रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-03-01


मूल स्लोकः

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।

तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।3.1।।




English translation by Swami Sivananda
3.1 Arjuna said -- If Thou thinkest that knowledge is superior to action, O Krishna, why then, O Kesava, dost Thou ask me to engage in this terrible action?


English commentary by Swami Sivananda
3.1 ज्यायसी superior, चेत् if, कर्मणः than action, ते by Thee, मता thought, बुद्धिः knowledge, जनार्दन O Janardana, तत् then, किम् why, कर्मणि in action, घोरे terrible, माम् me, नियोजयसि Thou engagest, केशव O Kesava.Commentary: In verses 49, 50 and 51 of chapter II, Lord Krsihna has spoken very highly about Buddhi Yoga. He again asks Arjuna to fight. That is the reason why Arjuna is perplexed now.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अर्जुन बोले -- हे जनार्दन! अगर आप कर्मसे बुद्धि-(ज्ञान-) को श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? आप अपने मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं। अतः आप निश्चय करके एक बात कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ ।।3.1 -- 3.2।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- जनार्दन -- इस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्री कृष्ण! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे।ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते ... नियोजयसि केशव -- मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी। इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईकी वेशमें बुराई आती है। जो बुराई भलाईके वशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है। यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वशेमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मान रहे हैं। इसी कारण वे यहाँ प्रश्न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?भगवान्ने दूसरे अध्यायके उन्तालीसवें श्लोकमें बुद्धिर्योगे पदसे समबुद्धि-(समता-) की ही बात कही थी; परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया। अतः वे भगवान्से कहते हैं कि हे जनार्दन! आपने पहले कहा कि ' मैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी, इसीको तुम योगके विषयमें सुनो। इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा। ' परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा, जब ज्ञान होगा। आपने यह भी कह दिया कि ' बुद्धियोग अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं ' (2। 49)। अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, उत्तम है, तो फिर मेरेको शास्त्रविहित यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये, केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्ध-जैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें, जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े, क्यों लगा रहे हैं?पहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान्से कहा कि ' हे अच्युत! दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है। ' परन्तु भगवान्ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कि ' तू इन कुरुवंशियोंको देख ', तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया। मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे, कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी; क्योंकि ज्ञानमें युद्ध-जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?