शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-34


मूल स्लोकः

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।

संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।2.34।।




English translation by Swami Sivananda
2.34 People, too, will recount thy everlasting dishonour; and to one who has been honoured, dishonour is worse than death.


English commentary by Swami Sivananda
2.34 अकीर्तिम् dishonour, च and, अपि also, भूतानि beings, कथयिष्यन्ति will tell, ते thy, अव्ययाम् everlasting, संभावितस्य of the honoured, च and, अकीर्तिः dishonour, मरणात् than death, अतिरिच्यते exceeds.Commentary: The world also will ever recount thy infamy which will survive thee for a long time. Death is really preferable to disgrace to one who has been honoured as a great hero and mighty warrior with noble qualities.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
सब प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्तिका कथन करेंगे। वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दुःखदायी होती है ।।2.34।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् -- मनुष्य देवता, यक्ष, राक्षस आदि जिन प्राणियोंका तेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिनकी तेरे साथ न मित्रता है और न शत्रुता, ऐसे साधारण प्राणी भी तेरी अपकीर्ति, अपयशका कथन करेंगे कि देखो! अर्जुन कैसा भीरू था जो कि अपने क्षात्र-धर्मसे विमुख हो गया। वह कितना शूरवीर था, पर युद्धके मौकेपर उसकी कायरता प्रकट हो गयी, जिसका कि दूसरोंको पता ही नहीं था; आदि-आदि।ते कहनेका भाव है कि स्वर्ग, मृत्यु और पाताललोकमें भी जिसकी धाक जमी हुई है, ऐसे तेरी अपकीर्ति होगी। अव्ययाम् कहनेका तात्पर्य है कि जो आदमी श्रेष्ठताको लेकर जितना अधिक प्रसिद्ध होता है, उसकी कीर्ति और अपकीर्ति भी उतनी ही अधिक स्थायी रहनेवाली होती है।सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते -- इस श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने साधारण प्राणियोंद्वारा अर्जुनकी निन्दा किये जानेकी बात बतायी। अब श्लोकके उत्तार्धमें सबके लिये लागू होनेवाली सामान्य बात बताते हैं।संसारकी दृष्टिमें जो श्रेष्ठ माना जाता है, जिसको लोग बड़ी ऊँची दृष्टिसे देखते हैं, ऐसे मनुष्यकी जब अपकीर्ति होती है, तब वह अपकीर्ति उसके लिये मरणसे भी अधिक भयंकर दुःखदायी होती है। कारण कि मरनेमें तो आयु समाप्त हुई है, उसने कोई अपराध तो किया नहीं है, परन्तु अपकीर्ति होनेमें तो वह खुद धर्म-मर्यादासे, कर्तव्यसे च्युत हुआ है। तात्पर्य है कि लोगोंमें श्रेष्ठ माना जानेवाला मनुष्य अगर अपने कर्तव्यसे च्युत होता है, तो उसका बड़ा भयंकर अपयश होता है ।।2.34।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- अकीर्तिं चापि युद्धे भूतानि कथयिष्यन्ति ते तव अव्ययां दीर्घकालाम्। धर्मात्मा शूर इत्येवमादिभिः गुणैः संभावितस्य च अकीर्तिः मरणात् अतिरिच्यते, संभावितस्य च अकीर्तेः वरं मरणमित्यर्थः।।किञ्च -- ।।2.34।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.34 Not only will there be the giving up of your duty and fame, but bhutani, people; ca api, also; kathayisyanti, will speak; te, of your; avyayam, unending, perpetual; akrtim, infamy. Ca, and; sambhavitasya, to an honoured person, to a person honoured with such epithets as 'virtuous', 'heroic', etc.; akirtih, infamy; atiricyate, is worse than; maranat, death. The meaning is that, to an honoured person death is perferable to infamy.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
