शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-29


मूल स्लोकः

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-

माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति

श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29।।




English translation by Swami Sivananda
2.29 One sees This (the Self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; another hears of It as a wonder; yet having heard, none understands It at all.


English commentary by Swami Sivananda
2.29 आश्चर्यवत् as a wonder, पश्यति sees, कश्चित् sone one, एनम् this (Self), आश्चर्यवत् as a wonder, वदति speaks of, तथा so, एव also, च and, अन्यः another, आश्चर्यवत् as a wonder, च and, एनम् this, अन्यः another, श्रृणोति hears, श्रुत्वा having heard, अपि even, एनम् this, वेद knows, न not, च and, एव also, कश्चित् any one.Commentary: The verse may also be interpreted in this manner. He that sees, hears and speaks of the Self is a wonderful man. Such a man is very rare. He is one among many thousands. Thus the Self is very hard to understand.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है; और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता ।।2.29।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम् -- इस देहीको कोई आश्चर्यकी तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने, सुनने, पढ़ने और जाननेमें आती हैं, वैसे इस देहीका जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंतासे (' यह' करके) जानते हैं अर्थात् वे जाननेका विषय होती हैं, पर यह देही इन्द्रिय -- मन-बुद्धिका विषय नहीं है। इसको तो स्वयंसे, अपने-आपसे ही जाना जाता है। अपने-आपसे जो जानना होता है, वह जानना लौकिक ज्ञानकी तरह नहीं होता, प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है।पश्यति पदके दो अर्थ होते हैं -- नेत्रोंसे देखना और स्वयंके द्वारा स्वयंको जानना। यहाँ पश्यति पद स्वयंके द्वारा स्वयंको जाननेके विषयमें आया है (गीता 2। 55; 6। 20 आदि)।जहाँ नेत्र आदि करणोंसे देखना (जानना) होता है, वहाँ द्रष्टा (देखनेवाला), दृश्य (दीखनेवाली वस्तु) और दर्शन (देखनेकी शक्ति) -- यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटीसे ही सांसारिक देखना-जानना होता है। परन्तु स्वयंके ज्ञानमें यह त्रिपुटी नहीं होती है अर्थात् स्वयंका ज्ञान करण-सापेक्ष नहीं है। स्वयंका ज्ञान तो स्वयंके द्वारा ही होता है अर्थात् वह ज्ञान करण-निरपेक्ष है। जैसे, ' मैं' हूँ -- ऐसा जो अपने होनेपन ज्ञान है, इसमें किसी प्रमाणकी या किसी करणकी आवश्यकता नहीं है। इस अपने होनेपनको ' इदंता ' से अर्थात् दृश्यरूपसे नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपने-आपको ही होता है। यह ज्ञान इन्द्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिये स्वयंको (अपने-आपको) जानना आश्चर्यकी तरह होता है।जैसे अँधेरे कमरेमें हम किसी चीजको लाने जाते हैं, तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिये और नेत्र भी चाहिये अर्थात् उस अँधेरे कमरेमें प्रकाशकी सहायतासे हम उस चीजको नेत्रोंसे देखेंगे, तब उसको लायेंगे। परन्तु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपकको देखने जायँगे, तो उस दीपकको देखनेके लिये हमें दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं पड़ेगी; क्योंकि दीपक स्वयंप्रकाश है। वह अपने-आपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूपको देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि यह देही (स्वरूप) स्वयंप्रकाश है। अतः यह अपने-आपसे ही अपने-आपको जानता है।