शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-20


मूल स्लोकः

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।




English translation by Swami Sivananda
2.20 It is not born, nor does It ever die; after having been, It again ceases not to be; unborn, eternal, changeless and ancient, It is not killed when the body is killed.


English commentary by Swami Sivananda
2.20 न not, जायते is born, म्रियते dies, वा or, कदाचित् at any time, न not, अयम् this (Self), भूत्वा having been, भविता will be, वा or, न not, भूयः (any) more, अजः unborn, नित्यः eternal, शाश्वतः changeless, अयम् this, पुराणः ancient, न not, हन्यते is killed, हन्यमाने being killed, शरीरे in body.Commentary: This Self (Atman) is destitute of the six types of transformation or Bhava-Vikaras such as birth, existence, growth, transformation, decline and death. As It is indivisible (Akhanda). It does not diminish in size. It neither grows nor does It decline. It is ever the same. Birth and death are for the physical body only. Birth and death cannot touch the immortal, all-pervading Self.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है। यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ।।2.20।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- शरीरमें छः विकार होते हैं -- उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना (टिप्पणी प0 60.1)। यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित है -- यही बात भगवान् इस श्लोकमें बता रहे हैं (टिप्पणी प0 60.2)।न जायते म्रियते वा कदाचिन्न -- जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समयमें उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदासे ही है। भगवान्ने इस शरीरीको अपना अंश बताते हुए इसको ' सनातन ' कहा है ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः (15। 7)।यह शरीरी कभी मरता भी नहीं। मरता वही है, जो पैदा होता है; और म्रियते का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिण्ड-प्राणका वियोग होता है। पिण्ड-प्राणका वियोग शरीरमें होता है। परन्तु शरीरीमें संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसका मरना होता ही नहीं।सभी विकारोंमें जन्मना और मरना -- ये दो विकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान्ने इनका दो बार निषेध किया है -- जिसको पहले न जायते कहा, उसीको दुबारा अजः कहा है; और जिसको पहले न म्रियते कहा, उसीको दुबारा न हन्यते हन्यमाने शरीरे कहा है।अयं भूत्वा भविता वा न भूयः -- यह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होनेवाला नहीं है अर्थात् यह स्वतःसिद्ध निर्विकार है। जैसे, बच्चा पैदा होता है, तो पैदा होनेके बाद उसकी सत्ता होती है। जबतक वह गर्भमें नहीं आता, तबतक ' बच्चा है ' ऐसे उसकी सत्ता (होनापन) कोई भी नहीं कहता। तात्पर्य है कि बच्चेकी सत्ता पैदा होनेके बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ताका आदि और अन्त होता है। परन्तु इस नित्य-तत्त्वकी सत्ता स्वतःसिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि इस अविकारी सत्ताका आरम्भ और अन्त नहीं होता।अजः -- इस शरीरीका कभी जन्म नहीं होता। इसलिये यह अजः अर्थात् जन्मरहित कहा गया है।' नित्यः' -- यह शरीरी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है, अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तुमें होता है, जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है। जैसे, आधी उम्र बीतनेपर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियोंकी शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका तो अपक्षय होता है, पर शरीरीका अपक्षय नहीं होता। इस नित्य-तत्त्वमें कभी किञ्चन्मात्र भी कमी नहीं आती।