शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

BhagvatGita-02-13


मूल स्लोकः

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13।।




English translation by Swami Sivananda
2.13 Just as in this body the embodied (soul) passes into childhood, youth and old age, so also does it pass into another body; the firm man does not grieve thereat.


English commentary by Swami Sivananda
2.13 देहिनः of the embodied (soul), अस्मिन् in this, यथा as, देहे in body, कौमारम् childhood, यौवनम् youth, जरा old age, तथा so also, देहान्तरप्राप्तिः the attaining of another body, धीरः the firm, तत्र thereat, न not, मुह्यति grieves.Commentary -- Just as there is no interruption in the passing of childhood into youth and youth into old age in this body, so also there is no interruption by death in the continuity of the ego. The Self is not dead at the termination of the stage, viz., childhood. It is certainly not born again at the beginning of the second stage, viz., youth. Just as the Self passes unchanged from childhood to youth and from yourth to old age, so also the Self passes unchanged from one body into another. Therefore, the wise man is not at all distressed about it.



Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तरकी प्राप्ति होती है। उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता ।।2.13।।


Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- देहिनोऽस्मिन्यथा देहे (टिप्पणी प0 50) कौमारं यौवनं जरा -- शरीरधारीके इस शरीरमें पहले बाल्यावस्था आती है, फिर युवावस्था आती है और फिर वृद्धावस्था आती है। तात्पर्य है कि शरीरमें कभी एक अवस्था नहीं रहती, उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।यहाँ ' शरीरधारीके इस शरीरमें ' ऐसा कहनेसे सिद्ध होता है शरीरी अलग है और शरीर अलग है। शरीरी द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। अतः शरीरमें बालकपन आदि अवस्थाओंका जो परिवर्तन है, वह परिवर्तन शरीरीमें नहीं है।तथा देहान्तरप्राप्तिः -- जैसे शरीरकी कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही देहान्तरकी अर्थात् दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है। जैसे स्थूलशरीर बालकसे जवान एवं जवानसे बूढ़ा हो जाता है, तो इन अवस्थाओंके परिवर्तनको लेकर कोई शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरी एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाता है, तो इस विषयमें भी शोक नहीं होना चाहिये। जैसे स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरके रहते-रहते देहान्तरकी प्राप्ति होती है अर्थात् जैसे बालकपन, जवानी आदि स्थूल-शरीरकी अवस्थाएँ हैं, ऐसे देहान्तरकी प्राप्ति (मृत्युके बाद दूसरा शरीर धारण करना) सूक्ष्म और कारण-शरीरकी अवस्था है।स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार आदि अवस्थाओंका परिवर्तन होता है -- यह तो स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो अवस्थाओंकी तरह स्थूलशरीरमें भी परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्थामें जो शरीर था, वह युवावस्थामें नहीं है। वास्तवमें ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिस क्षणमें स्थूलशरीरका परिवर्तन न होता हो। ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरमें भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, जो देहान्तररूपसे स्पष्ट देखनेमें आता है (टिप्पणी प0 51.1)।अब विचार यह करना है कि स्थूलशरीरका तो हमें ज्ञान होता है, पर सूक्ष्म और कारण-शरीरका हमें ज्ञान नहीं होता। अतः जब सूक्ष्म और कारण-शरीरका ज्ञान भी नहीं होता, तो उनके परिवर्तनका ज्ञान हमें कैसे हो सकता है? इसका उत्तर है कि जैसे स्थूलशरीरका ज्ञान उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरका ज्ञान भी उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है। स्थूलशरीरकी ' जाग्रत् ' सूक्ष्मशरीरकी ' स्वप्न ' और कारण-शरीरकी ' सुषुप्ति ' अवस्था मानी जाती है। मनुष्य अपनी बाल्यावस्थामें अपनेको स्वप्नमें बालक देखता है, युवावस्थामें स्वप्नमें युवा देखता है और वृद्धावस्थामें स्वप्नमें वृद्ध देखता है। इससे सिद्ध हो गया कि स्थूलशरीरके साथ-साथ सूक्ष्मशरीरका भी परिवर्तन होता है। ऐसे ही सुषुप्ति-अवस्था बाल्यावस्थामें ज्यादा होती है, युवावस्थामें कम होती है और वृद्धावस्थामें वह बहुत कम हो जाती है; अतः इससे कारणशरीरका परिवर्तन भी सिद्ध हो गया। दूसरी बात, बाल्यावस्था और युवावस्थामें नींद लेनेपर शरीर और इन्द्रियोंमें जैसी ताजगी आती है, वैसी ताजगी वृद्धावस्थामें नींद लेनेपर नहीं आती अर्थात् वृद्धावस्थामें बाल्य और युवा-अवस्था-जैसा विश्राम नहीं मिलता। इस रीतिसे भी कारण-शरीरका परिवर्तन सिद्ध होता है।