स्थूल, सूक्ष्म, और कारण -- ये तीन शरीर हैं। अन्न-जलसे बना हुआ ' स्थूलशरीर' है। यह स्थूलशरीर इन्द्रियोंका विषय है। इस स्थूलशरीरके भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि -- इन सत्रह तत्त्वोंसे बना हुआ ' सूक्ष्मशरीर ' है। यह सूक्ष्मशरीर इन्द्रियोंका विषय नहीं है, प्रत्युत बुद्धिका विषय हैं। जो बुद्धिका भी विषय नहीं है, जिसमें प्रकृति -- स्वभाव रहता है, वह ' कारणशरीर ' है। इन तीनों शरीरोंपर विचार किया जाय तो यह स्थूलशरीर मेरा स्वरूप नहीं है; क्योंकि यह प्रतिक्षण बदलता है और जाननेमें आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जाननेमें आता है; अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारणशरीर प्रकृतिस्वरूप है, पर देही (स्वरूप) प्रकृतिसे भी अतीत है, अतः कारणशरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। यह देही जब प्रकृतिको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब यह अपने-आपसे अपने-आपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओंको जाननेकी अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है, इसलिये इसको आश्चर्यवत् पश्यति कहा गया है।यहाँ भगवान्ने कहा है कि अपने-आपका अनुभव करनेवाला कोई एक ही होता है -- कश्चित् और आगे सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरेको तत्त्वसे जानता है -- कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः। इन पदोंसे ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्वको जानना बड़ा कठिन है, दुर्लभ है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्वको जानना कठिन नहीं है, दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इस तत्त्वको सच्चे हृदयसे जाननेवालेकी इस तरफ लगनेवालेकी कमी है। यह कमी जाननेकी जिज्ञासा कम होनेके कारण ही है।आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः -- ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देहीका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है; क्योंकि यह तत्त्व वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है, वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है? जो महापुरुष इस तत्त्वका वर्णन करता है, वह तो शाखा-चन्द्रन्यायकी तरह वाणीसे इसका केवल संकेत ही करता है, जिससे सुननेवालेका इधर लक्ष्य हो जाय। अतः इसका वर्णन आश्चर्यकी तरह ही होता है।यहाँ जो अन्यः पद आया है, उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जाननेवाला है, उससे यह कहनेवाला अन्य है; क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं, वह वर्णन क्या करेगा? अतः इस पदका तात्पर्य यह है कि जितने जाननेवाले हैं, उनमें वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है। कारण कि सब-के-सब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्वका विवेचन करके सुननेवालेको उस तत्त्वतक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओंका, तर्कोंका पूरी तरह समाधान करनेकी क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करनेवालेकी विलक्षण क्षमताका द्योतन करनेके लिये ही यह ' अन्यः ' पद दिया गया है।आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति -- दूसरा कोई इस देहीको आश्चर्यकी तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुननेवाला शास्त्रोंकी, लोक-लोकान्तरोंकी जितनी बातें सुनता आया है, उन सब बातोंसे इस देहीकी बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है, वह सब-का-सब इन्द्रियाँ मन, बुद्धि आदिका विषय है; परन्तु यह देही इन्द्रियों आदिका विषय नहीं है, प्रत्युत यह इन्द्रियों आदिके विषयको प्रकाशित करता है। अतः इस देहीकी विलक्षण बात वह आश्चर्यकी तरह सुनता है।