका स्वरूप है। वह समता अन्तःकरणमें निरन्तर बनी रहनी चाहिये। आगे पाँचवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान् कहेंगे कि ' जिनका मन समतामें स्थित हो गया है, उन लोगोंने जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है; अतः उनकी स्थिति ब्रह्ममें ही है।' समताका नाम योग है ' -- यह योगकी परिभाषा है। इसीको आगे छठे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें कहेंगे कि ' दुःखोंके संयोगका जिसमें वियोग है, उसका नाम योग है।' ये दोनों परिमाषाएँ वास्तवमें एक ही हैं। जैसे दादकी बीमारीमें खुजलीका सुख होता है और जलनका दुःख होता है, पर ये दोनोंही बीमारी होनेसे दुःखरूप है, ऐसे ही संसारके सम्बन्धसे होनेवाला सुख और दुःख -- दोनों ही वास्तवमें दुःखरूप हैं। ऐसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदका नाम ही' दुःख-संयोग-वियोग' है। अतः चाहे दुःखोंके संयोगका वियोग अर्थात सुख-दुःखसे रहित होना कहें; चाहे सिद्धि-असिद्धिमें अर्थात् सुख-दुःखमें सम होना कहें; एक ही बात है।इस श्लोकका तात्पर्य यह हुआ कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे होनेवाली मात्र क्रियाओंको केवल संसारकी सेवारूपसे करना है, अपने लिये नहीं। ऐसा करनेसे ही समता आयेगी।बुद्धि और समता-सम्बन्धी विशेष बातबुद्धि दो तरहकी होती है -- अव्यवसायात्मिका और व्यवसायात्मिका। जिसमें सांसारिक सुख, भोग, आराम, मान-बड़ाई आदि प्राप्त करनेका ध्येय होता है, वह बुद्धि ' अव्यवसायात्मिका ' होती है (गीता 2। 44)। जिसमें समताकी प्राप्ति करनेका, अपना कल्याण करनेका ही उद्देश्य रहता है, वह बुद्धि ' व्यवसायात्मिका ' होती है (गीता 2। 41)। अव्यसायात्मिका बुद्धि अनन्त होती है और व्यवसायात्मिका बुद्धि एक होती है। जिसकी बुद्धि अव्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं अव्यवसायी (अव्यवसित) होता है -- बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् (2। 41) तथा वह संसारी होता है। जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, वह स्वयं व्यवसायी (व्यवसित) होता है -- व्यवसितो हि सः (9। 30) तथा वह साधक होता है।समता भी दो तरहकी होती है -- साधनरूप समता और साध्यरूप समता। साधनरूप समता अन्तःकरणकी होती है और साध्यरूप समता परमात्मस्वरूपकी होती है। सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें राग-द्वेषका न होना साधनरूप समता है, जिसका वर्णन गीतामें अधिक हुआ है। इस साधनरूप समतासे जिस स्वतःसिद्ध समताकी प्राप्ति होती है, वह साध्यरूप समता है, जिसका वर्णन इसी अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें तदा योगमवाप्स्यसि पदोंसे हुआ है।अब इन चारों भेदोंको यों समझें कि एक संसारी होता है और एक साधक होता है, एक साधन होता है और एक साध्य होता है। भोग भोगना और संग्रह करना -- यही जिसका उद्देश्य होता है, वह संसारी होता है। उसकी एक व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत कामनारूपी शाखाओंवाली अनन्त बुद्धियाँ होती हैं।मेरेको तो समताकी प्राप्ति ही करनी है, चाहे जो हो जाय -- ऐसा निश्चय करनेवालेकी व्यवसायात्मिका बुद्धि होती है। ऐसा साधक जब व्यवहारक्षेत्रमें आता है, तब उसके सामने सिद्धि-असिद्धि, लाभ-हानि, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आदि आनेपर वह उनमें सम रहता है, राग-द्वेष नहीं करता। इस साधनरूप समतासे वह संसारसे ऊँचा उठ जाता है -- इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः (गीता 5। 19 का पूर्वार्ध)। साधनरूप समतासे स्वतःसिद्ध समरूप परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है -- निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः (गीता 5। 19 का उत्तरार्ध)।सम्बन्ध -- उन्तालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक जिस समबुद्धि वर्णन हुआ है, सकामकर्मकी अपेक्षा उस समबुद्धिकी श्रेष्ठता आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- योगस्थः सन् कुरु कर्माणि केवलमीश्वरार्थम्; तत्रापि 'ईश्वरो मे तुष्यतु' इति सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्मणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिः, तद्विपर्ययजा असिद्धिः, तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योः अपि समः तुल्यः भूत्वा कुरु कर्माणि। कोऽसौ योगः यत्रस्थः कुरु इति उक्तम्? इदमेव तत् -- सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं योगः उच्यते।।यत्पुनः समत्वबुद्धियुक्तमीश्वराराधनार्थं कर्मोक्तम्, एतस्मात्कर्मणः -- ।।2.48।