शाश्वतः -- यह नित्य-तत्त्व निरन्तर एकरूप, एकरस रहनेवाला है। इसमें अवस्थाका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् यह कभी बदलता नहीं। इसमें बदलनेकी योग्यता है ही नहीं।पुराणः -- यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है, इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें ही होता है, इस नित्य-तत्त्वमें नहीं।न हन्यते हन्यमाने शरीरे -- शरीरका नाश होनेपर भी इस अविनाशी शरीरीका नाश नहीं होता। यहाँ शरीरे पद देनेका तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होनेवाला है। इस नष्ट होनेवाले शरीरमें ही छः विकार होते हैं, शरीरीमें नहीं।इन पदोंमें भगवान्ने शरीर और शरीरीका जैसा स्पष्ट वर्णन किया है, ऐसा स्पष्ट वर्णन गीतामें दूसरी जगह नहीं आया है।अर्जुन युद्धमें कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे विशेष शोक कर रहे थे। उस शोकको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि शरीरके मरनेपर भी इस शरीरीका मरना नहीं होता अर्थात् इसका अभाव नहीं होता। इसलिये शोक करना अनुचित है।सम्बन्ध -- उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया कि यह शरीरी न तो मारता है और न मरता ही है। इसमें मरनेका निषेध तो बीसवें श्लोकमें कर दिया, अब मारनेका निषेध करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं ।।2.20।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- न जायते न उत्पद्यते, जनिलक्षणा वस्तुविक्रिया न आत्मनो विद्यते इत्यर्थः। तथा न म्रियते वा। वाशब्दः चार्थे। न म्रियते च इति अन्त्या विनाशलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते। कदाचिच्छब्दः सर्वविक्रियाप्रतिषेधैः संबध्यते -- न कदाचित् जायते, न कदाचित् म्रियते, इत्येवम्। यस्मात् अयम् आत्मा भूत्वा भवनक्रियामनुभूय पश्चात् अभविता अभावं गन्ता न भूयः पुनः, तस्मात् न म्रियते। यो हि भूत्वा न भविता स म्रियत इत्युच्यते लोके। वाशब्दात् न शब्दाच्च अयमात्मा अभूत्वा वा भविता देहवत् न भूयः। तस्मात् न जायते। यो हि अभूत्वा भविता स जायत इत्युच्यते। नैवमात्मा। अतो न जायते। यस्मादेवं तस्मात् अजः, यस्मात् न म्रियते तस्मात् नित्यश्च। यद्यपि आद्यन्तयोर्विक्रिययोः प्रतिषेधे सर्वा विक्रियाः प्रतिषिद्धा भवन्ति, तथापि मध्यभाविनीनां विक्रियाणां स्वशब्दैरेव प्रतिषेधः कर्तव्यः अनुक्तानामपि यौवनादिसमस्तविक्रियाणां प्रतिषेधो यथा स्यात् इत्याह -- शाश्वत इत्यादिना। शाश्वत इति अपक्षयलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते। शश्वद्भवः शाश्वतः। न अपक्षीयते स्वरूपेण, निरवयवत्वात्। नापि गुणक्षयेण अपक्षयः, निर्गुणत्वात्। अपक्षयविपरीतापि वृद्धिलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते -- पुराण इति। यो हि अवयवागमेन उपचीयते स वर्धते अभिनव इति च उच्यते। अयं तु आत्मा निरवयवत्वात् पुरापि नव एवेति पुराणः; न वर्धते इत्यर्थः। तथा न हन्यते। हन्तिः अत्र विपरिणामार्थे द्रष्टव्यः अपुनरुक्ततायै। न विपरिणम्यते इत्यर्थः।हन्यमाने विपरिणम्यमानेऽपि शरीरे। अस्मिन् मन्त्रे षड् भावविकारा लौकिकवस्तुविक्रिया आत्मनि प्रतिषिध्यन्ते। सर्वप्रकारविक्रियारहित आत्मा इति वाक्यार्थः। यस्मादेवं तस्मात् 'उभौ तौ न विजानीतः ' इति पूर्वेण मन्त्रेण अस्य संबन्धः।।'य एनं वेत्ति हन्तारम्' इत्यनेन मन्त्रेण हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति इति प्रतिज्ञाय, 'न जायते' इत्यनेन अविक्रियत्वं हेतुमुक्त्वा प्रतिज्ञातार्थमुपसंहरति -- ।।2.20।