रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-55


मूल स्लोकः

श्री भगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।




English translation by Swami Sivananda
2.55 The Blessed Lord said -- When a man completely casts off, O Arjuna, all the desires of the mind and is satisfied in the Self by the Self, then is he said to be one of steady wisdom.


English commentary by Swami Sivananda
2.55 प्रजहाति casts off, यदा when, कामान् desires, सर्वान् all, पार्थ O Partha, मनोगतान् of the mind, आत्मनि in the Self, एव only, आत्मना by the Self, तुष्टः satisfied, स्थितप्रज्ञः of steady wisdom, तदा then, उच्यते (he) is called.Commentary: In this verse Lord Krishna gives His answer to the first part of Arjuna's question.If anyone gets sugarcandy will he crave for black-sugar? Certainly not. If anyone can attain the supreme bliss of the Self, will he thirst for the sensual pleasures? No, not at all. The sum-total of all the pleasures of the world will seem worthless for the sage of steady wisdom who is satisfied in the Self. (Cf.III.17;VI.7,8).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।।2.55।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- गीताकी यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन (कर्मयोग, भक्तियोग आदि) के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधनसे उसकी पूर्णताका वर्णन किया जाता है। जैसे, भक्तियोगमें साधक भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं -- ऐसे अनन्य-योगसे उपासना करता है (12। 6); अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित हो जाता है (12। 13)। ज्ञानयोगमें साधक स्वयंको गुणोंसे सर्वथा असम्बद्ध एवं निर्लिप्त देखता है (14। 19); अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण गुणोंसे सर्वथा अतीत हो जाता है (14। 22 -- 25)। ऐसे ही कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है -- यह बात इस श्लोकमें बताते हैं।प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् -- इन पदोंका तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयंमें है और न मनमें ही है। कामना तो आने-जानेवाली है और स्वयं निरन्तर रहनेवाला है; अतः स्वयंमें कामना कैसे हो सकती है? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरन्तर नहीं रहती; प्रत्युत उसमें आती है -- मनोगतान्; अतः मनमें भी कामना कैसे हो सकती है? परन्तु शरीर-इन्द्रयाँ-मन-बुद्धिसे तादात्म्य होनेके कारण मनुष्य मनमें आनेवाली कामनाओंको अपनेमें मान लेता है।जहाति क्रियाके साथ प्र उपसर्ग देनेका तात्पर्य है कि साधक कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामनाका कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता।अपने स्वरूपका कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसीका होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपनेमें नहीं है, पर उसको अपनेमें मान लिया है। इस मान्यताका त्याग करनेको ही यहाँ प्रजहाति पदसे कहा गया है।यहाँ कामान् शब्दमें बहुवचन होनेसे सर्वान् पद उसीके अन्तर्गत आ जाता है, फिर भी सर्वान् पद देनेका तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामनाका कोई भी अंश बाकी न रहे।आत्मन्येवात्मना तुष्टः -- जिस कालमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है अर्थात् अपने-आपमें सहज स्वाभाविक सन्तोष होता है।सन्तोष दो तरहका होता है -- एक सन्तोष गुण है और एक सन्तोष स्वरूप है। अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कोई भी इच्छा न हो -- यह सन्तोष गुण है; और स्वयंमें असन्तोषका अत्यन्ताभाव है -- यह सन्तोष स्वरूप है। यह स्वरुपभूत सन्तोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिये कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत सन्तोषमें प्रज्ञा (बुद्धि) स्वतः स्थिर रहती है।