रविवार, 1 मई 2011

BhagvatGita-02-52


मूल स्लोकः

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।।




English translation by Swami Sivananda
2.52 When thy intellect crosses beyond the mire of delusion, then thou shalt attain to indifference as to what has been heard and what has yet to be heard.


English commentary by Swami Sivananda
2.52 यदा when, ते thy, मोहकलिलम् mire of delusion, बुद्धिः intellect, व्यतितरिष्यति crosses beyond, तदा then, गन्तासि thou shalt attain, निर्वेदम् to indifference, श्रोतव्यस्य of what has to be heard, श्रुतस्य what has been heard, च and.Commentary: The mire of delusion is the identification of the Self with the not-self. The sense of discrimination between the Self and the not-Self is confounded by the mire of delusion and the mind runs towards the sensual objects and the body is takes as the pure Self. When you attain purity of mind, you will attain to indifference regarding things heard and yet to be heard. They will appear to you to be of no use. You will not care a bit for them. You will entertain disgust for them. (Cf.XVI.24).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ।।2.52।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति -- शरीरमें अहंता और ममता करना तथा शरीर-सम्बन्धी माता-पिता, भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्र, वस्तु पदार्थ आदिमें ममता करना ' मोह ' है। कारण कि इन शरीरादिमें अहंता-ममता है नहीं, केवल अपनी मानी हुई है। अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर उद्विग्न होना, संसारमें -- परिवारमें विषमता, पक्षपात, मात्सर्य आदि विकार होना -- यह सब-का-सब ' कलिल ' अर्थात् दलदल है। इस मोहरूपी दलदलमें जब बुद्धि फँस जाती है, तब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। फिर उसे कुछ सूझता नहीं।यह स्वयं चेतन होता हुआ भी शरीरादि जड पदार्थोंमें अहंता-ममता करके उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। पर वास्तवमें यह जिन-जिन चीजोंके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वे चीजें इसके साथ सदा नहीं रह सकतीं और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता। परन्तु मोहके कारण इसकी इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, प्रत्युत यह अनेक प्रकारके नये-नये सम्बन्ध जोड़कर संसारमें अधिक-से-अधिक फँसता चला जाता है। जैसे कोई राहगीर अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचनेसे पहले ही रास्तेमें अपने डेरा लगाकर खेल-कूद, हँसी-दिल्लगी आदिमें अपना समय बिता दे, ऐसे ही मनुष्य यहाँके नाशवान् पदार्थोंका संग्रह करनेमें और उनसे सुख लेनेमें तथा व्यक्ति, परिवार आदिमें ममता करके उनसे सुख लेनेमें लग गया। यही इसकी बुद्धिका मोहरूपी कलिलमें फँसना है।हमें शरीरमें अहंता-ममता करके तथा परिवारमें ममता करके यहाँ थोड़े ही बैठे रहना है? इनमें ही फँसे रहकर अपनी वास्तविक उन्नति-(कल्याण-) से वञ्चित थोड़े ही रहना है? हमें तो इनमें न फँसकर अपना कल्याण करना है -- ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना ही बुद्धिका मोहरूपी दलदलसे तरना है। कारण कि ऐसा दृढ़ विचार होनेपर बुद्धि संसारके सम्बन्धोंको लेकर अटकेगी नहीं, संसारमें चिपकेगी नहीं।मोहरूपी कलिलसे तरनेके दो उपाय हैं -- विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन 2। 11 -- 30 में हुआ है) तेज होता है, तो वह असत् विषयोंसे अरुचि करा देता है। मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख-आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा। जैसे शिष्यकी गुरुके लिये, पुत्रकी माता-पिताके लिये, नौकरकी मालिकके लिये सुख पहुँचानेकी इच्छा हो जाती है, तो उनकी अपने सुख-आरामकी इच्छा स्वतः सुगमतासे मिट जाती है। ऐसे ही कर्मयोगीका संसारमात्रकी सेवा करनेका भाव हो जाता है, तो उसकी अपने सुख-भोगकी इच्छा स्वतः मिट जाती है।विवेक-विचारके द्वारा अपनी भोगेच्छाको मिटानेमें थोड़ी कठिनता पड़ती है। कारण कि अगर विवेक-विचार अत्यन्त दृढ़ न हो, तो वह तभीतक काम देता है, जबतक भोग सामने नहीं आते। जब भोग सामने आते हैं, तब साधक प्रायः उनको देखकर विचलित हो जाता है। परन्तु जिसमें सेवाभाव होता है, उसके सामने बढ़िया-से-बढ़िया भोग आनेपर भी वह उस भोगको दूसरोंकी सेवामें लगा देता है। अतः उसकी अपने सुख-आरामकी इच्छा सुगमतासे मिट जाती है। इसलिये भगवान्ने सांख्य-योगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ (5। 2), सुगम (5। 3) एवं जल्दी सिद्धि देनेवाला (5। 6) बताया है।तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च -- मनुष्यने जितने भोगोंको सुन लिया है, भोग लिया है, अच्छी तरहसे अनुभव कर लिया है, वे सब भोग यहाँ श्रुतस्य पदके अन्तर्गत हैं। स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदिके जितने भोग सुने जा सकते हैं, वे सब भोग यहाँ श्रोतव्यस्य (टिप्पणी प0 90) पदके अन्तर्गत हैं। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, तब इन श्रुत -- ऐहलौकिक और श्रोतव्य -- पारलौकिक भोगोंसे, विषयोंसे तुझे वैराग्य हो जायगा। तात्पर्य है कि जब बुद्धि मोहकलिलको तर जाती है, तब बुद्धिमें तेजीका विवेक जाग्रत् हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और मैं वही रहता हूँ; अतः इस संसारसे मेरेको शान्ति कैसे मिल सकती है? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है? तब श्रुत और श्रोतव्य जितने विषय हैं, उन सबसे स्वतः वैराग्य हो जाता है।यहाँ भगवान्को श्रुत के स्थानपर भुक्त और श्रोतव्य के स्थानपर भोक्तव्य कहना चाहिये था। परन्तु ऐसा न कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो परोक्ष-अपरोक्ष विषयोंका आकर्षण होता है, वह सुननेसे ही होता है। अतः इनमें सुनना ही मुख्य है। संसारसे, विषयोंसे छूटनेके लिये जहाँ ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गका वर्णन किया गया है, वहाँ भी ' श्रवण ' को मुख्य बताया गया है। तात्पर्य है कि संसारमें और परमात्मामें लगनेमें सुनना ही मुख्य है।यहाँ यदा और तदा कहनेका तात्पर्य है कि इन श्रुत और श्रोतव्य विषयोंसे इतने वर्षोंमें, इतने महीनोंमें और इतने दिनोंमें वैराग्य होगा -- ऐसा कोई नियम नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण बुद्धि मोहकलिलको तर जायगी, उसी क्षण श्रुत और श्रोतव्य विषयोंसे, भोगोंसे वैराग्य हो जायगा। इसमें कोई देरीका काम नहीं है ।।2.52।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- यदा यस्मिन्काले ते तव मोहकलिलं मोहात्मकमविवेकरूपं कालुष्यं येन आत्मानात्मविवेकबोधं कलुषीकृत्य विषयं प्रत्यन्तःकरणं प्रवर्तते, तत् तव बुद्धिः व्यतितरिष्यति व्यतिक्रमिष्यति, अतिशुद्धभावमापत्स्यते इत्यर्थः। तदा तस्मिन् काले गन्तासि प्राप्स्यसि निर्वेदं वैराग्यं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च, तदा श्रोतव्यं श्रुतं च ते निष्फलं प्रतिभातीत्यभिप्रायः।।मोहकलिलात्ययद्वारेण लब्धात्मविवेकजप्रज्ञः कदा कर्मयोगजं फलं परमार्थयोगमवाप्स्यामीति चेत्, तत् श्रृणु -- ।।2.52।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.52 When is attained that wisdom which arises from the purification of the mind brought about by the pursuit of (karma-) yoga? This is being stated: Yada, when, Yada: when maturity of discrimination is attained. at the time when; te, your; buddhih, mind; vyatitarisyati, will go beyond, cross over; moha-kalilam, the turbidity of delusion, the dirt in the form of delusion, in the form of non-discrimination, which, after confounding one's understanding about the distinction between the Self and the not-Self, impels the mind towards objects -- that is to say, when your mind will attain the state of purity; tada, then, Tada: then, when the mind, becoming purified, leads to the rise of discrimination, which in turn matures into detachment. at that time; gantasi, you will acquire; nirvedam, despassion; for srotavyasya, what has to be heard; ca, and; srutasya, what has been heard. The idea implied is that, at that time what has to be heard and what has been heard What has to be heard...has been heard, i.e. the scriptures other than those relating to Self-knowledge. When discrimination referred to above gets matured, then the fruitlessness of all things other than Self-knowledge becomes apparent. becomes fruitless.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
योगानुष्ठानजनित सत्त्व-शुद्धिसे उत्पन्न हुई बुद्धि कब प्राप्त होती है? इसपर कहते हैं -- जब तेरी बुद्धि मोहकलिलको अर्थात् जिसके द्वारा आत्मानात्मके विवेक-विज्ञानको कलुषित करके अन्तःकरण विषयोंमें प्रवृत्त किया जाता है उस मोहात्मक अविवेक-कालिमाको उल्लङ्घन कर जायगी अर्थात् जब तेरी बुद्धि बिल्कुल शुद्ध हो जायगी। तब उस समय तू सुननेयोग्यसे और सुने हुएसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा। अर्थात् तब तेरे लिये सुननेयोग्य और सुने हुए ( सब विषय ) निष्फल हो जायँगे, यह अभिप्राय है ।।2.52।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
