शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-26


मूल स्लोकः

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।।




English translation by Swami Sivananda
2.26 But even if thou thinkest of It as being constantly born and constantly dying, even then, O mighty-armed, thou shouldst not grieve.


English commentary by Swami Sivananda
2.26 अथ now, च and, एनम् this (Self), नित्यजातम् constantly born, नित्यम् constantly, वा or, मन्यसे thinkest, मृतम् dead, तथापि even then, त्वम् thou, महाबाहो mighty-armed, न not, एवम् thus, शोचितुम् to grieve, अर्हसि (thou) oughtest.Commentary: Lord Krishna here, for the sake of argument, takes up the popular supposition. Granting that the Self is again and again born whenever a body comes into being, and again and again dies whenever the body dies, O mighty-armed (O Arjuna of great valour and strength), thou shouldst not grieve thus, because birth is inevitable to want is dead and death is inevitable to what is born. This is the inexorable or unrelenting Law of Nature.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे महाबाहो! अगर तुम इस देहीको नित्य पैदा होनेवाला और नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इसका शोक नहीं करना चाहिये ।।2.26।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
अथ चैनं ... शोचितुमर्हसि -- भगवान् यहाँ पक्षान्तररमें अथ च और मन्यसे पद देकर कहते हैं कि यद्यपि सिद्धान्तकी और सच्ची बात यही है कि देही किसी भी कालमें जन्मने-मरनेवाला नहीं है (गीता 2। 20), तथापि अगर तुम सिद्धान्तसे बिलकुल विरुद्ध बात भी मान लो कि देही नित्य जन्मनेवाला और नित्य मरनेवाला है, तो भी तुम्हें शोक नहीं होना चाहिये। कारण कि जो जन्मेगा, वह मरेगा ही और जो मरेगा, वह जन्मेगा ही -- इस नियमको कोई टाल नहीं सकता।अगर बीजको पृथ्वीमें बो दिया जाय, तो वह फूलकर अङ्कुर दे देता है और वही अङ्कुर क्रमशः बढ़कर वृक्षरूप हो जाता है। इसमें सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय कि क्या वह बीज एक क्षण भी एकरूपसे रहा? पृथ्वीमें वह पहले अपने कठोररूपको छोड़कर कोमलरूपमें हो गया, फिर कोमलरूपको छोड़कर अङ्कुररूपमें हो गया, इसके बाद अङ्कुरूपको छोड़कर वृक्षरूपमें हो गया और अन्तमें आयु समाप्त होनेपर वह सूख गया। इस तरह बीज एक क्षण भी एकरूपसे नहीं रहा, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता रहा। अगर बीज एक क्षण भी एकरूपसे रहता, तो वृक्षके सूखनेतककी क्रिया कैसे होती? उसने पहले रूपको छोड़ा -- यह उसका मरना हुआ, और दूसरे रूपको धारण किया -- यह उसका जन्मना हुआ। इस तरह वह प्रतिक्षण ही जन्मता-मरता रहा। बीजकी ही तरह यह शरीर है। बहुत सूक्ष्मरूपसे वीर्यका जन्तु रजके साथ मिला। वह बढ़ते-बढ़ते बच्चेके रूपमें हो गया और फिर जन्म गया। जन्मके बाद वह बढ़ा, फिर घटा और अन्तमें मर गया। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूपसे न रहकर बदलता रहा अर्थात् प्रतिक्षण जन्मता-मरता रहा। भगवान् कहते हैं कि अगर तुम शरीरकी तरह शरीरीको भी नित्य जन्मने-मरनेवाला मान लो, तो भी यह शोकका विषय नहीं हो सकता ।।2.26।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- अथ च इति अभ्युपगमार्थः। एनं प्रकृतमात्मानं नित्यजातं लोकप्रसिद्ध्या प्रत्यनेकशरीरोत्पत्ति जातो जात इति मन्यसे तथा प्रतितत्तद्विनाशं नित्यं वा मन्यसे मृतं मृतो मृत इति; तथापि तथाभावेऽपि आत्मनि त्वं महाबाहो, न एवं शोचितुमर्हसि, जन्मवतो नाशो नाशवतो जन्मश्चेत्येताववश्यंभाविनाविति।।तथा च सति -- ।।2.26।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.26 This (verse), 'On the other hand,' etc., is uttered assuming that the Self is transient. Atha ca, on the other hand, if (-- conveys the sense of assumption --); following ordinary experience, manyase, you think; enam, this One, the Self under discussion; is nityajatam, born continually, becomes born with the birth of each of the numerous bodies; va, or; nityam, constantly; mrtam, dies, along with the death of each of these (bodies); tatha api, even then, even if the Self be of that nature; tvam, you; maha-baho, O mighty-armed one; na arhasi, ought not; socitum, to grieve; evam, thus, since that which is subject to birth will die, and that which is subject to death will be born; these two are inevitable.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