स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते -- स्वयं जब बहुशाखाओंवाली अनन्त कामनाओंको अपनेमें मानता था, उस समय भी वास्तवमें कामनाएँ अपनेमें नहीं थीं और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परन्तु उस समय अपनेमें कामनाएँ माननेके कारण बुद्धि स्थिर न होनेसे वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपनेमें से सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर दिया अर्थात् उनकी मान्यताको हटा दिया, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात् उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव हो जाता है।साधक तो बुद्धिको स्थिर बनाता है। परन्तु कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर बुद्धिको स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतः-स्वाभाविक स्थिर हो जाती है।कर्मयोगमें साधकका कर्मोंसे ज्यादा सम्बन्ध रहता है। उसके लिये योगमें आरूढ़ होनेमें भी कर्म कारण हैं -- आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता 6। 3)। इसलिये कर्मयोगीका कर्मोंके साथ सम्बन्ध साधक-अवस्थामें भी रहता है और सिद्धावस्थामें भी। सिद्धावस्थामें कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार कर्म होते रहते हैं, जो दूसरोंके लिये आदर्श होते हैं (गीता 3। 21)। इसी बातको भगवान्ने चौथे अध्यायमें कहा है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है और निर्लिप्त रहते हुए ही कर्म करता है -- कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः (4। 18)।भगवान्ने तिरपनवें श्लोकमें योगकी प्राप्तिमें बुद्धिकी दो बातें कही थीं -- संसारसे हटनेमें तो बुद्धि निश्चल हो और परमात्मामें लगनेमें बुद्धि अचल हो अर्थात् निश्चल कहकर संसारका त्याग बताया और अचल कहकर परमात्मामें स्थिति बतायी। उन्हीं दो बातोंको लेकर यहाँ यदा और तदा पदसे कहा गया है कि जब साधक कामनाओंसे सर्वथा रहित हो जाता है और अपने स्वरूपमें ही सन्तुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। तात्पर्य है कि जबतक कामनाका अंश रहता है, तबतक वह साधक कहलाता है और जब कामनाओंका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब वह सिद्ध कहलाता है। इन्हीं दो बातोंका वर्णन भगवान्ने इस अध्यायकी समाप्तितक किया है; जैसे -- यहाँ प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पदोंसे संसारका त्याग बताया और फिर आत्मन्येवात्मना तुष्टः पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी।छप्पनवें श्लोकके पहले भागमें (तीन चरणोंमें) संसारका त्याग और स्थितधीर्मुनिः पदसे परमात्मामें स्थित बतायी। सत्तावनवें और अट्ठावनवें श्लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। उनसठवें श्लोकके पहले भागमें संसारका त्याग बताया और परं दृष्ट्वा पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। साठवें श्लोकसे इकसठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर युक्त आसीत मत्परः आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। बासठवेंसे पैंसठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर बुद्धिः पर्यवतिष्ठते पदोंसे परमात्मानें स्थित बतायी। छाछठवेंसे अड़सठवें श्लोकतक पहले संसारका त्याग बताया और फिर तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठता पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। उन्हत्तरवें श्लोकमें या निशा सर्वभूतानाम् तथा यस्यां जाग्रति भूतानि पदोंसे संसारका त्याग बताया और तस्यां जागर्ति संयमी तथा सा निशा पश्यतो मुनेः पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। सत्तरवें और इकहत्तरवें श्लोकमें पहले संसारका त्याग बताया और फिर स शान्तिमधिगच्छति पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी। बहत्तरवें श्लोकमें नैनां प्राप्य विमुह्यति पदोंसे संसारका त्याग बताया और ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति आदि पदोंसे परमात्मामें स्थिति बतायी।सम्बन्ध -- अब आगेके दो श्लोकोंमें ' स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है?' इस दूसरे प्रश्नका उत्तर देते हैं ।।2.55।