उक्तप्रकारेण कर्मणि वर्तमानस्य तया वृत्त्या निर्धूतकल्मषस्य ते बुद्धिः यदा मोहकलिलम् अत्यल्पफलसङ्गहेतुभूतं मोहरूपं कलुषं व्यतितरिष्यति। तदा अस्मत्त इतः पूर्वं त्याज्यतया श्रुतस्य फलादेः इतः पश्चात् श्रोतव्यस्य च कृते स्वयम् एव निर्वेदं गन्तासि गमिष्यसि।'योगे त्विमां श्रृणु' इत्यादिना उक्तस्य आत्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकस्य बुद्धिविशेषसंस्कृतकर्मानुष्ठानस्य लक्षणभूतं योगाख्यं फलम् आह -- ।।2.52।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.52 If you act in this manner and get freed from impurities, your intellect will pass beyond the tangle of delusion. The dense impurity of sin is the nature of that delusion which generates attachment to infinitesimal results, of which you have already heard much from us and will hear more later on. You will then immediately feel, of your own accord, renunciation or feeling of disgust for them all.Sri Krsna now teaches the goal called self-realisation (Yoga) which results from the performance of duty as taught in the passage beginning with 'Now, listen to this with regard to Karma Yoga' (2.39) which is based on the knowledge of the real nature of the self gained through the refinement of the mind.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामि? इत्यपेक्षायामाह -- यदेति द्वाभ्याम्। निश्चला विशोकधैर्यादिवती ते यदा बुद्धिर्व्यवसायात्मिकैव तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च त्रैगुण्यस्य कर्मफलस्य निर्वेदं वैराग्यं प्राप्स्यसि। तस्यात्रानुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः। तादृशी सती ते बुद्धिरचला यदा समाधीयते तदा योगं योगस्वरूपं यास्यसि; ततश्च कार्यसिद्धिः ।।2.52 -- 2.53।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवं कर्माण्यनुतिष्ठतः कदा मे सत्त्वशुद्धिः स्यादित्यत आह -- न ह्येतावता कालेन सत्त्वशुद्धिर्भवतीति कालनियमोऽस्ति किंतु यदा यस्मिन्काले ते तव बुद्धिरन्तःकरणं मोहकलिलं व्यतितरिष्यति अविवेकात्मकं कालुष्यं अहमिदं ममेदमित्याद्यज्ञानविलसितमतिगहनं व्यतिकमिष्यति। रजस्तमोमलमपहाय शुद्धभावमापत्स्यत इति यावत्। तदा तस्मिन्काले श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च कर्मफलस्य निर्वेदं वैतृष्ण्यं गन्तासि प्राप्तासि प्राप्नोषि।'परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायात्' इति श्रुतेः। निर्वेदेन फलेनान्तःकरणशुद्धिं ज्ञास्यसीत्यभिप्रायः ।।2.52।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
कियत्पर्यन्तमवश्यं कर्तव्यानि मुमुक्षुणैवं कर्माणीत्याह -- यदेति। निर्वेदं नितरां लाभम्। प्रयोगात् "तस्माद्ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्य" बृ.उ.3।5।1 इत्यादि। न हि तत्र वैराग्यमुपपद्यते, तथा सति पाण्डित्यादिति स्यात्।न च ज्ञानिनां भगवन्महिमादिश्रवणेन विरक्तिर्भवति।'आत्मारामा हि मुनयो निर्ग्राह्या (निर्ग्रन्था) अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः' भाग.1।7।10 इति वचनात्, अनुष्ठानाच्च शुकादीनाम्। न च तेषां फलं सुखं नास्ति, तस्यैव महत्सुखत्वात्। तेषां'या निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्मध्यानाद्भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात्। साब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्किम्वन्तकासि लुलितात्पततां विमानात्' भाग.4।9।10 इत्यादिवचनात्। तेषामप्युपासनादिफलस्य साधितत्वात्, तारतम्याधिगतेश्च।तथाहि -- यदि तारतम्यं न स्यात्'नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं' भाग.3।15।48'नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचित्' भाग.2।25।34'एकत्वमप्युत दीयमानं न गृह्णन्ति' इति मुक्तिमप्यनिच्छतामपि मोक्ष एव फलम्। तमिच्छतामपि भवति सुप्रतीकादीनाम्। कथमनिच्छतां स्तुतिरुपपन्ना स्यात्? वचनाच्च।'यथा भक्तिविशेषोऽत्र दृश्यते पुरुषोत्तमे। तथा मुक्तिविशेषोऽपि ज्ञानिनां लिङ्गभेदने' इति।'योगिनां भिन्नलिङ्गानामाविर्भूतस्वरूपिणाम्। प्राप्तानां परमानन्दं तारतम्यं सदैव हि' इति।'न त्वामतिशयिष्यन्ति मुक्तावपि कदाचन। मद्भक्तियोगाज्ज्ञानाच्च सर्वानतिशयिष्यसि' इति च। साम्यवचनं तु प्राचुर्यविषयम्, दुःखाभावविषयं च। तथा चोक्तम् -- 'दुःखाभावः परानन्दो लिङ्गभेदः समो मतः। तथापि परमानन्दो ज्ञानभेदात्तु भिद्यते' इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अतो न वैराग्यं श्रुतादावत्र विवक्षितम्। न च सङ्कोचे मानं किञ्चिद्विद्यमान इतरत्र प्रयोगे महद्भिः श्रवणीयस्य श्रुतस्य च वेदादेः फलं प्राप्स्यसीत्यर्थः ।।2.52।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें