शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-18


मूल स्लोकः

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।




English translation by Swami Sivananda
2.18 These bodies of the embodied Self, Which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore fight, O Arjuna.


English commentary by Swami Sivananda
2.18 अन्तवन्तः having an end, इमे these, देहाः bodies, नित्यस्य of the everlasting, उक्ताः are said, शरीरिणः of the embodied, अनाशिनः of the indestructible, अप्रमेयस्य of the immesaurable, तस्मात् therefore, युध्यस्व fight, भारत O Bharata.Commentary -- Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the all-pervading, immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion, grief and despondency which are born of ignorance.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरके ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो ।।2.18।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अनाशिनः -- किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम अनाशी अर्थात् अविनाशी है।अप्रमेयस्य -- जो प्रमा-(प्रमाण-)का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको ' अप्रमेय ' कहते हैं।जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है (टिप्पणी प0 58.1), प्रमाणका विषय नहीं।शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।नित्यस्य -- यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो -- ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः -- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है।उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण -- ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको सर्वगतः पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान्को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान्का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।विशेष बातयहाँ अन्तवन्त इमे देहाः कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं? नित्यस्य, अनाशिनः -- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे ' अहंता ' अर्थात् ' मैं'-पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे ' ममता ' अर्थात् ' मेरा'-पन पैदा हो गया।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मैं'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- अपनेको धनमें रख दिया तो ' मैं धनी हूँ '; अपनेको राज्यमें रख दिया तो ' मैं राजा हूँ '; अपनेको विद्यामें रख दिया तो ' मैं विद्वान् हूँ '; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो ' मैं बुद्धिमान् हूँ '; अपनेको सिद्धियों में ख दिया तो ' मैं सिद्ध हूँ '; अपनेको शरीरमें रख दिया तो ' मैं शरीर हूँ '; आदि-आदि।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मेरा'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो ' कुटुम्ब मेरा है '; धनको अपनेमें रख लिया तो ' धन मेरा है '; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो' बुद्धि मेरी है; शरीरको अपनेमें रख लिया तो ' शरीर मेरा है '; आदि-आदि।