जिसको दूसरा -- देवता, पशु, पक्षी आदिका शरीर मिलता है, उसको उस शरीरमें (देहाध्यासके कारण) ' मैं यही हूँ ' -- ऐसा अनुभव होता है, तो यह सूक्ष्मशरीरका परिवर्तन हो गया। ऐसे ही कारण-शरीरमें स्वभाव (प्रकृति) रहता है, जिसको स्थूल दृष्टिसे आदत कहते हैं। वह आदत देवताकी और होती है तथा पशु-पक्षी आदिकी और होती है, तो यह कारण-शरीरका परिवर्तन हो गया।अगर शरीरी-(देही-) का परिवर्तन होता, तो अवस्थाओंके बदलनेपर भी ' मैं वही हूँ' (टिप्पणी प0 51.2) -- ऐसा ज्ञान नहीं होता। परन्तु अवस्थाओंके बदलनेपर भी ' जो पहले बालक था, जवान था, वही मैं अब हूँ ' -- ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीरीमें अर्थात् स्वयंमें परिवर्तन नहीं हुआ है।यहाँ एक शंका हो सकती है कि स्थूलशरीरकी अवस्थाओंके बदलनेपर तो उनका ज्ञान होता है, पर शरीरान्तरकी प्राप्ति होनेपर पहलेके शरीरका ज्ञान क्यों नहीं होता? पूर्वशरीरका ज्ञान न होनेमें कारण यह है कि मृत्यु और जन्मके समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है। उस कष्टके कारण बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति नहीं रहती। जैसे लकवा मार जानेपर, अधिक वृद्धावस्था होनेपर बुद्धिमें पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता, ऐसे ही मृत्युकालमें तथा जन्मकालमें बहुत बड़ा धक्का लगनेपर पूर्वजन्मका ज्ञान नहीं रहता। (टिप्पणी प0 51.3) परन्तु जिसकी मृत्युमें ऐसा कष्ट नहीं होता अर्थात् शरीरकी अवस्थान्तरकी प्राप्तकी तरह अनायास ही देहान्तरकी प्राप्ति हो जाती है, उसकी बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति रह सकती है (टिप्पणी प0 51.4)।अब विचार करें कि जैसा ज्ञान अवस्थान्तरकी प्राप्तिमें होता है, वैसा ज्ञान देहान्तरकी प्राप्तिमें नहीं होता; परन्तु ' मैं हूँ ' इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान तो सबको रहता है। जैसे, सुषुप्ति-(गाढ़-निद्रा-) में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, पर जगनेपर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरेको कुछ पता नहीं रहा, तो ' कुछ पता नहीं रहा ' -- इसका ज्ञान तो है ही। सोनेसे पहले मैं जो था, वही मैं जगनेके बाद हूँ, तो सुषुप्तिके समय भी मैं वही था -- इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान अखण्डरूपसे निरन्तर रहता है। अपनी सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता। शरीरधारीकी सत्ताका सद्भाव अखण्डरूपसे रहता है, तभी तो मुक्ति होती है और मुक्त-अवस्थामें वह रहता है। हाँ, जीवन्मुक्तअवस्थामें उसको शरीरान्तरोंका ज्ञान भले ही न हो, पर मैं तीनों शरीरोंसे अलग हूँ -- ऐसा अनुभव तो होता ही है।धीरस्तत्र न मुह्यति -- धीर वही है, जिसको सत्-असत्का बोध हो गया है। ऐसा धीर मनुष्य उस विषयमें कभी मोहित नहीं होता, उसको कभी सन्देह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति होती है। ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका सङ्ग है, और गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती।यहाँ तत्र पदका अर्थ ' देहान्तर-प्राप्तिके विषयमें ' नहीं है, प्रत्युत ' देह-देहीके विषयमें ' है। तात्पर्य है कि देह क्या है? देही क्या है? परिवर्तनशील क्या है? अपरिवर्तनशील क्या है? अनित्य क्या है? नित्य क्या है? असत् क्या है? सत् क्या है? विकारी क्या है? विकारी क्या है? -- इस विषयमें वह मोहित नहीं होता। देह और देही सर्वथा अलग हैं -- इस विषयमें उसको कभी मोह नहीं होता। उसको अपनी असङ्गताका अखण्ड ज्ञान रहता है।सम्बन्ध -- अनित्य वस्तु -- शरीर आदिको लेकर जो शोक होता है, उसकी निवृत्तिके लिये कहते हैं -- ।।2.13।।


Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya
-- देहः अस्य अस्तीति देही, तस्य देहिनो देहवतः आत्मनः अस्मिन् वर्तमाने देहे यथा येन प्रकारेण कौमारं कुमारभावो बाल्यावस्था, यौवनं यूनो भावो मध्यमावस्था, जरा वयोहानिः जीर्णावस्था, इत्येताः तिस्रः अवस्थाः अन्योन्यविलक्षणाः। तासां प्रथमावस्थानाशे न नाशः, द्वितीयावस्थोपजने न उपजन नम् आत्मनः। किं तर्हि? अविक्रियस्यैव द्वितीयतृतीयावस्थाप्राप्तिः आत्मनो दृष्टा। तथा तद्वदेव देहात् अन्यो देहो देहान्तरम्, तस्य प्राप्तिः देहान्तरप्राप्तिः अविक्रियस्यैव आत्मनः इत्यर्थः। धीरो धीमान्, तत्र एवं सति न मुह्यति न मोहमापद्यते।।यद्यपि आत्मविनाशनिमित्तो मोहो न संभवति नित्य आत्मा इति विजानतः, तथापि शीतोष्णसुखदुःखप्राप्तिनिमित्तो मोहो लौकिको दृश्यते, सुखवियोगनिमित्तो मोहः दुःखसंयोगनिमित्तश्च शोकः। इत्येतदर्जुनस्य वचनमाशङ्क्य भगवानाह -- ।।2.13।।



English translation by Swami Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
2.13 As to that, to show how the Self is eternal, the Lord cites an illustration by saying,'...of the embodied,' etc. Yatha, as are, the manner in which; kaumaram, boyhood; yauvanam, youth, middle age; and jara, decrepitude, advance of age; dehinah, to an embodied being, to one who possesses a body (deha), to the Self possessing a body; asmin, in this, present; dehe, body --. These three states are mutually distinct. On these, when the first state gets destroyed the Self does not get destroyed; when the second state comes into being It is not born. What then? It is seen that the Self, which verily remains unchanged, acquires the second and third states. Tatha, similar, indeed; is Its, the unchanging Self's dehantarapraptih, acquisition of another body, a body different from the present one. This is the meaning. Tatra, this being so; dhirah, an intelligent person; na, does not; muhyati, get deluded.