यहाँ अन्यः पद देनेका तात्पर्य है कि जाननेवाला और कहनेवाला -- इन दोनोंसे सुननेवाला (तत्त्वका जिज्ञासु) अलग है।श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् -- इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया, तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके (सुननेमात्रसे) इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुननेके बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा, तब वह अपने-आपसे ही अपने-आपको जानेगा (टिप्पणी प0 69)।यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोँ और गुरुजनोंसे सुनकर ज्ञान तो होता ही है, फिर यहाँ ' सुन करके भी कोई नहीं जानता' -- ऐसा कैसे कहा गया है? इस विषयपर थोड़ी गम्भीरतासे विचार करके देखें कि शास्त्रोंपर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनोंपर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते; किन्तु साधक स्वयं ही शास्त्र और गुरुपर श्रद्धा-विश्वास करता है, स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयंके सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता, तो आजतक भगवान्के बहुत अवतार हुए हैं, बड़े-बड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं, उनके सामने कोई अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिये था। अर्थात् सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिये था! पर ऐसा देखनेमें नहीं आता। श्रद्धा-विश्वासपूर्वक सुननेसे स्वरूपमें स्थित होनेमें सहायता तो जरूर मिलती है, पर स्वरूपमें स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य तत्त्वज्ञानको असम्भव बतानेमें नहीं; प्रत्युत उसे करण-निरपेक्ष बतानेमें है। मनुष्य किसी भी रीतिसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे, पर अन्तमें अपने-आपसे ही अपने-आपको जानेगा। श्रवण, मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं, पर वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष (अपने-आपसे) ही होता है।अपने-आपसे अपने-आपको जानना क्या होता है? एक होता है करना, एक होता है देखना और एक होता है जानना। करनेमें कर्मेन्द्रियोंकी, देखनेमें ज्ञानेन्द्रियोंकी और जाननेमें स्वयंकी मुख्यता होती है।ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानना नहीं होता, प्रत्युत देखना होता है, जो कि व्यवहारमें उपयोगी है। स्वयंके द्वारा जो जानना होता है, वह दो तरहका होता है -- एक तो शरीर-संसारके साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा, परमात्माके साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दोंमें, परिवर्तनशील नाशवान् पदार्थोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्माके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध है। ऐसा जाननेके बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभवका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है।सम्बन्ध -- अबतक देह और देहीका जो प्रकरण चल रहा था, उसका आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं ।।2.29।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- आश्चर्यवत् आश्चर्यम् अदृष्टपूर्वम् अद्भुतम् अकस्माद्दृश्यमानं तेन तुल्यं आश्चर्यवत् आश्चर्यमिव एनम् आत्मानं पश्यति कश्चित्। आश्चर्यवत् एनं वदति तथैव च अन्यः। आश्चर्यवच्च एनमन्यः श्रृणोति। श्रुत्वा दृष्ट्वा उक्त्वापि एनमात्मानं वेद न चैव कश्चित्। अथवा योऽयमात्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्यः, यो वदति यश्च श्रृणोति सः अनेकसहस्रेषु कश्चिदेव भवति। अतो दुर्बोध आत्मा इत्यभिप्रायः।।अथेदानीं प्रकरणार्थमुपसंहरन्ब्रूते -- ।।2.29।