जडताके साथ ' मैं' और ' मेरा ' -पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं) -- दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं, महत्व देते हैं वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है -- इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है।तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व -- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत्को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों -- शरीर-शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।विशेष बातयहाँ सत्रहवें और अठारहवें -- इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्-तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान्का लक्ष्य सत्का बोध करानेमें ही है। सत्का बोध हो जानेसे असत्की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकारका किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत्का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत्का विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदार-गृहादिषु (13। 9) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्ययोगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्तिरहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं।इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग -- दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये, जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते, उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं ।।2.18।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- अन्तः विनाशः विद्यते येषां ते अन्तवन्तः। यथा मृगतृष्णिकादौ सद्बुद्धिः अनुवृत्ता प्रमाणनिरूपणान्ते विच्छिद्यते, स तस्य अन्तः; तथा इमे देहाः स्वप्नमायादेहादिवच्च अन्तवन्तः नित्यस्य शरीरिणः शरीरवतः अनाशिनः अप्रमेयस्य आत्मनः अन्तवन्त इति उक्ताः विवेकिभिरित्यर्थः। 'नित्यस्य ' 'अनाशिनः' इति न पुनरुक्तम्; नित्यत्वस्य द्विविधत्वात् लोके, नाशस्य च। यथा देहो भस्मीभूतः अदर्शनं गतो नष्ट उच्यते। विद्यमानोऽपि यथा अन्यथा परिणतो व्याध्यादियुक्तो जातो नष्ट उच्यते। तत्र 'नित्यस्य' 'अनाशिनः ' इति द्विविधेनापि नाशेन असंबन्धः अस्येत्यर्थः। अन्यथा पृथिव्यादिवदपि नित्यत्वं स्यात् आत्मनः; तत् मा भूदिति 'नित्यस्य ' 'अनाशिनः ' इत्याह। अप्रमेयस्य न प्रमेयस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणैः अपरिच्छेद्यस्येत्यर्थः।।ननु आगमेन आत्मा परिच्छिद्यते, प्रत्यक्षादिना च पूर्वम्। न आत्मनः स्वतःसिद्धत्वात्। सिद्धे हि आत्मनि प्रमातरि प्रमित्सोः प्रमाणान्वेषणा भवति। न हि पूर्वम् 'इत्थमहम् ' इति आत्मानमप्रमाय पश्चात् प्रमेयपरिच्छेदाय प्रवर्तते। न हि आत्मा नाम कस्यचित् अप्रसिद्धो भवति। शास्त्रं तु अन्त्यं प्रमाणम् अतद्धर्माध्यारोपणमात्रनिवर्तकत्वेन प्रमाणत्वम् आत्मनः प्रतिपद्यते, न तु अज्ञातार्थज्ञापकत्वेन। तथा च श्रुतिः -- 'यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः' इति।।यस्मादेवं नित्यः अविक्रियश्च आत्मा तस्मात् युध्यस्व, युद्धात् उपरमं मा कार्षीः इत्यर्थः।।न हि अत्र युद्धकर्तव्यता विधीयते, युद्धे प्रवृत्त एव हि असौ शोकमोहप्रतिबद्धः तूष्णीमास्ते। अतः तस्य प्रतिबन्धापनयनमात्रं भगवता क्रियते। तस्मात् 'युध्यस्व' इति अनुवादमात्रम् , न विधिः।।शोकमोहादिसंसारकारणनिवृत्त्यर्थं गीताशास्त्रम्, न प्रवर्तकम् इत्येतस्यार्थस्य साक्षिभूते ऋचौ आनिनाय भगवान्।यत्तु मन्यसे 'युद्धे भीष्मादयो मया हन्यन्ते' 'अहमेव तेषां हन्ता' इति, एषा बुद्धिः मृषैव ते। कथम्? -- ।।2.18।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.18 Ime, these; antavantah, destructible; dehah, bodies -- as the idea of reality which continues with regard to water in a mirage, etc. gets eliminated when examined with the means of knowledge, and that is its end, so are these bodies and they have an end like bodies etc. in dream and magic --; uktah, are said, by discriminating people; to belong nityasya, to the everlasting; anasinah, the indestructible; aprameyasya, the indeterminable; sarirnah, embodied One, the Self. This is the meaning.The two words 'everlasting' and 'indestructible' are not repetitive, because in common usage everlastingness and destructibility are of two kinds. As for instance, a body which is reduced to ashes and has disappeared is said to have been destoryed. (And) even while existing, when it becomes transfigured by being afflicted with diseases etc. it is said to be 'destroyed'. Here the A.A. adds 'tatha dhana-nase-apyevam, similar is the case even with regard to loss of wealth.'-Tr. That being so, by the two words 'everlasting' and 'indestructible' it is meant that It is not subject to both kinds of distruction. Otherwise, the everlastingness of the Self would be like that of the earth etc. Therefore, in order that this contingency may not arise, it is said, 'Of the everlasting, indestructible'.Aprameyasya, of the indeterminable, means 'of that which cannot be determined by such means of knowledge as direct perception etc.'Objection: Is it not that the Self is determined by the scriptures, and before that through direct perception etc.?Vedantin: No, because the Self is self-evident. For, (only) when the Self stands predetermined as the knower, there is a search for a means of knolwedge by the knower. Indeed, it is not that without first determining oneself as, 'I am such', one takes up the task of determining an object of knowledge. For what is called the 'self' does not remain unknown to anyone. But the scripture is the final authority when the Vedic text establishes Brahman as the innermost Self, all the distinctions such as knower, known and the means of knowledge become sublated. Thus it is reasonable that the Vedic text should be the final authority. Besides, its authority is derived from its being faultless in as much as it has not originated from any human being.: By way of merely negating superimposition of qualities that do not belong to the Self, it attains authoritativeness with regard to the Self, but not by virtue of making some unknown thing known. There is an Upanisadic text in support of this: '...the Brahman that is immediate and direct, the Self that is within all' (Br. 3.4.1).Since the Self is thus eternal and unchanging, tasmat, therefore; yudhyasva, you join the battle, i.e. do not desist from the war. Here there is no injunction to take up war as a duty, because be (Arjuna), though he was determined for war, remains silent as a result of being overpowered by sorrow and delusion. Therefore, all that is being done by the Lord is the removal of the obstruction to his duty. 'Therefore, join the battle' is only an approval, not an injunction.The scripture Gita is intended for eradicating sorrow, delusion, etc. which are the cases of the cycle of births and deaths; it is not intended to enjoin action. As evidences of this idea the Lord cites two Vedic verses: Ka. 1.2.19-20. There are slight verbal differences.-Tr.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
तो फिर वह असत् पदार्थ क्या है जो अपनी सत्ताको छो़ड़ देता है? ( जिसकी स्थिति बदल जाती है ) इसपर कहते हैं -- जिनका अन्त होता है -- विनाश होता है वे सब अन्तवाले हैं। जैसे मृगतृष्णादिमें रहनेवाली जलविषयक सत्-बुद्धि प्रमाणद्वारा निरूपण की जानेके बाद विच्छिन्न हो जाती है वही उसका अन्त है, वैसे ही ये सब शरीर अन्तवान् हैं तथा स्वप्न और मायाके शरीरादिकी भाँति भी ये सब शरीर अन्तवाले हैं। इसलिये इस अविनाशी, अप्रमेय, शरीरधारी नित्य आत्माके ये सब शरीर विवेकी पुरुषोंद्वारा अन्तवाले कहे गये हैं। यह अभिप्राय है। 'नित्य' और 'अविनाशी' यह कहना पुनरुक्ति नहीं है, क्योंकि संसारमें नित्यत्वके और नाशके दो-दो भेद प्रसिद्ध हैं। जैसे, शरीर जलकर भस्मीभूत हुआ अदृश्य होकर भी 'नष्ट हो गया' कहलाता है और रोगादिसे युक्त हुआ विपरीत परिणामको प्राप्त होकर विद्यमान रहता हुआ भी 'नष्ट हो गया' कहलाता है। अतः 'अविनाशी' और 'नित्य' इन दो विशेषणोंका यह अभिप्राय है कि इस आत्माका दोनों प्रकारके ही नाशसे सम्बन्ध नहीं है। ऐसे नहीं कहा जाता तो आत्माका नित्यत्व भी पृथ्वी आदि भूतोंके सदृश होता। परंतु ऐसा नहीं होना चाहिये इसलिये इसको 'अविनाशी' और 'नित्य' कहा है। प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जिसका स्वरूप निश्चित नहीं किया जा सके वह अप्रमेय है। पू0 -- जब कि शास्त्रद्वारा आत्माका स्वरूप निश्चित किया जाता है, तब प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उसका जान लेना तो पहले ही सिद्ध हो चुका ( फिर वह अप्रमेय कैसे है? ) । उ0 -- यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा स्वतः सिद्ध है। प्रमातारूप आत्माके सिद्ध होनेके बाद ही जिज्ञासुकी प्रमाणविषयक खोज ( शुरू ) होती है। क्योंकि 'मै अमुक हूँ' इस प्रकार पहले अपनेको बिना जाने ही अन्य जाननेयोग्य पदार्थको जाननेके लिये कोई प्रवृत्त नहीं होता। तथा अपना आपा किसीसे भी अप्रत्यक्ष ( अज्ञात ) नहीं होता है। शास्त्र जो कि अन्तिम प्रमाण है वह आत्मामें किये हुए अनात्मपदार्थोंके अध्यारोपको दूर करनेमात्रसे ही आत्माके विषयमें प्रमाणरूप होता है, अज्ञात वस्तुका ज्ञान करवानेके निमित्तसे नहीं। ऐसे ही श्रुति भी कहती है कि 'जो साक्षात् अपरोक्ष है वही ब्रह्म है जो आत्मा सबके हृदयमें व्याप्त है' इत्यादि। जिससे कि आत्मा इस प्रकार नित्य और निर्विकार सिद्ध हो चुका है, इसलिये तू युद्ध कर, अर्थात् युद्धसे उपराम न हो। यहाँ ( उपर्युक्त कथनसे ) युद्धकी कर्तव्यताका विधान नहीं है, क्योंकि युद्धमें प्रवृत्त हुआ ही वह ( अर्जुन ) शोक-मोहसे प्रतिबद्ध होकर चुप हो गया था, उसके कर्तव्यके प्रतिबन्धमात्रको भगवान् हटाते हैं। इसलिये 'युद्ध कर' यह कहना अनुमोदनमात्र है, विधि ( आज्ञा ) नहीं है। गीताशास्त्र संसारके कारणरूप शोक-मोह आदिको निवृत्त करनेवाला है, प्रवर्तक नहीं है। इस अर्थकी साक्षिभूत दो ऋचाओंको भगवान् उद्धृत करते हैं ।।2.18।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
'दिह उपचये' इति उपचयरूपा इमे देहा अन्तवन्तः विनाशस्वभावाः, उपचयात्माका हि घटादयः अन्वन्तो दृष्टाः। नित्यस्य शरीरिणः कर्मफलभोगार्थतया भूतसंघातरूपा देहाः'पुण्यः पुण्येन' (बृ0 उ0 4।4।5) इत्यादिशास्त्रैः उक्ताः कर्मावसानविनाशिनः। आत्मा तु अविनाशी, कुतः अप्रमेयत्वात्। न हि आत्मा प्रमेयतया उपलभ्यते, अपि तु प्रमातृतया। तथा च वक्ष्यते -- 'एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।' (गीता 13।1) इति।न च अनेकोपचयात्मक आत्मा उपलभ्यते। सर्वत्र देहे'अहम् इदं जानामि' इति देहाद् अन्यस्य प्रमातृतया एकरूपेण उपलब्धेः। न च देहादेः इव प्रदेशभेदे प्रमातुः आकारभेद उपलभ्यते, अत एकरूपत्वेन अनुपचयात्मकत्वात् प्रमातृत्वाद् व्यापकत्वात् च आत्मा नित्यः। देहः तु उपचयात्मकत्वात् शरीरिणः कर्मफलभोगार्थत्वाद् अनेकरूपत्वाद् व्याप्यत्वात् च विनाशी। तस्माद् देहस्य विनाशस्वभावत्वाद् आत्मनो नित्यस्वभावत्वात् च उभौ अपि न शोकस्थानम् इति शस्त्रपातादिपरुषस्पर्शान् अवर्जनीयान् स्वगतान् अन्यगतांश्च धैर्येण सोढ्वा अमृतत्वप्राप्तये अनभिसंहितफलं युद्धाख्यं कर्म आरभस्व ।।2.18।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.18 The root 'dih' means 'to grow.' Hence these bodies (Dehas) are characterised by complexity. They have an end --- their nature is perishablity. For, jugs and such other things which are characterised by complexity are seen to have an end. The bodies of the embodied self, which are made of conglomerated elements, serve the purpose of experiencing the effects of Karmas, as stated in Brh. U. IV. 4.5, 'Auspicious embodiments are got through good actions.' Such bodies perish when Karmas are exhausted. Further the self is imperishable. Why? Because it is not measurable. Neither can It be conceived as the object of knowledge, but only as the subject (knower). It will be taught later on: 'He who knows It is called the knower of the Field by those who know this (13.1).Besides, the self is not seen to be made up of many (elements). Because in the perception 'I am the knower' throughout the body, only something other than the body is understood as possessing an invariable form as the knower. Further, this knower cannot be dismembered and seen in different places as is the case with the body. Therefore the self is eternal, for (1) It is not a complex being of a single form; (2) It is the knowing subject; and (3) It pervades all. On