शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-24


मूल स्लोकः

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।




English translation by Swami Sivananda
2.24 This Self cannot be cut, burnt, wetted, nor dried up. It is eternal, all-pervading, stable, immovable and ancient.


English commentary by Swami Sivananda
2.24 अच्छेद्यः cannot be cut, अयम् this (Self), अदाह्यः cannot be burnt, अयम् this, अक्लेद्यः cannot be wetted, अशोष्यः cannot be died, एव also, च and, नित्यः eternal, सर्वगतः all-pervading, स्थाणुः stable, अचलः immovable, अयम् this, सनातनः ancient.Commentary: The Self is very subtle. It is beyond the reach of speech and mind. It is very difficult to understand this subtle Self. So Lord Krishna explains the nature of the immortal Self in a variety of ways with various illustrations and examples, so that It can be grasped by the people.Sword cannot cut this Self. It is eternal. Because It is eternal, It is all-pervading. Because It is all-pervading, It is stable like a stature. Because It is stable, It is immovable. It is everlasting. Therefore, It is not produced out of any cause. It is not new. It is ancient.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है ।।2.24।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- शस्त्र आदि इस शरीरीमें विकार क्यों नहीं करते -- यह बात इस श्लोकमें कहते हैं।अच्छेद्योऽयम् -- शस्त्र इस शरीरीका छेदन नहीं कर सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि शस्त्रोंका अभाव है या शस्त्र चलानेवाला अयोग्य है, प्रत्युत छेदनरूपी क्रिया शरीरीमें प्रविष्ट ही नहीं हो सकती, यह छेदन होनेके योग्य ही नहीं है।शस्त्रके सिवाय मन्त्र, शाप आदिसे भी इस शरीरीका छेदन नहीं हो सकता। जैसे, याज्ञवल्क्यके प्रश्नका उत्तर न दे सकनेके कारण उनके शापसे शाकल्यका मस्तक कटकर गिर गया (बृहदारण्यक0)। इस प्रकार देह तो मन्त्रोंसे, वाणीसे कट सकता है, पर देही सर्वथा अछेद्य है।अदाह्योऽयम् -- यह शरीरी अदाह्य है; क्योंकि इसमें जलनेकी योग्यता ही नहीं है। अग्निके सिवाय मन्त्र, शाप आदिसे भी यह देही जल नहीं सकता। जैसे, दमयन्तीके शाप देनेसे व्याध बिना अग्निके जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार अग्नि, शाप आदिसे वही जल सकता है, जो जलने-योग्य होता है। इस देहीमें तो दहन-क्रियाका प्रवेश ही नहीं हो सकता। अक्लेद्यः -- यह देही गीला होनेयोग्य नहीं है अर्थात् इसमें गीला होनेकी योग्यता ही नहीं है। जलसे एवं मन्त्र, शाप, ओषधि आदिसे यह गीला नहीं हो सकता। जैसे, सुननेमें आता है कि ' मालकोश' रागके गाये जानेसे पत्थर भी गीला हो जाता है; चन्द्रमाको देखनेसे चन्द्रकान्तमणि गीली हो जाती है। परन्तु यह देही राग-रागिनी आदिसे गीली होनेवाली वस्तु नहीं है।अशोष्यः -- यह देही अशोष्य है। वायुसे इसका शोषण हो जाय, यह ऐसी वस्तु नहीं है; क्योंकि इसमें शोषण-क्रियाका प्रवेश ही नहीं होता। वायुसे तथा मन्त्र, शाप, ओषधि आदिसे यह देही सूख नहीं सकता। जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्रका शोषण कर गये, ऐसे इस देहीका कोई अपनी शक्तिसे शोषण नहीं कर सकता।एव च -- अर्जुन नाशकी सम्भावनाको लेकर शोक कर रहे थे। इसलिये शरीरीको अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान् एव च पदोंसे विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है। इसमें किसी भी क्रियाका प्रवेश नहीं होता। अतः यह शरीरी शोक करनेयोग्य है ही नहीं।