औपचारिक रूपसे आत्माकी अनित्यता स्वीकार करके यह कहते हैं -- 'अथ' 'च' ये दोनों अव्यय औपचारिक स्वीकृतिके बोधक हैं। यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला अर्थात् लोकप्रसिद्धिके अनुसार अनेक शरीरोंकी प्रत्येक उत्पत्तिके साथ-साथ उत्पन्न हुआ माने तथा उनके प्रत्येक विनाशके साथ-साथ सदा नष्ट हुआ माने। तो भी अर्थात् ऐसे नित्य जन्मने और नित्य मरनेवाले आत्माके निमित्त भी हे महाबाहो ! तुझे इस प्रकार शोक करना उचित नहीं है; क्योंकि जन्मनेवालेका मरण और मरनेवालेका जन्म, यह दोनों अवश्य ही होनेवाले हैं ।।2.26।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अथ नित्यजातं नित्यमृतं देहम् एव एनम् आत्मानं मनुषे न देहातिरिक्तम् उक्तलक्षणं तथापि एवम् अतिमात्रं शोचितुं न अर्हसि। परिणामस्वभावस्य देहस्य उत्पत्तिविनाशयोः अवर्जनीयत्वात् ।।2.26।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.26 Besides, if you consider this self as identical with the body, which is constantly born and constantly dies --- which is nothing other than these characteristics of the body mentioned above ---, even then it does not become you to feel grief; because, birth and death are inevitable for the body, whose nature is modification.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अथेति पक्षान्तरे। लौकायतिकमते स्थित्वाऽऽत्मानं नित्यं सदा जातं मृतं मन्यसे तथापि न शोचितुमर्हसि ।।2.26।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवमात्मनो निर्विकारत्वेनाशोच्यत्वमुक्तम्। इदानीं विकारवत्त्वमभ्युपेत्यापि श्लोकद्वयेनाशोच्यत्वं प्रतिपादयति भगवान् -- तत्र आत्मा ज्ञानस्वरूपः प्रतिक्षणविनाशीत सौगताः, देह एवात्मा स च स्थिरोऽप्यनुक्षणपरिणामी जायते नश्यति चेति प्रत्यक्षसिद्धमेवैतदिति लोकायतिकाः। देहातिरिक्तोऽपि देहेन सहैव जायते नश्यति चेत्यन्ये। सर्गाद्यकाल एवाकाशवज्जायते देहभेदेऽप्यनुवर्तमान एवाकल्पस्थायी नश्यति प्रलय इत्यपरे। नित्यएवात्मा जायते म्रियते चेति तार्किकाः। तथाहि प्रेत्यभावो जन्म सचापूर्वदेहेन्द्रियादिसंबन्धः। एवं मरणमपि पूर्वदेहेन्द्रियादिविच्छेदः। इदं चोभयं धर्माधर्मनिमित्तत्वात्तदाधारस्य नित्यस्यैव मुख्यम्। अनित्यस्य तु कृतहान्यकृताभ्यागमप्रसङ्गेन धर्माधर्माधारत्वानुपपत्तेर्न जन्ममरणे मुख्ये इति वदन्ति। नित्यस्याप्यात्मनः कर्णशष्कुलीजन्मनाप्याकाशस्येव देहजन्मना जन्म तन्नाशाच्च मरणं तदुभयमौपाधिकममुख्यमेवेत्यन्ये। तत्रानित्यत्वपक्षेऽपि शोच्यत्वमात्मनो निषेधति -- अथेति पक्षान्तरे। चोप्यर्थे। यदि दुर्बोधत्वादात्मवस्तुनोऽसकृच्छ्रवणेऽप्यवधारणासामर्थ्यान्मदुक्तपक्षानङ्गीकारेण पक्षान्तरमभ्युपैषि, तत्राप्यनित्यत्वपक्षमेवाश्रित्य यद्येनमात्मानं नित्यजातं नित्यमृतं वा मन्यसे। वाशब्दाश्चार्थे। क्षणिकत्वपक्षे नित्यं प्रतिक्षणं, पक्षान्तरे आवश्यकत्वान्नित्यं नियतं जातोऽयं मृतोऽयमिति लौकिकप्रत्ययवशेन यदि कल्पयसि, तथापि हे महाबाहो पुरुषधौरेयेति सोपहासम्। कुमताभ्युपगमात्त्वय्येतादृशी कुदृष्टिर्न संभवतीति सानुकम्पं वा। एवं'अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्' इत्यादि यथा शोचसि एवं प्रकारमनुशोकं कर्तुं स्वयमपि त्वं तादृश एव सन्नार्हसि योग्यो न भवसि क्षणिकत्वपक्षे, देहात्मवादपक्षे देहेन सह जन्मविनाशपक्षे च जन्मान्तराभावेन पापभयासंभवात्, पापभयेनैव खलु त्वमनुशोचसि तच्चैतादृशे दर्शने न संभवतीत्यर्थः। क्षणिकत्वपक्षे च दृष्टमपि दुःखं न संभवति बन्धुविनाशदर्शित्वाभावादित्यधिकम्। पक्षान्तरे दृष्टदुःखनिमित्तं शोकमभ्यनुज्ञातुमेवकारः। दृष्टदुःखनिमित्तशोकसंभवेऽप्यदृष्टदुःखनिमित्तः शोकः सर्वथा नोचित इत्यर्थः प्रथमश्लोकस्य ।।2.26।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
अस्त्वेवमात्मनो नित्यत्वम्, तथापि देहसंयोगवियोगात्मकजनिमृती स्त एवेत्यत आह -- 'अथ चेति' ।।2.26।।

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