the contrary, the body is perishable, because (1) it is complex; (2) it serves the purpose of experiencing the fruits of Karma by the embodied self; (3) it has a plurality of parts and (4) it can be pervaded. Therefore, as the body is by nature perishable and the self by nature is eternal, both are not objects fit for grief. Hence, bearing with courage the inevitable strike of weapons, sharp or hard, liable to be received by you and others, begin the action called war without being attached to the fruits but for the sake of attaining immortality.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
उक्तं सर्वं निगमयति -- अन्तवन्त इति। इमे देहा नित्यस्य शरीरिणोऽस्यान्तवन्तः अनित्याः कृतेऽप्यकृते शोकेऽस्थिरा उक्ताः। शास्त्रे अन्तश्चिदात्मा तु अविनाशी अप्रमेयत्वादग्राह्यत्वा देति युद्ध्यस्व ।।2.18।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु'स्फुरणरूपस्य सतः कथमविनाशित्वं, तस्य देहधर्मत्वात् देहस्य चानुक्षणविनाशात्' इति भूतचैतन्यवादिनस्तान्निराकुर्वन्,'नासतो विद्यते भावः' इत्येतद्विवृणोति। अन्तवन्तो विनाशिनः इमे परोक्षा देहाः उपचितापचितरूपत्वाच्छरीराणि। बहुवचनात्स्थूलसूक्ष्मकारणरूपाः विराट्सूत्राव्याकृताख्याः समष्टिव्यष्ट्यात्मानः सर्वे नित्यस्याविनाशिन एव शरीरिण आध्यासिकसंबन्धेन शरीरवत एकस्य आत्मनः स्वप्रकाशस्फुरणरूपस्य संबन्धिनः दृश्यत्वेन भोग्यत्वेन चोक्ताः श्रुतिभिर्ब्रह्मवादिभिश्च। तथाच तैत्तिरीय केऽन्नमयाद्यानन्दमयान्तान्पञ्च कोशान्कल्पयित्वा तदधिष्ठानमकल्पितं'ब्रह्मपुच्छं प्रतिष्ठा' इति दर्शितम्। तत्र पञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यात्मको विराट् मूर्तराशिरन्नमयकोशः स्थूलसमष्टिः, तत्कारणीभूतोऽपञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यात्मको हिरण्यगर्भः सूत्रममूर्तराशिः सूक्ष्मसमष्टिः, त्रयं वा इदं नामरूपं कर्म' इति बृहदारण्यकोक्तत्र्यन्नात्मकः सकर्मात्मकत्वेन क्रियाशक्तिमात्रमादाय प्राणमयकोश उक्तः। नामात्मकत्वेन ज्ञानशक्तिमात्रमादाय मनोमयकोश उक्तः। रूपात्मकत्वेन तदुभयाश्रयतया कर्तृत्वमादाय विज्ञानमयकोश उक्तः। ततः प्राणमयमनोमयविज्ञानमयात्मैक एव हिरण्यगर्भाख्यो लिङ्गशरीरकोशः। तत्कारणीभूतस्तु मायोपहितचैतन्यात्मा सर्वसंस्कारशेषोऽव्याकृताख्य आनन्दमयकोशः। तेच सर्वे एकस्यैवात्मनः शरीराणीत्युक्तम्'तस्यैष एव शरीर आत्मा यः पूर्वस्य' इति। तस्य प्राणमयस्यैष एव शरीरे भवः शारीर आत्मा यः सत्यज्ञानादिलक्षणो गुहानिहितत्वेनोक्तः पूर्वस्यान्नभयस्य। एवं प्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयेषु योज्यम्। अथवा इमे सर्वे देहास्त्रैलोक्यवर्तिसर्वप्राणिसंबन्धिन एकस्यैवात्मन उक्ता इति योजना। तथाच श्रुतिः'एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।' इति सर्वशरीरसंबन्धिनमेकमात्मानं नित्यं विभुं दर्शयति। ननु नित्यत्वं यावत्कालस्थायित्वं, तथाचाविद्यादिवत्कालेन सह नाशेऽपि तदुपपन्नमित्यत आह -- अनाशिन इति। देशतः कालतो वस्तुतश्च परिच्छिन्नस्याविद्यादेः कल्पितत्वेनानित्यत्वेऽपि यावत्कालस्थायित्वरूपमौपचारिकं नित्यत्वं व्यवह्नियते।'