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.48 If action is not to be undertaken by one who is under the impulsion of the fruits of action, how then are they to be undertaken? This is being stated: Yogasthah, by becoming established in Yoga; O Dhanajaya, kuru, undertake; karmani, actions, for the sake of God alone; even there, tyaktva, casting off; sangam, attachment, in the form, 'God will be pleased with me.' 'Undertake work for pleasing God, but not for propitiating Him to become favourable towards yourself.'Undertake actions bhutva, remaining; samah, equipoised; siddhi-asidhyoh, in success and failure -- even in the success characterized by the attainment of Knowledge that arises from the purification of the mind when one performs actions without hankering for the results, and in the failure that arises from its opposite. Ignorance, arising from the impurity of the mind. What is that Yoga with regard to being established in which it is said, 'undertake'? This indeed is that: the samatvam, equanimity in success and failure; ucyate, is called; yogah, Yoga.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
यदि कर्मफलसे प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहिये तो फिर किस प्रकार करने चाहिये? इसपर कहते हैं -- हे धनंजय ! योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर। उनमें भी 'ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों।' इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर। फलतृष्णारहित पुरुषद्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञान-प्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत ( ज्ञान-प्राप्तिका न होना ) असिद्धि है, ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर। वह कौन-सा योग है, जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है? यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है, इसीको योग कहते हैं ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
राज्यबन्धुप्रभृतिषु सङ्गं त्यक्त्वा युद्धादीनि कर्माणि योगस्थः कुरु। तदन्तर्भूतविजयादिसिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा कुरु। तद् इदं सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वम्, योगस्थ इत्यत्र योगशब्देन उच्यते। योगः सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वरूपं चित्तसमाधानम्।किमर्थम् इदम् असकृद् उच्यते? इत्यत आह -- ।।2.48।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.48 Abandoning the attachment to kingdom, relatives etc., and established in Yoga, engage in war and such other activities. Perform these with equanimity as regards success and failure resulting from victory etc., which are inherent in them. This equanimity with regard to success and failure is called here by the term Yoga, in the expression 'established in Yoga.' Yoga is equanimity of mind which takes the form of evenness in success and failure.Sri Krsna explains why this is repeatedly said:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
तर्हि कथं स्वकर्म करोमि? इति चेत्तत्राह -- योगस्थ इति। फलस्वरूपो योगो मद्योगस्थ इत्यर्थः। फलेषु सङ्गं त्यक्त्वा। योगं व्याचष्टे -- समत्वं योग इति। तच्च मनोनिरोधे सम्भवति तथैव कुर्विति पूर्वोक्तं समर्थितम् ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
पूर्वोक्तमेव विवृणोति -- हे धनंजय, त्वं योगस्थः सन् सङ्गं फलाभिलाषं कर्तृत्वाभिनिवेशं च त्यक्त्वा कर्माणि कुरु। अत्र बहुवचनात्कर्मण्येवाधिकारस्ते इत्यत्र जातावेकवचनम्। सङ्गत्यागोपायमाह -- सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा फलसिद्धौ हर्षं फलासिद्धौ च विषादं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनबुद्ध्या कर्माणि कुर्वित्यर्थः। ननु योगशब्देन प्राक्कर्मोक्तम्। अत्र तु योगस्थः कर्माणि कुर्वित्युच्यते, अतः कथमेतबोद्वुं शक्यमित्यत आह -- समत्वं योग उच्यते। यदेतत्सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं इदमेव योगस्थ इत्यत्र योगशब्देनोच्यते नतु कर्मेति न कोऽपि विरोध इत्यर्थः। अत्र पूर्वार्धस्योत्तरार्धेन व्याख्यानं क्रियत इत्यपौनरुक्त्यमिति भाष्यकारीयः पन्थाः। सुखदुःखे समे कृत्वेत्यत्र जयाजयसाम्येन युद्धमात्रकर्तव्यता प्रकृतत्वादुक्ता। इह तु दृष्टादृष्टसर्वफलपरित्यागेन सर्वकर्मकर्तव्यतेति विशेषः ।।2.48।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
पूर्वश्लोकं स्पष्टयति -- 'योगस्थ इति'। योगस्थः उपायस्थः। सङ्गं फलस्नेहं त्यक्त्वा। तत एव सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा। स एव च मयोक्तो योगः ।।2.48।।

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