गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

BhagvatGita-01-14


मूल स्लोकः

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।1.14।।




English translation by Swami Sivananda
1.14. Then, also, Madhava (Krishna) and the son of Pandu (Arjuna),seated in the magnificent chariot, yoked with white horses, blew divineconches.


English commentary by Swami Sivananda
1.14 ततः then, श्वेतैः (with) white, हयैः horses, युक्ते yoked, महति magnificent, स्यन्दने in the chariot, स्थितौ seated, माधवः Madhava, पाण्डवः Pandava, the son of Pandu, च and, एव also, दिव्यौ divine, शङ्खौ conches, प्रदध्मतुः blew.No Commentary.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
उसके बाद सफेद घोड़ोंसे युक्त महान् रथपर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनने दिव्य शंखोंको बड़े जोरसे बजाया ।।1.14।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते -- चित्ररथ गन्धर्वने अर्जुनको सौ दिव्य घोड़े दिये थे। इन घोड़ोंमें यह विशेषता थी कि इनमेंसे युद्धमें कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ, पर ये संख्यामें सौ-के-सौ ही बने रहते थे, कम नहीं होते थे। ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानोंमें जा सकते थे। इन्हीं सौ घोड़ोंमेंसे सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुनके रथमें जुते हुए थे।महति स्यन्दने स्थितौ -- यज्ञोंमें आहुतिरूपसे दिये गये घीको खाते-खाते अग्निको अजीर्ण हो गया था। इसीलिये अग्निदेव खाण्डववनकी विलक्षण-विलक्षण जड़ी-बूटियाँ खाकर (जलाकर) अपना अजीर्ण दूर करना चाहते थे। परन्तु देवताओंके द्वारा खाण्डववनकी रक्षा की जानेके कारण अग्निदेव अपने कार्यमें सफल नहीं हो पाते थे। वे जब-जब खाण्डववनको जलाते, तब-तब इन्द्र वर्षा करके उसको (अग्निको) बुझा देते। अन्तमें अर्जुनकी सहायतासे अग्निने उस पूरे वनको जलाकर अपना अजीर्ण दूर किया और प्रसन्न होकर अर्जुनको यह बहुत बड़ा रथ दिया। नौ बैलगाड़ियोंमें जितने अस्त्र-शस्त्र आ सकते हैं, उतने अस्त्र-शस्त्र इस रथमें पड़े रहते थे। यह सोनेसे मढ़ा हुआ और तेजोमय था। इसके पहिये बड़े ही दृढ़ एवं विशाल थे। इसकी ध्वजा बिजलीके समान चमकती थी। यह ध्वजा एक योजन (चारकोस) तक फहराया करती थी। इतनी लम्बी होनेपर भी इसमें न तो बोझ था, न यह कहीं रुकती थी और न कहीं वृक्ष आदिमें अटकती ही थी। इस ध्वजापर हनुमान्जी विराजमान थे।स्थितौ कहनेका तात्पर्य है कि उस सुन्दर और तेजोमय रथपर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुनके विराजमान होनेसे उस रथकी शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ गया था।माधवः पाण्डवश्चैव -- ' मा ' नाम लक्ष्मीका है और ' धव' नाम पतिका है। अतः ' माधव ' नाम लक्ष्मीपतिका है। यहाँ ' पाण्डव ' नाम अर्जुनका है; क्योंकिं अर्जुन सभी पाण्डवोंमें मुख्य हैं -- पाण्डवानां धनञ्जयः (गीता 10। 37)।अर्जुन ' नर'के और श्रीकृष्ण ' नारायण'के अवतार थे। महाभारतके प्रत्येक पर्वके आरम्भमें नर (अर्जुन) और नारायण (भगवान श्रीकृष्ण) को नमस्कार किया गया है -- नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। इस दृष्टिसे पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन -- ये दोनों मुख्य थे। सञ्जयने भी गीताके अन्तमें कहा है कि ' जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन रहेंगे, वहीँपर श्री, विजय, विभूति और अटल नीति रहेगी ' (18। 78)।दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः -- भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके हाथोंमें जो शंख थे, वे तेजोमय और अलौकिक थे। उन शंखोंको उन्होंने बड़े जोरसे बजाया।