यावद्विकारं तु विभागो लोकवत्' इति न्यायात्। आत्मनस्तु परिच्छेदत्रयशून्यस्याकल्पितस्य विनाशहेत्वभावान्मुख्यमेव कूटस्थनित्यत्वं नतु परिणामिनित्यत्वं यावत्कालस्थायित्वं चेत्यभिप्रायः। नन्वेतादृशे देहिनि किंचित्प्रमाणमवश्यं वाच्यम्, अन्यथा निष्प्रमाणस्य तस्यालीकत्वापत्तेः शास्त्रारम्भवैयर्थ्यापत्तेश्च। तथाच वस्तुपरिच्छेदो दुष्परिहरः'शास्त्रयोनित्वात्' इति न्यायाच्चात आह -- अप्रमेयस्येति।'एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम्'। अप्रमयमप्रमेयम्।'न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' इति च श्रुतेः स्वप्रकाशचैतन्यरूप एवात्मा अतस्तस्य सर्वभासकस्य स्वभानार्थं न स्वभास्यापेक्षा किंतु कल्पिताज्ञानतत्कार्यनिवृत्त्यर्थं कल्पितवृत्तिविशेषापेक्षा। कल्पितस्यैव कल्पितविरोधित्वात्'यक्षानुरूपो बलिः' इति न्यायात्। तथाच सर्वकल्पितनिवर्तकवृत्तिविशेषोत्पत्त्यर्थं शास्त्रारम्भः, तस्य तत्त्वमस्यादिवाक्यमात्राधीनत्वात्स्वतः सर्वदा भासमानत्वात्सर्वकल्पनाधिष्ठानत्वाद्दृश्यमात्रभासकत्वाच्च न तस्य तुच्छत्वापत्तिः। तथाच'एकमेवाद्वितीयं''सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इत्यादिशास्त्रमेव स्वप्रमेयानुरोधेन स्वस्यापि कल्पितत्वमापादयति। अन्यथा स्वप्रामाण्यानुपपत्तेः। कल्पितस्य चाकल्पितपरिच्छेदकत्वं नास्तीति प्राक् प्रतिपादितम्। आत्मनः स्वप्रकाशत्वं च युक्तितोऽपि भगवत्पूज्यपादैरुपपादितम्। तथाहि यत्र जिज्ञासोः संशयविपर्ययव्यतिरेकप्रमाणानामन्यतममपि नास्ति तत्र तद्विरोधि ज्ञानमिति सर्वत्र दृष्टम्। अन्यथा त्रितयान्यतरापत्तेः आत्मनि चाहं वा नाहं वेति न कस्यचित्संशयः, नापि नाहमिति विपर्यये व्यतिरेकः, प्रमा वेति तत्स्वरूपप्रमा सर्वदास्तीति वाच्यम्। तस्य सर्वसंशयविपर्ययधर्मित्वात्'धर्म्यंशे सर्वमभ्रान्तं प्रकारे तु विपर्ययः' इति न्यायात्। अतएवोक्तम् प्रमाणमप्रमाणं च प्रमाभासस्तथैव च। कुर्वन्त्येव प्रमां यत्र तदसंभावना कुतः।।' इति। प्रमाभासः संशयः स्वप्रकाशे सद्रूपे धर्मिणि प्रमाणाप्रमाणयोर्विशेषो नास्तीत्यर्थः। आत्मनो भासमानत्वे च घटज्ञानं मयि जातं नवेत्यादिसंशयः स्यात्। नचान्तरपदार्थे विषयस्यैव संशयादिप्रतिबन्धकत्वस्वभावः कल्प्यः बाह्यपदार्थे क्लृप्तेन विरोधिज्ञानेनैव संशयादिप्रतिबन्धसंभवे आन्तरपदार्थे स्वभावभेदकल्पनाया अनौचित्यात्। अन्यथा सर्वविप्लबापत्तेः। आत्ममनोयोगमात्रं चात्मसाक्षात्कारे हेतुः। तस्य च ज्ञानमात्रे हेतुत्वाद्, घटादिभानेऽप्यात्मभानं समूहालम्बनन्यायेन तार्किकाणां प्रवरेणापि दुर्निवारम्। नच चाक्षुषत्वमानसत्वादिसङ्करः लौकिकत्वालौकिकत्ववदंशभेदेनोपपत्तेः सङ्करस्यादोषत्वाच्चाक्षुषत्वादेर्जातित्वानभ्युपगमाद्वा। व्यवसायमात्र एवात्मभानसामग्र्या विद्यमानत्वादनुव्यवसायोऽप्यपास्तः। नच व्यवसायभानार्थं सः। तस्य दीपवत्स्वव्यवहारे सजातीयानपेक्षत्वात्। नहि घटतज्ज्ञानयोरिव व्यवसायानुव्यवसाययोरपि विषयत्वविषयित्वव्यवस्थापकं वैजात्यमस्ति, व्यक्तिभेदातिरिक्तवैधर्म्यानभ्युपगमात्, विषयत्वावच्छेदकरूपेणैव विषयित्वाभ्युपगमे घटयोरपि तद्भावापत्तिरविशेषात्। ननु यथा घटव्यवहारार्थं घटज्ञानमभ्युपेयते तथा घटज्ञानव्यवहारार्थं घटज्ञानविषयं ज्ञानमभ्युपेयं, व्यवहारस्य व्यवहर्तव्यज्ञानासाध्यत्वादिति चेत्, कानुपपत्तिरुद्भाविता देवानांप्रियेण स्वप्रकाशवादिनः। नहि व्यवहर्तव्यभिन्नत्वमपि ज्ञानविशेषणं व्यवहारहेतुतावच्छेदकं गौरवात्। तथाचेश्वरज्ञानवद्योगिज्ञानवत्प्रेयमिति ज्ञानवच्च स्वेनैव