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.20 Na kadacit, neverl; is ayam, this One; jayate, born i.e. the Self has no change in the form of being born -- to which matter is subject --; va, and (-- va is used in the sense of and); na mriyate, It never dies. By this is denied the final change in the form of destruction. The word (na) kadacit), never, is connected with the denial of all kinds of changes thus -- never, is It born never does It die, and so on. Since ayam, this Self; bhutva, having come to exist, having experienced the process of origination; na, will not; bhuyah, again; abhavita, cease to be thereafter, therefore It does not die. For, in common parlance, that which ceases to exist after coming into being is said to die. From the use of the word va, nor, and na, it is understood that, unlike the body, this Self does not again come into existence after having been non-existent. Therefore It is not born. For, the words, 'It is born', are used with regard to something which comes into existence after having been non-existent. The Self is not like this. Therfore It is not born.Since this is so, therefore It is ajah, birthless; and since It does not die, therefore It is nityah, eternal. Although all changes become negated by the denial of the first and the last kinds of changes, still changes occuring in the middle For the six kinds of changes see note under verse 2.10.-Tr. should be denied with their own respective terms by which they are implied. Therefore the text says sasvatah, undecaying,. so that all the changes, viz youth etc., which have not been mentioned may become negated. The change in the form of decay is denied by the word sasvata, that which lasts for ever. In Its own nature It does not decay because It is free from parts. And again, since it is without qualities, there is no degeneration owing to the decay of any quality. Change in the form of growth, which is opposed to decay, is also denied by the word puranah, ancient. A thing that grows by the addition of some parts is said to increase and is also said to be new. But this Self was fresh even in the past due to Its partlessness. Thus It is puranah, i.e. It does not grow. So also, na hanyate, It is puranah, i.e. It does not grow. So also, na hanyate, It is not killed, It does not get transformed; even when sarire, the body; hanyamane, is killed, transformed. The verb 'to kill' has to be understood here in the sense of transformation, so that a tautology This verse has already mentioned 'death' in the first line. If the verb han, to kill, is also taken in the sense of killing, then a tautology is unavoidable.-Tr. may be avoided.In this mantra the six kinds of transformations, the material changes seen in the world, are denied in the Self. The meaning of the sentence is that the Self is devoid of all kinds of changes. Since this is so, therefore 'both of them do not know' -- this is how the present mantra is connected to the earlier mantra.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
आत्मा निर्विकार कैसे है? इसपर दूसरा मन्त्र ( इस प्रकार है ) -- यह आत्मा उत्पन्न नहीं होता अर्थात् उत्पत्तिरूप वस्तुविकार आत्मामें नहीं होता और यह मरता भी नहीं। 'वा' शब्द यहाँ 'च' के अर्थमें है। 'मरता भी नहीं' इस कथनसे विनाशरूप अन्तिम विकारका प्रतिषेध किया जाता है। 'कदाचित्' शब्द सभी विकारोंके प्रतिषेधके साथ सम्बन्ध रखता है। जैसे यह आत्मा न कभी जन्मता है न कभी मरता है इत्यादि। जिससे कि यह आत्मा उत्पन्न होकर अर्थात् उत्पत्तिरूप विकारका अनुभव करके फिर अभावको प्राप्त होनेवाला नहीं है इसलिये मरता नहीं, क्योंकि जो उत्पन्न होकर फिर नहीं रहता वह 'मरता है' इस प्रकार लोकमें कहा जाता है। 