नित्यः -- यह देही नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। यह किसी कालमें नहीं था और किसी कालमें नहीं रहेगा -- ऐसी बात नहीं है; किन्तु यह सब कालमें नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है।सर्वगतः -- यह देही सब कालमें ज्यों-का-त्यों ही रहता है, तो यह किसी देशमें रहता होगा? इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही सम्पूर्ण व्यक्ति, वस्तु, शरीर आदिमें एकरूपसे विराजमान है।अचलः -- यह सर्वगत है, तो यह कहीं आता-जाता भी होगा? इसपर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाववाला है अर्थात् इसमें कभी यहाँ और कभी वहाँ -- इस प्रकार आने-जानेकी क्रिया नहीं है।स्थाणुः -- यह स्थिर स्वभाववाला है, कहीं आता-जाता नहीं -- यह बात ठीक है, पर इसमें कम्पन तो होता होगा? जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है, कहीं भी आता-जाता नहीं, पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है, ऐसे ही इस देहीमें भी हिलनेकी क्रिया होती होगी? इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही स्थाणु है अर्थात् इसमें हिलनेकी क्रिया नहीं है।सनातनः -- यह देही अचल है, स्थाणु है -- यह बात तो ठीक है, पर यह कभी पैदा भी होता होगा? इसपर कहते हैं कि यह सनातन है, अनादि है, सदासे है। यह किसी समय नहीं था ऐसा सम्भव ही नहीं है।विशेष बातयह संसार अनित्य है, एक क्षण भी स्थिर रहनेवाला नहीं है। परन्तु जो सदा रहनेवाला है, जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उस देहीकी तरफ लक्ष्य करानेमें नित्यः पदका तात्पर्य है।देखने, सुनने, पढ़ने, समझनेमें जो कुछ प्राकृत संसार आता है, उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें सर्वगतः पदका तात्पर्य है।संसारमात्रमें जो कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि हैं, वे सब-के-सब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिमें जो अपने स्वरूपसे कभी चलायमान (विचलित) नहीं होता, उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें अचलः पदका तात्पर्य है।प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारमें प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है, परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तनशील संसारमें जो क्रियारहित, परिवर्तनरहित, स्थायी स्वभाववाला तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें स्थाणुः पदका तात्पर्य है।मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे। परन्तु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा -- उस तत्त्व-(देही-)की तरफ लक्ष्य करानेमें सनातनः पदका तात्पर्य है।उपर्युक्त पाँचों विशेषणोंका तात्पर्य है कि शरीर-संसारके साथ तादात्म्य होनेपर भी और शरीर-शरीरी-भावका अलग-अलग अनुभव न होनेपर भी शरीरी नित्य-निरन्तर एकरस, एकरूप रहता है ।।2.24।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- यस्मात् अन्योन्यनाशहेतुभूतानि एनमात्मानं नाशयितुं नोत्सहन्ते अस्यादीनि तस्मात् नित्यः। नित्यत्वात् सर्वगतः। सर्वगतत्वात् स्थाणुः इव, स्थिर इत्येतत्। स्थिरत्वात् अचलः अयम् आत्मा। अतः सनातनः चिरंतनः, न कारणात्कुतश्चित् निष्पन्नः, अभिनव इत्यर्थः।।नैतेषां श्लोकानां पौनरुक्त्यं चोदनीयम्, यतः एकेनैव श्लोकेन आत्मनः नित्यत्वमविक्रियत्वं चोक्तम् 'न जायते म्रियते वा' इत्यादिना। तत्र यदेव आत्मविषयं किञ्चिदुच्यते, तत् एतस्मात् श्लोकार्थात् न अतिरिच्यते; किञ्चिच्छब्दतः पुनरुक्तम्, किञ्चिदर्थतः इति। दुबोर्धत्वात् आत्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरूपयति भगवान् वासुदेवः कथं नु नाम संसारिणामसंसारित्वबुद्धिगोचरतामापन्नं सत् अव्यक्तं तत्त्वं संसारनिवृत्तये स्यात् इति।।