शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-39


मूल स्लोकः

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुध्दिर्योगे त्विमां श्रृणु।

बुद्ध्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।2.39।।




English translation by Swami Sivananda
2.39 This, which has been taught to thee, is wisdon concerning Sankhya. Now listen to wisdom concerning Yoga, endowed with which, O Arjuna, thou shalt cast off the bonds of action.


English commentary by Swami Sivananda
2.39 एषा this, ते to thee, अभिहिता (is) declared, सांख्ये in Sankhya, बुद्धिः wisdom, योगे in the Yoga, तु indeed, इमाम् this, श्रृणु hear, बुद्ध्या with wisdom, युक्तः endowed with, यया which, पार्थ O Partha, कर्मबन्धम् bondage of Karma, प्रहास्यसि (thou) shalt cast off.Commentary: Lord Krishna taught Jnana (knowledge) to Arjuna till now. (Sankhya Yoga is the path of Vedanta or Jnana Yoga, which treats of the nature of the Atman or the Self and the methods to attain Self-realisation. It is not the Sankhya philosophy of sage Kapila.) He is now giving to teach Arjuna the technique or secret of Karma Yoga endowed with which he (or anybody else) can break through the bonds of Karma. The Karma Yogi should perform work without expectation of fruits of his actions, without the idea of agency (or the notin "I do this"), without attachment, after annihilating or going beyond all the pairs of opposites such as heat and cold, gain and loss, victoyr and defeat, etc. Dharma and Adharma, or merit and demerit will not touch that Karma Yogi who works without attachment and egoism. The Karma Yogi consecrates all his works and their fruits as offerings unto the Lord (Isvararpanam) and thus obtains the grace of the Lord (Isvaraprasada).



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे पार्थ! यह समबुद्धि पहले सांख्ययोगमें कही गयी, अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन; जिस समबुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनका त्याग कर देगा ।।2.39।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु -- यहाँ तु पद प्रकरण-सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये आया है अर्थात् पहले सांख्यका प्रकरण कह दिया, अब योगका प्रकरण कहते हैं।यहाँ एषा पद पूर्वश्लोकमें वर्णित समबुद्धिके लिये आया है। इस समबुद्धिका वर्णन पहले सांख्ययोगमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) अच्छी तरह किया गया है। देह-देहीका ठीक-ठीक विवेक होनेपर समतामें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। कारण कि देहमें राग रहनेसे ही विषमता आती है। इस प्रकार सांख्ययोगमें तो समबुद्धिका वर्णन हो चुका है। अब इसी समबुद्धिको तू कर्मयोगके विषयमें सुन।इमाम् कहनेका तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोगमें कैसे प्राप्त होती है? इसका स्वरूप क्या है? इसकी महिमा क्या है? इन बातोंके लिये भगवान्ने इस बुद्धिको योगके विषयमें सुननेके लिये कहा है।बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि -- अर्जुनके मनमें युद्ध करनेसे पाप लगनेकी सम्भावना थी (1। 36 45)। परन्तु भगवान्के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि (राग-द्वेष) होनेसे ही पाप लगता है। समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं। जैसे संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते। ऐसे ही तू समबुद्धिसे युक्त रहेगा, तो तेरेको भी ये कर्म बन्धनकारक नहीं होंगे।इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुनने अपने कल्याणकी बात पूछी थी। इसलिये भगवान् कल्याणके मुख्य-मुख्य साधनोंका वर्णन करते हैं। पहले भगवान्ने सांख्ययोगका साधन बताकर कर्तव्य-कर्म करनेपर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रियके लिये धर्मरूप युद्धसे बढ़कर श्रेयका अन्य कोई साधन नहीं है (2। 31)। फिर कहा कि समबुद्धिसे युद्ध किया जाय तो पाप नहीं लगता (2। 38)। अब उसी समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहते हैं।कर्मयोगी लोक-संग्रहके लिये सब कर्म करता है -- लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि (गीता 3। 20)। लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेसे अर्थात् निःस्वार्थभावसे लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करनेसे समताकी प्राप्ति सुगमतासे हो जाती है। समताकी प्राप्ति होनेसे कर्मयोगी कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक छूट जाता है।यह (उन्तालीसवाँ) श्लोक तीसवें श्लोकके बाद ही ठीक बैठता है; और यह वहीं आना चाहिये था। कारण यह है कि इस श्लोकमें दो निष्ठाओंका वर्णन है। पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक सांख्ययोगसे निष्ठा (समता) बतायी और अब कर्मयोगसे निष्ठा (समता) बताते हैं। अतः यहाँ इकतीससे अड़तीसतकके आठ श्लोकोंको देना असंगत मालूम देता है। फिर भी इन आठ श्लोकोंको यहाँ देनेका कारण यह है कि कर्मयोगमें समता कहनेसे पहले कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है? अर्जुनके लिये युद्ध करना कर्तव्य है और युद्ध न करना अकर्तव्य है -- इस विषयका वर्णन होना आवश्यक है। अतः भगवान्ने कर्तव्य-अकर्तव्यका वर्णन करनेके लिये ही उपर्युक्त आठ श्लोक (2। 31-38) कहे हैं और फिर समताकी बात कही है। तात्पर्य है कि पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक सत्-असत्के वर्णनसे समता बतायी कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। इनमें कोई कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। फिर इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक कर्तव्य-अकर्तव्यकी बात कहकर उन्तालीसवें श्लोकसे अकर्तव्यका त्याग और कर्तव्यका पालन करते हुए कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें समताका वर्णन करते हैं ।।2.39।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- एषा ते तुभ्यम् अभिहिता उक्ता सांख्ये परमार्थवस्तुविवेकविषये बुद्धिः ज्ञानं साक्षात् शोकमोहादिसंसारहेतुदोषनिवृत्तिकारणम्। योगे तु तत्प्राप्त्युपाये निःसङ्गतया द्वन्द्वप्रहाणपूर्वकम् ईश्वराराधनार्थे कर्मयोगे कर्मानुष्ठाने समाधियोगे च इमाम् अनन्तरमेवोच्यमानां बुद्धिं शृणु। तां च बुद्धिं स्तौति प्ररोचनार्थम् -- बुद्धया यया योगविषयया युक्तः हे पार्थ, कर्मबन्धं कर्मैव धर्माधर्माख्यो बन्धः कर्मबन्धः तं प्रहास्यसि ईश्वरप्रसादनिमित्तज्ञानप्राप्त्यैव इत्यभिप्रायः।।