गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

BhagvatGita-01-02


मूल स्लोकः

सञ्जय उवाच

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।1.2।।




English translation by Swami Sivananda
1.2. Sanjaya said -- Having seen the army of the Pandavas drawn up in battle-array,King Duryodhana then approached his teacher (Drona) and spoke these words.


English commentary by Swami Sivananda
1.2 दृष्ट्वा having seen, तु indeed, पाण्डवानीकम् the army of the Pandavas, व्यूढम् drawn up in battle-array, दुर्योधनः Duryodhana, तदा then, आचार्यम् the teacher, उपसङ्गम्य having approached, राजा the king, वचनम् speech, अब्रवीत् said.No Commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सञ्जय बोले - उस समय वज्रव्यूह-से खड़ी हुई पाण्डव-सेनाको देखकर राजा दुर्योधन द्रोणाचार्यके पास जाकर यह वचन बोला ।।1.2।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- तदा -- जिस समय दोनों सेनाएँ युद्धके लिये खड़ी हुई थीं, उस समयकी बात सञ्जय यहाँ तदा पदसे कहते हैं। कारण कि धृतराष्ट्रका प्रश्न ' युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया ' -- इस विषयको सुननेके लिये ही है।तु -- धृतराष्ट्रने अपने और पाण्डुके पुत्रोंके विषयमें पूछा है। अतः सञ्जय भी पहले धृतराष्ट्रके पुत्रों की बात बतानेके लिये यहाँ तु पदका प्रयोग करते हैं।दृष्ट्वा (टिप्पणी प0 4.1) पाण्डवानीकं व्यूढम् -- पाण्डवोंकी वज्रव्यूह-से खड़ी सेनाको देखनेका तात्पर्य है कि पाण्डवोंकी सेना बड़ी ही सुचारुरूपसे और एक ही भावसे खड़ी थी अर्थात् उनके सैनिकोंमें दो भाव नहीं थे, मतभेद नहीं था (टिप्पणी प0 4.2)। उनके पक्षमें धर्म और भगवान श्रीकृष्ण थे। जिसके पक्षमें धर्म और भगवान् होते हैं, उसका दूसरोंपर बड़ा असर पड़ता है। इसलिये संख्यामें कम होनेपर भी पाण्डवोंकी सेनाका तेज (प्रभाव) था और उसका दूसरोंपर बड़ा असर पड़ता था। अतः पाण्डव-सेनाका दुर्योधनपर भी बड़ा असर पड़ा, जिससे वह द्रोणाचार्यके पास जाकर नीतियुक्त गंभीर वचन बोलता है।राजा दुर्योधनः -- दुर्योधनको राजा कहनेका तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रका सबसे अधिक अपनापन (मोह) दुर्योधनमें ही था। परम्पराकी दृष्टिसे भी युवराज दुर्योधन ही था। राज्यके सब कार्योंकी देखभाल दुर्योधन ही करता था। धृतराष्ट्र तो नाममात्रके राजा थे। युद्ध होनेमें भी मुख्य हेतु दुर्योधन ही था। इन सभी कारणोंसे सञ्जयने दुर्योधनके लिये राजा शब्दका प्रयोग किया है।आचार्यमुपसङ्गम्य -- द्रोणाचार्यके पास जानेमें मुख्यतः तीन कारण मालूम देते हैं-(1) अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये अर्थात् द्रोणाचार्यके भीतर पाण्डवोंके प्रति द्वेष पैदा करके उनको अपने पक्षमें विशेषतासे करनेके लिये दुर्योधन द्रोणाचार्यके पास गया।(2) व्यवहारमें गुरुके नाते आदर देनेके लिये भी द्रोणाचार्यके पास जाना उचित था। (3) मुख्य व्यक्तिका सेनामें यथास्थान खड़े रहना बहुत आवश्यक होता है, अन्यथा व्यवस्था बिगड़ जाती है। इसलिये दुर्योधनका द्रोणाचार्यके पास खुद जाना उचित ही था।यहाँ शङ्का हो सकती है कि दुर्योधनको तो पितामह भीष्मके पास जाना चाहिये था, जो कि सेनापति थे। पर दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्यके पास ही क्यों गया? इसका समाधान यह है कि द्रोण और भीष्म -- दोनों उभय-पक्षपाती थे अर्थात् वे कौरव और पाण्डव -- दोनोंका ही पक्ष रखते थे। उन दोनोंमें भी द्रोणाचार्यको ज्यादा राजी करना था; क्योंकि द्रोणाचार्यके साथ दुर्योधनका गुरुके नाते तो स्नेह था, पर कुटुम्बके नाते स्नेह नहीं था; और अर्जुनपर द्रोणाचार्यकी विशेष कृपा थी। अतः उनको राजी करनेके लिये दुर्योधनका उनके पास जाना ही उचित था। व्यवहारमें भी यह देखा जाता है कि जिसके साथ स्नेह नहीं है, उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये मनुष्य उसको ज्यादा आदर देकर राजी करता है।