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.29 'This Self under discussion is inscrutable. Why should I blame you alone regarding a thing that is a source of delusion to all!' How is this Self inscrutable? It may be argued that the Self is the object of egoism. The answer is: Although the individualized Self is the object of egoism, the absolute Self is not. This is being answered in, 'Someone visualizes It as a wonder,' etc.Kascit, someone; pasyati, visualizes; enam, It, the Self; ascaryavat, as a wonder, as though It were a wonder -- a wonder is something not seen before, something strange, something seen all on a sudden; what is comparable to that is ascarya-vat; ca, and; tatha, similarly; eva, indeed; kascit, someone; anyah, else; vadati, talks of It as a wonder. And someone else srnoti, hears of It as a wonder. And someone, indeed, na, does not; veda, realize It; api, even; srutva, after hearing, seeing and speaking about It.Or, (the meaning is) he who sees the Self is like a wonder. He who speaks of It and the who hears of It is indeed rare among many thousands. Therefore, the idea is that the Self is difficult to understand.Now, in the course of concluding the topic under discussion, viz the needlessness of sorrow and delusion,from the point of view of the nature of things. He says, 'O descendant of Bharata, this embodied Self', etc.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
जिसका प्रकरण चल रहा है यह आत्मतत्त्व दुर्विज्ञेय है। सर्वसाधारणको भ्रान्ति करा देनेवाले विषयमें केवल एक तुझे ही क्या उलाहना दूँ? यह आत्मा दुर्विज्ञेय कैसे है? सो कहते हैं -- पहले जो नहीं देखा गया हो अकस्माद् दृष्टिगोचर हुआ हो ऐसे अद्भुत पदार्थका नाम आश्चर्य है, उसके सदृशका नाम आश्चर्यवत् है, इस आत्माको कोई ( महापुरुष ) ही आश्चर्यमय वस्तुकी भाँति देखता है। वैसे ही दूसरा ( कोई एक ) इसको आश्चर्यवत् कहता है, अन्य ( कोई ) इसको आश्चर्यवत् सुनता है एवं कोई इस आत्माको सुनकर, देखकर और कहकर भी नहीं जानता। अथवा जो इस आत्माको देखता है वह आश्चर्यके तुल्य है, जो कहता है और जो सुनता है वह भी ( आश्चर्यके तुल्य है )। अभिप्राय यह कि अनेक सहस्रोंमेंसे कोई एक ही ऐसा होता है। इसलिये आत्मा बड़ा दुर्बोध है ।।2.29।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एवम् उक्तस्वभावं स्वेतरसमस्तवस्तुविसजातीयतया आश्चर्यवद् अवस्थितम् अनन्तेषु जन्तुषु महता तपसा क्षीणपाप उपचितपुण्यः कश्चित् पश्यति तथाविधः कश्चित् परस्मै वदति एवं कश्चिद् एव श्रृणोति श्रुत्वा अपि एनं यथावद् अवस्थितं तत्त्वतो न कश्चिद् वेद। चकाराद् द्रष्टृवक्तृश्रोतृषु अपि तत्त्वतो दर्शनं तत्त्वतो वचनं तत्त्वतः श्रवणं दुर्लभम् इति उक्तं भवति ।।2.29।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.29 Among innumerable beings, someone, who by great austerity has got rid of sins and has increased his merits, realises this self possessing the above mentioned nature, which is wonderful and distinct in kind from all things other than Itself. Such a one speaks of It to another. Thus, someone hears of It. And even after hearing of It, no one knows It exactly that It really exists. The term 'ca' (and) implies that even amongst the seers, the speakers and hearers, one with authentic percepetion, authentic speech and authentic hearing, is a rarity.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