किञ्च -- ।।2.24।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.24 Since this is so, therefore ayam, It; acchedyah, cannot be cut. Since the other elements which are the causes of destruction of one ano ther are not capable of destroying this Self, therefore It is nityah, eternal. Being eternal, It is sarva-gatah, omnipresent. Being omnipresent, It is sthanuh, stationary, i.e. fixed like a stump. Being fixed, ayam, this Self; is acalah, unmoving. Therefore It is sanatanah, changeless, i.e. It is not produced from any cause, as a new thing. It is not to be argued that 'these verses are repetive since eternality and changelessness of the Self have been stated in a single verse itself, "Never is this One born, and never does It die," etc. (20). Whatever has been said there (in verse 19) about the Self does not go beyond the meaning of this verse. Something is repeated with those very words, and something ideologically.' Since the object, viz the Self, is inscrutable, therefore Lord Vasudeva raises the topic again and again, and explains that very object in other words so that, somehow, the unmanifest Self may come within the comprehension of the intellect of the transmigrating persons and bring about a cessation of their cycles of births and deaths.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
ऐसा होनेके कारण -- ( यह आत्मा न कटनेवाला, न जलनेवाला, न गलनेवाला और न सूखनेवाला है )। आपसमें एक दूसरेका नाश कर देनेवाले पञ्चभूत इस आत्माका नाश करनेके लिये समर्थ नहीं है। इसलिये यह नित्य है। नित्य होनेसे सर्वगत है। सर्वव्यापी होनेसे स्थाणु है अर्थात् स्थाणु ( ठूँठ ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होनेसे यह आत्मा अचल है और इसीलिये सनातन है अर्थात् किसी कारणसे नया उत्पन्न नहीं हुआ है। पुराना है। इन श्लोकोंमें पुनरुक्तिके दोषका आरोप नहीं करना चाहिये, क्योकि 'न जायते म्रियते वा' इस एक श्लोकके द्वारा ही आत्माकी नित्यता और निर्विकारता तो कही गयी, फिर आत्माके विषयमें जो भी कुछ कहा जाय वह इस श्लोकके अर्थसे अतिरिक्त नहीं है। कोई शब्दसे पुनरुक्त है और कोई अर्थसे ( पुनरुक्त है )। परंतु आत्मतत्त्व बड़ा दुर्बोध है -- सहज ही समझमें आनेवाला नहीं है, इसलिये बारंबार प्रसंग उपस्थित करके दूसरे-दूसरे शब्दोंसे भगवान् वासुदेव उसी तत्त्वका निरूपण करते हैं, यह सोचकर कि किसी भी तरह वह अव्यक्त तत्त्व इन संसारी पुरुषोंके बुद्धिगोचर होकर संसारकी निवृत्तिका कारण हो ।।2.24।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
शस्त्राग्न्यम्बुवायवः छेदनदहनक्लेदनशोषणानि आत्मानं प्रति कर्तुं न शक्नुवन्ति। सर्वगतत्वाद् आत्मनः सर्वतत्त्वव्यापकस्वभावतया सर्वेभ्यः तत्त्वेभ्यः सूक्ष्मत्वात् अस्य तैः व्याप्त्यनर्हत्वाद् व्याप्यकर्तव्यत्वात् च छेदनदहनक्लेदनशोषणानाम्। अत आत्मा नित्यः स्थाणुः अचलः अयं सनातनः स्थिरस्वभावः अप्रकम्प्यः पुरातनः च ।।2.24।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.23 - 2.24 Weapons, fire, water and air are incapable of cleaving, burning, wetting and drying the self; for, the nature of the self is to pervade all elements; It is present everywhere; for, It is subtler than all the elements; It is not capable of being pervaded by them; and cleaving, burning, wetting and drying are actions which can take place only by pervading a substance. Therefore the self is eternal. It is stable, immovable and primeval. The meaning is that It is unchanging, unshakable and ancient.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
