शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-08


मूल स्लोकः

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-

द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम्

राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।2.8।।




English translation by Swami Sivananda
2.8 I do not see that it would remove this sorrow that burns up my senses, even if I should attain prosperous and unrivalled dominion on earth or lordship over the gods.


English commentary by Swami Sivananda
2.8 न हि not, प्रपश्यामि I see, मम my, अपनुद्यात् would remove, यत् that, शोकम् grief, उच्छोषणम् drying up, इन्द्रियाणाम् of my senses, अवाप्य having obtained, भूमौ on the earth, असपत्नम् unrivalled, ऋद्धम् prosperous, राज्यम् dominion, सुराणाम् over the gods, अपि even, च and, आधिपत्यम् lordship.No commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
पृथ्वीपर धन-धान्य-समृद्ध और निष्कण्टक राज्य तथा स्वर्गमें देवताओंका आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय - ऐसा मैं नहीं देखता हूँ ।।2.8।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अर्जुन सोचते हैं कि भगवान् ऐसा समझते होंगे कि अर्जुन युद्ध करेगा तो उसकी विजय होगी, और विजय होनेपर उसको राज्य मिल जायगा, जिससे उसके चिन्ता-शोक मिट जायँगे और संतोष हो जायगा। परन्तु शोकके कारण मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि विजय होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय -- ऐसी बात मैं नहीं देखता।अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यम् -- अगर मेरेको धन-धान्यसे सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय अर्थात् जिस राज्यमें प्रजा खूब सुखी हो, प्रजाके पास खूब धन-धान्य हो, किसी चीजकी कमी न हो जाय तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता।सुराणामपि चाधिपत्यम् -- इस पृथ्वीके तुच्छ भोगोंवाले राज्यकी तो बात ही क्या, इन्द्रका दिव्य भोगोंवाला राज्य भी मिल जाय, तो भी मेरा शोक, जलन, चिन्ता दूर नहीं हो सकती।अर्जुनने पहले अध्यायमें यह बात कही थी कि मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुख ही चाहता हूँ; क्योंकि उस राज्यसे क्या होगा? उन भोगोंसे क्या होगा? और उस जीनेसे क्या होगा? जिनके लिये हम राज्य, भोग एवं सुख चाहते हैं, वे ही मरनेके लिये सामने खड़े हैं (1। 32-33)। यहाँ अर्जुन कहते हैं कि पृथ्वीका धन-धान्य-सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय तथा देवताओंका आधिपत्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता, मैं उनसे सुखी नहीं हो सकता। वहाँ (1। 32-33 में) तो कौटुम्बिक ममताकी वृत्ति ज्यादा होनेसे अर्जुनकी युद्धसे उपरति हुई है, पर यहाँ उनकी जो उपरति हो रही है, वह अपने कल्याणकी वृत्ति पैदा होनेसे हो रही है। अतः वहाँकी उपरति और यहाँकी उपरतिमें बहुत अन्तर है।न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् -- जब कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही मेरेको इतना शोक हो रहा है, तब उनके मरनेपर मेरेको कितना शोक होगा! अगर मेरेको राज्यके लिये ही शोक होता तो वह राज्यके मिलनेसे मिट जाता; परन्तु कुटुम्बके नाशकी आशंकासे होनेवाला शोक राज्यके मिलनेसे कैसे मिटेगा? शोकका मिटना तो दूर रहा, प्रत्युत शोक और बढ़ेगा; क्योंकि युद्धमें सब मारे जायँगे तो मिले हुए राज्यको कौन भोगेगा? वह किसके काम आयेगा? अतः पृथ्वीका राज्य और स्वर्गका आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता।सम्बन्ध -- प्राकृत पदार्थोंके प्राप्त होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय, यह मैं नहीं देखता हूँ -- ऐसा कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया? इसका वर्णन सञ्जय आगेके श्लोकमें करते हैं ।।2.8।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
2.8 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.8 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
No such translation is available. Translation starts from 2.10 ।।2.8।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एवं युद्धम् आरभ्य निवृत्तव्यापारान् भवतो धार्तराष्ट्राः प्रसह्य हन्युः इति चेत्, अस्तु, तद्वधलब्धविजयात् अधर्म्याद् अस्माकं धर्माधर्मौ अजानद्भिः तैः हननम् एव गरीयः इति मे प्रतिभाति इति उक्त्वा यत् मह्यं श्रेय इति निश्चितं तत् शरणागताय तव शिष्याय मे ब्रूहि इति अतिमात्रकृपणो भगवत्पादाम्बुजम् उपससार ।।2.8।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.6 - 2.8 If you say, 'After beginning the war, if we withdraw from the battle, the sons of Dhrtarastra will slay us all forcibly', be it so. I think that even to be killed by them, who do not know the difference between righteousness and unrighteousness, is better for us than gaining unrighteous victory by killing them. After saying so, Arjuna surrendered himself at the feet of the Lord, overcome with dejection, saying. 'Teach me, your disciple, who has taken refuge in you, what is good for me.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः ।।2.6 -- 2.8।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु स्वयमेव त्वं श्रेयो विचारय श्रुतसंपन्नोऽसि किं परशिष्यत्वेनेत्यत आह -- यच्छ्रेयः प्राप्तं सत् कर्तृ मम शोकमपनुद्यादपनुदेन्निवारयेत्तन्न पश्यामि। हि यस्मात्तस्मान्मां शाधीति'सोऽहं भगवः शोचामि तं मा भगवाष्शोकस्य पारं तारयतु' इति श्रुत्यर्थो दर्शितः। शोकानपनोदे को दोष इत्याशङ्क्य तद्विशेषणमाह -- 'इन्द्रियाणामुच्छोषणमिति'। सर्वदा संतापकरमित्यर्थः। ननु युद्धे प्रयतमानस्य तव शोकनिवृत्तिर्भविष्यति जेष्यसि चेत्तदा राज्यप्राप्त्या इतरथा च स्वर्गप्राप्त्या।'द्वावेतौ पुरुषौ लोके' इत्यादिधर्मशास्त्रादित्याशङ्क्याह -- 'अवाप्येत्यादिना'। शत्रुवर्जितं सस्यादिसंपन्नं च राज्यं, तथा सुराणामाधिपत्यं हिरण्यगर्भत्वपर्यन्तमैश्वर्यमवाप्य स्थितस्यापि मम यच्छोकमपनुद्यात्तन्न पश्यामीत्यन्वयः।'तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते' इति श्रुतेः।'यत्कृतकं तदनित्यम्' इत्यनुमानात्, प्रत्यक्षेणाप्यैहिकानां विनाशदर्शनाच्च। नैहिक आमुत्रिको वा भोगः शोकनिर्तकः किंतु स्वसत्ताकालेऽपि भोगपारतन्त्र्यादिना विनाशकालेऽपि विच्छेदाच्छोकजनक एवेति न युद्धं शोकनिवृत्तयेऽनुष्ठेयमित्यर्थः। एतेनेहामुत्रभोगविरागोऽधिकारिविशेषणत्वेन दर्शितः ।।2.8।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।2.8।।

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