दुर्योधनके मनमें यह विश्वास था कि भीष्मजी तो हमारे दादाजी ही है; अतः उनके पास न जाऊँ तो भी कोई बात नहीं है। न जानेसे अगर वे नाराज भी हो जायँगे तो मैं किसी तरहसे उनको राजी कर लूँगा। कारण कि पितामह भीष्मके साथ दुर्योधनका कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था ही, भीष्मका भी उसके साथ कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था। इसलिये भीष्मजीने दुर्योधनको राजी करनेके लिये जोरसे शङ्ख बजाया है (1। 12)।वचनमब्रवीत् -- यहाँ अब्रवीत् कहना ही पर्याप्त था; क्योंकि अब्रवीत् क्रियाके अन्तर्गत ही वचनम् आ जाता है अर्थात् दुर्योधन बोलेगा, तो वचन ही बोलेगा। इसलिये यहाँ वचनम् शब्दकी आवश्यकता नहीं थी। फिर भी वचनम् शब्द देनेका तात्पर्य है कि दुर्योधन नीतियुक्त गम्भीर वचन बोलता है, जिससे द्रोणाचार्यके मनमें पाण्डवोंके प्रति द्वेष पैदा हो जाय और वे हमारे ही पक्षमें रहते हुए ठीक तरहसे युद्ध करें। जिससे हमारी विजय हो जाय, हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय।सम्बन्ध -- द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन क्या वचन बोला -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं ।।1.2।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
1.2 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
1.2 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. ।।1.2।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
धृतराष्ट्र उवाच -- सञ्जय उवाच -- दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत् ।।1.2।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said --- Sanjaya said -- Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adequacy of Bhima's forces for conquering the Kaurava forces and the inadequacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within.Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to conquer the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory.Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior --- by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत् ।।1.2 -- 1.11।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवं कृपालोकव्यवहारनेत्राभ्यामपि हीनतया महतोऽन्धस्य पुत्रस्नेहमात्राभिनिविष्टस्य धृतराष्ट्रस्य प्रश्ने विदिताभिप्रायस्य संजयस्यातिधार्मिकस्य प्रतिवचनमवतारयति वैशम्पायनः। तत्र पाण्डवानां दृष्टभयसंभावनापि नास्ति, अदृष्टभयं तु भ्रान्त्यार्जुनस्योत्पन्नं भगवतोपशमितमिति पाण्डवानामुत्कर्षस्तुशब्देन द्योत्यते। स्वपुत्रकृतराज्यप्रत्यर्पणशङ्कया तु माग्लासीरिति राजानं तोषयितुं दुर्योधनदौष्ट्यमेव प्रथमतो वर्णयति -- 'दृष्ट्वेति'। पाण्डुसुतानामनीकं सैन्यं व्यूढं व्यूहरचनया धृष्टद्युम्नादिभिः स्थापितं दृष्ट्वा चाक्षुषज्ञानेन विषयीकृत्य तदा संग्रामोद्यमकाले आचार्यं द्रोणनामानं धनुर्विद्यासंप्रदायप्रवर्तयितारमुपसंगम्य स्वयमेव तत्समीपं गत्वा नतु स्वसमीपमाहूय। एतेन पाण्डवसैन्यदर्शनजनितं भयं सूच्यते। भयेन स्वरक्षार्थं तत्समीपगमनेऽप्याचार्यगौरवव्याजेन भयसंगोपनं राजनीतिकुशलत्वा दित्याह -- 'राजेति'। आचार्यं दुर्योधनोऽब्रवीदित्येतावतैव निर्वाहे वचनपदं संक्षिप्तबह्वर्थत्वादिबहुगुणविशिष्टे वाक्यविशेषे संक्रमितुं वचनमात्रमेवाब्रवीन्नतु कंचिदर्थमिति वा ।।1.2।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।1.2।।

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