यहाँ बुद्धिः पदका अर्थ ' ज्ञान ' लिया गया है। अगर यहाँ बुद्धिः पदका अर्थ ' समबुद्धि ' (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा। कारण कि दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनको योग-(समता-) में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। व्यामिश्र वचन तभी सिद्धि होगा, जब अर्जुनकी मान्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं? दूसरी बात, भगवान्ने आगे अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें दो निष्ठाएँ कही हैं -- ज्ञानियोंकी निष्ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे। इससे भी अर्जुनके प्रश्नोंमें बुद्धिः पदका अर्थ ' ज्ञान ' लेना युक्तिसंगत बैठता है।कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं। अर्जुनकी भगवान्पर पूर्ण श्रद्धा है; अतः भगवान्के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्ध-जैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैं-ऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्नसे प्रकट होता है।व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे -- इन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करे कुरु कर्माणि (2। 48) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञानका आश्रय लो -- बुद्धौ शरणमन्विच्छ (2। 49)। आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये।यहाँ दो बार इव पदके प्रयोगसे भगवान्पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है। श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान्के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं। परन्तु भगवान्के वचनोंको ठीक-ठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान्के वचन मिले हुए-से लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहति-सी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहति करते, तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौन?तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् -- मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगा -- इनमेंसे आप निश्चय करके मेरे लिये एक बात कहिये, जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये -- यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे (2। 7) और अब भी मैं वही बात कर रहा हूँ।सम्बन्ध -- अब आगेके तीन (तीसरे, चौथे और पाँचवें) श्लोकोंमें भगवान् अर्जुनके व्यामिश्रेणेव वाक्येन (मिले हुए-से वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं ।।3.1।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- ज्यायसी श्रेयसी चेत् यदि कर्मणः सकाशात् ते तव मता अभिप्रेता बुद्धिः ज्ञानं हे जनार्दन। यदि बुद्धिकर्मणी समुच्चिते इष्टे तदा एकं श्रेयःसाधनमिति कर्मणो ज्यायसी बुद्धिः इति कर्मणः अतिरिक्तकरणं बुद्धेरनुपपन्नम् अर्जुनेन कृतं स्यात्; न हि तदेव तस्मात् फलतोऽतिरिक्तं स्यात्। तथा च, कर्मणः श्रेयस्करी भगवतोक्ता बुद्धिः, अश्रेयस्करं च कर्म कुर्विति मां प्रतिपादयति, तत् किं नु कारणमिति भगवत उपालम्भमिव कुर्वन् तत् किं कस्मात् कर्मणि घोरे क्रूरे हिंसालक्षणे मां नियोजयसि केशव इति च यदाह, तच्च नोपपद्यते। अथ स्मार्तेनैव कर्मणा समुच्चयः सर्वेषां भगवता उक्तः अर्जुनेन च अवधारितश्चेत् , 'तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि' (गीता 3.1) इत्यादि कथं युक्तं वचनम्।।किञ्च -- ।।3.1।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