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- प्रजहाति प्रकर्षेण जहाति परित्यजति यदा यस्मिन्काले सर्वान् समस्तान् कामान् इच्छाभेदान् हे पार्थ, मनोगतान् मनसि प्रविष्टान् हृदि प्रविष्टान्। सर्वकामपरित्यागे तुष्टिकारणाभावात् शरीरधारणनिमित्तशेषे च सति उन्मत्तप्रमत्तस्येव प्रवृत्तिः प्राप्ता, इत्यत उच्यते -- आत्मन्येव प्रत्यगात्मस्वरूपे एव आत्मना स्वेनैव बाह्यलाभनिरपेक्षः तुष्टः परमार्थदर्शनामृतरसलाभेन अन्यस्मादलंप्रत्ययवान् स्थितप्रज्ञः स्थिता प्रतिष्ठिता आत्मानात्मविवेकजा प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः विद्वान् तदा उच्यते। त्यक्तपुत्रवित्तलोकैषणः संन्यासी आत्माराम आत्मक्रीडः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः।।किञ्च -- ।।2.55।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.55 In the verses beginning from, 'When one fully renounces...', and ending with the completion the Chapter, instruction about the characteristics of the man of steady wisdom and the disciplines (he had to pass through) is being given both for the one who has, indeed, applied himself to steadfastness in the Yoga of Knowledge after having renounced rites and duties from the very beginning Even while he is in the stage of celibacy., and for the one who has (applied himself to this after having passed) through the path of Karma-yoga. For in all the scriptures without exception, dealing, with spirituality, whatever are the characteristics of the man of realization are themselves presented as the disciplines for an aspirant, because these (characteristics) are the result of effort. And those that are the disciplines requiring effort, they become the characteristics (of the man of realization). There are two kinds of sannyasa -- vidvat (renunciation that naturally follows Realization), and vividisa, formal renunciation for undertaking the disciplines which lead to that Realization. According to A.G. the characteristics presented in this and the following verses describe not only the vidvat-sannyasin, but are also meant as disciplines for the vividisa-sannyasin.-Tr.O Partha, yada, when, at the time when; prajahati, one fully renounces; sarvan, all; the kaman, desires, varieties of desires; manogatan, that have entered the mind, entered into the heart --.If all desires are renounced while the need for maintaining the body persists, then, in the absence of anything to bring satisfaction, there may arise the possibility of one's behaving like lunatics or drunkards. A lunatic is one who has lost his power of discrimination, and a drunkard is one who has that power but ignores it. Hence it is said: Tustah, remains satisfied; atmani eva, in the Self alone, in the very nature of the inmost Self; atmana, by the Self which is his own -- indifferent to external gains, and satiated with everything else on account of having attained the nector of realization of the supreme Goal; tada, then; ucyate, he is called; sthita-prajnah, a man of steady wisdom, a man of realization, one whose wisdom, arising from the discrimination between the Self and the not-Self, is stable.The idea is that the man of steady wisdom is a monk, who has renounced the desire for progeny, wealth and the worlds, and who delights in the Self and disports in the Self.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
श्रीभगवान् बोले -- हे पार्थ ! जब मनुष्य मनमें स्थित -- हृदयमें प्रविष्ट सम्पूर्ण कामनाओंको -- सारे इच्छा -- भेदोंको भली प्रकार त्याग देता है -- छोड़ देता है। सारी कामनाओंका त्याग कर देनेपर तुष्टिके कारणोंका अभाव हो जाता है और शरीर-धारणका हेतु जो प्रारब्ध है, उसका अभाव होता नहीं, अतः शरीरस्थितिके लिये उस मनुष्यकी उन्मत्त-पूरे पागलके सदृश प्रवृत्ति होगी, ऐसी शङ्का प्राप्त होनेपर कहते हैं -- तब वह अपने अन्तरात्मस्वरूपमें ही किसी बाह्य लाभकी अपेक्षा न रखकर अपने-आप संतुष्ट रहनेवाला अर्थात् परमार्थदर्शनरूप अमृतरस-लाभसे तृप्त, अन्य सब अनात्मपदार्थोंसे अलंबुद्धिवाला तृष्णारहित पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है अर्थात् जिसकी आत्मअनात्मके विवेकसे उत्पन्न हुई बुद्धि स्थित हो गयी है, वह स्थितप्रज्ञ यानी ज्ञानी कहा जाता है। अभिप्राय यह कि पुत्र, धन और लोककी समस्त तृष्णाओंको त्याग देनेवाला संन्यासी ही आत्माराम, आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है ।।2.55।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