यहाँ शङ्का हो सकती है कि कौरवपक्षमें मुख्य सेनापति पितामह भीष्म हैं, इसलिये उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है; परन्तु पाण्डव-सेनामें मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्नके रहते हुए ही सारथी बने हुए भगवान् श्रीकृष्णने सबसे पहले शंख क्यों बजाया? इसका समाधान है कि भगवान् सारथि बनें चाहे महारथी बनें, उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती। वे जिस किसी भी पदपर रहें, सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं। कारण कि वे अच्युत हैं, कभी च्युत होते ही नहीं। पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण ही मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे। जब वे बाल्यावस्थामें थे, उस समय भी नन्द, उपनन्द आदि उनकी बात मानते थे। तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्णके कहनेसे परम्परासे चली आयी इन्द्र-पूजाको छोड़कर गोवर्धनकी पूजा करनी शुरू कर दी। तात्पर्य है कि भगवान् जिस किसी अवस्थामें, जिस किसी स्थानपर और जहाँ कहीँ भी रहते हैं, वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं। इसलिये भगवान्ने पाण्डव-सेनामें सबसे पहले शंख बजाया।जो स्वयं छोटा होता है, वही ऊँचे स्थानपर नियुक्त होनेसे बड़ा माना जाता है। अतः जो ऊँचे स्थानके कारण अपनेको बड़ा मानता है, वह स्वयं वास्तवमें छोटा ही होता है। परंतु जो स्वयं बड़ा होता है, वह जहाँ भी रहता है, उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है। जैसे भगवान् यहाँ सारथि बने हैं, तो उनके कारण वह सारथिका स्थान (पद) भी ऊँचा हो गया।सम्बन्ध -- अब सञ्जय आगेके चार श्लोकोंमें पूर्वश्लोकका खुलासा करते हुए दूसरोंके शंखवादनका वर्णन करते हैं ।।1.14।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
1.14 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
1.14 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. ।।1.14।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
धृतराष्ट्र उवाच -- सञ्जय उवाच -- दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत् ।।1.14।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said --- Sanjaya said -- Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adequacy of Bhima's forces for conquering the Kaurava forces and the inadequacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within.Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to conquer the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory.Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior --- by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
ततस्तद्धोषं निशम्य भगवान् पार्थसारथिरर्जुनश्च त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते मध्ये रणे महति रथे स्थितौ विश्वं कम्पयन्तौ स्वशङ्खौ प्रदध्मतुः ।।1.14।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
अन्येषमापि रथस्थत्वे स्थितएवासाधारण्येन रथोत्कर्षकथनार्थं ततः श्वेतैर्हयैर्युक्त इत्यादिना रथस्थत्वकथनम्। तेनाग्निदत्ते दुष्प्रधृष्ये रथे स्थितौ। सर्वथा जेतुमशक्यावित्यर्थः। पाञ्चजन्यो देवदत्तः पौण्ड्रोऽनन्तविजयः सुधोषो मणिपुष्पकश्चेति शङ्खनामकथनम्, परसैन्ये स्वस्वनामभिः प्रसिद्धा एतावन्तः शङ्खाः भवत्सैन्ये तु नैकोऽपि स्वनामप्रसिद्धः शङ्खोऽस्तीति परेषामुत्कर्षातिशयकथनार्थम्। सर्वेन्द्रियप्रेरकत्वेन सर्वान्तर्यामी सहायः पाण्डवानामिति कथयितुं हृषिकेशपदम्। दिग्विजये सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति सर्वथैवायमजेय इति कथयितुं धनंजयपदम्। भीष्मं हिडिम्बवधादिरूपं कर्म यस्य तादृशः वृकोदरत्वेन बह्वन्नपाकादतिबलिष्ठो भीमसेन इति कथितम्। कुन्तीपुत्र इति कुन्त्या महता तपसा धर्ममाराध्य लब्धः, स्वयं च राजसूययाजित्वेन मुख्यो राजा, युधि चायमेव जयभागित्वेन स्थिरो नत्वेतद्विपक्षाः स्थिरा भविष्यन्तीति युधिष्ठिरपदेन सूचितम्। नकुलः सुघोषं सहदेवो मणिपुष्पकं दध्मावित्यनुषज्यते। परमेष्वासः काश्यो महाधनुर्धरः काशिराजः। न पराजितः पारिजातहरणबाणयुद्धादिमहासंग्रामेषु एतादृशः सात्यकिः। हे पृथिवीपते धृतराष्ट्र, स्थिरो भूत्वा शृण्वित्यभिप्रायः। सुगममन्यत् ।।1.14।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11. ।।1.14।।

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