अच्छेद्य इत्यर्द्धेन निगमनम्। कार्यत्वव्यावृत्त्यर्थं नित्य इति। सर्वगत इति व्यापकत्वम्। ब्रह्मभावाभिप्रायेण जीवस्तु व्यापकः, न स्वरूपेण; किन्तु स्वचैतन्यगुणेन भगवद्धर्मभूतत्वात्; तदग्रे वक्ष्यते। स्थाणुरिति स्थिरत्वम्। अचल इति निष्क्रियत्वम्। नन्वेवं भूतमाकाशं प्रसिद्धं तदेव इति चेत्, न; इत्याह -- सनातन इति। "तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः" तै.उ.2।1 इति तत्सम्भवश्रवणादित्यर्थः ।।2.24।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
शस्त्रादीनां तन्नाशकत्वासामर्थ्ये तस्य तज्जनितनाशानर्हत्वे हेतुमाह -- यतोऽच्छेद्योऽयमतो नैनंच्छिन्दन्ति शस्त्राणि, अदाह्योऽयं यतोऽतो नैनं दहति पावकः, यतोऽक्लेद्योऽयमतो नैनं क्लेदयन्त्यापः, यतोऽशोष्योऽयमतो नैनं शोषयति मारुत इति क्रमेण योजनीयम्। एवकारः प्रत्येकं संबध्यमानोऽच्छेद्यत्वाद्यवधारणार्थः। चः समुच्चये हेतौ वा। छेदाद्यनर्हत्वे हेतुमाहोत्तरार्धेन। नित्योऽयं पूर्वोपरकोटिरहितोऽतोऽनुत्पाद्यः। असर्वगतत्वे ह्यनित्यत्वं स्यात्'यावद्विकारं तु विभागः' इति न्यायात्पराभ्युपगतपरमाण्वादीनामनभ्युपगमात्। अयं तु सर्वगतो विभुरतो नित्य एव। एतेन प्राप्यत्वं पराकृतम्। यदि चायं विकारी स्यात्तदा सर्वगतो न स्यात्, अयं तु स्थाणुरविकारी अतः सर्वगत एव। एतेन विकार्यत्वमपाकृतम्। यदि वायं चलः क्रियावान्स्यात्तदा विकारी स्याद्धटादिवत्, अयं त्वचलोऽतो न विकारी। एतेन संस्कार्यत्वं निराकृतम्। पूर्वावस्थापरित्यागेनावस्थान्तरापत्तिर्विक्रिया। अवस्थैक्येऽपि चलनमात्रं क्रियति विशेषः। यस्मादेव तस्मात् सनातनोऽयं सर्वदैकरूपः। न कस्या अपि क्रियायाः कर्मेत्यर्थः। उत्पत्त्याप्तिविकृतिसंस्कृत्यन्यतरक्रियाफलयोगे हि कर्मत्वं स्यात्। अयं तु नित्यत्वान्नोत्पाद्यः, अनित्यस्यैव घटादेरुत्पाद्यत्वात्। सर्वगतत्वान्न प्राप्यः, परिच्छिन्नस्यैव घटादेः प्राप्यत्वात्। स्थाणुत्वादविकार्यः, विक्रियावतो घृतादेरेव विकार्यत्वात्। अचलत्वादसंस्कार्यः, सक्रियस्यैव दर्पणादेः संस्कार्यत्वात्। तथाच श्रुतयः'आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यः','वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकः','निष्कलं निष्क्रियं शान्तम्' इत्यादयः।'यः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिव्या अन्तरो योऽप्सु तिष्ठन्नद्भ्योऽन्तरो यस्तेजसि तिष्ठंस्तेजसोऽन्तरो यो वायौ तिष्ठन्वायोरन्तरः' इत्याद्या च श्रुतिः सर्वगतस्य सर्वान्तर्यामितया तदविषयत्वं दर्शयति। यो हि शस्त्रादौ न तिष्ठति तं शस्त्रादयश्छिन्दन्ति, अयंतु शस्त्रादीनां सत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन तत्प्रेरकस्तदन्तर्यामी। अतः कथमेनं शस्त्रादीनि स्वव्यापारविषयीकुर्युरित्यभिप्रायः। अत्र'येन सूर्यस्तदपि तेजसेद्धः' इत्यादिश्रुतयोऽनुसन्धेयाः। सप्तमाध्याये च प्रकटीकरिष्यति श्रीभगवानिति दिक् ।।2.24।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