3.1 O Janardana, cet, if it be; te, Your; mata, opinion, intention; that buddhih, Wisdom; jyayasi, is superior; karmanah, to action-.If the combination of Wisdom and action be intended (by the Lord), then the means to Liberation is only one. The path combining Wisdom and action. In that case, Arjuna would have done something illogical in separating Wisdom from action by saying that Wisdom is superior to action. For, that (Wisdom or action, which is a constituent of the combination) cannot be greater than that (Combination, even) from the point of view of the result. Since what is intended is a combination, therefore, the separation of Knowledge from action, from the point of view of the result, is not justifiable. When Knowledge and action are considered to form together a single means to Liberation, in that case each of them cannot be considered separately as producing its own distinct result. Arjuna's question can be justified only if this separation were possible. Similarly, what Arjuna said by way of censuring the Lord, as it were, in, 'It has been stated by the Lord that Wisdom is superior to action, and He exhorts me saying, "Undertake action," which is a source of evil! What may be the reason for this?', and also in, 'Tatkim, why then, O Kesava; niyojayasi, do You urge; mam, me; to ghore, horrible, cruel; karmani, action; involving injury?'-that (censure) also does not become reasonable.On the other hand, If the opponent's view be that Knowledge is to be combined with rites and duties sanctioned by the Vedas and the Smrtis in the case of the householders only, whereas for others those sanctioned by the Smrtis alone are to be combined with Knowledge..., then... if it be supposed that the combination (of Knowledge) with action sanctioned only by the Smrtis has been enjoined for all by the Lord, and Arjuna also comprehended (accordingly), then, how can the statement, 'Why then do you urge me to horrible action', be rational?Besides,



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
अर्जुन बोला -- हे जनार्दन ! यदि कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानको आप श्रेष्ठ मानते हैं ( तो हे केशव ! मुझे इस हिंसारूप क्रूर कर्ममें क्यों लगाते हैं? ) यदि ज्ञान और कर्म दोनोंका समुच्चय भगवान्को सम्मत होता तो फिर 'कल्याणका वह एक साधन कहिये' 'कर्मोंसे ज्ञान श्रेष्ठ है' इत्यादि वाक्योंद्वारा अर्जुनका ज्ञानसे कर्मोंको पृथक् करना अनुचित होता। क्योंकि ( समुच्चय-पक्षमें ) कर्मकी अपेक्षा उस ( ज्ञान ) का फलके नाते श्रेष्ठ होना सम्भव नहीं। तथा भगवान्ने कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञानको कल्याणकारक बतलाया और मुझसे ऐसा कहते हैं कि 'तू अकल्याणकारक कर्म ही कर' इसमें क्या कारण है -- यह सोचकर अर्जुनने भगवान्को उलहना-सा देते हुए जो ऐसा कहा कि 'तो फिर हे केशव ! मुझे इस हिंसारूप घोर क्रूर कर्ममें क्यों लगाते हैं?' वह भी उचित नहीं होता। यदि भगवान्ने स्मार्त-कर्मके साथ ही ज्ञानका समुच्चय सबके लिये कहा होता एवं अर्जुनने भी ऐसा ही समझा होता, तो उसका यह कहना कि 'फिर हे केशव ! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?' कैसे युक्तियुक्त हो सकता? ।।3.1।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अर्जुन उवाच -- यदि कर्मणः बुद्धिः एव ज्यायसी इति ते मता किमर्थं तर्हि घोरे कर्मणि मां नियोजयसि? एतदुक्तं भवति-ज्ञाननिष्ठा एव आत्मावलोकनसाधनम्, कर्मनिष्ठा तु तस्याः निष्पादिका, आत्मावलोकनसाधनभूता च ज्ञाननिष्ठा सकलेन्द्रियमनसां शब्दादिविषयव्यापारोपरतिनिष्पाद्या इत्यभिहिता। इन्द्रियव्यापारोपरतिनिष्पाद्यम् आत्मावलोकनं चेद् सिषाधयिषितम्, सकलकर्मनिवृत्तिपूर्वकज्ञाननिष्ठायाम् एव अहं नियोजयितव्यः; किमर्थं घोरे कर्मणि सर्वेन्द्रियव्यापाररूपे आत्मावलोकनविरोधिनि कर्मणि मां नियोजयसि इति ।।3.1।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