'वा' शब्दसे और 'न' शब्दसे यह भी पाया जाता है कि यह आत्मा शरीरकी भाँति पहले न होकर फिर होनेवाला नहीं है इसलिये यह जन्मता नहीं; क्योंकि जो न होकर फिर होता है वहीं 'जन्मता है' यह कहा जाता है। आत्मा ऐसा नहीं है, इसलिये नहीं जन्मता। ऐसा होनेके कारण आत्मा अज है और मरता नहीं, इसलिये नित्य है। यद्यपि आदि और अन्तके दो विकारोंके प्रतिषेधसे ( बीचके ) सभी विकारोंका प्रतिषेध हो जाता है, तो भी बीचमें होनेवाले विकारोंका भी उन-उन विकारोंके प्रतिषेधार्थक खास-खास शब्दोंद्वारा प्रतिषेध करना उचित है। इसलिये ऊपर न कहे हुए जो यौवनादि सब विकार हैं उनका भी जिस प्रकार प्रतिषेध हो, ऐसे भावको 'शाश्वत' इत्यादि शब्दोंसे कहते हैं -- सदा रहनेवालेका नाम शाश्वत है, 'शाश्वत' शब्दसे अपक्षय ( क्षय होना ) रूप विकारका प्रतिषेध किया जाता है क्योंकि आत्मा अवयवरहित है, इस कारण स्वरूपसे उसका क्षय नहीं होता और निर्गुण होनेके कारण गुणोंके क्षयसे भी उसका क्षय नहीं होता। 'पुराण ' इस शब्दसे, अपक्षयके विपरीत जो वृद्धिरूप विकार है उसका भी प्रतिषेध किया जाता है। जो पदार्थ किसी अवयवकी उत्पत्तिसे पुष्ट होता है। वह 'बढ़ता है' 'नया हुआ है' ऐसे कहा जाता है, परंतु यह आत्मा तो अवयवरहित होनेके कारण पहले भी नया था, अतः 'पुराण' है अर्थात् बढ़ता नहीं। तथा शरीरका नाश होनेपर यानी विपरीत परिणामको प्राप्त हो जानेपर भी आत्मा नष्ट नहीं होता अर्थात् दुर्बलतादि अवस्थाको प्राप्त नहीं होता। यहाँ हन्ति क्रियाका अर्थ पुनरुक्तिदोषसे बचनेके लिये विपरीत परिणाम समझना चाहिये, इसलिये यह अर्थ हुआ कि आत्मा अपने स्वरूपसे बदलता नहीं। इस मन्त्रमें लौकिक वस्तुओंमें होनेवाले छः भावविकारोंका आत्मामें अभाव दिखलाया जाता है। आत्मा सब प्रकारके विकारोंसे रहित है, यह इस मन्त्रका वाक्यार्थ है। ऐसा होनेके कारण वे दोनों ही ( आत्मस्वरूपको ) नहीं जानते। इस प्रकार पूर्व मन्त्रसे इसका सम्बन्ध है ।।2.20।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
उक्तैः एव हेतुभिः नित्यत्वाद् अपरिणामित्वाद् आत्मनो जन्ममरणादयः सर्व एव अचेतनदेहधर्मा न सन्ति, इति उच्यते।तत्र न जायते म्रियत इति वर्तमानतया सर्वेषु देहेषु सर्वैः अनुभूयमाने जन्ममरणे कदाचिद् अपि आत्मानं न स्पृशतः। नायं भूत्वा भवति वा न भूयः अयं कल्पादौ भूत्वा भूयः कल्पान्ते च न भविता इति न। केषुचित् प्रजापतिप्रभृतिदेहेषु आगमेन उपलभ्यमानं कल्पादौ जननं कल्पान्ते च मरणम् आत्मानं न स्पृशति इत्यर्थः।अतः सर्व देहगत आत्मा अजः अत एव नित्यः शाश्वतः प्रकृतिवदविशदसततपरिणामैः अपि न अन्वीयते। अतः पुराणः पुरातनः अपि नवः, सर्वदा अपूर्ववद् अनुभाव्य इत्यर्थः। अतः शरीरे हन्यमाने अपि न हन्यते अयम् आत्मा ।।2.20।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.20 As the self is eternal for the reasons mentioned (above), and hence free from modifications, it is said that all the attributes of the insentient (body) like birth, death etc., never touch the self. In this connection, as the statement, 'It is never born, It never dies' is in the present tense, it should be understood that the birth and death which are experienced by all in all bodies, do not touch the self. The statement 'Having come into being once, It never ceases to be' means that this self, having emerged at the beginning of a Kalpa (one aeon of manifestation) will not cease to be at the end of the Kalpa (i.e., will emerge again at the beginning of the next Kalpa unless It is liberated). This is the meaning --- that birth at the beginning of a Kalpa in bodies such as those of Brahman and others, and death at the end of a Kalpa as stated in the scriptures, do not touch the self. Hence, the selves in all bodies, are unborn, and therefore eternal. It is abiding, not connected, like matter, with invisible modifications taking place. It is primeval; the meaning is that It existed from time immemorial; It is even new i.e., It is capable of being experienced always as fresh. Therefore, when the body is slain the self is not slain.


