शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-04


मूल स्लोकः

अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।2.4।।




English translation by Swami Sivananda
2.4 Arjuna said -- How, O Madhusudana, shall I fight in battle with arrows against Bhishma and Drona, who are fit to be worshipped, O destroyer of enemies?


English commentary by Swami Sivananda
2.4 कथम् how, भीष्मम् Bhishma, अहम् I, संख्ये in battle, द्रोणम् Drona, च and, मधुसूदन O Madhusudana, इषुभिः with arrows, प्रतियोत्स्यामि shall fight, पूजार्हौ worthy to be worshipped, अरिसूदन O destroyer of enemies.No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं ।।2.4।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- मधुसूदन और अरिसूदन -- ये दो सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप दैत्योंको और शत्रुओंको मारनेवाले हैं अर्थात् जो दुष्ट स्वभाववाले, अधर्ममय आचरण करनेवाले और दुनियाको कष्ट देनेवाले मधु-कैटभ आदि दैत्य हैं, उनको भी आपने मारा है; और जो बिना कारण द्वेष रखते हैं, अनिष्ट करते हैं, ऐसे शत्रुओंको भी आपने मारा है। परन्तु मेरे सामने तो पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण खड़े हैं, जो आचरणोंमें सर्वथा श्रेष्ठ हैं, मेरेपर अत्यधिक स्नेह रखनेवाले हैं और प्यारपूर्वक मेरेको शिक्षा देनेवाले हैं। ऐसे मेरे परम हितैषी दादाजी और विद्यागुरुको मैं कैसे मारूँ? कथं (टिप्पणी प0 40) भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च -- मैं कायरताके कारण युद्धसे विमुख नहीं हो रहा हूँ, प्रत्युत धर्मको देखकर युद्धसे विमुख हो रहा हूँ; परन्तु आप कह रहे हैं कि यह कायरता, यह नपुंसकता तुम्हारेमें कहाँसे आ गयी! आप जरा सोचें कि मैं पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ? महाराज! यह मेरी कायरता नहीं है। कायरता तो तब कही जाय, जब मैं मरनेसे डरूँ। मैं मरनेसे नहीं डर रहा हूँ, प्रत्युत मारनेसे डर रहा हूँ।संसारमें दो ही तरहके सम्बन्ध मुख्य हैं -- जन्म-सम्बन्ध और विद्या-सम्बन्ध। जन्मके सम्बन्धसे तो पितामह भीष्म हमारे पूजनीय हैं। बचपनसे ही मैं उनकी गोदमें पला हूँ। बचपनमें जब मैं उनको ' पिताजी-पिताजी' कहता, तब वे प्यारसे कहते कि ' मैं तो तेरे पिताका भी पिता हूँ!' इस तरह वे मेरेपर बड़ा ही प्यार, स्नेह रखते आये हैं। विद्याके सम्बन्धसे आचार्य द्रोण हमारे पूजनीय हैं। वे मेरे विद्यागुरु हैं। उनका मेरेपर इतना स्नेह है कि उन्होंने खास अपने पुत्र अश्वत्थामाको भी मेरे समान नहीं पढ़ाया। उन्होंने ब्रह्मास्त्रको चलाना तो दोनोंको सिखाया, पर ब्रह्मास्त्रका उपसंहार करना मेरेको ही सिखाया, अपने पुत्रको नहीं। उन्होंने मेरेको यह वरदान भी दिया है कि ' मेरे शिष्योंमें अस्त्र-शस्त्र-कलामें तुम्हारेसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं होगा।' ऐसे पूजनीय पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके सामने तो वाणीसे ' रे ' ' तू' -- ऐसा कहना भी उनकी हत्या करनेके समान पाप है, फिर मारनेकी इच्छासे उनके साथ बाणोंसे युद्ध करना कितने भारी पापकी बात है!इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हौ -- सम्बन्धमें बड़े होनेके नाते पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण -- ये दोनों ही आदरणीय और पूजनीय हैं। इनका मेरेपर पूरा अधिकार है। अतः ये तो मेरेपर प्रहार कर सकते हैं, पर मैं उनपर बाणोंसे कैसे प्रहार करूँ? उनका प्रतिद्वन्द्वी होकर युद्ध करना तो मेरे लिये बड़े पापकी बात है! क्योंकि ये दोनों ही मेरेद्वारा सेवा करनेयोग्य हैं और सेवासे भी बढ़कर पूजा करनेयोग्य हैं। ऐसे पूज्यजनोंको मैं बाणोंसे कैसे मारूँ?सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें अर्जुनने उत्तेजित होकर भगवान्से अपना निर्णय कह दिया। अब भगवद्वाणीका असर होनेपर अर्जुन अपने और भगवान्के निर्णयका सन्तुलन करके कहते हैं -- ।।2.4।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