सोऽयमात्माऽव्यक्तो यत आश्चर्यवदित्याह -- आश्चर्यवदिति। अवितर्क्यमिव पश्यतीत्यादि ।।2.29।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु विद्वांसोऽपि बहवः शोचन्ति तत्किं मामेव पुनः पुनरेवमुपालभसे, अन्यच्च इति न्यायात्त्वद्वचनार्थाप्रतिपत्तिरपि मम न दोषः। तत्रान्येषामपि तवेवात्मापरिज्ञानादेव शोकः, आत्मप्रतिपादकशास्त्रार्थाप्रतिपत्तिश्च तवाप्यन्येषामिव स्वाशयदोषादिति नोक्तदोषद्वयमित्यभिप्रेत्यात्मनो दुर्विज्ञेयतामाह -- एनं प्रकृतं देहिनमाश्चर्येणाद्भुतेन तुल्यतया वर्तमानं आविद्यकनानाविधविरुद्धधर्मवत्तया सन्तमप्यसन्तमिव, स्वप्रकाशचैतन्यरूपमपि जडमिव, आनन्दघनमपि दुःखितमिव, निर्विकारमपि सविकारमिव, नित्यमप्यनित्यमिव, प्रकाशमानमप्यप्रकाशमानमिव, ब्रह्माभिन्नमपि तद्भिन्नमिव, मुक्तमपि बद्धमिव, अद्वितीयमपि सद्वितीयमिव, संभावितविचित्रानेकाकारप्रतीतिविषयं पश्यति। शास्त्राचार्योपदेशाभ्यामाविद्यकसर्वद्वैतनिषेधेन परमात्मस्वरूपमात्राकारायां वेदान्तमहावाक्यजन्यायां सर्वसुकृतफलभूतायामन्तःकरणवृत्तौ प्रतिफलितं समाधिपरिपाकेन साक्षात्करोति, कश्चिच्छमदमादिसाधनसंपन्नचरमशरीरः कश्चिदेव नतु सर्वः। तथा कश्चिदेनं यत्पश्यति तदाश्चर्यवदिति क्रियाविशेषणम्। आत्मदर्शनमप्याश्चर्यवदेव यत्स्वरूपतो मिथ्याभूतमपि सत्यस्य व्यञ्जकं, आविद्यकमप्यविद्याया विघातकं, अविद्यामुपघ्नतत्कार्यतया स्वात्मानमप्युपहन्तीति। यथा, यः कश्चिदेनं पश्यति स आश्चर्यवदिति कर्तृविशेषणम्। यतोऽसौ निवृत्ताविद्यातत्कार्योऽपि प्रारब्धकर्मप्राबल्यात्तद्वानिव व्यवहरति सर्वदा समाधिनिष्ठोऽपि व्युत्तिष्ठति व्युत्थितोऽपि पुनः समाधिमनुभवतीति प्रारब्धकर्मवैचित्र्याद्विचित्रचरित्रः प्राप्तदुष्प्रापज्ञानत्वात्सकललोकस्पृहणीयोऽत आश्चर्यवदेव भवति। तदेतत्त्रयमाश्चर्यमात्मा तज्ज्ञानं तज्ज्ञाता चेति परमदुर्विज्ञेयमात्मानं त्वं कथमनायासेन जानीया इत्यभिप्रायः। एवमुपदेष्टुरभावादप्यात्मा दुर्विज्ञेयः। यो ह्यात्मानं जानाति स एव तमन्यस्मै ध्रुवं ब्रूयात्, अज्ञस्योपदेष्टृत्वासंभवात्। जानंस्तु समाहितचित्तः प्रायेण कथं ब्रवीतु। व्युत्थितचित्तोऽपि परेण ज्ञातुमशक्यः। यथाकथंचिज्ज्ञातोऽपि लाभपूजाख्यात्यादिप्रयोजनानपेक्षत्वान्न ब्रवीत्येव, कथंचित्कारुण्यमात्रेण ब्रुवंस्तु परमेश्वरवदत्यन्तदुर्लभएवेत्याह -- 'आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य इति'। यथा जानाति तथैव वदति। एनमित्यनुकर्षणार्थश्चकारः। स चान्यः सर्वज्ञजनविलक्षणो नतु यः पश्यति ततोऽन्य इति व्याघातात्। तत्रापि कर्मणि क्रियायां कर्तरि चाश्चर्यवदिति योज्यम्। तत्र कर्मणः कर्तुश्च प्रागाश्चर्यत्वं व्याख्यातं, क्रियायास्तु व्याख्यायते। सर्वशब्दावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो यद्वचनं तदाश्चर्यवत्। तथाच श्रुतिः'यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह' इति। केनापि शब्देनावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो विशिष्टशक्तेन पदेन जहदजहत्स्वार्थलक्षणया कल्पितसंबन्धेन लक्ष्यतावच्छेदकमन्तरेणैव प्रतिपादनं तदपि निर्विकल्पकसाक्षात्काररूपमत्याश्चर्यमित्यर्थः। अथवा विना शक्तिं विना लक्षणां विना संबन्धान्तरं सुषुप्तोत्थापकवाक्यवत्तत्त्वमस्यादिवाक्येन यदात्मतत्त्वप्रतिपादनं तदाश्चर्यवत्। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात्। नच विना संबन्धं बोधनेऽतिप्रसङ्गः लक्षणापक्षेऽपि तुल्यत्वात् शक्यसंबन्धरूपानेकसाधारणत्वात्। तात्पर्यविशेषान्नियम इतिचेत् न। तस्यापि सर्वान्प्रत्यविशेषात्। कश्चिदेव तात्पर्यविशेषमवधारयति न सर्व इतिचेद्धन्त तर्हि पुरुषगत एव कश्चिद्विशेषो निर्दोषत्वरूपो नियामकः सचास्मिन्पक्षेऽपि न दण्डवारितः। तथाच यादृशस्य शुद्धान्तःकरणस्य तात्पर्यानुसन्धानपुरःसरं लक्षणया वाक्यार्थबोधो भवद्भिरङ्गीक्रियते तादृशस्यैव केवलः शब्दविशेषोऽखण्डसाक्षात्कारं विनापि संबन्धेन जनयतीति किमनुपपन्नम्। एतस्मिन्पक्षे शब्दवृत्त्याविषयत्वात्'यतो वाचो निवर्तन्ते' इति सुतरामुपपन्नम्। अयं च भगवदभिप्रायो वार्तिककारैः प्रपञ्चितः'दुर्बलत्वादविद्याया आत्मत्वाद्बोधरूपिणः। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाद्विद्मस्तं मोहहानतः।।अगृहीत्वैव संबन्धमभिधानाभिधेययोः। हित्वा निद्रां प्रबुध्यन्ते सुषुप्तेर्बोधिताः परैः।।जाग्रद्वन्न यतः शब्दं सुषुप्तौ वेत्ति कश्चन। ध्वस्तेऽतो ज्ञानतोऽज्ञाने ब्रह्मास्मीति भवेत्फलम्।।अविद्याघातिनः शब्दाद्याहं ब्रह्मेति धीर्भवेत्। नश्यत्यविद्यया सार्धं हत्वा रोगमिवौष धम्।।' इत्यादिना ग्रन्थेन। तदेवं वचनविषयस्य वक्तुर्वचनक्रियायाश्चात्याश्चर्यरूपत्वादात्मनो दुर्विज्ञानत्वमुक्त्वा श्रोतुर्दुर्मिलत्वादपि तदाह -- आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेदेति। अन्यो द्रष्टुर्वक्तुश्च मुक्ताद्विलक्षणो मुमुक्षुर्वक्तारं ब्रह्मविदं विधिवदुपसृत्य एनं शृणोति श्रवणाख्यविचारविषयीकरोति। वेदान्तवाक्यतात्पर्यनिश्चयेनावधारयतीति यावत्। श्रुत्वा चैनं मनननिदिध्यासनपरिपाकाद्वेदापि साक्षात्करोत्यपि आश्चर्यवत्। तथाच'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्' इति व्याख्यातम्। अत्रापि कर्तुराश्चर्यरूपत्वमनेकजन्मानुष्ठितसुकृतक्षालितमनोमलतयादिदुर्लभत्वात्। तथाच वक्ष्यति'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।' इति।'श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः','आश्चर्योऽस्य वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः' इति श्रुतेश्च। एवं श्रवणश्रोतव्ययोराश्चर्यत्वं प्राग्वद्व्याख्येयम्। ननु यः श्रवणमननादिकं करोति स आत्मानं वेदेति किमाश्चर्यमत आह -- 'नचैव कश्चिदिति'। चकारः क्रियाकर्मपदयोरनुषङ्गार्थः। कश्चिदेनं नैव वेद श्रवणादिकं कुर्वन्नपि, तदकुर्वंस्तु न वेदेति किमु वक्तव्यम्।'ऐहिकमप्रस्तुतप्रतिबन्धे तद्दर्शनात्' इति न्यायात्। उक्तंच वार्तिककारैः'कुतस्तज्ज्ञानमिति चेत्तद्धि बन्धपरिक्षयात्। असावपि च भूतो वा भावी वा वर्ततेऽथवा।।' इति। श्रवणादिकुर्वतामपि प्रतिबन्धपरिक्षयादेव ज्ञानं जायते अन्यथा तु न। सच प्रतिबन्धपरिक्षयः कस्यचिद्भूत एव यथा हिरण्यगर्भस्य। कस्यचिद्भावी यथा वामदेवस्य। कस्यचिद्वर्तते यथा श्वेतकेतोः। तथा च प्रतिबन्धक्षयस्यातिदुर्लभत्वात्'ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः' इति स्मृतेश्च दुर्विज्ञेयोऽयमात्मेति निर्गलितोऽर्थः। यदि तु'श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्' इत्येव व्याख्यायेत तदा'आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः' इति श्रुत्येकवाक्यता न स्यात्।'यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः' इति भगवद्वचनविरोधश्चेति विद्वद्भिरविनयः क्षन्तव्यः। अथवा न चैव कश्चिदित्यस्य सर्वत्र संबन्धः। कश्चिदेनं न पश्यति, न वदति, न शृणोति, श्रुत्वापि न वेदेति पञ्चप्रकारा उक्ताः। कश्चित्पश्यत्येव न वदति, कश्चित्पश्यति च वदति च, कश्चित्तद्वचनं शृणोति च तदर्थं जानाति च, कश्चिच्छ्रुत्वापि न जानाति च, कश्चित्तु सर्वबहिर्भूत इति। अविद्वत्पक्षे त्वसंभावनाविपरीतभावनाभिभूतत्वादाश्चर्यतुल्यत्वं दर्शनवदनश्रवणेष्विति निगदव्याख्यातः श्लोकः। चतुर्थपादे तु दृष्ट्वोक्त्वा श्रुत्वापीति योजना ।।2.29।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
देहयोगवियोगस्य नियतत्वादात्मनश्चेश्वरसरूपत्वात् सर्वथानाशान्न शोकः कार्य इत्युपसंहर्तुमैश्वरं सामर्थ्यं पुनर्दर्शयति -- 'आश्चर्यवदिति'। दुर्लभत्वेनेत्यर्थः। तद्ध्याश्चर्यं लोके। दुर्लभोऽपीश्वरसरूपत्वात्सूक्ष्मत्वाच्चात्मनस्तद्द्रष्टा ।।2.29।।

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