Hindi translation by Sri Harikrishandas Goenka (on Sri Sankaracharya's Sanskrit Commentary)
आत्मा किसके सदृश नित्य है? इसपर दृष्टान्त कहते हैं -- जिसका देह है वह देही है, उस देहीकी अर्थात् शरीरधारी आत्माकी इस -- वर्तमान शरीरमें जैसे कौमार -- बाल्यावस्था, यौवन-तरुणावस्था और जरा -- वृद्धावस्था -- ये परस्पर विलक्षण तीनों अवस्थाएँ होती हैं। इनमें पहली अवस्थाके नाशसे आत्मका नाश नहीं होता और दूसरी अवस्थाकी उत्पत्तिसे आत्माकी उत्पत्ति नहीं होती; तो फिर क्या होता है? कि निर्विकार आत्माको ही दूसरी और तीसरी अवस्थाकी प्राप्ति होती हुई देखी गयी है। वैसे ही निर्विकार आत्माको ही देहान्तरकी प्राप्ति अर्थात् इस शरीरसे दूसरे शरीरका नाम देहान्तर है, उसकी प्राप्ति होती है ( होती हुई-सी दीखती है )। ऐसा होनेसे अर्थात् आत्माको निर्विकार और नित्य समझ लेनेके कारण धीर -- बुद्धिमान् इस विषयमें मोहित नहीं होता -- मोहको प्राप्त नहीं होता ।।2.13।।


Sanskrit commentary by Sri Ramanuja
एकस्मिन् देहे वर्तमानस्य देहिनः कौमारावस्थां विहाय यौवनाद्यवस्थाप्राप्तौ आत्मन स्थिरबुद्ध्या यथा आत्मा नष्ट इति न शोचति, देहाद् देहान्तरप्राप्तौ अपि तथा एव स्थिर आत्मा इति बुद्धिमान् न शोचति। अत आत्मनां नित्यत्वाद् आत्मानो न शोकस्थानम्।एतावद् अत्र कर्तव्यम् आत्मनां नित्यानाम् एव अनादिकर्मवश्यतया तत्तत्कर्मोचितदेहसंस्पृष्टानां तैरेव देहैः बन्धनिवृत्तये शास्त्रीयं स्ववर्णोचितं युद्धादिकम् अनभिसंहितफलं कर्म कुर्वताम् अवर्जनीयतया इन्द्रियैः इन्द्रियार्थस्पर्शाः शीतोष्णादिप्रयुक्तसुखदुःखदा भवन्ति, ते तु यावच्छास्त्रीयकर्मसमाप्ति क्षन्तव्या इति।इमम् अर्थम् अनन्तरम् एव आह -- ।।2.13।।



English translation by Swami Adidevananda (on Sri Ramanuja's Sanskrit Commentary)
2.13 As the self is eternal, one does not grieve, thinking that the self is lost, when an embodied self living in a body gives up the state of childhood and attains youth and other states. Similarly, the wise men, knowing that the self is eternal, do not grieve, when the self attains a body different from the present body. Hence the selves, being eternal, are not fit objects for grief.This much has to be done here; the eternal selves because of Their being subject ot beginningless Karma become endowed with bodies suited to Their Karmas. To get rid of this bondage (of bodies), embodied beings perform duties like war appropriate to their stations in life with the help of the same bodies in an attitude of detachment from the fruits as prescribed by the scripture. Even to such aspirants, contacts with sense-objects give pleasure and pain, arising from cold, heat and such other things. But these experiences are to be endured till the acts enjoined in the scriptures come to an end.The Lord explains the significance immediately afterwards:


Sanskrit commentary by Sri Vallabhacharya
एवमात्मनामशोच्यतामनुत्पत्त्योपपाद्य देहात्मादीनामशोच्यतामाह -- देहिन इति। लौकिकनिदर्शनेन यथाऽस्मिन्स्थूलदेहे कौमाराद्यवस्थाप्राप्तिस्तथा देहान्तरप्राप्तिरात्मनां नियतेति धीरो न मुह्यति न तत्र शोचति ।।2.13।।