स्वव्यवहारोपपत्तौ न ज्ञानान्तरकल्पनावकाशः। अनुव्यवसायस्यापि घटज्ञानव्यवहारहेतुत्वं किं घटज्ञानज्ञानत्वेन किंवा घटज्ञानत्वेनैवेति विवेचनीयम्, उभयस्यापि तत्र सत्त्वात्। तत्र घटव्यवहारे घटज्ञानत्वेनैव हेतुतायाः क्लृप्तत्वात्तेनैव रूपेण घटज्ञानव्यवहारेऽपि हेतुतोपपत्तौ न घटज्ञानज्ञानत्वं हेतुतावच्छेदकं गौरवान्मानाभावाच्च। तथाच नानुव्यवसायसिद्धिरेकस्यैव व्यवसायस्य व्यवसातरि व्यवसेये व्यवसाये च व्यवहारजनकत्वोपपत्तेरिति त्रिपुटीप्रत्यक्षवादिनः प्राभाकराः। औपनिषदास्तु मन्यन्ते स्वप्रकाशज्ञानरूप एवात्मा न स्वप्रकाशज्ञानाश्रयः कर्तृकर्मविरोधेन तद्भानानुपपत्तेः ज्ञानभिन्नत्वे घटादिवज्जडत्वेन कल्पितत्वापत्तेश्च स्वप्रकाशज्ञानमात्रस्वरूपोऽप्यात्माऽविद्योपहितः सन्साक्षीत्युच्यते, वृत्तिमदन्तःकरणोपहितः प्रमातेत्युच्यते। तस्य चक्षुरादीनि करणानि स चक्षुरादिद्वारान्तःकरणपरिणामेन घटादीन्व्याप्य तदाकारो भवति। एकस्मिंश्चान्तःकरणपरिणामे घटावच्छिन्नचैतन्यं अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यं चैकलोलीभावापन्नं भवति। ततो घटावच्छिन्नचैतन्यं प्रमात्रभेदात्स्वाज्ञानं नाशयदपरोक्षं भवति घटंच स्वावच्छेदकं स्वतादात्म्याध्यासाद्भासयति अन्तःकरणपरिणामश्च वृत्त्याख्योऽतिस्वच्छः स्वावच्छिन्नेनैव चैतन्येन भास्यत इत्यन्तःकरणतद्वृत्तिघटानामपरोक्षता। तदेतदाकारत्रयमहं जानामि घटमिति भासकचैतन्यस्यैकरूपत्वेऽपि घंटप्रति वृत्त्यपेक्षत्वात्प्रमातृता अन्तःकरणतद्वृत्तीःप्रति तु वृत्त्यनपेक्षत्वात्साक्षितेति विवेकः। अद्वैतसिद्धौ सिद्धान्तबिन्दौ च विस्तरः। यस्मादेवं प्रागुक्तन्यायेन नित्यो विभुरसंसारी सर्वदैकरूपश्चात्मा तस्मात्तन्नाशशङ्क्या स्वधर्मे युद्धे प्राक्प्रवृत्तस्य तव तस्मादुपरतिर्न युक्तेति युद्धाभ्यनुज्ञया भगवानाह -- 'तस्माद्युध्यस्व भारतेति'। अर्जुनस्य स्वधर्मे युद्धे प्रवृत्तस्य तत उपरतिकारणं शोकमोहौ तौ च विचारजनितेन विज्ञानेन बाधिताविति'अपवादापवादे उत्सर्गस्य स्थितिः' इति न्यायेन युध्यस्वेत्यनुवादो न विधिः। यथा'कर्तृकर्मणोः कृति' इत्युत्सर्गः,'उभयप्राप्तौ कर्मणि' इत्यपवादः,'अकाकारयोः स्त्रीप्रत्यययोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम्' इति तदपवादः। तथाच मुमुक्षोर्ब्रह्मणो जिज्ञासेत्यत्रापवादापवादे पुनरुत्सर्गस्थितेः'कर्तृकर्मणोः कृति' इन्यनेनैव षष्ठी। तथाच'कर्मणिच' इति निषेधाप्रसराद्बह्मजिज्ञासेति कर्मषष्ठीसमासः सिद्धो भवति। कश्चित्त्वेतस्मादेव विधेर्मोक्षे ज्ञानकर्मणोः समुच्चय इति प्रलपति। तन्न। युध्यस्वेत्यतो मोक्षस्य ज्ञानकर्मसमुच्चयसाध्यत्वाप्रतीतेः। विस्तरेण चैतदग्रे भगवद्गीतावचनविरोधेनैव निराकरिष्यामः ।।2.18।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
भवतु देहस्यापि कस्यचिन्नित्यत्वमिति, नेत्याह -- 'अन्तवन्त इति'। अस्तु तर्हि दर्पणनाशात् प्रतिबिम्बनाशवदात्मनाश इत्यत आह -- 'नित्यस्य शरीरिण इति'। ईश्वरव्यावृत्तये। न च नैमित्तिकनाश इत्याह -- 'अनाशिन इति'। कुतः? अप्रमेयेश्वरसरूपत्वात्। नह्युपाधिबिम्बसन्निध्यनासे प्रतिबिम्बनाशः, सति च प्रदर्शके। स्वयमेवात्र प्रदर्शकः, चित्त्वात् नित्यश्चोपाधिः कश्चिदस्ति।'प्रतिपत्तौ विमोक्षस्य नित्योपाध्या स्वरूपया। चिद्रूपया युतो जीवः केशवप्रतिबिम्बकः' इति भगवद्वचनात् ।।2.18।।

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