2.4 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.4 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
No such translation is available. Translation starts from 2.10 ।।2.4।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
अर्जुन उवाच -- पुनरपि पार्थः स्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयाकुलो भगवदुक्तं हिततमम् अजानन् इदम् उवाच। भीष्मद्रोणादिकान् बहुमन्तव्यान् गुरून् कथम् अहं हनिष्यामि कथन्तरां भोगेष्वतिमात्रसक्तान् तान् हत्वा तैः भुज्यमानान् तान् एव भोगान् तद्रुधिरेण उपसिच्य तेषु आसनेषु उपविश्य भुञ्जीय ।।2.4।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.4 - 2.5 Arjuna said -- Again Arjuna, being moved by love, compassion and fear, mistaking unrighteousness for righteousness, and not understanding, i.e., not knowing the beneficial words of Sri Krsna, said as follows: 'How can I slay Bhisma, Drona and others worthy or reverence? After slaying those elders, though they are intensely attached to enjoyments, how can I enjoy those very pleasures which are now being enjoyed by them? For, it will be mixed with their blood.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
इति श्रुत्वाऽर्जुनः स्नेहकारुण्यधर्माकुलो भगवद्वाक्यं सम्यगजानन्नाह -- कथमिति। अरिसूदनेति शत्रुमारणे त्वयाऽपि क्वचिन्नैवं कृतमिति सम्बोधयति ।।2.4।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु नायं स्वधर्मस्य त्यागः शोकमोहादिवशात् किंतु धर्मत्वाभावादधर्मत्वाच्चास्य युद्धस्य त्यागो मया क्रियत इति भगवदभिप्रायमप्रतिपद्यमानस्यार्जुनस्याभिप्रायमवतारयति -- भीष्मं पितामहं, द्रोणं चाचार्यं, संख्ये रणे इषुभिः सायकैः प्रतियोत्स्यामि प्रहरिष्यामि कथम्। न कथंचिदपीत्यर्थः। यतस्तौ पूजार्हौ कुसुमादिभिरर्चनयोग्यौ। पूजार्हाभ्यां सह क्रीडास्थानेऽपि वाचापि हर्षफलकमपि लीलायुद्धमनुचितं किं पुनर्युद्धभूमौ शरैः प्राणत्यागफलकं प्रहरणमित्यर्थः। मधुसूदनारिसूदनेति संबोधनद्वयं शोकव्याकुलत्वेन पूर्वापरपरामर्शवैकल्यात्। अतो न मधुसूदनारिसूदनेत्यस्यार्थस्य पुनरुक्तत्वं दोषः। युद्धमात्रमपि यत्र नोचितं, दूरे तत्र वध इति प्रतियोत्स्यामीत्यनेन सूचितम्। अथवा पूजार्हौ कथं प्रतियोत्स्यामि। पूजार्हयोरेव विवरणं भीष्मं द्रोणं चेति। द्वौ ब्राह्मणौ भोजय देवदत्तं यज्ञदत्तं चेतिवत्संबन्धः। अयं भावः -- दुर्योधनादयो नापुरस्कृत्य भीष्मद्रोणौ युद्धाय सज्जीभवन्ति। तत्र ताभ्यां सह युद्धं न तावद्धर्मः पूजादिवदविहितत्वात्। नचायमनिषिद्धत्वादधर्मोऽपि न भवतीति वाच्यम्।'गुरुं हुंकृत्य त्वंकृत्य' इत्यादिना शब्दमात्रेणापि गुरुद्रोहो यदानिष्टफलत्वप्रदर्शनेन निषिद्धस्तदा किं वाच्यं ताभ्यां सह संग्रामस्याधर्मत्वे निषिद्धत्वे चेति ।।2.4।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।2.4।।

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