Sanskrit commentary by Sri Madhusudan Saraswati
ननु'देहमात्रं चैतन्यविशिष्टमात्मा' इति लोकायतिकाः। तथाच स्थूलोऽहं गौरोऽहं गच्छामि चेत्यादिप्रत्यक्षप्रतीतानां प्रामाण्यमनपोहितं भविष्यति, यतः कथं देहादात्मनो व्यतिरेकः, व्यतिरेकेऽपि कथं वा जन्मविनाशशून्यत्वं जातो देवदत्तो मृतो देवदत्त इति प्रतीतेर्देहजन्मनाशाभ्यां सहात्मनोऽपि जन्मविनाशोपपत्तेरित्याशङ्क्याह -- देहाः सर्वे भूतभविष्यवर्तमाना जगन्मण्डलवर्तिनोऽस्य सन्तीति देही। एकस्यैव विभुत्वेन सर्वदेहयोगित्वात्सर्वत्र चेष्टोपपत्तेर्न प्रतिदेहमात्मभेदे प्रमाणमस्तीति सूचयितुमेकवचनम्। सर्वे वयमिति बहुवचनं तु पूर्वत्रदेहभेदानुवृत्त्या न त्वात्मभेदाभिप्रायेणेति न दोषः। तस्य देहिन एकस्यैव सतोऽस्मिन्वर्तमाने देहे यथा कौमारं यौवनं जरेत्यवस्थात्रयं परस्परविरुद्धं भवति नतु तद्भेदेनात्मभेदः, यएवाहं बाल्ये पितरावन्वभूवं सएवाहं वार्धके प्रणप्तृ़ननुभवामीति दृढतरप्रत्यभिज्ञानात्, अन्यनिष्ठसंस्कारस्य चान्यत्रानुसन्धानाजनकत्वात्, तथा तेनैव प्रकारेणाविकृतस्यैव सत आत्मनो देहान्तरप्राप्तिरेतस्माद्देहादत्यन्तविलक्षणदेहप्राप्तिः स्वप्ने योगैश्वर्ये च तद्देहभेदानुसन्धानेऽपि स एवाहमिति प्रत्यभिज्ञानात्। तथाच यदि देह एवात्मा भवेत्तदा कौमारादिभेदेन देहे भिद्यमाने प्रतिसन्धानं न स्यात्, अथतु कौमाराद्यवस्थानामत्यन्तवैलक्षण्येऽप्यवस्थावतो देहस्य'यावत्प्रत्यभिज्ञं वस्तुस्थितिः' इति न्यायेनैक्यं ब्रूयात्तदापि स्वप्नयोगैश्वर्ययोर्देहधर्मभेदे प्रतिसन्धानं न स्यादित्युभयोदाहरणम्। अतो मरुमरीचिकादावुदकादिबुद्धेरिव स्थूलोऽहमित्यादिबुद्धेरपि भ्रमत्वमवश्यमभ्युपेयम्, बाधस्योभयत्रापि तुल्यत्वात्। एतच्च'न जायते' इत्यादौ प्रपञ्चयिष्यते। एतेन देहाद्व्यतिरिक्तो देहेन सहोत्पद्यते विनश्यति चेति पक्षोऽपि प्रत्युक्तः। तत्रावस्थाभेदे प्रत्यभिज्ञोपपत्तावपि धर्मिणो देहस्य भेदे प्रत्यभिज्ञानुपपत्तेः। अथवा यथा कौमाराद्यवस्थाप्राप्तिरविकृतस्यात्मन एकस्यैव तथा देहान्तर प्राप्तिरेतस्माद्देहादुत्क्रान्तौ। तत्र स एवाहमिति प्रत्यभिज्ञानाभावेऽपि जातमात्रस्य हर्षशोकभयादिसंप्रतिपत्तेः पूर्वसंस्कारजन्याया दर्शनात्। अन्यथा स्तनपानादौ प्रवृत्तिर्न स्यात्। तस्या इष्टसाधनतादिज्ञानजन्यत्वस्यादृष्टमात्रजन्यत्वस्य चाभ्युपगमात्। तथाच पूर्वापरदेहयोरात्मैक्यसिद्धिः। अन्यथा कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गादित्यन्यत्र विस्तरः। कृतयोः पुण्यपापयोर्भोगमन्तरेण नाशः कृतनाशः, अकृतयोः पुण्यपापयोरकस्मात्फलदातृत्वमकृताभ्यागमः। अथवा देहिन एकस्यैव तव यथा क्रमेण देहावस्थोत्पत्तिविनाशयोर्न भेदः नित्यत्वात्, तथा युगपत्सर्वदेहान्तरप्राप्तिरपि तवैकस्यैव विभुत्वात्, मध्यमपरिमाणत्वे सावयवत्वेन नित्यत्वायोगात्, अणुत्वे सकलदेहव्यापिसुखाद्यनुपलब्धिप्रसङ्गात्, विभुत्वे निश्चिते सर्वत्र दृष्टकार्यत्वात्सर्वशरीरेष्वेक एवात्मा त्वमिति निश्चितोऽर्थः। तत्रैवंसति वध्यघातकभेदकल्पनया त्वमधीरत्वान्मुह्यसि धीरस्तु विद्वान्न मुह्यति, अहमेषां हन्ता एते मम वध्या इति भेददर्शनाभावात्। तथाच विवादगोचरापन्नाः सर्वे देहा एकभोक्तृकाः देहत्वात्त्वद्देहवत् इति। श्रुतिरपि'एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा' इत्यादि। एतेन यदाहुः'देहमात्रमात्मा' इति चार्वाकाः,'इन्द्रियाणि मनः प्राणश्च' इति तदेकदेशिनः,'क्षणिकं विज्ञानम्' इति सौगताः,'देहातिरिक्तः स्थिरो देहपरिमाणः' इति दिगम्बराः,'मध्यमपरिमाणस्य नित्यत्वानुपपत्तेः नित्योऽणुः' इत्येकदेशिनः, तत्सर्वमपाकृतं भवति नित्यत्वविभुत्वस्थापनात् ।।2.13।।