किञ्च अन्यत् -- ।।2.39।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.39 Partha, O son of Prtha (Arjuna); esa, this; buddhih, wisdom, the Knowledge which directly removes the defect (viz ignorance) that is responsible for sorrow, delusion, etc. Mundane existence consists of attraction and repulsion, agentship and enjoyership, etc. These are the defects, and they arise from ignorance about one's Self. Enlightenment is the independent and sole cause that removes this ignorance. constituting mundane existence; abhihita, has been imparted; te, to you; sankhye, from the standpoint of Self-realization, with regard to the discriminating knowledge of the supreme Reality. Tu, but; srnu, listen; imam, to this wisdom which will be imparted presently; yoge, from the spandpoint of Yoga, from the standpoint of the means of attaining it (Knowledge) -- i.e., in the context of Karma-yoga, the performance of rites and duties with detachment after destroying the pairs of opposites, for the sake of adoring God, as also in the context of the practice of spiritual absorption.As as inducement, He (the Lord) praises that wisdom: Yuktah, endowed; yaya, with which; buddhya, wisdom concerning Yoga; O Partha, prahasyasi, you will get rid of; karma-bandham, the bondage of action -- action is itself the bondage described as righteousness and unrighteousness; you will get rid of that bondage by the attainment of Knowledge through God's grace. This is the idea.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
क्योंकि यहाँ शास्त्रके विषयका विभाग दिखलाया जानेसे यह होगा कि आगे चलकर 'ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्' इत्यादि जो दो निष्ठाओंको बतानेवाला शास्त्र है वह सुखपूर्वक समझाया जा सकेगा और श्रोतागण भी विषयविभागपूर्वक अनायास ही उसे ग्रहण कर सकेंगे। इसलिये कहते हैं -- मैंने तुझसे सांख्य अर्थात् परमार्थ वस्तुकी पहिचानके विषयमें यह बुद्धि यानी ज्ञान कह सुनाया। यह ज्ञान, संसारके हेतु जो शोक, मोह आदि दोष हैं, उनकी निवृत्तिका साक्षात् कारण है। इसकी प्राप्तिके उपायरूप योगके विषयमें अर्थात् आसक्तिरहित होकर सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंके त्यागपूर्वक ईश्वराराधनके लिये कर्म किये जानेवाले कर्मयोगके विषयमें और समाधियोगके विषयमें इस बुद्धिको जो कि अभी आगे कही जाती है, सुन -- रुचि बढ़ानेके लिये उस बुद्धिकी स्तुति करते हैं -- हे अर्जुन ! जिस योगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ तू धर्माधर्म नामक कर्मरूप बन्धनको ईश्वरकृपासे होनेवाली ज्ञान-प्राप्तिद्वारा नाश कर डालेगा-यह अभिप्राय है ।।2.39।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
संख्या बुद्धिः, बुद्ध्यावधारणीयम् आत्मतत्त्वं सांख्यम्। ज्ञातव्ये आत्मतत्त्वे तज्ज्ञानाय या बुद्धिः अभिधेया न त्वेवाहम्' (गीता 2।12) इत्यारभ्य'तस्मात् सर्वाणि भूतानि' (गीता 2।30) इत्यन्तेन, सा एषा अभिहिता।आत्मज्ञानपूर्वकमोक्षसाधनभूतकर्मानुष्ठाने यो बुद्धियोगो वक्तव्यः, स इह योगशब्देन उच्यते'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात्' (गीता 2।49) इति हि वक्ष्यते। तत्र योगे या बुद्धिः वक्तव्या ताम् इमाम् अभिधीयमानां श्रृणु यया बुद्ध्या युक्तः कर्मबन्धं प्रहास्यसि। कर्मणा बन्धः, संसारबन्ध इत्यर्थः।वक्ष्यमाणबुद्धियुक्तस्य कर्मणो माहात्म्यम् आह -- ।।2.39।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.39 'Sankhya' means 'intellect,' and the truth about the Atman, which is determinable by the intellect, is 'Sankhyam'. Concerning the nature of the self which has to be known, whatever Buddhi has to be taught, has been taught to you in the passage beginning with, 'It is not that I did not exist' (II.12) and ending with the words, 'Therefore, you shall not grieve for any being' (II.30). The disposition of mind (Buddhi) which is required for the performance of works preceded by knowledge of the self and which thus constitutes the means of attaining release, that is here called by the term Yoga. It will be clearly told later on, 'Work done with desire for fruits is far inferior to work done with evennes of mind' (II. 49). What Buddhi or attitude of mind is required for making your act deserve the name of Yoga, listen to it now. Endowed with that knowledge, you will be able to cast away the bondage of Karma. 