श्री भगवानुवाच -- आत्मनि एव आत्मना मनसा आत्मैकावलम्बनेन तुष्टः तेन तोषेण तद्व्यतिरिक्तान् सर्वान् मनोगतान् कामान् यदा प्रकर्षेण जहाति तदा अयं स्थितप्रज्ञ इति उच्यते। ज्ञाननिष्ठाकाष्ठा इयम्।अनन्तरं ज्ञाननिष्ठस्य ततः अर्वाचीना अदूरविप्रकृष्टावस्था उच्यते -- ।।2.55।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.55 The Lord said -- When a person is satisfied in himself with himself, i.e. when his mind depends on the self within himself; and being content with that, expels all the desires of the mind which are different from that state of mind --- then he is said to be a man of firm wisdom. This is the highest form of devotion of knowledge.Then, the lower state, not far below it, of one established in firm wisdom, is described:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
तत्रोत्तरम् -- प्रजहातीति। इदं तत्स्वरूपमुच्यत इत्यर्थः ।।2.55।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एतेषां चतुर्णां प्रश्नानां क्रमेणोत्तरं भगवानुवाच यावदध्यायसमाप्ति -- कामान् कामसंकल्पादीन्मनोवृत्तिविशेषान्, प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिभेदेन तन्त्रान्तरे पञ्चधा प्रपञ्चितान्सर्वान्निरवशेषान्प्रकर्षेण कारणबाधेन यदा जहाति परित्यजति सर्ववृत्तिशून्य एव यदा भवति स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते। समाधिस्थ इति शेषः। कामानामनात्मधर्मत्वेन परित्यागयोग्यतामाह -- मनोगतानिति। यदि ह्यात्मधर्माः स्युस्तदा न त्यक्तुं शक्येरन् वह्न्यौष्ण्यवत्स्वाभाविकत्वात्। मनसस्तु धर्मा एते। अतस्तत्परित्यागेन परित्यक्तुं शक्या एवेत्यर्थः। ननु स्थितप्रज्ञस्य मुखप्रसादलिङ्गगम्यः संतोषविशेषः प्रतीयते, स कथं सर्वकामपरित्यागे स्यादित्यत आह -- आत्मन्येव परमानन्दरूपे नत्वनात्मनि तुच्छे, आत्मना स्वप्रकाशचिद्रूपेण भासमाने नतु वृत्त्या तुष्टः परितृप्तः परमपुरुषार्थलाभात्। तथाच श्रुतिः'यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते' इति। तथाच समाधिस्थः स्थितप्रज्ञ एवंविधैर्लक्षणवाचिभिः शब्दैर्भाष्यत इति प्रथमप्रश्नस्योत्तरम् ।।2.55।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
गमनादिप्रवृत्तिर्नात्यभिसन्धिपूर्विका मात्रादिप्रवृत्तिवदिति'या निशा' 2।69 इत्यादिना दर्शयिष्यँल्लक्षणं प्रथमत आह -- एवं परमानन्दतृप्तः किमर्थमेवं प्रवृत्तिं करोतीति प्रश्नाभिप्रायः। प्रारब्धकर्मणेषत्तिरोहितब्रह्मणो वासना प्रायोऽल्पाभिसन्धिप्रवृत्तिः सम्भवतीत्याशयवान् परिहरति। प्रायः सर्वान्कामान्प्रजहाति, शुकादीनामपीषद्दर्शनात्।'त्वत्पादभक्तिमिच्छन्ति ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः' इत्युक्तेस्तामिच्छन्ति। यदा त्विन्द्रादीनामाग्रहो दृश्यते तदाऽभिभूतं तेषाम्। तच्चोक्तम्'आधिकारिकपुंसां तु बृहत्कर्मत्वकारणात्। उद्भवाभिभवौ ज्ञाने ततोऽन्येभ्यो विलक्षणाः' इति। अत एव वैलक्षण्यादनधिकारिणां आग्रहादि चेदस्ति न ते ज्ञानिन इत्यवगन्तव्यम्।न चात्र समाधिं कुर्वतो लक्षणमुच्यते'यः सर्वत्रानभिस्नेहः' 2।57 इत्यादिस्नेहनिषेधात्। नहि समाधिं कुर्वतस्तस्य शुभाशुभप्राप्तिरस्ति, असम्प्रज्ञातसमाधेः। सम्प्रज्ञाते त्वविरोधस्तथापि न तत्रैवेति नियमः।'कामादयो न जायन्ते ह्यपि विक्षिप्तचेतसाम्। ज्ञानिनां ज्ञाननिर्धूतमलानां देवसंश्रयात्' इति च स्मृतेः। मनोगता हि कामाः, अतस्तत्रैव तद्विरुद्धज्ञानोत्पत्तौ युक्तं हानं तेषामिति दर्शयति -- 'मनोगतानिति'। विरोधश्चोच्यते'रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते' 2।59 इति। न चैतददृष्ट्या अपलपनीयम्; पुरुषवैशेष्यात्। आत्मना परमात्मना। परमात्मन्येव स्थितः सन्। आत्माख्ये तस्मिन्स्थितस्य तत्प्रसादादेव तुष्टिर्भवति'विषयांस्तु परित्यज्य रामे स्थितिमतस्ततः। देवाद्भवति वै तुष्टिर्नान्यथा तु कथञ्चन' इति नारायणरामकल्पेः, अतो नात्मा जीवः ।।2.55।।

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