Sanskrit commentary by Sri Madhvacharya
देहिनो भावे एतद्भवति, तदेवासिद्धमिति चेत्, न; देहिनोऽस्मिन्। यथा कौमारादिशरीरभेदेऽपि देही तदीक्षिता सिद्धः, एवं देहान्तरप्राप्तावपि, ईक्षितृत्वात्। न हि जडस्य शरीरस्य कौमाराद्यनुभवः सम्भवति, मृतस्यादर्शनात्। मृतस्य वाय्वाद्यपगमादनुभवाभावः।'अहं मनुष्यः' इत्याद्यनुभवाच्चैतत्सिद्धमिति चेत्, न; सत्येवाविशेषे देहे सुप्त्यादौ ज्ञानादिविशेषादर्शनात्।समश्चाभिमानो मनसि काष्ठादिवच्च। श्रुतेश्च। प्रामाण्यं च प्रत्यक्षादिवत्। न च बौद्धादिवत्, अपौरुषेयत्वात्। न ह्यपौरुषेये पौरुषेयाज्ञानादयः कल्पयितुं शक्याः। विना च कस्यचिद्वाक्यस्यापौरुषेयत्वं, न सर्वसमयाभिमतधर्मादिसिद्धिः।यश्च तौ नाङ्गीकुरुते, नासौ समयी; अप्रयोजकत्वात्। मास्तु धर्मो निरूप्यत्वादिति चेत्, न; सर्वाभिमतस्य प्रमाणं विना निषेद्धुमशक्यत्वात्। न च सिद्धिरप्रमाणकस्येति चेत्, न; सर्वाभिमतेरेव प्रमाणत्वात्, अन्यथा सर्ववाचनिकव्यवहारासिद्धेश्च।न च मया श्रुतमिति तव ज्ञातुं शक्यम्, अन्यथा वा प्रत्युत्तरं स्यात्, भ्रान्तिर्वा तव स्यात्, सर्वदुःखकारणत्वं वा स्यात्, एको वाऽन्यथा स्यात्। रचितत्वे च धर्मप्रमाणस्य कर्तुरज्ञानादिदोषशङ्का स्यात्। न चादोषत्वं स्ववाक्येनैव सिद्ध्यति। न च येनकेनचिदपौरुषेयमित्युक्तमुक्तवाक्यसमम्, अनादिकालपरिग्रहसिद्धत्वात्।अतः प्रामाण्यं श्रुतेः। अतः कुतर्कैर्धीरस्तत्र न मुह्यति। अथवा जीवनाशं देहनाशं वा अपेक्ष्य शोकः। न जीवनाशं, नित्यत्वादित्याह -- न त्वेवेति। नापि देहनाशमित्याहदेहिन इति। यथा कौमारादिदेहहानेन जरादिप्राप्तावशोकः, एवं जीर्णादिदेहहानेन देहान्तरप्राप्तावपि ।।2.13।।

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