'Karma-bandha' means the bondage due to Karma i.e., the bondage of Samsara.Now Sri Krsna explains the glory of works associated with the Buddhi to be described hereafter:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एवमशोकार्थमुपदिष्टेऽपि साङ्ख्येऽतन्मात्ररुचिं पार्थमालक्ष्य आत्मयोगोपदेशेन मनस्समाधानाय तं प्रस्तौति -- एषा ते इति। साङ्ख्यमात्मानात्मतत्त्वसङ्ख्यानं तत्राभिधेये'न त्वेवाहं' 2।12 इत्यारभ्य'तस्मात्सर्वाणि भूतानि' 2।30 इत्यन्तमुपादेयतयोक्त्वा मध्ये स्वधर्मकरणमुपपाद्य पुनरप्यन्ते'सुखदुःखे समे कृत्वा' 2।38 इत्यादिना योगवत्साङ्ख्यशास्त्रबुद्धिर्मयोक्ता। योगे तु मनोनिरोधरूपे साम्यस्थितिप्रयोजनके ईश्वरालम्बने याऽभिधेया बुद्धिस्तामिमां स्वधर्माचरणाभिमतां शृणु। तुर्भेदार्थकः। यया बुद्ध्या युक्तस्त्वं क्रियमाणकर्मसुबन्धमुभयात्मकं पुण्यपापात्मकं प्रहास्यसि ।।2.39।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु भवतु स्वधर्मबुद्ध्या युध्यमानस्य पापाभावस्तथापि न मांप्रति युद्धकर्तव्यतोपदेशस्तवोचितः'य एनं वेत्ति हन्तारं' इत्यादिना'कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्' इत्यनेन विदुषः सर्वकर्मप्रतिक्षेपात्। नह्यकर्त्रभोक्तृशुद्धस्वरूपोऽहमस्मि युद्धं कृत्वा तत्फलं भोक्ष्य इति च ज्ञानं संभवति विरोधात्, ज्ञानकर्मणोः समुच्चयासंभवात्प्रकाशतमसोरिव। अयं चार्जुनाभिप्रायो'ज्यायसी चेत्' इत्यत्र व्यक्तो भविष्यति। तस्मादेकमेव मांप्रति ज्ञानस्य कर्मणश्चोपदेशो नोपपद्यते इति चेन्न, विद्वदविद्वदवस्थाभेदेन ज्ञानकर्मोपदेशोपपत्तेरित्याह भगवान् -- एषा'नत्वेवाहम्' इत्याद्येकविंशतिश्लोकैः ते तुभ्यमभिहिता। सांख्ये सम्यक्ख्यायते सर्वोपाधिशून्यतया प्रतिपाद्यते परमात्मतत्त्वमनयेति संख्योपनिषत्तयैव तात्पर्यपरिसमाप्त्या प्रतिपाद्यते यः स सांख्यः। औपनिषदः पुरुष इत्यर्थः। तस्मिन्बुद्धिस्तन्मात्रविषयं ज्ञानं सर्वानर्थनिवृत्तिकारणं त्वांप्रति मयोक्तम्। नैतादृशज्ञानवतः क्वचिदपि कर्मोच्यते'तस्य कार्यं न विद्यते' इति वक्ष्यमाणत्वात्। यदि पुनरेवं मयोक्तेऽपि तवैषा बुद्धिर्नोदेति चित्तदोषात्तदा तदपनयेनात्मतत्त्वसाक्षात्काराय कर्मयोग एव त्वयानुष्ठेयः। तस्मिन्योगे कर्मयोगे तु करणीयामिमां'सुखदुःखे समे कृत्वा' इत्यत्रोक्तां फलाभिसन्धित्यागलक्षणां बुद्धिं विस्तरेण मया वक्ष्यमाणां शृणु। तुशब्दः पूर्वबुद्धेर्योगविषयत्वव्यतिरेकसूचनार्थः। तथाच शुद्धान्तःकरणंप्रति ज्ञानोपदेशोऽशुद्धान्तःकरणंप्रति कर्मोपदेश इति कुतः समुच्चयशङ्कया विरोधावकाश इत्यभिप्रायः। योगविषयां बुद्धिं फलकथनेन स्तौति। यया व्यवसायात्मिकया बुद्ध्या कर्मसु युक्तस्त्वं कर्मनिमित्तं बन्धमाशयाशुद्धिलक्षणं ज्ञानप्रतिबन्धं प्रकर्षेण पुनः प्रतिबन्धानुत्पत्तिरूपेण हास्यसि त्यक्ष्यसि। अयं भावः -- कर्मनिमित्तो ज्ञानप्रतिबन्धः कर्मणैव धर्माख्येनापनेतुं शक्यते।'धर्मेण पापमपनुदति' इति श्रुतेः। श्रवणादिलक्षणो विचारस्तु कर्मात्मकप्रतिबन्धरहितस्यासंभावनादिप्रतिबन्धं दृष्टद्वारेणापनयतीति न कर्मबन्धनिराकरणायोपदेष्टुं शक्यते। अतोऽत्यन्तमलिनान्तःकरणत्वाद्बहिरङ्गसाधनं कर्मैव त्वयानुष्ठेयं, नाधुना श्रवणादियोग्यतापि तव जाता दूरे तु ज्ञानयोग्यतेति। तथाच वक्ष्यति'कर्मण्येवाधिकारस्ते' इति। एतेन सांख्यबुद्धेरन्तरङ्गसाधनं श्रवणादि विहाय बहिरङ्गसाधनं कर्मैव भगवता किमित्यर्जुनायोपदिश्यत इति निरस्तम्। कर्मबन्धं संसारमीश्वरप्रसादनिमित्तज्ञानप्राप्त्या प्रहास्यसीति प्राचां व्याख्याने त्वध्याहारदोषः कर्मपदवैयर्थ्यं च परिहर्तव्यम् ।।2.39।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
साङ्ख्यं ज्ञानम्।'शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं साङ्ख्यमित्यभिधीयते' इति भगवद्वचनाद्व्यासस्मृतौ। योग उपायः'दृष्टा योगाः प्रयुक्ताश्च पुंसां श्रेयःप्रसिद्धये' इति प्रयोगादभागवते। नेतरौ साङ्ख्ययोगौ उपादेयत्वेन विवक्षितौ कुत्रचित्सामस्त्येन, कर्मयोग इत्यादिप्रयोगाच्च। निन्दितत्वाच्चेतरयोर्मोक्षधर्मेषु भिन्नमतत्वमुक्त्वा पञ्चरात्रस्तुत्या वेदानां त्वेकार्यत्वान्न विरोधः। पार्थक्यं तु साङ्ख्याद्यपेक्षया युक्तम्। तत्रैव चित्रशिखण्डिशास्त्रे पञ्चरात्रमूले वेदैक्योक्तेश्च एवमेव सर्वत्र साङ्ख्ययोगशब्द उपादेयवाचको वर्णनीयः। युक्तेश्च ज्ञानं पूर्वं जैवमुक्तम्। उपायश्च वक्ष्यते। बुध्यतेऽनयेति बुद्धिः। साङ्ख्यविषयो यया वाचा बुध्यते सा वागभिहितेत्यर्थः ।।2.39।।

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