लोकप्रसिद्धमविरुद्धमत्राप्यङ्गीकार्यम्। अहल्याजारत्वाद्यपि दोषकृतोऽपि ते न बहुतरो लेप आसीदित्युत्कर्षमेव वक्ति। "बहुनरकफलो ह्यसौ"। "तस्य (मे तत्र) न लोम च (ना-) मीयते" कौ.उ.3।1 इति श्रुत्यन्तराच्च।'यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्' 15।19 इति तदुक्तेश्च।'सत्यं सत्यं पुनः सत्यं शपथैश्चापि कोटिभिः। विष्णुमाहात्म्यलेशस्य विभक्तस्य च कोटिधा। पुनश्चानन्तधा तस्य पुनश्चापि ह्यनन्तधा। नैकांशसममाहात्म्याः श्रीशेषब्रह्मशङ्कराः। इति नारदीये। अन्योत्कर्ष ऐक्यं च'तथैव सर्वशास्त्रेषु महाभारतमुत्तमम्। को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत्' वि.पु.3।4।5 इत्यादिग्रन्थान्तरसिद्धोत्कर्षमहाभारतविरुद्धम्। तत्र हि'नास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति। एतेन सत्यवाक्येन सर्वार्थान्साधयाम्यहम्''यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रश्च क्रोधसम्भवः। न त्वत्समोऽस्ति' इत्यादिषु साधारणप्रश्नावसर एव महान्तमुत्कर्षं विष्णोर्वक्ति। अन्यत्र यत्किञ्चिदुक्तावप्यसाधारण एवावसरे। तद्ध्यग्न्यादेरपि वेदादावस्ति। "त्वमग्न इन्द्रो ऋषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः" ऋक्सं.2।5।17।3 "विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः" ऋक्सं.8।4।1।1 इत्यादिषु तद्ग्रन्थविरोधाच्च।तथाहि स्कान्दे शैवे -- 'यदन्तरं व्याघ्रहरीन्द्रयोर्वने यदन्तरं मेरुगिरीन्द्रविन्ध्ययोः। यदन्तरं सूर्यसुरेड्यबिम्बयोस्तदन्तरं रुद्रमहेन्द्रयोरपि। यदन्तरं सिंहगजेन्द्रयोर्वने यदन्तरं सूर्यशशाङ्कयोर्दिवि। यदन्तरं जाह्नविसूर्यकन्ययोस्तदन्तरं ब्रह्मगिरीशयोरपि। यदन्तरं प्रलयजवारिविप्रुषोर्यदन्तरं स्तम्बहिरण्यगर्भयोः। स्फुलिङ्गसंवर्त्तकयोर्यदन्तरं तदन्तरं विष्णुहिरण्यगर्भयोः। अनन्तत्वात्महाविष्णोस्तदन्तरमनन्तकम्। माहात्म्यसूचनार्थाय ह्युदाहरणमीरितम्। तत्समो ह्यधिको वापि नास्ति कश्चित्कदाचन। एतेन सत्यवाक्येन तमेव प्रविशाम्यहम्' इत्याह। तत्रैव शिवं प्रति मार्कण्डेयवचनम् -- 'संसारार्णवनिर्मग्न इदानीं मुक्तिमेष्यसि' इत्यादि। पाद्मे शैवे मार्कण्डेयकथाप्रबन्धे शिवान्निषिध्य विष्णोरेव मुक्तिमाह -- 'अहं भोगप्रदो वत्स मोक्षदस्तु जनार्दनः' इत्यादि। समब्राह्मविरोधाच्च। वेदश्चेतिहासाद्यविरोधेन योज्यः,'यदि विद्यात्' इति वचनात्। अनिर्णयाच्चेन्द्रादिशङ्कयाऽन्यथा तत्रापीष्टसिद्धिः, नामवैशेष्यात्। अतो भगवदुत्कर्ष एव सर्वागमानां महातात्पर्यम्। तथापि स्वतः प्रामाण्यत्सन्नेवोच्यते, अविरोधात्।नच प्रमाणसिद्धस्य अन्यत्रादृष्ट्यापह्नवो युक्तः, धर्मवैचित्र्यादर्थानाम्। स्वतः प्रामाण्यानङ्गीकारे मानोक्तदावप्यदोषत्वं च साधयेदित्यतिप्रसङ्गः। अनन्यापेक्षया च तत्परत्वं सिद्धमागमानाम्।'नारायणपरा वेदाः' भाग.2।5।15 "सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति" कठो.1।2।15'वासुदेवपरा वेदाः' भाग.1।2।28 इति। न चैतद्विरुद्धम्, ईश्वरनियमात्। अनादौ च तत्सिद्धम्'द्रव्यं कर्म च कालश्च' भाग.2।10।12 इत्यादौ। प्रयोजकत्वं तु पूर्वोक्तन्यायेन। अतः सिद्धमेतत्। तच्चानन्यापेक्षाचिन्त्यशक्तित्वादेव युक्तम्। अतो न मायामयमेकम्। अचलत्वं त्वप्रहर्षमनानन्दमदुःखमसुखमप्रज्ञमसद्वेत्यादिवत्। क्रियादृष्टेः'तपो मे हृदयं साक्षात् ब्रह्मन् तनुर्विद्या क्रियाकृतिः' भाग.6।4।46 इत्याद्युक्तम्। अतश्च न मायामयं सर्वम्, ऐश्वर्यादिवाचिभगशब्देनैव सम्बोधनाच्च। "तं त्वा भग" ऋक्सं.5।4।8।5 इत्यादौ स्वरूपत्वान्न मायामयत्वं युक्तम्।'विज्ञानशक्तिरहमासमननन्तशक्तेः' भाग.3।9।24'मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे' भाग.6।4।48 "पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च" श्वे.उ.6।8 इत्यादिवचनात् ।।2.24।।

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