3.1 'Arjuna said -- If you consider that knowledge is superior to works, why do you engage me in this terrible deed?' What is said here is this: If the firm adherence to knowledge is the only means to the vision of the self, then how can one accept the idea that devotion to works (Karma) leads to it? It was said before that this firm devotion to knowledge, which forms the means for the vision of the self, could arise by the cessation of the activities of all the senses and the mind in relation to their respective objects such as sound. If the vision of the self is to be attained, which arises by the cessation of the activities of the senses, I should be guided to engage myself solely to acquire firm devotion to knowledge, which is preceded by the abandoning of all works. For what purpose, then, do you engage me in this terrible deed, which consists in the activities of all the senses, and is thus an obstacle for the vision of the self?


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अथाष्टभिस्त्रयीधर्मो माहात्म्यज्ञानभक्तिकृत्। पार्थाय श्रीभगवता मर्यादा वचसोच्यते।।1।।साङ्ख्ययोगौ निरूप्यादौ तृतीये धर्मनिर्णयः। त्यागात्यागविभेदेन त्यागादत्याग उत्तमः।।2।।यावच्छरीरसम्बन्धं त्यागः कर्त्तुं न शक्यते। अतो भगवदाज्ञातस्तदर्थे कृतिरुत्तमा।।3।।योगे कर्मपथे त्यागं साङ्खबुद्ध्युपसंहृतम्। जानन्ननिश्चयात्तत्र फाल्गुनः परिपृच्छति।।4।।यद्यपि पूर्वं भगवता'एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु' 2।39 इत्यादौ योगबुद्धिरुपक्रान्ता, तत्र च योगे स्वकर्मोपदिष्टं तथाप्यन्ते स्थिरधीप्रसङ्गे पुनस्त्यागमतिरेवोपसंहृतेति निर्णयमजानन् पृच्छति -- अर्जुन उवाच, ज्यायसी चेदिति। कर्मणः सकाशात् बुद्धिस्तथा ज्यायस चेत् ते मता तर्हि घोरे कर्मणि युद्धे नियोजयसि किम्? इति ।।3.1।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवं तावत्प्रथमेनाध्यायेनोपोद्धातितो द्वितीयेनाध्यायेन कृत्स्नः शास्त्रार्थः सूत्रितः। तथाहि आदौ निष्कामकर्मनिष्ठा ततोऽन्तःकरणशुद्धिः ततः शमदमादिसाधनपुरःसरः सर्वकर्मसंन्यासः ततो वेदान्तवाक्यविचारसहिता भगवद्भक्तिनिष्ठा ततस्तत्त्वज्ञाननिष्ठा तस्याः फलं च त्रिगुणात्मकाविद्यानिवृत्त्या जीवन्मुक्तिः प्रारब्धकर्मफलभोगपर्यन्तं तदन्ते च विदेहमुक्तिः। जीवन्मुक्तिदशायां च परमपुरुषार्थालम्बनेन परवैराग्यप्राप्तिर्दैवसंपदाख्या च शुभवासना तदुपकारिण्यादेया। आसुरसंपदाख्यात्वशुभवासना तद्विरोधिनी हेया। दैवसंपदोऽसाधारणं कारणं सात्विकी श्रद्धा। आसुरसंपदस्तु राजसी तामसी चेति हेयोपादेयविभागेन कृत्स्नशास्त्रार्थपरिसमाप्तिः। तत्र'योगस्थः कुरु कर्माणि' इत्यादिना सूत्रिता सत्त्वशुद्धिसाधनभूता निष्कामकर्मनिष्ठा सामान्यविशेषरूपेण तृतीयचतुर्थाभ्यां प्रपञ्च्यते। ततः शुद्धान्तःकरणस्य शमदमादिसाधनसंपत्तिपुरःसरा'विहाय कामान्यः सर्वान्' इत्यादिना सूत्रिता सर्वकर्मसंन्यासनिष्ठा संक्षेपविस्तररूपेण पञ्चमषष्ठाभ्याम्। एतावता च त्वंपदार्थोऽपि निरूपितः। ततो वेदान्तवाक्यविचारसहिता'युक्त आसीत मत्परः' इत्यादिना सूत्रितानेकप्रकारा भगवद्भक्तिनिष्ठाऽध्यायष्ट्केन प्रतिपाद्यते। तावता च तत्पदार्थोऽपि निरूपितः। प्रत्यध्यायं चावान्तरसङ्गतिमवान्तरप्रयोजनभेदं च तत्र तत्र प्रदर्शयिष्यामः। ततस्तत्त्वंपदार्थैक्यज्ञानरूपा'वेदाविनाशिनं नित्यम्' इत्यादिना सूत्रिता तत्त्वज्ञाननिष्ठा त्रयोदशे प्रकृतिपुरुषविवेकद्वारा प्रपञ्चिता। ज्ञाननिष्ठायाश्च फलं'त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन' इत्यादिना सूत्रितम्। त्रैगुण्यनिवृत्तिश्चतुर्दशे सैव जीवन्मुक्तिरिति गुणातीतलक्षणकथनेन प्रपञ्चिता।'