केवल स्वधर्म और कीर्तिका त्याग होगा, इतना ही नहीं -- सब लोग तेरी बहुत दिनोंतक स्थायी रहनेवाली अपकीर्ति ( निन्दा ) भी किया करेंगे। धर्मात्मा शूरवीर इत्यादि गुणोंसे प्रतिष्ठा पाये हुए पुरुषके लिये अपकीर्ति, मरणसे भी अधिक होती है। अभिप्राय यह है कि संभावित ( इज्जतदार ) पुरुषके लिये अपकीर्तिकी अपेक्षा मरना अच्छा है ।।2.34।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
न केवलं निरतिशयसुखकीर्तिहानिमात्रं पार्थो युद्धे प्रारब्धे पलायित इति अव्ययां सर्व देशकालव्यापिनीम् अकीर्तिं च समर्थानि असमर्थानि सर्वाणि भूतानि कथयिष्यन्ति ततः किमिति चेत्, शौर्यवीर्यपराक्रमादिभिः सर्वसंभावितस्य तद्विपर्ययजा हि अकीर्तिः मरणाद् अतिरिच्यते। एवंविधाया अकीर्तेः मरणम् एव तव श्रेयः इत्यर्थः।बन्धुस्नेहात् कारुण्याच्च युद्धात् निवृत्तस्य शूरस्य मम अकीर्तिः कथम् आगामिष्यति इति अत्राह -- ।।2.34।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.34 You will then incur not merely the loss of all happiness and honour but will be the object of disrespect by all people, the qualifies and even the unqualified, for all time. They will ridicule you saying, 'When the battle began, Arjuna ran away.' It it be asked, 'What if it be so?", the reply is: 'To one who is honoured by all for courage, prowess, valour, etc., this kind of dishonour arising from the reverse of these attributes, is worse than death? The meaning is that itself would be better for you than this kind of dishonour.If it is said, 'How could dishonour accrue to me, who am a hero, but have withdrawn from the battle only out of love and compassion for my relatives?' the reply is as follows:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
किञ्च अकीर्तिमिति। भूतानि प्राणिजातानि। विजयीति सम्भावितस्य ।।2.34।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
एवं कीर्तिधर्मयोरिष्टयोरप्राप्तिरनिष्टष्य च पापस्य प्राप्तिर्युद्धपरित्यागे दर्शिता। तत्र पापाख्यमनिष्टं व्यवधानेन दुःखफलमामुत्रिकत्वात्, शिष्टगर्हालक्षणं त्वनिष्टमासन्नफलदमत्यसह्यमित्याह -- भूतानि देवर्षिमनुष्यादीनि ते तवाव्ययां दीर्घकालमकीर्तिं न धर्मात्मायं न शूरोऽयमित्येवंरूपां कथयिष्यन्त्यन्योन्यं कथाप्रसङगे। कीर्तिधर्मनाशसमुच्चयार्थौ निपातौ। न केवलं कीर्तिधर्मौ हित्वा पापं प्राप्स्यसि अपितु अकीर्तिं च प्राप्स्यसि। न केवलं त्वमेव तां प्राप्स्यसि, अपितु भूतान्यपि कथयिष्यन्तीति वा निपातयोरर्थः। ननु युद्धे स्वमरणसंदेहात्तत्परिहारार्थमकीर्तिरपि सोढव्या आत्मरक्षणस्यात्यन्तापेक्षितत्वात्। तथाचोक्तं शान्तिपर्वणि -- 'साम्ना दानेन भेदेन समस्तैरुत वा पृथक्। विजेतुं प्रयतेतारीन्न युध्येत कदाचन।।अनित्यो विजयो यस्माद्दृश्यते युध्यमानयोः। पराजयश्च संग्रामे तस्माद्युद्धं विवर्जयेत्।।त्रयाणामप्युपायानां पूर्वोक्तानामसंभवे। तथा युध्येत संपत्तौ विजयेत रिपून्यथा।।' इति। एवमेव मनुनाप्युक्तम्। तथाच मरणभीतस्य किमकीर्तिर्दुःखमिति शङ्कामपनुदति -- संभावितस्य धर्मात्मा शूर इत्येवमादिभिरनन्यलभ्यैर्गुणैर्बहुमतस्य जनस्याकीर्तिर्मरणादप्यतिरिच्यतेऽधिका भवति। चो हेतौ। एंव यस्मादतोऽकीर्तेर्मरणमेव वरं न्यूनत्वात्। त्वमप्यतिसंभावितोऽसि महादेवादिसमागमेन। अतो नाकीर्तिदुःखं सोढुं शक्ष्यसीत्यभिप्रायः। उदाहृतवचनं त्वर्थशास्त्रत्वात्'न निवर्तेत संग्रामात्' इत्यादिधर्मशास्त्राद्दुर्बलमिति भावः ।।2.34।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. ।।2.34।।

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