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
उक्तेऽर्थे प्रमाणभूताः काटकश्रुतयो दर्शयन्ति।'न जायते' इत्यादिनोत्पत्त्यस्तित्वनाशरूपा विकारा अन्ये चात्मनिषिद्धाः। अज इत्यादिना निगमनम् ।।2.20।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
कस्मादयमात्मा हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति अविक्रियत्वादित्याह द्वितीयेन मन्त्रेण -- 'जायतेऽस्ति वर्धते विपरिणमतेऽपक्षीयते विनश्यति' इति षड्भावविकारा इति वार्ष्यायणिरिति नैरुक्ताः। तत्राद्यन्तयोर्निषेधः। क्रियते न जायते म्रियते वेति। वाशब्दः समुच्चयार्थः। न जायते न म्रियते चेत्यर्थः। कस्मादयमात्मा नोत्पद्यते यस्मादयमात्मा कदाचित्कस्मिन्नपि काले न भूत्वा अभूत्वा प्राक् भूयः पुनरपि भविता न। यो ह्यभूत्वा भवति स उत्पत्तिलक्षणां विक्रियामनुभवति। अयं तु प्रागपि सत्त्वाद्यतो नोत्पद्यतेऽतोऽजः। तथायमात्मा भूत्वा प्राक् कदाचित् भूयः पुनः न भविता। न वा शब्दाद्वाक्यविपरिवृत्तिः। यो हि प्राग्भूत्वोत्तरकाले न भवति स मृतिलक्षणां विक्रियामनुभवति, अयं तूत्तरकालेऽपि सत्त्वाद्यतो न म्रियतेऽतो नित्यः। विनाशायोग्य इत्यर्थः। अत्र न भूत्वेत्यत्र समासाभावेऽपि नानुपपत्तिर्नानुयाजेष्वितिवत्। भगवता पणिनिना महाविभाषाधिकारे नञ्समासपाठात्। यत्तु कात्यायनेनोक्तं'समासनित्यताभिप्रायेण वा वचनानर्थक्यं तु स्वभावसिद्धत्वात्' इति, तत् भगवत्पाणिनिवचनविरोधादनादेयम्। तदुक्तमाचार्यशबरस्वामिना'असद्वादी हि कात्यायनः' इति। अत्र न जायते म्रियते वेति प्रतिज्ञा, कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय इति तदुपपादनं, अजो नित्य इति तदुपसंहार, इति विभागः। आद्यन्तयोर्विकारयोर्निषेधेन मध्यवर्तिविकाराणां तद्व्याप्यानां निषेधे जातेऽपि गमनादिविकाराणामनुक्तानामप्युपलक्षणयापक्षयश्च वृद्धिश्च स्वशब्देनैव निराक्रियते। तत्र कूटस्थनित्यत्वादात्मनो निर्गुणत्वाच्च न स्वरूपतो गुणतो वापक्षयः संभवतीत्युक्तं शाश्वत इति। शश्वत्सर्वदा भवति नापक्षीयते नापचीयत इत्यर्थः। यदि नापक्षीयते तर्हि वर्धतामिति नेत्याह -- 'पुराण इति'। पुरापि नव एकरूपो नत्वधुना नूतनां कांचिदवस्थामनुभवति। यो हि नूतनां कांचिदुपचयावस्थामनुभवति स वर्धत इत्युच्यते लोके। अयं तु सर्वदैकरूपत्वान्नापचीयते नोपचीयते चेत्यर्थः। अस्तित्वविपरिणामौ तु जन्मविनाशान्तर्भूतत्वात्पृथङ्निषिद्धौ। यस्मादेवं सर्वविकारशून्य आत्मा तस्माच्छरीरे हन्यमाने तत्संबद्धोऽपि केनाप्युपायेन न हन्यते न हन्तुं शक्यत इत्युपसंहारः ।।2.20।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
अत्र मन्त्रवर्णोऽप्यस्तीत्याह -- 'न जायत इति'। नचेश्वरज्ञानवद्भूत्वा भविता। तद्धि "तदैक्षत" छां.उ.6।2।3'देशतः कालतो योऽसाववस्थातः स्वतोऽन्यतः। अविलुप्तावबोधात्मा' इत्यादिश्रुतिस्मृतिसिद्धम्। कुतः? अजादिलक्षणेश्वरसरूपत्वात्। शाश्वतः सदेकरूपः। पुरं देहमणतीति पुराणः। तथापि न हन्यते हन्यमानेऽपि देहे ।।2.20।।

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