तदा गन्तासि निर्वेदम्' इत्यादिना सूत्रिता परवैराग्यनिष्ठा संसारवृक्षच्छेदद्वारा पञ्चदशे।'दुःखेष्वनुद्विग्नमना' इत्यादिना स्थितप्रज्ञलक्षणेन सूत्रिता परवैराग्योपकारिणी दैवी संपदादेया।'यामिमां पुष्पितां वाचम्' इत्यादिना सूत्रिता तद्विरोधिन्यासुरी संपच्च हेया षोडशे। दैवसंपदोऽसाधारणं कारणं च सात्विकी श्रद्धा'निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थः' इत्यादिना सूत्रिता तद्विरोधपरिहारेण सप्तदशे। एवं सफला ज्ञाननिष्ठा अध्यायपञ्चकेन प्रतिपादिता। अष्टादशेन च पूर्वोक्तसर्वोपसंहार इति कृत्स्नगीतार्थसङ्गतिः। तत्र पूर्वाध्याये सांख्यबुद्धिमाश्रित्य ज्ञाननिष्ठा भगवतोक्ता'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिः' इति। तथा योगबुद्धिमाश्रित्य कर्मनिष्ठोक्ता'योगे त्विमां शृणु' इत्यारभ्य'कर्मण्येवाधिकारस्ते...मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि' इत्यन्तेन। न चानयोर्निष्ठयोरधिकारिभेदः स्पष्टमुपदिष्टो भगवता। नचैकाधिकारिकत्वमुभयोः समुच्चयस्य विवक्षितत्वादिति वाच्यम्।'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय' इति कर्मनिष्ठायाः बुद्धिनिष्ठापेक्षया निकृष्टत्वाभिधानात्'यावानर्थ उदपाने' इत्यत्र च ज्ञानफले सर्वकर्मफलान्तर्भावस्य दर्शितत्वात्। स्थितप्रज्ञलक्षणमुक्त्वा च'एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ' इति सप्रशंसं ज्ञानफलोपसंहारात्'या निशा सर्वभूतानाम' इत्यादौ ज्ञानिनौ द्वैतदर्शनाभावेन कर्मानुष्ठानासंभवस्य वोक्तत्वात् अविद्यानिवृत्तिलक्षणे मोक्षफले ज्ञानमात्रस्यैव लोकानुसारेण साधनत्वकल्पनात् -- 'तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' इति श्रुतेश्च। ननु तर्हि तेजस्तिमिरयोरिव विरोधिनोर्ज्ञानकर्मणोः समुच्चयासंभवाद्भिन्नाधिकारिकत्वमेवास्तु, सत्यमेवं न संभवति, एकमर्जुनंप्रति तूभयोपदेशो न युक्तः। नहि कर्माधिकारिणंप्रति ज्ञाननिष्ठोपदेष्टुमुचिता, नवा ज्ञानाधिकारिणंप्रति कर्मनिष्ठा। एकमेव प्रति विकल्पेनोभयोपदेश इति चेन्न। उत्कृष्टनिकृष्टयोर्विकल्पानुपपत्तेः, अविद्यानिवृत्त्युपलक्षितात्मस्वरूपे मोक्षे तारतम्यासंभवाच्च। तस्माज्ज्ञानकर्मनिष्ठयोर्भिन्नाधिकारिकत्वे एकं प्रत्युपदेशायोगादेकाधिकारिकत्वे च विरुद्धयोः समुच्चयासंभवात् कर्मापेक्षया ज्ञानप्राशस्त्यानुपपत्तेश्च विकल्पाभ्युपगमे चोत्कृष्टमनायाससाध्यं ज्ञानं विहाय निकृष्टमनेकायासबहुलं कर्मानुष्ठातुमयोग्यमिति मत्वा पर्याकुलमतिरर्जुन उवाच -- हे जनार्दन, सवैर्जनैरर्द्यते याच्यते स्वाभिलषितसिद्धय इति त्वं तथाभूतो मयापि श्रेयोनिश्चयार्थं याच्यस इति नैवानुचितमिति संबोधनाभिप्रायः। कर्मणो निष्कामादपि बुद्धिरात्मतत्त्वविषया ज्यायसी प्रशस्ततरा चेद्यदि ते तव मता तत्तदा किं कर्मणि घोरे हिंसाद्यनेकायासबहुले मामतिभक्तं नियोजयसि'कर्मण्येवाधिकारस्ते' इत्यादिना विशेषेण प्रेरयसि। हे केशव सर्वेश्वर, सर्वेश्वरस्य सर्वेष्टदायिनस्तव मां भक्तं'शिष्यस्तेऽहं शाधि माम्' इत्यादिना त्वदेकशरणतयोपसन्नंप्रति प्रतारणा नोचितेत्यभिप्रायः ।।3.1।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
आत्मस्वरूपं ज्ञानसाधनं चोक्तं पूर्वत्र। ज्ञानसाधनत्वेनाकर्म विनिन्द्य कर्म विधीयत उत्तराध्याये। कर्मणो ज्ञानमत्युत्तममित्यभिहितं भगवता'दूरेण ह्यवरं कर्म' 2।49 इत्यादौ। एवं चेत्किमिति कर्मणि घोरे युद्धाख्ये नियोजयसि निवृत्तधर्मान्विना? इत्याह -- 'ज्यायसीति'। कर्मणः सकाशाद्बुद्धिर्ज्यायसी चेत्ते तव मता, तत्तर्हि ।।3.1।।

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